कैली कामिनी और अनीता / अमृता प्रीतम / पृष्ठ 2

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कैली

‘‘यह क्या कर रही है कैली ?’’ मितरो भरे हुए मटके को झुककर उठाने लगी थी, जिस समय उसने परे खाल पर बैठी हुई कैली को देखा। मटका उसने कुएँ की जगत पर ही रहने दिया और दबे पाँव कैली की पीठ की ओर आ खड़ी हुई। मितरो के दिल में था कि वह पीछे की ओर जाकर कैली की आँखें बंद कर लेगी और जब तक वह ‘मितरो-सड़ितरो’ कह-कहकर थक न जाएगी, वह मुंह से नहीं बोलेगी। परन्तु जब मितरो की भारी आँखें देखीं, तो अपने आप ही पूछा गया, ‘‘यह क्या कर रही है कैली ?’’


कैली ने उसी तरह भीगे हुए चेहरे से मितरो की ओर देखा और फिर आहिस्ता से कहा,‘‘रोटी पर से चीटियाँ उतार रही हूँ।’’

मितरों ने अपनी चुनरी के किनारे से कैली का मुंह पोंछा और हंसती हुई कहने लगी,‘‘ कभी तो सीधे मुंह बात किया कर। उलटे ही जवाब देती रहेगी !’’


कैली चुप हो गई। फिर मितरो ने अपने-आप ही अनुमान लगाया और पूछा, ‘‘लखेशाह वाली बात बनी है कि नहीं ?’’

कैली ने वक्र दृष्टि से मितरो की ओर देखा और कहने लगी, ‘‘बात बन गई है अरी बैरन, बन गई है ! तुम अपनी काली ज़बान से यही तो माँग रही थीं।’’


‘‘जा री पगली ! सारी उम्र राज करना और साथ ही मेरी काली ज़बान को असीसें दिया करना।’’

‘‘असीसें न दूंगी कुछ और... लगा था मेरे मुंह से कुछ निकलने...’’

‘‘निकाल ले जो तूने मुंह से निकालना है, ऐसी दिल की भड़ास दिल में ही क्यों रखती है ?’’

‘‘मैंने क्या कहना है !’’ कैली ने उच्छ्वास लिया और फिर कहा, ‘‘माँ कहती है, लड़कियाँ कुछ नहीं मुंह से बोलतीं, उनकी तो जन्म से ही ज़बान कट जाती है।’’


‘‘अरी रहने दे नखरे, इसी कटी हुई ज़बान से तू एक चीज़ मांगेगी तो बत्तीस हाज़िर होंगी।’’

‘‘तेरा दिल काहे का बना हुआ है मितरो ? लोहे का या पत्थर का ?’’ ‘‘सोने का।’’

‘‘सच कहती है मितरो तेरा दिल सोने का है।’’ कैली ने एक नज़र मितरो की ओर देखा, जैसे वह नज़र से कसौटी पर सोने को परखने लगी हो। फिर कहने लगी, ‘‘तभी तो तू सोना बेचने पर आ गई। बेच दे इस दिल को, वह ‘चालीस चक वाला बनिया अच्छा मूल्य डालेगा।’’


‘‘मैं तुम्हारी तनज़ को समझती हूँ कैली !’’ मितरो ने एक तिनका पकड़कर दांतों से काटा और फिर ज़बान से परे थूकती हुई कहने लगी, ‘‘यदि तुम्हें उस ‘रंगड़’ से इतनी सहानुभूति है, तो तू उसका घर बसा दे न !’’

‘‘मैंने भीलनी की तरह तेरे जूठे बेर तो नहीं खाने चंदरी ! तुझे शर्म नहीं आती ऐसा कहती है !’’

‘‘हां, कैली जिसके घर दाने उसके पगले भी सियाने ! अब कल को तूने लखेशाह की शाहनी बन जाना है, मेरे जैसी को तो तूने बेशर्म ही कहना है। तू इज़्ज़तवाली, आबरूवाली....’’

‘‘निगोड़ी...’’


‘‘तू तो चाहती है कि मैं उस रामगढिये के घर जाकर सारी उम्र बुरादा जलाती रहूं।’’

‘‘यह बुरादा नहीं तेरे से जलना; तुम कटोरे में गोंद घोल लिया करना, और गोंद से उस बनिये के पैसे जोड़ती रहना...’’

‘‘अब तुझे बातें बहुत आ गई हैं कैली ! तुझे पैसे जुड़े-जुड़ाए जो मिल गए !’’

‘‘अगर इतनी जलन है मितरो, तू उस लखेशाह के साथ तू ही फेरे ले ले !’’

‘‘अरी रहने दो बातें, हाथ में आई हुई गद्दी कौन छोड़ता है !’’

‘‘चल फिर यह भी अज़माकर देख ले मितरो। तू मेरा मरी का मुंह देखे यदि...’’ मितरो ने जल्दी से कैली के मुंह पर हाथ रख दिया, और कहने लगी,


‘‘मैं तेरा जीती का मुंह ही देखूंगी- शाहनी बनी का मुंह। अच्छा यह बता, भला मासी ने तुझे अभी दिखाया है कि नहीं ?’’

‘‘देख आई हूं, जी भर आई हूं मुंह देखकर।’’

‘‘रानी को पसन्द नहीं आया लगता ?’’

‘‘अच्छा था, खमीरी रोटी जैसा। हजामत पता नहीं कौन-से नाई से बनवाकर आया था। छोटे-मोटे बाल इस तरह दिखाई देते थे, जैसे रोटी को चीटिंयां चढ़ी हुई हो !’’


‘‘अच्छा तभी रो रही थी तू, और कह रही कि मैं रोटी पर से चीटिंयां उतार रही हूं ! अरी, चुपड़ी हुई भी और दो-दो भी ! चीटिंयां झाड़कर रोटी तो मिल जाएगी, पर उसको किसी ने क्या करना –उस बांके को जिसके घर रोटी भी न हो।’’

‘‘सच मितरो मेरी माँ के घर तो तुम्हें पैदा होना चाहिए था मैं तो वहां ऐसे ही गलती से पैदा हो गई।’’

‘‘मासी भी तो यही कहती थी न ?’’


‘‘हां, यही कह रही थी, तेरेवाली बात। कह रही थी- मर्द का मुंह नहीं देखते, मर्द की जेब देखते हैं।’’

‘‘मेरी मासी ने दुनिया देखी हुई है।’’


‘‘तुम्हें इतनी ही दिलों की कदर है तो मुँह फाड़कर ‘न’ कर दो।’’ ‘‘फिर जोर पर ‘न’ करूं ? यदि तेरी तरह मेरा भी कोई चाहने वाला होता, मैं मुंह फाड़कर ‘न’ कर देती।’’

‘‘इतना ही करने पर आई है तो ढूंढ ले न एक आशिक।’’

‘‘आशिक तो परमात्मा का दर्शन है मितरो ! न मिले तो बारह वर्ष तपस्या करने पर भी नहीं मिलता।’’ कैली की आँखें भर आईं।


मितरो ने सिर नीचा कर लिया, फिर आहिस्ता-आहिस्ता एक तिनके को दांतों से तोड़ती हुई कहने लगी, ‘‘मैं झूठ नहीं कहती कैली ! तू और ‘बख्शा’ एक ही मिट्टी के बने हुए हो।’’

‘‘शुकर है कि आज तूने इसका नाम लेकर बात की है, नहीं तो तू नाज़िनीं हमेशा उसे ‘रंगड़’ कहकर ही बात करती है। अच्छा, क्या कहने लगी थी कि मैं और बख्शा एक ही मिट्टी के बने हुए हैं...’’

‘‘यही कि तुम दोनों को मनुष्यों में ईश्वर दिखाई देता है।’’


‘‘मुझे अभी तक तो किसी में दिखाई दिया नहीं, पर मेरे अन्दर ऐसा महसूस होता है कि यदि ईश्वर कहीं दिखाई दे सकता है तो बस इस चेहरे में से, जिसे मनुष्य प्यार करता है।’’ कैली ने आंखें बन्द कर लीं, फिर चौंककर मितरो के चेहरे की ओर देखने लगी, ‘‘तुमने बहुत बड़े कर्म किए हैं मितरो, जो तेरे चेहरे में से किसी को भगवान दिखाई देता है !’’

‘‘उसे दिखाई देता होगा, मुझे तो दिखाई नहीं देता।’’ मितरो ने कहा और हंसने लगी...


कैली मितरो की ओर देखती रही। लगा-जाने इस हंसी से मितरो का मुंह टेढ़ा हो गया था। भरे हुए मन से कहने लगी। ‘‘अरी निकर्मी, तेरी आंखें हैं कि झाड़ियों में लगे हुए डेले, जो तुझे उसमें से कुछ दिखाई नहीं देता ?’’

‘‘न उसका घर न बाहर, कैली ! वह तो आप चाचे की रोटियां तोड़ता है। कल को मुझे कहां से खिलाएगा ?’’

‘‘बावरी तू उसकी तिजोरियां देखती है, उसके हाथों की कला नहीं देखती !’’


‘‘इतनी क्या कला है कैली ! एक आरी से वह लकड़ियां चीर-चीरकर कौन-से महल खड़े कर लेगा ? यही तीन रूपये रोज के ही तो कमाने हैं उसमें सारी उमर ! साथ ही न जात, न बिरादरी। मैं खत्रियों की लड़की, वह बढ़इयों का बेटा ! उधर माँ-बाप से झूठी हो जाऊं, झूठी क्या, सारी जिंदगी मिलने से भी जाऊं, और उधर...’’ मितरो चुप हो गई।

‘‘और उधर बुरादा जलाती रहूं !...कह दे न जो कहने लगी थी।’’ कैली ने रूककर कहा।


‘‘तू मज़ाक तो करती है कैली ! पर रोटी मैंने दिल का आटा गूंधकर तो नहीं पकानी !’’


‘‘दिल का आटा तूने काहे को गूंधना है मितरो। दिमाग को चीरकर दिमाग को चीरकर उसका सालन बनाना।’’

‘‘न इतनी चोटे मार कैली-सड़ैली ! मुझे भी छूत का रोग लग जाएगा।’’ और फिर निमानी-सी होकर मितरो बोली, ‘‘वह निगोड़ा बख्शा जब ऐसी बातें करता है, धर्म से कई बार मेरा दिल घिरने लगता है...’’


‘‘नहीं, नहीं कुछ नहीं होता तेरे दिल को यह भी कोई रक्त-मांस का दिल है, जो घिरने लगे ! यह तो सोने का दिल है- इसे छूत का रोग नहीं लग सकता। यह जूठा भी नहीं होता, धो-धोकर उस बनिये को जा देना !’’

मितरो की हंसी छूट गई, ‘‘अच्छा कैली ! तेरा और बख्शे का जोड़ा कैसा रहे ! अगर मैं बख्शा तुझे सौंप दूं, तुम दोनों मिलकर हवा में एक महल डाल लेना, रात को सिर के नीचे चांद का तकिया रख लेना और दिन को सूरज का ! आशिकों को भूख तो लगती नहीं !’’


‘‘तू पागल है मितरो ! यह भी कोई ज़र-ज़मीन है जो तू मेरे आगे बेच देगी ? प्यार तो खुदा के दर से मिलता है, और इसके लिए प्राणों की बोली देनी होती है।’’


‘‘फिर तू लखेशाह कैसे मिल गई ? तू तो किसी फटे हाल आशिक को मिलनी चाहिए थी।’’

‘‘यह मेरी किस्मत मितरो ! इस जन्म में तो मेरे मां-बाप ने लखेशाह का कुछ नहीं देना था, पर शायद पिछले जन्म में कुछ देना था, उसने ब्याज-दर-ब्याज मेरे मां-बाप के किले से गाय न खोल ली !’’ और कैली को रूआई आ गई।