केंचुल / शालिग्राम
लड़के ने जम्भाई ली, और पच से थूक फेंका।...
जी मचल रहा है-कच्ची नींद में ही बुढ्ढे ने उसे जगा दिया। आखिर इतनी जल्दबाजी क्या थी?....चूल्हा-चौका, चाय-पानी, केतली-गिलास, चम्मच-प्लेट, दुकान-दौरी.... अंट-संटः सब कुछ तो इसी छोकरे के सिर रहता है तो फिर यह गालियाँ?.... "स्साले को बाप की गद्दी मिल गयी है-गद्दी! सिंहासन बतीसी... नाना की जागीर आ-ही-ही-ही....खाकर मुसंडा बना सोया रहता है-कुम्भकरण की नींद-जैसा.... कोई फिकर नहीं- चूल्हे में आग पड़ी या न पड़ी, चाय का पानी गर्म हुआ या न हुआ-जरा भी परवाह नहीं।.... यह नहीं सोचता कि ग्राहक की अगात गिर गयी तो साले दिन भर बताशे तोड़ते रह जाएँगे।
लड़के को बुढ्ढे का यह बड़बड़ाना अच्छा नहीं लगा। उसे गुस्सा चढ़ गया, जैसे वह एक झटके में बन्दर की तरह उछल कर बुड्ढे की छाती पर चढ़ जाय और उसका गला दबाते हुए सारा काम तमाम कर दे.... भले जी का जंजाल टल जायेगा-हमेशा खें-खें-खूँ-खूँ दमे की बीमारी है कि लड़के का सर दर्द। भले वह चुपचाप अंगीठी के पास बैठा खाँसता रहे- चिलमची को बलगम से भरता रहे .....गुड़गुड़ी दम भर मुँह लगाता रहे-लड़का तो है ही उसका बंधुआ, चिलम में आग डालनेवाला, चाय की दुकान चलानेवाला और ठीक समय पर भोजन खिलाने वाला ईमानदार नौकर।
वह स्वयं इन सारी बातों को जानता है... दुकान चलाने का सारा भार उसी के सिर है किन्तु रात भर रामलीला देखने के कारण ही तो उसे जगने में देर हो गई। खरदूषण वध होते-होते सुबह का तारा निकल आया था और सभी की आँखें भारी हो गई थीं। रामलीला कम्पनी के मोटे महंत जी तो परदे के पीछे खाट पर लेटने चले गये थे। लड़के की इच्छा हुई थी कि झाँककर वह पीछे देखे कि खरदूषण का पाट करनेवाला आदमी कैसा होता है? लेकिन देख नहीं सका और देखा भी, तो पहचान नहीं पायाः क्योंकि सभी के चेहरे पर तो एक-सा ही लेप लगा हुआ था। भले दुकान में चाय पिलाते वक्त उसके असल रूप का पता चल जाएगा।
लड़का इस बात से थोड़ा आश्वस्त हुआ, लेकिन दूसरे ही क्षण वह नीम की टहनी पर बैठे काले कौए को देख झेंप गया। इस तरह का झेंपना उसे कभी-कभार होता रहता है।
दिन काफी चढ़ गया है सूरज बाँसों ऊपर फ्लावर मिल की चिमनी पर चमकता है। आँखें चौंधियाती हैं। चिमनी से निकलता काला धुँआ उसके दिल को घेरता जा रहा है-एक अजीब-सी दहशत। लड़के ने बेंच पर से उठते हुए नीम और गुलमुहर के विशाल पेड़ पर नजर दौड़ाई। नीम का यह पेड़ दुकान के ठीक ऊपर है और गुलमुहर का सामने। एक से छोटी-छोटी फलियाँ गिरती हैं, और दूसरे से लाल फूलों के गुच्छे झड़ते हैं। नीम की इन फलियों को चुननेवाला कोई नहीं होता है। ये केवल जमीन पर विखरे, आने-जानेवालों के जूते तथा पाँवों के नीचे पिचपिचाते रहते हैं। पर गुलमुहर के फूल तो सुन्दर लगते हैं- बहुत सुन्दर ! लड़का बड़े ही तारतम्य भाव से नीम और गुलमुहर को अपने अन्दर रखते हुए, चापाकल के पास जा, हाथ-मुँह साफ करने लगता है।
सचमुच, आज दुकानदारी का वक्त कटते जा रहा है। चाय-पानी, मूरी- चबेना, कचरी-फुलौरी सभी का प्रबंध उसे ही करना है.... तो फिर वह किसलिए बैठा रहे? लड़के ने झट-पट तेजी के साथ चूल्हा-चौंका, बर्तन-बासन, केतली, और प्यालियों को साफ करते हुए चूल्हे में आग डाली।
दिन चढ़ते-चढ़ते कसवे की हालत बिगड़ने लगती है। हलक सुखानेवाली पछिया हवा का हूहू-ऊऊऊऊऊ बहना..... वे आवरू कर देने वाली चिलचिलाती धूप की धौंक और उसमें बस, ट्रक, तथा छोटे-मोटे वाहनों का चिल्ल-पों। फूस टट्टी के घरों का तो कोई देखना ही नहीं ईंट, खपरैल, पक्कापोश मकान भी इस धूलधुक्कड़ में गुनाहें मुजरिम से बने रहते हैं-कहीं किसी को पनाह नहीं। न सड़क पर दायें और बायें चलने की हिदायत और न बाजार को अपनी सजावट का ही मोह....क्या लटक रहा है-झटक रहा है-चिंता ही किसे? रिक्शे और साइकिल
किसी पियाक की तरह इधर-उधर डगमगाते नजर आते हैं। पूरा का पूरा कसबा पंख कटे परिंदे की तरह हाँफता रहता है। रामलीला स्टेज पर लगी बाँस की डंडियों तथा टंगे हुए आधे-अधूरे परदों का कहीं कोई ठिकाना नहीं, ....यह टूटा, वह गिरा-यह खुला, वह फटा.... कहीं किसी को होश-हवास नहीं कि इन्हें समेटे। आखिर रात भर के जागरण को तो दिन की ही झपकी में बिताना है। अकेले महंत जी किस किस की खबर लें।
चूल्हे पर चाय का पानी खौलने लगा है। लड़के ने तरीके से केतली में दूध डाला और फिर चीनी तथा चाय। लोग बैठे हुए हैं। बुड्ढा अन्दर से खाँसता हुआ बोलता है, 'चीनी कम डालकर एक गिलास चाय लाना रे एएएएए।' लड़के ने बैठे ग्राहक के आगे चाय की प्यालियाँ बढ़ायीं और गिलास बुड्ढे को थमाया ।.... रात में खरदूषण वध होते-होते सब का मन उकता गया था। असल मजा तो तब देखने को आया जबकि लखनलालजी ने छुरी से सूर्पनखा की नाक काट डाली और वह जोर से चिल्ला उठी, 'भाई खरदूषण हो-ओ-ओ-ओ-अहो भाई खरदूषण!' लड़के के अन्दर एक हादसा समा गया,.... 'ओफ री बंदरिया ! तुझे अपने रूप का गुमान था न, मिला न लछमन जी से इनाम आ-ही-ही-ही-ही धत री नकटी।'
ठीक ऐसे ही मिल के ऊपर छोटे पीलर को देख, उसके अन्दर हादसा समा जाता है। फलावर मिल की काली चिमनी के नीचे टीन छज्जी के ऊपर जहाँ गुलमुहर का पेड़ झुका रहता है, ईंट का एक छोटा पीलर है। धूप, बरसात और ठंड में पड़कर उसका रंग मटमैला हो गया है-कजली बैठ गई है, जहाँ-तहाँ गाढ़ा दाग पड़ गया है जिससे उसका रंग बदल गया है। दूर से देखने में वह अजीब-सा मालूम पड़ता है कि कोई बनमानुष बैठा हो। जब कभी लड़के की नजर उस पर पड़ती, वह भयभीत हो उठता है,... 'ओफ री बंदरिया!' ऐसा ही भय उसे कभी- कभार मिल में राय साहब को देखकर होता था ।.... हाथ में मोटी छड़ी, आँखों पर ऐनक और पोपले मुँह वाले राय साहव जब मिल देखने आते तब सबके सब डर से सकपका जाते थे। मिल के बड़े मुंशी के हाथ की कलम हिलने लगती थी। सबके अन्दर आतंक और भय का साया दौड़ जाता था। बस, केवल मशीन का चक्का अपनी शान से ऊपर नीचे घूमता रहता था। लड़का उन्हें ठीक से देख भी नहीं पाता था...
राय साहब! कितने बड़े लोग हैं मिलवाले.... बड़ी-बड़ी चिमनी से भी बड़े लोग; लेकिन उसे केवल उनके हाथ की मोटी छड़ी, आँखों की ऐनक तथा पोपला मुँह ही याद आता रहता है-बराबर।
दुकान की भीड़ छँटते ही, लड़के ने केतली से एक गिलास चाय अपने लिए निकाली और अन्दर बुड्ढे को झाँकते हुए सोचा-गुड़गुड़ी पर चिलम चाहिए.... मौसम में ठंडी नहीं तो क्या? खून में तो ठंडी आ गयी है। उमर की दहलीज, हलक को ताजा रखने को तम्बाकू का धुआँ चाहिए, नहीं तो वह कहीं निर्धूम न हो जाएँ। बुड्ढा हमेशा अँगीठी के पास बैठा अपने अन्दर और बाहर के ताब को बरकरार रखता है..... चिलम और चाय। लड़के ने चाय का गिलास बेंच पर रखते ही चिलम में आग डाली और उसे आगे बढ़ाया, फिर वह लगा चाय पीने। इतने में काली-कलूटी एक लड़की माथे पर कोयले की डलिया उठाये वहाँ पहुँच गयी और लड़के को देखते ही वह अचकचाती हुई बोल उठी, 'अरे बंदरा, तू यहाँ है?' 'कौन पियरिया!'
'आ-ही-ही-ही-ही सिद्धेसरा, तू है सिद्धेसरा?"
सिद्धेसरा और पियरिया ने इस दूसरे को पहचान लिया।
'राय साहब का मिल तुम ने कब छोड़ा?
'क्यों, तुमको इससे मतलब ।'
'अरे यहाँ आकर तू कब से गनीठ बन गया है — चायवाला दुकानदार! आ-ही-ही-ही तू भी अपना खूब रंग बदलता है रे, रंगरेजवा! कभी मटर तो कभी टमाटर।'
'बहुत भटर-भटर करती है छोरी, चुप रह। बताओ तुम अभी यहाँ कहाँ आई हो?'
खाट पर पड़ा-पड़ा वुड्ढा उसके बीच होते सम्भाषण को सुनता और परखता रहा, दोनों के हाव-भाव को तौलता रहा-यह और वह !..... मूरी घुघनी लेने वाला कोई ग्राहक तो नहीं है, यह कलमुहिया! बुड्ढे को दोनों के बीच का सम्भाषण अच्छा नहीं लगा। उसने बात तोड़ने के बहाने लड़के को पुकारते हुए कहा, 'सिद्धआ-ऽऽऽऽऽ सिद्धआऽऽऽ! पछिया तेज हो रही है। देख न, सुबह से ही काला कौआ काँय-काँय करता है। जल्दी हाँडी साफ कर ले, रसोई चढ़ा दे-नहीं तो धुक्कड़ में पड़ जाएगा।
इस बात को सुनते ही काली-कलूटी लड़की बड़े जोर से हँस पड़ी। बुड्ढे को यह हँसी कड़वी लगी। उसका शरीर ऊपर से नीचे तक झनझना गया जैसे बिजली का झटका लगा हो। वह भाँप गया कि हो न हो लड़की उसे उड़ा ले भागे- कलमुहिया! बुड्ढे के चेहरे पर शंकाएँ उतर आयीं। सुबह जैसे काले कौए की आवाज उसके सामने दिन भर साँय-साँय पछिया चलने का आभास देती है वैसे ही लड़के की यह हँसी। बुड्ढे की उत्सुकता और जगी कि आखिर यह लड़की है कौन? बड़ी टर्र-टर्र लड़के से बातें करती है-पूछूँ तो जरा। लेकिन लड़के का लड़की के प्रति खास झुकाव देख बुड्ढे के मन की बात मन में ही रह गयी और वह चुप हो गया।
लड़की ने अपने संगी लड़के से एक गिलास चाय माँगी। लड़के ने झट चाय का गिलास उसके हाथ थमा दिया। लेकिन चाय पीने के बाद जब लड़की बिना पैसे दिये चलने लगी तब लड़के ने फटकार कर कहा, 'पैसे देती जाओ पिपरिया ! यहाँ क्या कोई खैरात बँट रही है? दुकान है दुकान ...... सेठ की धरमसाल्ला नहीं।'
'आ-ही-ही-ही पैसे! आ-ही-ही-ही-पैसे!! कहते हो सेठ का धरमसाल्ला, आज का बनिया और कल का सेठ रे लुचवा! जानता नहीं कि अभी मालगाड़ी के आने में कितनी देर है?..... पसिंजर गाड़ी का इंजन तो कम कोयला गिराता है। देख न, अभी डलिया कितनी खाली पड़ी है। कोयला और चुनूँगी तब न पैसे दूँगी...वस, इतने में तुम फिस्स् बोल दिये-दिल चोर कहीं का, सेठ बनने चला है सेठ! लड़की ने साहस के साथ अपना मुँह जहर बनाते हुए कहा। पर उसने उसका कहना नहीं
माना। लड़के ने उसके कोयले की डलिया छीन ली। लड़की का चेहरा फक रह गया। और वह बिना कुछ कहे-सुने, अपना मुँह नीचे लटकाए वहाँ से चल पड़ी।' तव वुढ्ढे की हँसी फूटी और उसे लगा जैसे उसके गले का सारा बलगम वाहर निकल आया हो-मन हल्का। उसने सोचा, लड़का बड़ा ईमानदार मालूम पड़ता है....चुस्त-चालाक ! बड़े भाग्य से मिला है यह छोकरा ।
फिर उसने खाँसते हुए कहा, 'सिद्ध बेटा! हंडी चढ़ा दे चूल्हे पर। पछिया हवा चलेगी धू-धू धूक्कड़ ।' लड़के ने मन मारते हुए, चूल्हे पर भात की हाँडी चढ़ायी और पीछे घूर कर देखा.... क्या दिल-बन्जर है स्साला, यह बुड्ढा! दुकान का रखवाला, जैसे सव ढोकर साथ ही ले जाएगा.... कौआ बना देखता रहता है हमेशा, सुग्गे की तरह कान पसारे। फिर वह लगा आहिस्ते-आहिस्ते कोयला पसारने ....उसे पियरिया का उदास होता चेहरा बुरी तरह याद आने लगा।
लोकोशेड में ढेर सारे इंजनों की आवाज-सीटी....छक-छक, धक-धक... फिस्स-फोंस-इंजन का आगे-पीछे होना। लड़के-लड़कियों की दौड़ धूप....छीना-झपटी कोयला चुनने की होड़। सिद्धेसरा भी बुढ्ढे की इस दुकान तथा राय साहब की मिल में रहने से पूर्व, इन्हीं आवारों की तरह दिन भर हवा, धूप तथा पानी में लोको शेड तथा रेलवे लाइन के किनारे-किनारे कोयला चुनता रहता था। उसके साथ उसकी हमजोली थी पियरिया.....साथ-साथ घूमनेवाली। एकबार गर्म कोयला उठाते पियरिया का हाथ जल गया था। वह चिल्ला उठी थी- 'उफ्फ! मरी रे मरी रे', हाथ को ऊपर नीचे हिलाती देर तक, दर्द से छटपटाती रही थी। तब सिद्धेसरा ने ही उसके हाथ को अपने हाथ में दबाते हुए हल्का किया था। पियरिया को बहुत आराम मिला था। फिर दूसरा इंजन शेड से बाहर निकला था। उसकी ताँबें की नली से बहते गर्म पानी को देख, पियरिया ऊपर भाग गयी थी और सिद्धेसरा केवल उसे डराने के लिए उसका हाथ खींचता रहा था, काला-काला ड्राइवर मुँह में नारियल की फाँक चवाता हुआ हँस पड़ा था, 'वाह छोकरे! अभी से प्यार की रिहर्सल करता है।' और उसने जोर से इंजन की सीटी बजा दी थी। उस भाग-दौड़ में पियरिया की डलिया इंजन के पास ही छूट गयी थी। तब सिद्धेसरा ही बड़े साहस के साथ उसकी डलिया ले आया था।
पियरिया बहुत खुश हुई थी। उसके होंठों पर हँसी दौड़ आयी थी। ठीक वैसी ही, जैसे रामलीला में राम को देखकर सीता जी मुसकुरा पड़ी थी।
लड़के के अन्दर उसके दिल पर, सीताराम लाल-लाल गुलमुहर के फूल छा जाते हैं-एक बड़ा ही सुन्दर पेड़ः किन्तु नीम की भद-भद गिरती हुई फलियाँ उसके मन को तीता कर देती हैं। लड़का बुड्ढे को गौर से देखने लगता है-वैसे ही जैसे वह फ्लावर मिल के ऊपर वाले पीलर को, और हाथ में मोटी छड़ी लिए, आँखों पर ऐनक डाले, पोपले मुँह वाले राय साहब को देखता रहा था.....।
तलहथ पर सुगबुगाहट होती है। कोयले का स्पर्श उसके हाथ को काला करते जा रहा है। अंजाने, अनदेखे उसके तलहथ के नीचे कोई कोमल कीड़ा तो नहीं दव रहा है.....पुच-पुच, लस-लस मर रहा है-कोई निरीह..... खून बह रहा है, शायद काला खून च-च-च-च-च पियरिया ने इसे बड़े जतन से जमा किया होगा.....फिर तो बेचने पर पैसे मिलते-सौदा-पानी खरीदती....सब कुछ तो इसी में होता। उसका मन लोहे की नली में भरे बारूद की तरह पलीता लगने से पूर्व की स्थिति में आ जाता है। उसे अपने आप पर पछतावा होने लगा ।.... पियरिया के कोयले से बुड्ढे की शान तो बढ़ी। कम से कम उसे कोयले तो नफे में आए। एक गिलास चाय-बाय का क्या मोल?....लड़का दिन भर धू धू पछिया में अन्दर चौंकी पर पड़ा सड़क के किनारे ड्रम से बहते कोलतार की तरह पिघलता रहा।
आज की दोपहर पछिया खूब चली सुबह काला-काला कौआ काँय-काँय बोला था। बुड्ढे की बात ठीक जँची। दिन भर उदासी छायी रही। लड़का सोचता ही रह गया कि वह रात का जागरण दोपहर में गाढ़ी नींद लेकर पूरा करेगा। पर नींद आई ही नहीं, और न रामलीला के मोटे महंत से भेंट हुई जिसने रात में खरदूषण का पाट लिया था। वैसे वह हर रोज दोपहर में चाय पीने दुकान आते ही थे, आज नहीं आये।
गुलमुहर के पेड़ के नीचे रुकी बसें खुलने लगी है। पछिया कम हो गई। खलासी चिल्लाता है, — "बेदलौर ! बेलदौर !! सड़क चालू हो गई.... आइए, जगह लीजिए.... गाड़ी खुल रही है.... पहली गाड़ी-बैजनाथपुर, सौर, चकला, भवटीया तथा सोनवर्षा राज होते हुए बेलदौर बाजार।"
पड़ाव पर लोगों का शोर बढ़ने लगा है। दूसरी तरफ डिग-डिग-डिग-डिग — "आज रात सीता हरण है... भाइयो ! आज रात सीता हरण है.... जरूर देखिए — चार आने का टिकट.... सीता हरण, सीता हरण !" ढोलक पर डिग-डिग-डिग-डिग रामलीला का एलान हो रहा है। लड़के के दिल पर चोट पड़ती है.... डिग-डिग-डिग-डिग-सीता हरण ! सीता हरण! रावण सीता मैया को हर कर लंका ले जाएगा।
बसें खुलती हैं — ’गुर्रर-र-र-र-र-र गोंय।’ लड़के का उदास मन धूल के बबूले में लिपट कर चक्रवात बन जाता है — एक वृत्त ! वह आज रात रामलीला देखने नहीं जाएगा....सीता हरण है। राम का विलाप उससे न देखा जाएगा और न सुना ही जाएगा।
गुलमुहर के पेड़ छाये लाल-लाल फूलों के गुच्छे अस्पष्ट होते जा रहे हैं। फ्लावर मिल की चिमनी से उगलता धुँआ भी बन्द दिखाई पड़ता है। एक अजीब - सी खामोशी, बिखरा हुआ सन्नाटा! मिल के फाटक पर दरबान भी नहीं है.... आँय ! लड़के ने बाहर निकलते हुए देखा — अन्दर कुछ लोग इधर-उधर घूमते या खड़े नजर आ रहे हैं। उसकी उत्सुकता बढ़ी — आखिर कोई होनी अनहोनी या रामलीला के गिरे परदे के पीछे, किसी मायावी राक्षस का षडयंत्र तो नहीं चल रहा है?
उसने सशंकित आँखों से अपनी इस दुकान तथा सामने की मिल को बड़े गौर से देखा... कोई ललक या आकर्षण ? नहीं, कुछ तो नहीं। तब उसे पता चला कि मिल वाले राय साहब की मृत्यु हो गयी है — एक हल्का सा संवाद जैसा। फिर भी उसने आँय करते हुए, बीते दिनों को याद किया। गुलमोहर की सघन पत्तियों के ऊपर आकाश और उससे दूर टिमटिमाता कोई एकल तारा....उसकी पियरिया अभी कहाँ होगी?
पेड़ पर चिड़िया चुगुना रही है, साँझ का बसेरा लेने। उसने बड़ी-उदास आँखों से, किन्तु साहस के साथ मिल के ऊपर पुनः अपनी नजर दौड़ाई, तो देखा — वह पीलर जो बनमानुष की आकृति में सदा उसके अन्दर एक भय-सा छाए हुए था, आज कुछ नहीं, सिर्फ ईंट का बना स्थूल है। लड़के के अन्दर विश्वास जम गया। और वह आहिस्ते आहिस्ते केंचुल बदलते साँप की तरह दुकान को छोड़ आगे सड़क पर निकल पड़ा।