कोरस / अशोक अग्रवाल
फूँ ... फूँ... की हलकी ध्वनि के बीच चूल्हे से धुआँ उठा । छिपट्टियों के ढेर के नीचे सुगबुगा रही आग की लपटों को चितसिंह पूरी ताकत से सतह पर खींचने में जुट गया ।
उसकी पीठ के पीछे आसमान में तैरता लाल गोला धीरे-धीरे पानी में डूबता हुआ ठहर गया । ऊँचाई से कतारों में उतरते सफ़ेद बगुलों के छोटे-छोटे समूह टापुओं पर छितरा गए । कुछ बगुले पानी की सतह के ऊपर पंख फड़फड़ाते, कुछ डुबकियाँ लगाते और फिर गोलाई में उड़ान भरते दूसरे टापू पर पहुँच रहे थे ।
चितसिंह पीठ घुमाता तो भी उसे यह सब दिखाई नहीं देता । उसकी आँखें तो दस गज की दूरी पर स्थित उस दरख़्त से अटकी थीं, जिसकी गाढ़ी परछाई के नीचे मेहरदीन उकडूँ बैठा था । तीन दिन से वह इसी तरह बिना हिले-डुले दो ईंटों के आसन पर टिका है । सात-आठ गायें एक-दूसरे से सटी उसके आगे स्थिर खड़ी हैं । जुगलाने या रम्भाने की कोई आवाज़ नहीं । बड़ी-बड़ी आँखें मेहरदीन के ऊपर टिकाए हुए... देर तक ऐसे ही उसे ताकती रहेंगी, फिर उनमें हल्की-सी हलचल होगी... एक-एक कर चलना शुरू करेंगी... कोई आधा-एक घड़ी बाद सौ गज के दायरे में चक्कर लगा फिर वहीं आकर खड़ी हो जाएँगी ।
चितसिंह ने गालों को फुलाते हुए तिरछी नज़र से मेहरदीन के चूल्हे की तरफ़ देखा । राख की ढेर के ऊपर ख़ाली पतीला लुढ़का पड़ा था... कोई पशु रात में अपना मुँह मारने आया होगा । पतीला उसकी आँखों से बचा रह गया । छोटे-छोटे बर्तनों को उसने पेड़ से लटकी मेहरदीन की पोटली में ठूँस दिया था । तेज़ आवाज़ के साथ उसने मुँह से हवा बाहर निकाली... छिपट्टियों के नीचे दुबकी लपट भभकने लगी । अपने अलावा चार बाटी तो मेहरदीन की भी सेंकनी होंगी... फिर दाल रांधेगा... फिर मेहरदीन के पास जाएगा ।
चूल्हे के आग पकड़ने और लाल गोले के नहर में डूबने की क्रियाएँ एक साथ हुईं । चितसिंह पानी लाने के लिए उठा । दोनों घड़े बाईखान और मानसिंह के चूल्हों के पास रखे थे । लुढ़के पतीले ने फिर उसका ध्यान अपनी तरफ़ खींचा । पतीले को उसने पास पड़े कपड़े से झाड़-पोंछकर पेड़ की डाल से अटका दिया । राख के ढेर और कोयलों को एक जगह इकट्ठा किया और चूल्हे की ईंट को फिर से जमाया । मानसिंह का घड़ा खाली था । चूल्हे ने मुश्किल से आग पकड़ी थी । नहर से पानी लाने गया तो चूल्हा ठण्डा हो गया । बाईखान के घड़े के पास चितसिंह कुछ देर ठिठका खड़ा रहा । दूर सुलग रहे चूल्हे की आग उसे मद्धिम होती सी लगी । बाईखान के घडे़ में कामचलाऊ पानी हिलडुल रहा था ।
चितसिंह ‘किता’, मेहरदीन ‘जाउंद’, मानसिंह ‘म्याजलरा’ और बाईखान ‘पोखरण’ के ‘गुडी’ गाँव से अलग-अलग जत्थों में चार दिन आगे-पीछे यहाँ पहुँचे थे । बावड़ियों और कुओं में गाद बची थी । धरती दरक गई थी । मवेशियों की कौन कहे, मानुख के लिए भी पानी की बून्द नहीं.... सभी गाँवों और ढाणियों की हालात एक सी । ढोर-डंगरो की सलामती के लिए गाँव-ढाणी त्याजने ही हुए ।
‘सदाराऊ’ पहुँच सभी की सूखी आँखें हरी हो आईं । चितसिंह की सारी गायें बेकाबू हो रम्भाती हुई दौड़ चलीं । चौड़े पाट वाली नहर और उसकी ढेरों शाखाएँ... पानी से लबालब. इतना पानी ! चितसिंह जिधर नज़र दौड़ाए... पानी ही पानी । पानी की सूँघ पा थार के सारे पक्षी और मवेशी यहीं चले आए हैं ।
संध्या होने तक चितसिंह ने अपनी गृहस्थी बसा ली । मजबूत खेजड़े की फैली हुई जड़ों के आसपास की ज़मीन को उसने अच्छी तरह बुहारा । सेवण की बड़ी-बड़ी गठरियों को जमाया । बर्तन और कपड़ों की पोटलियों को शाखों के ऊपर टाँग ईंटों को इकट्ठा कर चूल्हा बनाया । मानसिंह का चूल्हा उसी खेजड़े के नीचे पीछे की ओर बना था ।
बाईखान और मेहरदीन की गृहस्थियाँ एक सीध में सात-आठ हाथ आगे दूसरे खेजड़े के नीचे बसी थीं । सूरज के छिपते-छिपते चार चूल्हों ने लगभग एक साथ आग पकड़ी ।
दिन बीतते-बीतते चितसिंह की समझ में आ गया । सारा मामला इतना आसान नहीं । यहाँ पानी का दरिया बह रहा है तो सेवण का एक तिनका भी आसपास नहीं । डांगरों के दाना-पानी में कितनी भी कटौती कर ले, साथ लाई सेवण की गठिरयाँ बाइस गायों का पेट कब तक भर सकेंगी?
सूरज छिपने से पहले मानसिंह और बाईखान ने डांगरों को हाँका लगाया । सेवण का मैदान आठ कोस पार करने के बाद आएगा । अभी चलना शुरू करेंगे तब जाकर कहीं सुबह वहाँ पहुँच पाएँगे । देर हुई तो चिलचिलाती धूप में डांगर बीच रास्ते में मुँह फाड़ देंगे । अपने आधे डांगरों को उन्होंने चितसिंह और मेहरदीन के हवाले किया और उनके आधे डांगर अपने रेवड़ में समेट सेवण के मैदान की दिशा में चल दिए ।
चितसिंह के यहाँ आने के बाद पहली बार सिर्फ़ दो चूल्हे सुगबगाए और बाकी दोनों उसी तरह सोए रहे । बाजरे की रोटियाँ हथेली में थाम उसे अटपटा सा लगा । सांगरे का ढेर सारा अचार उसने रोटियों पर रखा और मेहरदीन के पास जा पहुँचा ।
चितसिंह कुल्ला-दातुन निपटा नहर में गोता लगाने की सोच रहा था कि मेहरदीन हाँफता-दौड़ता दिखाई दिया । मुट्ठी में दबी रोटी और घास । चितसिंह उसके पीछे लपका । उसने देखा कि मेहरदीन घुटनों के बल झुका ज़मीन पर गिरी गाय के मुँह में रोटी का टुकड़ा ठूँसने की भरपूर कोशिश में जुटा है । गाय का पेट गुब्बारा बन गया है, बड़ी-बड़ी आँखें फाड़े वह निस्पन्द पड़ी है। उसके देखते-देखते गाय के मुँह से एक हिचकी के साथ पानी बाहर निकला... कोरों से लार बहनी शुरू हुई और गर्दन एक तरफ़ लुढ़क गई ।
मेहरदीन की रुंधी और टुकड़ों में धचकती रोने की आवाज़ कुछ देर हवा में गूँजते रहने के बाद ख़ामोश हो गई । वह बाईखान की सबसे प्यारी सोना थी । बाईखान लौटेगा तो वह उसे अपना मुँह कैसे दिखाएगा? दो दिन से लगातार पानी ही पानी पी रही थी... घास का एक तिनका नहीं... भूख लगती तो फिर नहर में मुँह मारने पहुँच जाती... सोना के खुले मुँह से पानी अभी भी लार की तरह रिस रहा था । कुछ गायें चलती हुई सोना के पास आईं और वहीं खड़ी हो गईं । बिना हिले-डुले पत्थर की बड़ी-बड़ी मूर्तियों की तरह, सोना की ओर टकटकी लगा ।
चितसिंह वहीं ज़मीन पर बैठ गया ।
बाईखान मुँह अँधेरे वापिस लौटा । मेहरदीन पूरी रात खाँसते हुए बलगम उगलता रहा था और इस वक़्त उकडूँ बैठा धीमी-धीमी आवाज़ में कराह रहा था । चितसिंह चित्त लेटा आकाश की ओर टकटकी लगाए कुछ सोच रहा था ।
बाईखान को देखते ही चितसिंह उठ बैठा । उसका जी धक्क से रह गया । बाईखान अकेला लौटा था । दाढ़ी के बड़े-बड़े बाल धूल में अटे थे और सिर का पग्गड़ अधखुला गर्दन पर झूल रहा था । दूर तक नज़रें दौड़ाईं.. मानसिंह का कोई चिन्ह नहीं । डांगरों का एक रेवड़ मरी चाल से नहर की ओर रेंग रहा था । बाईखान ने गर्दन नीची कर ली । वह इन्हें कैसे बताए, सेवण चरने के बाद डांगरों को पानी भी चाहिए ! वहाँ सेवण के मैदान में कोई बावड़ी या कुइयाँ नहीं । छागलों का पानी उनकी अपनी प्यास बुझाए या डांगरों की । सेवण पेट में उतरते ही डांगरों का जत्था चारों दिशाओं में कैसे पगलाया हुआ अपना मत्था ज़मीन से पटकता है !
उसके मुँह से मुश्किल से इतना बोल फूटा— ‘‘दो मवेशी रास्ते में लुढ़क लिए । आखिरी साँस टूटने तक मानसिंह को वहीं बैठना होगा ।’’
नहर की ओर बढ़ते चितसिंह सिर्फ़ एक ही बात सोच रहा था कि सेवण का मैदान उड़ता हुआ इस नहर की ओर क्यों नहीं चला आता !
पखवाड़ा बीतते-बीतते किसी को एक दूसरे से कुछ पूछने, बताने या कहने की ज़रूरत नहीं रह गई । डांगरों को अब हाँकना नहीं पड़ता... उनके पीछे-पीछे चलने की कोई आवश्यकता नहीं । अपने पथ को उन्होंने अच्छी तरह बूझ लिया है । सेवण के मैदान से नहर तक और नहर से सेवण तक । एक निश्चित रास्ता... एक ही परिक्रमा । पानी पीते-पीते पेट फूलने लगता तो मुँह से लार बहाते कोई गाय सेवण के मैदान से आती हवा को सूँघती... खुरों को पटकती उस दिशा की ओर चलना शुरू करती, उसके आस-पास खड़ी उसकी बांधवियाँ मिचमिची आँखों से मुँह बाए कुछ देर तक देखती रहतीं, फिर धीरे-धीरे उसके पीछे एक कतार में क़दम बढ़ाने लगतीं । दूसरी ओर, सेवण के मैदान में सेवण के सूखे तिनके जब मुँह और पेट में सुलगने लगते तो नहर की दिशा से पानी की फुहारें उन्हें अपने पास बुलाने लगतीं । ...रात और दिन, धूप और छाँह, पानी और सेवण... के बीच भेद करने की सारी इन्द्रियाँ शिथिल हो चुकी थीं ।
उनकी यह यात्रा किसी भी घड़ी प्रारम्भ हो जाती. ...चलते-चलते मुँह से फेन बाहर निकलने लगता या आँतें खिंचने लगतीं तो किसी पेड़ के नीचे खड़ी हो जातीं... घड़ी दो घड़ी बाद फिर घिसटने लगतीं । यकायक उनमें से कोई पछाड़ा खा ज़मीन पर बिछ जाती तो सभी ठहर जातीं । मूक खड़ी ऐंठनियाँ खाते उसके शरीर को देखती रहतीं... खुले मुँह के ऊपर जब मक्खियाँ भिनभिनाने लगतीं और पूँछ ऐंठी रस्सी की तरह खामोश पड़ी रहती... देर तक, तब उनमें हरकत होती । नहर की धाराओं का चुम्बक उन्हें अपनी दिशा में और सेवण की हरियाली पीछे की ओर खींचने लगती । दो विपरीत दिशाओं में एक साथ न चल पाने से हकबकाई सी फिर वहीं ठिठककर खड़ी हो जातीं ।
चितसिंह अपनी बाटियाँ सेंक चुका था । चूल्हे की आग मद्धिम होने लगी । आस-पास के खेजड़ों की डगालें और सूखी झाड़ियों की जड़ें चूल्हों की भेंट चढ़ चुकी थीं ।
वह चिन्तित हो आया... अभी चूल्हे में और आग चाहिए । ...मेहरदीन की पीठ हिल-डुल नहीं रही । वह उसी तरह बैठा है । कई बार वह उसके नज़दीक जा वापिस मुड़ लिया था । मेहरदीन की दुलारी कजरी सुबह से लुढ़की पड़ी है ।...आज उसका चूल्हा खामोश रहेगा । बाईखान का दोपहरी से कुछ पता नहीं... आख़िरी बार नहर की ओर जाता दिखाई दिया था । मानसिंह दो दिन हुए सेवण के मैदान की ओर गया था... अभी तक नहीं लौटा । संभव है, आज चला आए । थके-हारे उसकी देह में इतना बल बचा होगा कि चूल्हा फूँक सके...?
तीनों चूल्हों और उसके आस-पास की खाली ज़मीन को खंगोलती चितसिंह की आँखें बार-बार अपने चूल्हे की धीमी होती लपटों से चिपक जातीं । यह नई बात नहीं... एक पखवाड़े से कोई रात ऐसी नहीं आई, जब चारों चूल्हे एक साथ हंसे-खिलखिलाए हों । उनके सोने और जागने का कोई क्रम नहीं....।
चितसिंह उठा और दोनों खेजड़ों के चारों ओर घूम गया । मोटी डगालों से लटक रही अपनी पोटलियों को उतार एक गठरी बनाई और उसे मानसिंह की बोरी के ऊपर टिका दिया । चट-चट की तीखी आवाज़ के साथ खेजड़े के दो मजबूत बाजू उखड़कर उसके हाथ में चले आए ।
चूल्हे ने एक बार फिर आग पकड़ ली ।
चितसिंह ने मेहरदीन के हिस्से की बाटियाँ सेंकी । पतीले को चूल्हे पर टिकाते उसे पीछे धप्प-धप्प की आवाज़ सुनाई दी । कनखियों से देखा — बाईखान उसकी ओर न आकर अपने ठिए की ओर बढ़ गया है ।
पतीली खुदबुदाने लगी थी । चितसिंह ने दो मुट्ठी उड़द उसमें डाली । लकड़ी को चूल्हे से इतना बाहर खींचा कि आग बुझने न पाए... फिर धीरे-धीरे चलता बाईखान के पास पहुँचा ।
बाईखान की हिलती हुई लाल-सफ़ेद दाढ़ी खेजड़े के नीचे फैली परछाई का हिस्सा बनी थी ।
चितसिंह धीरे से खंकारा —‘‘चूल्हे में काफी आग हैग । अपनी और मानसिंह की रोटी सेंक लिजो । मैं पाणी भरने जा रहा ।’’
चितसिंह ख़ाली घड़े को बगल में दबाए नहर की ओर चल दिया ।
सूरज कभी का नहर में गोता लगा चुका था । उसके डूबने के आखिरी चिह्न और रंग आकाश और पानी में घुलमिल एकाकार हो गए थे । चितसिंह के देखते-देखते बगुलों की आखिरी कतार टिड्डियों और फिर चींटियों में बदलती अन्धेरे में खो गई ।