क्रांति का इतिहास रचा है तुमने / संतोष श्रीवास्तव
औरतें आजादी की लड़ाई में भी क्रांतिकारियों के संग कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ी हैं। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तेइस वर्षीया नवयौवना रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका को कौन भूल सकता है? परंतु कई ऐसी वीर दिलेर औरतें भी हैं जिनका नाम इतिहास में दर्ज नहीं है पर जिनकी आहुति से ही स्वतंत्रता संग्राम का यज्ञ पूर्ण हुआ। रानी लक्ष्मीबाई की सेना में मोतीबाई नाम की महिला तोप चलाती थी। इस बहादुर महिला ने 4 जून, 1858 को रानी लक्ष्मीबाई की जान खतरे में देख अपनी जान पर खेलकर रानी को बचाया और खुद कुर्बान हो गई। इसी तरह रानी के साथ एक परछाई की तरह चलने वाली उनकी निजी सुरक्षा अधिकारी मुस्लिम महिला मुंदर थी। मुंदर ने हर युद्ध में रानी के रक्षक की भूमिका निभाई। अंत में कोटा कि सराय वाले युद्ध में रानी के साथ मुंदर भी शहीद हो गई।
जाति की कोरी, अनपढ़ झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई की हिफाजत करते हुए अंग्रेज जनरल रोज का जीना दूभर कर दिया था। जिस समय रोज रानी को पकड़ने के तमाम हथकंडे अपना रहा था। झलकारी बाई ने उसे चकमा देते हुए खुद रानी का वेश धारण किया और घोड़े पर चढ़कर पहुँच गई रोज के पास कि मैं रानी हूँ... गिरफ्तार करके दिखाओ मुझे। वह गोरे सिपाहियों को उळझाए रखने के लिए ताकि रानी सुरक्षित भांडेरी फाटक पार कर लें। वह पागलपन का नाटक करती रही। अंत में रोज ने उसे एक हफ्ते एक कैद में रखकर बाद में रिहा कर दिया। रोज को उसकी बुद्धिमानी का लोहा मानना पड़ा। उसका कहना था कि यदि भारतीय स्त्रियों में से एक प्रतिशत भी ऐसी पागल हो जाएँ जैसी झलकारी बाई है तो हमको हिन्दुस्तान में अपना सब कुछ छोड़कर चला जाना पड़ेगा।
मध्य प्रदेश की रायगढ़ रियासत की शासक रानी अवंती बाई लोधी ने भी अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। 1857 के विद्रोह में अवंती बाई ने बहादुरी से हिस्सा लिया और लड़ाई में अंग्रेजों को हराया। अपने हजारों सैनिकों के सफाए से और शर्मनाक हार से बौखलाया कमांडर जब मोर्चा छोड़कर भागा तो अपने छोटे बेटे को साथ नहीं ले जा सका। अवंती बाई ने उसे कमांडर के पास सुरक्षित पहुँचा दिया। अवंती बाई के कारनामों से तंग अंग्रेजों ने अपराजिता अवंती बाई को षडयंत्र के जाल में फंसाकर जब मार डालने की योजना बनाई तब रानी ने अपनी ही तलवार से अपनी जान लेकर देश की आजादी में अपना योगदान दर्ज करा लिया।
नाना साहब पेशवा कि सेना में रहने वाली वीरांगना मैनावती ने भी अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। अंग्रेजों के खिलाफ तमाम युद्धों में मैनावती की तलवार का लोहा अंग्रेजों ने माना। मैनावती नाना साहब की दत्तक पुत्री थी। 1858 में एक युद्ध में अंग्रेजों ने धोखे से मैनावती को गिरफ्तार करके भयानक यातनाएँ दीं लेकिन जब उन्होंने अपने साथियों के बारे में कुछ नहीं उगला तो उन्हें जिंदा जला दिया। मैनावती जिस अग्नि में समाई वह अग्नि साक्षी है मैनावती की शहादत की।
दिल्ली की गली समोसा कि गन्नो देवी ने बहादुरशाह जफर की सेना में शामिल हो क्रांतिकारी की भूमिका निभाते हुए फांसी के फंदे को गले लगाया।
अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले भारतीयों के नाम बतौर रेकार्ड जिन काले पृष्ठों में दर्ज किए हैं वे पृष्ठ गवाह हैं उन वीरांगनाओं की कुर्बानी के जिनसे अंग्रेजों ने तौबा कर ली थी। असगरी बेगम, आशा देवी, बख्तावरी भगवती देवी, उम्दा बानो... हबीबा, इन्द्र कौर, जमीला, मामकौर, रहीमी, राजकौर, शोभा देवी... कम से कम पचास महिलाओं के नाम तो इस बगावती लिस्ट में मौजूद हैं। इनमें से कई अतिसाधारण परिवार की थी। कोई गूजर परिवार की थी तो कोई पठान परिवार की। कोई चरवाहा थी तो कोई कुम्हार, लुहार परिवार की। पर इन सभी क्रांतिकारी महिलाओं ने आजादी के लिए मौत को गले लगाया, फांसी के फंदे को चूमा, यातनाएँ सही और जिंदा जलीं क्योंकि इन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत की विरोधी कार्रवाइयों में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई थी, इंकलाब छेड़ा था, अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठाए थे। आज इनकी कुर्बानी के एवज में हम स्वतंत्र हैं पर क्या कभी हम इन्हें याद करते हैं? नहीं। क्योंकि ये परदे के पीछे की ऐसी नायिकाएँ हैं जिन्होंने मंच पर अपने नाम के लिए आना नहीं चाहा। आज हम इन्हें जान पाए हैं तो उन दस्तावेजों की बदौलत जो उस जमाने के रिकार्ड में सुरक्षित रखे हैं। अंग्रेजों के कुशासन, अत्याचार के खिलाफ कई ऐसी महिलाओं के नाम भी हैं जिनके दस्तावेज नष्ट कर दिए गए हैं। मध्य प्रदेश की आदिवासी, भील, गोंड, बेगा महिलाएँ भी डटकर मोर्चा संभाले थीं। भील आदिवासी सुरसी खुद तो बहादुर थी ही, उसने अपने बेटे भीमनायक को भी अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा किया और भील मिलाल, मांडलोई और नायक आदिवासियों का एक संयुक्त मोर्चा तैयार कर अंग्रेजों का जीना हराम कर दिया। अंग्रेजों के पास बंदूकें थीं, इनके पास जहर बुझे तीर। अंत में इन सभी को मंडलेश्वर किले में बंदी बना लिया गया जहाँ सुरसी की मृत्यु हो गई।
बीजाबाई कहाँ की थी यह अज्ञात है, पर उसने आगरा, भरतपुर आदि इलाकों में तहलका मचा दिया था। बीजाबाई के नेतृत्व में क्रांतिकारी सैनिकों ने आगरा जेल पर धावा बोलकर तमाम क्रांतिकारियों को रिहा कर दिया था। अंग्रेज सेना को तहस-नहस कर दिया था। बीजाबाई कभी भी अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आई। अंग्रेज उसे हमेशा खोजते रहे, उससे भयभीत रहे। एक गुमनाम बहादुर औरत ने तो दिल्ली के मोर्चे पर तैनात अंग्रेज सैनिक अधिकारी हडसन को दिन में तारे दिखा दिए थे। यह औरत अपने नेतृत्व में फौज लेकर आती और दिल्ली से बाहर आकर अंग्रेजों की सेना पर आक्रमण करती। वह घोड़े पर सवार होकर अंग्रेज़ी फौज के कैंप पर बिजली-सी टूट पड़ती। वह पांच-पांच अंग्रेज सैनिकों पर अकेली भारी पड़ती। बाद में वह पकड़ी गई और उसे फांसी दे दी गई।
उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन की पहली महिला क्रांतिकारी ताई बाई ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता दिखाकर क्षेत्र के क्रांतिकारियों के बीच जैसे मशाल जला दी। ताई बाई जालौन के राजपरिवार की कन्या थी। उसका विवाह सागर के नारायणराव से हुआ था और वह अपने पति के साथ जालौन के किले में ही निवास करती थी। उसने इसी किले में रहते हुए क्रांति को सर-अंजाम दिया और क्रांतिकारियों की सरकार बनाई। उसने थोड़े ही समय में एक बड़ी सेना का गठन कर तात्या टोपे के साथ कानपुर पर अधिकार करने के लिए सेना को रवाना किया। इस सेना को गठित करने के लिए ताई बाई ने अपने जेवर और कीमती वस्तुओं को बेचकर धन इकट्ठा किया था। ताई बाई के बढ़ते वर्चस्व और शक्ति को देश अंग्रेजों ने सीधे उससे युद्ध न कर उसके सहयोगियों को मिटाना आरंभ किया। अंग्रेजों ने भयंकर लूटपाट और नरसंहार किया जिसे रोकने के लिए ताई बाई ने आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई। कारावास में ही ताई बाई की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने ताई बाई से सम्बंधित सभी दस्तावेज, वस्तुएँ नष्ट कर दी। जालौन का किला तुड़वाकर जमीन में मिला दिया। ताई बाई के साथ इस अमानवीय व्यवहार के बाद आखिर उनके मुंह से यह वाक्य निकले बिना न रह सका कि-ताई बाई एक लौह महिला थी।
वंदे मातरम का सर्वप्रथम नारा लगाने वाली सरला देवी अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गई थी। काकोरी कांड में अपने भाईयों का साथ देने वाली सइसीला सिन्हा ने अपूर्व वीरता का परिचय दिया लेकिन काकोरी कांड को अंजाम देने वालों की फांसी की सजा सुन वह विक्षिप्त हो गई और यह भी न जान पाई कि भारत स्वतंत्र हो गया है। देवेन घोष की पत्नी और अंग्रेजों की बर्बरता कि शिकार सिंधुबाला देवी ने अपना सब कुछ जमीन, जायदाद, रुपया-पैसा आजादी को हवन में होम कर दिया... उसके शरीर के साथ अंग्रेजों ने जो पशुता कि उसके आगे तो बर्बरता भी कांप जाती है। पर अंतिम सांस तक सिंधुबाला वंदे मातरम का नारा लगाती रही। जीवन के मात्र पंद्रह वसंत देख चुकी सुधा घोष और सुनीति चौधरी सबसे कम उम्र की ऐसी वीर बालाएँ थीं जिनकी वीरता के कारनामों ने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी। वे दिल्ली की तरह झपट्टा मारकर अंग्रेज सैनिकों का सफाया करतीं और बिजली की तरह गुम हो जाती। राष्ट्रवादी आंदोलन की मुख्यधारा लीला नाग और क्रांति की आग में सबसे पहले आहुति प्रीतिलता वड्डेदार... ये सभी वीर बालाएँ तो क्रांति और बलिदान की नदी की चंद बूंदे हैं। ऐसी न जाने कितनी महिलाएँ हैं जो बड़ी खामोशी से खुद को कुर्बान कर आजादी के भवन में नींव का पत्थर बन चुकी हैं। हम भवन तो देख सकते हैं पर नींव के पत्थर दिखलाई नहीं देते जबकि भवन का आधार वहीं है।
कितनी औरतों ने अपने बेटों को हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लेने की आज्ञा दी, कितनी पति के बलिदान की प्रेरणा बनीं, कितनों ने सारी धन-दौलत देश की आजादी दिलाने में समर्पित कर दी। शहीद बाल मुकुन्द की पत्नी राम रखी देवी ने ठीक उशी दिन जिस दिन उनके पति को फांसी दी गई इच्छा मृत्यु का वरण किया। जो कंकड़ मिला खाना उनके पति को जेल में परोसा जाता था। वैसा ही खाना वे घर में पकाकर स्वयं खाती थीं। ऐसा अतुलनीय त्याग भारतीय स्त्रियाँ ही कर सकती हैं।
मूलवंती देवी, रल्ली देवी, जगरानी देवी, विद्यावती देवी और सुरतवंती देवी के नेपथ्य से हुए कार्यों द्वारा अंग्रेज़ी सेना को कमजोर करने और भारतीय सेना को मजबूत करने के लिए ऐसे वीरता भरे कारनामे किए कि लोगों को विश्वास करना पड़ा कि शक्तिशाली वृक्ष ही नहीं बल्कि कोमल नाजुक फूल भी आंधी में टिक सकते हैं।
जिस्म का सौदा करने वाली औरतों को वेश्या का दर्जा देकर समाज में नीची नजर से देखा जाता है जबकि इन वेश्याओं के जिस्म को खरीदने वाले मर्द ही होते हैं। लेकिन क्या कभी कोई सोच सकता है कि ये वेश्याएँ भी क्रांति में सहभागी रही हैं? जयपुर की एक वेश्या ने क्रांतिकारी नंदलाल शर्मा को पुलिस की गिरफ्त से बचाकर देशभक्ति का धर्म निभाया था। जून, 1933 में माणक चौक में एक गली में बम छिपाकर लौटते समय नंदलाल शर्मा को पुलिस ने देख लिया। वह पुलिस की आंखों में धूल झोंककर एक वेश्या के कोठे की सीढ़ियाँ चढ़ गए। वहाँ मुजरे की तैयारियाँ चल रही थीं। वेश्या समझी कोई ग्राहक है पर नंदलाल ने कहा कि बहन के यहाँ भाई आया है। वेश्या चकित थी। आज तक तो उसके कोठे पर जिस्म के खरीददार ही आए हैं। नंदलाल के मुंह से गांधीजी का नाम सुन वह और भी चकित हुई-यह पाक नाम इस जहन्नुम में क्यों ले रहे हैं? तब नंदलाल ने बताया कि वह क्रांतिकारी है-बहन, मुझे यहाँ से सुरक्षित निकाल दो। वेश्या ने तुरंत मुजरा स्थगित किया। नंदलाल को साजिन्दों के कपड़े पहनाए गए। बालों में तेल लगाया गया और आंखों में काजल लगवाकर गले में ढोलक डाल दी। सभी साजिन्दे सीढ़ियों से नीचे उतरे। वे एक सुर में गाते बजाते सड़क पर चलने लगे-सैंया बिन चैन पड़े न दिन रात और पुलिस को चमका देकर नंदलाल सुरक्षित निकला गया। साजिन्दों पर कुछ ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने गले की ढोलक उतारकर अंग्रेजों के विरुद्ध बंदूकें थाम लीं। इधर वेश्या ने भी अपने पेशे को लानत भेजी और जिस्म को बेचकर जमा किया धन, अपने जेवर, कीमती सामान सब कुछ क्रांतिकारियों के लिए हथियार खरीदने में लगा दिया। उसका कोठा शास्त्रागार बन गया। वह चुपके-चुपके क्रांतिकारियों को हथियार और रसद भेजते हुए एक दिन पकड़ी गई और अंग्रेजों के हाथों मारी गई।
9 मई, 1857 के दिन मेरठ में ऐसी ही वेश्याओं ने अपने कोठे पर आने वाले अंग्रेज और हिन्दुस्तानी सैनिकों के लिए कोठे के दरवाजे बंद रखे। वजह, अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानी सैनिकों के पैरों में बेड़ियाँ डालकर पूरे शहर में घुमाया था और सरेआम उनकी बेइज्जती की थी। सदर बाज़ार की वेश्याओं के कोठे पर जब हिन्दुस्तानी सैनिक पहुँचे तो वेश्याओं ने उन्हें ललकारा और अपनी चुड़ियाँ उतारकर उन्हें दे दी कि लानत है उनकी मर्दानगी पर, उनसे अपने साथियों की बेइज्जती का बदला न लिया गया इसलिए वे ये चूड़ियाँ पहन लें और उन्हें अपनी बंदूकें दे दें ताकि वे बदला ले सकें। वेश्याओं की इस बात का सैनिकों पर इतना असर हुआ कि उन्होंने तुरंत ही 10 मई के गदर की योजना बनाई और रणनीति तैयार की। यह गदर इतिहास के पृष्ठों पर जो खूनी अक्षरों में अंकित है वह इन वेश्याओं की वजह से ही। भले ही इन्हें इतिहास में वह सम्मान और स्थान नहीं मिल सका जिसकी ये हकदार थीं। इनके प्रशस्ति गीत नहीं गाए गए। इनकी जांबाजी के कारनामे वक्त की गर्त में खो गए... ऐसी ही थी अजीजन बाई। कानपुर की यह बला कि खूबसूरत तवायफ नाना साहब के नेतृत्व में पूरे जोशोखरोश से शामिल हुई। नर्तकी होने के बावजूद अजीजन बाई के प्रति नाना साहब के मन में बहुत सम्मान और प्रेम था और वे उससे राखी बंधवाते थे। अजीजन का हौसला कुछ यूं कि क्रांतिकारियों की बैठकें हों, सेना हो, गुप्तचर विभाग हो वह हर जगह मौजूद... वह नाच गाने के बहाने अंग्रेजों से उनके राज उगलवाती और नाना साहब तक पहुँचाती। उसने औरतों का प्रशिक्षण कैंप खोला और ऐसी प्रशिक्षित महिलाओं की टोली बनाई... मस्तानी टोली इस टोली की मदद से पहली लड़ाई में नाना साहब की सेना ने अंग्रेजों को मात दी। लेकिन अंग्रेजों ने और अधिक सेना इकट्ठी कर अजीजन बाई को गिरफ्तार कर लिया। उसकी खूबसूरती पर मुग्ध होकर अंग्रेजों ने उसके सामने अपनी सेना कि सेवा करने का प्रस्ताव रखा। लेकिन निडर अजीजन बाई ने सिर झुकाने के बजाय मौत को गले लगाना मंजूर किया।
इन अति साधारण औरतों, वेश्याओं की कुर्बानी हमें अपने दिलों पर अंकित कर लेनी चाहिए ताकि हम युवा पीढ़ी को आजादी का मूल्य समझा सकें। मुझे याद आ रही है बेगम हजरत महल। तमाम राजसी वैभव में जीने वाली बेगम महल को अंग्रेजों ने जिस हालात में लाकर छोड़ा किसी भी औरत का मनोबल टूट सकता था। लेकिन हजरत महल ने हिम्मत नहीं हारी और अंग्रेजों को हर कदम पर चुनौती दी। 1858 में भारत की स्वतंत्रता का एक घोषणापत्र जारी कर अंग्रेजों के विरुद्ध सेना तैयार कर उन्हें ललकारा। सैनिकों ने भी बड़ी बहादुरी से अंग्रेज़ी सेना से युद्ध किया। हजरत महल और उनकी सेना कि इस बहादुरी को लोगों ने लोककथाओं और गीतों में ढाला लेकिन अपने ही देश के शासकों ने हजरत महल के संग गद्दारी कर अंग्रेजों का साथ दिया। हजरत महल ने हथियार नहीं डाले बल्कि नाना साहब पेशवा के साथ मिलकर नेपाल की तराई के क्षेत्र में भारत की आजादी का परचम लेकर लड़ती रहीं और मौत को गले लगाया।
कौन थी ये हजरत महल? फैजाबाद के किसी निर्धन परिवार की कन्या थीं ऐसा सुना है। अत्यधिक सुंदर होने के कारण निर्धन माता-पिता ने धन के लालचवश इन्हें शाही घराने में अम्मन और अमामन नामक औरतों के जरिये बेच दिया था। ये औरतें शाही हरम को कमसिन मोहक लड़कियों से भरने का ही काम करती थीं। लेकिन यह बालिका बुद्धिमान और तेजस्विनी थी। निश्चय ही उसने अपना बेचा जाना अनिच्छा से ही स्वीकार किया होगा। धीरे-धीरे वह नवाब वाजिद अली शाह के राजनीतिक कार्यों में दिलचस्पी लेने लगीं और उसके अंदर अंग्रेजों के खिलाफ सुप्त विद्रोह पनपने लगा। 1857 के गदर के दौरान बेगम हजरत महल ने अपनी कोठी को फौजी मुख्यालय बनाकर सभी मोर्चों को मजबूत करना शुरू कर दिया। अवध की अंतिम जंग में सिपाहियों का हौसला बढ़ाती बेगम अपनी महिला सेना के साथ खुद हाथी पर चढ़कर मैदाने जंग में उथरी थीं। यह महिला सेना उनके आत्मबल का प्रतीक थी जबकि अपने वजनदार वक्तव्य के बल पर उन्होंने महिलाओं की नाजुक कलाइयों को अस्त्र-शस्त्र उठाने के लायक बनाया। बेगम के नेतृत्व में महिलाओं की यह सेना अंग्रेज सेनापति सर कालिन केंपवेल की 80 हजार सैनिकों की फौज से वीरतापूर्वक लड़ी। बेगम ने 1858 में लखनऊ शहर में अलौकिक वीरता के साथ बेमिसाल युद्ध लड़ा लेकिन लखनऊ उनके हाथ से निकल गया। अंग्रेज उन्हें पकड़ नहीं पाए और बेगम ने पेंशन लेकर अंग्रेजों की गुलामी में ऐशोआराम की ज़िन्दगी गुजारने से अच्छा, वतन से बाहर नेपाल में मामूली जीवन गुजारना सही समझा। वहाँ भी वे शांत नहीं बैठीं और अंतिम सांस तक भारत की आजादी के लिए लड़ती रहीं।