कैली कामिनी और अनीता / अमृता प्रीतम / पृष्ठ 5
चार
एक तो काले का रंग कुदरती काला था, पर उसका बहुत-सा रूप उसकी ज़िदों ने बिगाड़ा हुआ था। आज भी कैली इस काले के हाथों परेशान हो रही थी, जिस समय उसके मायके से एक कारिन्दा कैली के लिए एक पत्र लेकर आया।
कैली ने उसे बैठने के लिए पटरी दी और मां-बाप की कुशल-क्षेम पूछते छोटी लड़की की कंघी करने लगी। पत्र पढ़ने की जाने उसे कोई जल्दी नहीं थी। इससे पहले भी कैली को अब्बासपुर से मां-बाप के दो संदेश आ चुके थे, पर वह जब से विवाह का पहला फेरा डालके आई थी, पुनः गाँव में नहीं गई थी।
‘‘कैली बेटी ! मां तो बड़ी उदास हुई है, तूने कैसा पत्थर का दिल कर लिया है !’’
कारिन्दे ने पिन्नियों की पिटारी कैली के आगे रख दी और रूमाल के कोने में बँधा हुआ पत्र खोलने लगा।
और फिर कारिन्दे ने कैली को उसकी प्रिय सहेली का वास्ता दिया,
‘‘पर इस बार तो तुझे जाना ही होगा बेटी। ये घरों के काम-काज तो चलते ही रहते हैं। मितरो का ब्याह जुड़ गया है। कल भट्टी रखी जानी है यह लो पत्र, मितरो ने भी इस पर दो अक्षर लिखे हुए हैं, और मुझे अलग से मिलकर कहती थी- कैली मेरे थोड़े लिखे को बहुत समझे और जल्दी आने की करे।’’
‘‘मितरो का ब्याह ! किसके साथ ?’’ कैली चौंक पड़ी और उसने बांह आगे कर कारिन्दे के हाथ से पत्र ले लिया।
‘‘वही चालीस चकवालों के लड़के के साथ-काफी दिनों से बातचीत चल रही थी।’’
कारिन्दे ने जब यह कहा, कैली का सारा उत्साह खड़ा हो गया। उसने बंद का बंद पत्र मूढ़े के पास रख दिया, और बायें हाथ की उंगली पर लड़की के बालों को लपेटती हुई दायें हाथ से उसकी उलझनों को संवारने लगी।
कारिन्दा जब लस्सी पानी पीकर बाहर की बैठक में लखेशाह के मुनीम के पास जा बैठा, कैली ने एक नज़र से पत्र पढ़ा और फिर अपने काम में लग गई। वह लड़की को कंघी कर चुकी थी, बड़े को नहलाकर उसके कपड़े बदल चुकी थी, और अब उसने कुछ दुलार से और कुछ झिड़क से काले की बांह पकड ली,
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