केराबांझी / रोज केरकेट्टा
सूरज आसमान में चढ़ चुका था। लगभग आठ बज रहे थे। लेकिन धूप सू तेज थी। इसलिए दिन सुहाना नहीं लग रहा था। कालीचरण अपने ओसारे पर बैठे थे। आँगन से गुजरनेवाले परयाग बढ़ई को देखा, तो खैनी मलते हुए ओसारे से नीचे उतरे। नीचे परयाग के पास पहुँचे तो परयाग ने 'गोड़लागी काका' कहते हुए हाथ जोहार के लिए आगे बढ़ाया। कालीचरण 'नीके रहो' बोले। फिर बात आगे बढ़ाते हुए कहा, 'धिया-पुता तो घर के सिंगार होते हैं भतीजा ! माय-बाप के बिहाल होने का और कौन सा चिह्न होता है ?' कालीचरण अपने पहले बेटे के चौथे पुत्र के जन्म पर उत्साह प्रदर्शित करते हुए बोल रहे थे। कालीचरण अपने जमाने के अपर पास थे। राजनीति में बहुत रुचि रखते थे। खेती-बारी था और गुटका माचिस की दुकान भी थी।
पढ़े-लिखे दबंग आदमी थे। गुटका के बहाने जवान-नौजवान लड़के दुकान पर आ ही जाते थे। सो वे उन्हें राजनीति भी सिखाते थे। पढ़े-लिखे आदमी की बात कौन काटता ? दिन भर रेडियो से समाचार सुनना उनका शगल था। परयाग सबेरे-सबेरे पकड़ में आ गए थे। न भागते बने न सुनते बने। 'का हुआ काका?' बोल बैठे। अपनी बात को तर्कसंगत बनाते हुए आगे बोले, 'केनेडी, माने ऊ केनेडी, अमेरिका के राष्ट्रपति जोन एफ. केनेडी भी तो अपने माँ-बाप के चौथे बेटे थे। राष्ट्रपति बने थे कि नहीं बने थे? अगर उसके माँ-बाप भी एके-दुगो बाल- बच्चा में फैमिली प्लानिंग करा लेते तो क्या होता ? देश को वैसा उम्दा राष्ट्रपति मिलता? नहीं न? आजकल का पढ़लाहा-लिखलाहा लोग का जानते हैं? घर के अंदर कालीचरण का तीसरा बेटा मनबोध पिता की बातें सुन रहा था। मनबोध और उसका मझला भाई बालधन पढ़े-लिखे तो थे ही, समझदार भी थे। मनबोध पिता की बातों का इशारा समझ रहा था। लेकिन चुप था। तकरार बढ़ाने का उसका इरादा नहीं था। बस अंदर-ही-अंदर कुढ़ रहा था। अपने बड़े भाई लालधन से वह चिढ़ा हुआ रहता था। यह लालधन के विवाह का छठा वर्ष था। इसी में उसकी भाभी बिरसमनी ने यह चौथा बेटा जना था। भौजी बिरसमनी के शरीर में 'हड्डी पर चमड़ी छारल' था। कभी मजाक में अपनी भौजी को मनबोध कहता था, 'माँ-बाप के घर में क्या खाती थी, काटले-छोपले एक पतई मांस नहीं?' यह शुरू-शुरू की बात थी। जैसे-जैसे वह संतानवती होती गई, मनबोध ने उससे बोलना कम कर दिया।
मझले भाई बालधन की शादी को तीन वर्ष हो गए। शादी के दूसरे वर्ष एक बेटी हुई उसकी। बालधन को बाप शुरू से ही 'मझला बुच्चड़' कहा करता था, क्योंकि बेटा एल०आई०सी० का एजेंट हो गया था। उसने अपनी पत्नी हिरामती को समझा लिया था कि उनकी सिर्फ एक संतान बेटा या बेटी होगी। लेकिन लालधन पिता के नक्शे कदम पर चल रहा था। कालीचरण के पाँच बेटे थे। इसे वह ताल ठोंककर अपनी मर्दानगी की सफलता बतलाता था। अब लालधन भी पिता से सिर्फ एक कदम पीछे था।
बालधन और मनबोध गाँव के शिक्षक कल्याण की सोहबत में रहे। यों तो गाँव में हाई स्कूल होने के कारण बहुत से टीचर थे। परंतु कल्याण मास्टर का रुतबा अलग था। वह भी गाँव के थे। उनके सिर से माता-पिता का साया लड़कपन में ही उठ गया था। उन्होंने बड़ी मेहनत और लगन से पढ़ाई की थी। रात को खेत की मेंड़ पर लालटेन जलाकर रखते और आप ढेला फोड़ते। दिन में स्कूल जाते। उनके दो भाई थे प्रेमचंद और आगुर। वे इन्हें भी खेत में खटाते और साथ में स्कूल भी ले जाते। खैर, कल्याण ने बी.ए., बी.एड. किया और गाँव के स्कूल में ही नौकरी लग गई।
पहाड़ों के नीचे के खेत बड़े उपजाऊ होते हैं। पहाड़ियाँ पानी सोखती हैं और धीरे-धीरे नीचे बहाती रहती हैं। इसलिए पहाड़ियों के नीचे अकसर बाँध या तालाब बाँधे जाते हैं। ये तालाब और बाँध खासकर गरमियों में नहाने-तैरने के तो काम आते ही हैं, मवेशियों की प्यास बुझाते और नीचे के खेतों की मिट्टी को भी तर रखते हैं। ऐसे ही अपने तीन खेतों में कल्याण गेहूँ उगाते। साथ में सरसों और सब्जियाँ भी उगाते। अनेक किसानों ने उनकी देखा-देखी गेहूँ उगाना सीख लिया। स्कूल और खेत में बच्चे युवा सब कल्याण की बात मानते। वे बच्चों और लड़कों की
फुटबॉल टीम के साथ खेलते। कालीचरण के दोनों बेटे बालधन और मनबोध भी कल्याण के साथ होते। कालीचरण अपने बेटों को कल्याण के साथ देखता तो उसके तन में आग लग जाती। अब तक वह गाँव का एकमात्र गुजुर्ग और सम्मानित व्यक्ति था। इसलिए जो भी कहता, लोग सुन लेते थे। लेकिन कल्याण ने उसके सुननेवालों की संख्या घटा दी थी। ऐसे आदमी के पीछे लड़के भागें तो कोई भी आदमी उसे बरदाश्त नहीं कर सकता है। सो कल्याण के साथ बालधन और मनबोध को देखता तो कल्याण को अपमानित करने के लिए अपने बेटों से कहता, 'अरे बलवा, मनबोधवा ! कोल्ह के पीछे कितना घूमोगे रे। चलो, घर लौटो। अपना दोकान-दारी सँभालों तो चार पैसा कमाओगे। गाँव-जवार में मान- सम्मान भी पाओगे। नौकरी करके तो नौकरे न रहोगे!' लेकिन बेटों ने पढ़ाई जारी रखी थी। पिता की ललकार बेकार गई थी।
लेकिन लालधन पर इसका असर खूब पड़ा। उसने पढ़ाई छोड़ दी। दुकान सँभाला तो गुटखा और चुइंगम के बहाने युवक और लड़के आ जाते। बस, कालीचरण को दाँव मिल जाता। उन्हें राजनीति पढ़ाते और खूब माँजते। लेकिन तब भी धाक नहीं जमना था, सो नहीं ही जम रहा था।
बालधन के एक संतान वाले निर्णय की भनक कालीचरण को लग गई थी। इसका दोष भी वह कल्याण के सिर मढ़ना चाह रहा था। उसे भड़ास निकालने का अवसर मिल गया। उसने परयाग को सुनाते हुए कहा, 'मेरा पोता भी केनेडी से कम नहीं होगा। राष्ट्रपति बनेगा राष्ट्रपति !'
परयागो ने हुँकारी भरते हुए कहा, 'नहीं काका। आपका पोता तो गांधी बनेगा, गांधी।'
'दुर बुड़बक,' कालीचरण ने कहा, 'मेरा पोता विदेश में चमकेगा कि अइसने रहेगा,' परयागो बोला, 'गलती-सलती माफ काका। बस, बहुत बड़ा आदमी आपका पोता बने। हमारा गाँव उसी से उजियार होगा।'
कालीचरण बोला, 'ई बालधनवा को देखो। एके गो बेटी जनमा के तरना चल रहा है। अरे कोटी-कुकुर से का होगा? कनियो ओइसने लाया है। अरे बहुवा, पूरा समाज, जात-गोतिया तुम्हें नाम धरेगा। केरा बाँझी कहेगा रे। हाँ, केराबांझी कहेगा। बालधन के कहे में मत चलना। बालधन और मनबोध तो कुलबोरन हैं कुलबोरन।'
अभी तक मनबोध पिता की बातें सुन रहा था। बालधन ने मनबोध को मना कर रखा था कि पिता की बातों का जवाब ही नहीं देना है। लेकिन पिता की बातों ने अचानक स्थिति बदल दी थी। घर पर बालधन नहीं था। उनकी अनुपस्थिति में पिता भौजी के लिए ऐसी अशोभनीय बातें कह रहे थे। मनबोध से रहा नहीं गया। वह बाहर निकल आया। बहुत व्यथित था, पिता की बोलियों से। उसने कहा, 'पिता जी, अपनी बहू के लिए ऐसा कहते हुए आप शर्म करें। आपका बेटा भी अभी घर पर नहीं है।'
बाप बोला, 'तो जा, उसे भी बुला ला। वह होगा भी तो क्या कर लेगा मेरा हाँ! क्या कर लेगा मेरा ?'
मनबोध परयागो के सामने बात बढ़ाना नहीं चाह रहा था। उसने कहा, 'भौजी पढ़ी-लिखी है। कुछ तो खयाल करो। क्या सोचेगी आपके बारे में?' परयागो मनबोध को जवाब देते देख खिसक गया।
कालीचरण, 'क्या सोचेगी ?
मनबोध, 'क्या सोचेगी ? पढ़े-लिखे घर में भी पढ़ी-लिखी औरत की इज्जत नहीं है।'
कालीचरण का इतना सुनना था कि गुस्से से लाल हो गया। मुँह से झाग निकलने लगा। चीखते हुए बोला, 'मेरी बिल्ली हम हीं से म्याऊँ ? तुम सबको मैंने पैदा किया है, मैंने। तुम लोगों ने मुझे पैदा नहीं किया है। मुझे मत सिखाओ?'
मनबोध, 'मैं सिखा नहीं रहा हूँ। लेकिन दादा-भौजी के लिए जो आप बोल रहे हैं वह उचित नहीं।'
कालीचरण, 'मर साले। दो किताब पढ़ गया तो भौजी के लिए दिल मचल गया। मैं तेरा बाप अनपढ़ नहीं हूँ। मैं भी उस जमाने का मिडिल पढ़ा हूँ। दुनिया देखा हूँ। समझे ?'
मनबोध के कानों में मानो पिघला शीशा उंड़ेल दिया गया हो। उसने सामने से हट जाना ही उचित समझा। कोई पिता बेटे के लिए इतनी गंदी बातें कह सकता है, यह उसने कभी सोचा नहीं था। कालीचरण के क्रोध और हठ के बादल से सच का सूरज ओझल हो गया। काले बादलों ने आखिर सूर्य को ढक ही लिया। पिता की लपलपाती जीभ लपलपाती रही। बेटे को सामने से हटते देखा तो और शेर हो गया। अंड-बंड बकने लगा। जब कालीचरण बोलते-बोलते थक गया तो दालान में रखी चारपाई पर आकर बैठ गया। एक टाँग पर दूसरी टाँग चढ़ाकर बैठे कालीचरण ने जाँघ पर हथेली मारकर कहना शुरू किया, 'न तो बेटे पढ़ते, न मेरे कुल का रिवाज बदलता। दो टके का लड़का मुझे बताने चला है कि क्या अच्छा है, क्या बुरा। बेहुदा कहीं का। सब उसी कोल्ह के कारण। कल्याण कोल्ह ने मेरे बच्चों को बिगाड़ दिया है।'
ससुर के चारपाई पर बैठने की आवाज बहू ने सुनी। वह निकलकर दरवाजे के चौखट पर खड़ी हो गई। कालीचरण ने इसे देखा नहीं। वह अपनी रौ में बोले जा रहा था। अचानक उसकी नजर बहू पर पड़ी तो वह बौखला गया। उसे बगल झाँकना भी मुश्किल हो गया। माथे पर से पसीना चूने लगा टप-टप। आज तक जब भी कालीचरण गुस्से में होता था तो आसपास की औरतें तक दुबक जाती थीं। लेकिन ये बहू उसके सामने आकर खड़ी है। एकटक ससुर को देखे जा रही है। कालीचरण के गुस्से की आग पर घड़ों पानी पड़ गया। उसके मुँह से आवाज तक नहीं फूटने लगी।
बालधन की बहू ने ससुर की स्थिति को समझा। वह ससुर को देखे जा रही थी। उसकी आँखों में क्रोध नहीं था। घृणा भी नहीं थी। पर दृढ़ निश्चय था। पलभर की चुप्पी दोनों के बीच छाई रही। तब बहू ने शांत किंतु दृढ़ शब्दों में कहा, 'आप मुझे केराबांझी कह सकते हैं। क्योंकि हमने, हाँ हम पति-पत्नी ने मिलकर इसे स्वीकारा है।'
कालीचरण ने इसे अपनी हेठी समझी। उसने गुर्राकर कहा, 'मुझे मत समझाओ। तुम औरत हो तो औरत की तरह रहो। मेरे सामने बेटी जबान नहीं खोल सकती है। तुम तो बहू हो। बहू की तरह रहो।'
'मैं बहू हूँ और बहू की मर्यादा का पालन भी कर रही हूँ। बस, मुझे कहना है कि केला का एक खाँधी लगता है। उसमें ड़ेढ-सौ, दो सौ फल लगते हैं। उसी से चरणामृत बनता है। उसी से व्रती व्रत तोड़ता है। भूखा पेट भरता है। न उसमें कीड़े लगते, न वह सड़ता है।'
कालीचरण, 'बस कर। अपना ज्ञान अपने बाप को सुना।
'तो आप मेरे ससुर हैं। मुझे बस यही कहना है कि मैं केराबांझी ही रहूँगी। चाहे कोई कुछ भी कह ले। आगे कुछ कहना है आपको ?'
'नहीं,' कालीचरण ने कहा और दालान से उतरकर चल दिया पूरब की ओर।
सूरज सिर के ऊपर आ गया था।