कैली कामिनी और अनीता / अमृता प्रीतम / पृष्ठ 1
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दो शब्द
अनीता ‘एक थी अनीता’ उपन्यास की नायिका है, जिसके पैरों के सामने रास्ता नहीं, लेकिन वह चल देती है- कोई आवाज़ है, जाने कहाँ से उठती है और उसे बुलाती है...
कैली ‘रंग का पत्ता’ उपन्यास की नायिका है, एक गाँव की लड़की, और कामिनी ‘दिल्ली की गलियां’ उपन्यास की नायिका है, एक पत्रकार। इनके हालात में कोई समानता नहीं, वे बरसों की जिन संकरी गलियों में गुज़रती है, वे भी एक दूसरी की पहचान में नहीं आ सकतीं। लेकिन एक चेतना है, जो इन तीनों के अन्तर में एक-सी पनपती है...
वक्त कब और कैसे एक करवट लेता है, यह तीन अलग-अलग वार्ताओं की अलग-अलग ज़मीन की बात है। लेकिन इन तीनों का एक साथ प्रकाशन, तीन अलग-अलग दिशाओं से उस एक व्यथा को समझ लेने जैसा है, जो एक ऊर्जा बनकर उसके प्राणों में धड़कती है...
मुहब्बत से बड़ा जादू इस दुनिया में नहीं है। उसी जादू से लिपटा हुआ एक किरदार कहता है- ‘‘इस गाँव में जहाँ कैली बसती है, मेरी मुहब्बत की लाज बसती है’’ और इसी जादू में लिपटा हुआ कोई और किरदार कहता है- ‘‘प्रिय तुम्हें देखा तो मैंने खुदा की ज़ात पहचान ली....’’
जब कहीं कोई आवाज़ नहीं, किसी को अहसास होता है कि कुछ एक क्षण थे, कुछेक स्पर्श, और कुछेक कम्पन, और वे सब किसी भाषा के अक्षर थे...
कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जो भविष्य से टूटे हुए होते हैं, फिर भी साँसों में बस जाते हैं, प्राणों में धड़कते हैं...
शमा की तरह जलती-पिघलती वे सोचती है- ‘‘यही तो आग की एक लपट है, जिसकी रोशनी में खुद को पहचानना है’’...
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