क्रेज़ी फ़ैंटेसी की दुनिया / अभिज्ञात

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पोर्ट टारटाइज समुद्र तट पर स्थापित किया गया था। यहां चल रहा था कछुओं पर अनुसंधान। उसका एक कारण यह था कि यहां भारी तादाद में दुनिया भर से कछुए अन्डे देने के लिए आते थे। समुद्र का यह कोना उन्होंने क्यों पसन्द किया था उसके क्या खास कारण हैं इस पर भी हो रही थी खोज। खोज के लिए यहां अनुसंधान केन्द्र स्थापित किया गया था। इस पोर्ट से वस्तुओं की आवाजाही नहीं होती थी। यहां चूंकि पूरी दुनिया के कछुए आते थे इसीलिए इन्हें कछुओं का पोर्ट कहा गया और उसका नामकरण किया गया पोर्ट टारटाइज। कछुओं के रहन-सहन और समुद्र की अथाह गहराइयों के रहस्यों को जानने के कई उपाय यहां के अनुसंधान केन्द्र में चलते रहते थे जिसमें कछुओं की तमाम गतिविधियों पर निगाह रखना शामिल था।

इस अनुसंधान केन्द्र में कुल पांच स्टाफ थे जिनमें एक थे प्रोफेसर एनएन निगम, जो केन्द्र के प्रमुख थे। निगम न सिर्फ़ प्राणि विज्ञानी थे बल्कि वे भाषा विज्ञान के भी गहन अध्येता था। वे पशु-पक्षियों की बोली को समझने में भी किसी हद तक सफल थे। वे अरसे से कछुओं की भाषा समझने की कोशिश में जुटे थे।दुनिया भर से यहां अन्डा देने आये कछुओं की विभिन्न प्रजाति के कछुए तट के मुहाने पर आते थे और अन्डे देते थे। अंडे देने से पहले वे तटीय हिस्से में घोंसले बनाना शुरू कर देते थे। हजारों की संख्या में ये समुद्र के किनारे रेत पर आ जाते हैं और सुरक्षित लगते स्थानों पर गङ्ढे खोद कर अंडे देते। अंडे देने के बाद मादा कछुए वापस समुद्र में लौट जाते हैं। पैंतालीस दिन बाद अंडों से उनके बच्चे निकलते हैं। एक कछुआ एक बार में बीस से तीस अंडे देता है। अंडे देकर लौटते समय उनमें से कुछ को पकड़कर उन पर माइक्रोचिप, वीडियो कैमरा, रेडियो ट्रांसमीटर, दिमाग में इलेक्टाड व अन्य उपकरण बिठाकर उन्हें फिर समुद्र में छोड़ दिया गया था जिससे वे अपनी अलग-अलग दुनिया में चले जायें और वहां से इन उपकरणों के जरिए उनके जीवन, पर्यावरण और समुद्र के सम्बंध में कई अनुउद्घाटित पहलुओं की जानकारी मिलने की संभावना थी। वे उनकी गतिविधियों पर पैनी निगाह रखे हुए थे। प्रोफेसर का घर भी थोड़ी दूर पर था। जहां वे अपनी पत्नी व बेटी के साथ रहते थे। किन्तु उनका ज्यादातर समय घर के बजाय अनुसंधान केन्द्र में ही बीतता था, जबकि दूर दराज इलाके में बने इस केन्द्र में बड़ी मुश्किल से ही सरकारी व्यक्ति आते जाते थे। कार्यालय के कर्मचारी भी अक्सर डयूटी पर नहीं आते थे। आते भी थे तो महीने में दो चार दिन के लिए। जो भी आता यहां से ट्रांसफर लेने की कोशिश में लग जाता। एक ढंग से प्रोफेसर ही यहां के कर्ताधर्ता थे। प्रोफेसर को अपनी एक खोज के लिए अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका था और उन्हीं की मांग पर यह अनुसंधान केन्द्र स्थापित किया गया था। सरकारी महकमे में उनके काम को लगभग व्यर्थ की कवायद मान लिया गया था किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान के कारण उनकी साख थी जिसके कारण उनके काम में हस्तक्षेप करने का साहस किसी में नहीं था। केन्द्र को समय-समय पर प्रधानमंत्री कार्यालय सीधी राहत राशि भेज दिया करता था। हालांकि उनका ज़िक्र आते ही लोगों के चेहरे पर एक परिहास की परछाई खिंच जाती थी अधिकारियों के चहरे पर। प्रोफेसर के इस तर्क को कोई समझ नहीं पाता था कि इससे क्या हासिल होना है। कोई यह पूछने भी नहीं आता था कि इस केन्द्र ने क्या हासिल किया है। स्वयं प्रोफेसर ने अपने अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार को भी इस केन्द्र की स्थापना के लिए सरकार को समर्पित कर दिया था। प्रोफेसर निगम के कार्यों के कारण दुनिया भर के एनआरआई भी इस केन्द्र की आर्थिक मदद करते रहते थे। कछुओं को लेकर उनकी गहरी दिलचस्पी के कारण विभाग में उन्हें प्रोफेसर निगम नहीं बल्कि प्रोफेसर टारटाइज कहा जाने लगा था। कछुओं पर उनके लेख अन्तर्राष्ट्रीय शोधपत्रों में छपते जिन्हें खासे सम्मान के साथ देखा जाता था। वे कई बार अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों में भी कछुओं पर पर्चे पढ़ने के लिए बुलाए जाते थे।

कछुओं के साथ उनका सम्बंध इतना प्रगाढ़ होता गया कि वे उनकी भाषा किसी हद तक समझने में कामयाब होने लगे थे। हालांकि यह अभी आरंभिक चरण में ही था। उन्होंने यह रहस्य किसी पर ज़ाहिर नहीं होने दिया क्योंकि इसका खुलासा बहुत ख़तरनाक़ हो सकता था। वे भाषा को यदि ठीक ठीक प्रकार से समझ लेने में क़ामयाब हो जाते हैं तो दुनिया भर में कछुओं से वे सीधी बात कर सकते थे। और कछुओं से वे समुद्र की अतल गहराइयों का राज जान लेते। वह भी लगभग पांच सौ सालों का इतिहास क्योंकि कछुओं की पांच सौ साल उम्र आम बात थी। कई कछुओं को उनके पूर्वजों की बातें भी याद होने की संभावना थीं, जो उन्होंने उनसे सुन रखी थीं।

कछुओं पर शोध में डूबे प्रोफेसर ने अपने दाम्पत्य जीवन पर कभी ध्यान नहीं दिया। बच्ची पढ़ाई-लिखायी में बेहद कमज़ोर थी और वह अपनी कक्षाओं में फेल होती रहती थी और पत्नी अक्सर बीमार चिड़चिड़ी। उन्होंने एक कम पढ़ी लिखी सीधी-सादी देहाती लड़की से यह सोच कर विवाह किया था कि वह उनके काम में किसी प्रकार से बाधक नहीं बनेगी क्योंकि उनका अपना जीवन सामान्य लोगों से अलग था। सपने अलग थे जीने के तौर तरीके अलग थे। व्यर्थ की पारिवारिक औपचारिकताओं के लिए उनके जीवन में कोई स्थान नहीं था। उन्हें इस छोटे से जीवन में बहुत कुछ करना था। लोगों का जीवन बेहतर बनाने का लक्ष्य था उनके सामने और वे जीवन की गुत्थियों को सुलझाना और समझना चाहते थे। लेकिन उनका वैवाहिक जीवन वैसा नहीं हो पाया जैसा उन्होंने चाहा था। पत्नी भी दूसरी अन्य पत्नियों की तरह निकली। वह दूसरे के जीवन से अपने जीवन के ढर्रे की तुलना करती और उनसे भी वही अपेक्षाएं जो सामान्य अन्य पति से कोई पत्नी करती है। वह चाहती थी वे उसके मायके जायें। मेहमानों से बोले-बतियाएं। समाज में उठे बैठें। लोगों के यहां भी आये- जायें। तफरीह पर ले जायें। समय पर काम पर जायें और डयूटी का समय ख़त्म होते ही घर लौटें। यह स्वाभाविक था कि प्रोफेसर से नहीं हो पाया और वह कर्कशा और जिद्दी होती गयी। अक्सर अनबन रहती। झगड़े होते। वे तनहा होते गये और पूरा जीवन ही शोध को समर्पित होकर रह गया। पत्नी कत्तई नहीं समझ पायी कि प्रोफेसर क्या हैं। वह दूसरों से कितने भिन्न हैं। पत्नी अक्सर बीमार रहने लगी थी। नहीं रहती तो भी वह कई कुंठाओं से ग्रस्त थी और प्रोफेसर को मानसिक तौर पर बीमार ही लगती। उसमें एक गंभीर बीमारी के सिम्टम्स भी प्रोफेसर को नज़र आये अलबत्ता तो वह अपने को डाक्टर को दिखाने को तैयार नहीं हो रही थी और फिर दवाएं लेने में उसने लगातार कोताही बरती। दवाओं की अनियमितता ने उसे ऐसी स्थिति में ला पटका जहां दवाएं प्रायः कम ही असर करतीं। वे बेटी को समय देना चाहते थे लेकिन वह कोशिश करती कि बेटी भी उनसे दूर ही रहे। हर बात में लगता कि प्रोफेसर का व्यवहार बेटी के प्रति भी स्वस्थ नहीं है। वे बेटी से अपेक्षाकृत अधिक गंभीरता से पेश आते हैं। पत्नी को लगता कि प्रोफेसर खुद के व्यवहारिक नहीं हैं बेटी को भी अपने जैसा बना देंगे। ज्ञान –विज्ञान की नीरस दुनिया के नर्क में वे बेटी को भी झोंक देंगे। और जब प्रोफेसर अमरीका के एक अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार में पेपर पढ़ने गये थे वहां फोन पहुंचा कि पत्नी का बीमारी से देहांत हो गया है। जब वे घर लौटे तो तब महसूस हुआ कि उनसे बड़ी गलती हुई है। पत्नी की छोटी मोटी इच्छाओं तक का उन्होंने ध्यान नहीं रखा था और उसकी बीमारी को भी गंभीरता से नहीं लिया। यदि वे थोड़ा सामान्य हो जाते अर्थात दूसरे आम लोगों की तरह जीते तो शायद पत्नी अब भी दुनिया में होती। पत्नी की ग़लती नहीं थी। वह एक साधारण औरत थी उसके सपने और इच्छाएं भी वैसी ही थीं तो यह ग़लत कहां था। यदि वे अस्वाभाविक ज़िन्दगी जीते हैं और दूसरों से अलग सोच रखते हैं तो यह उनकी अपनी ग़लती है। वे अपने को दूसरों पर थोपने वाले कौन थे। उन्हों लगा बेटी केप्रति भी वे बेहद लापरवाह रहे हैं और अब बेटी की ज़िम्मेदारी ही उनके जीवन की प्राथमिकता होगी।

प्रोफेसर पश्चाताप की आग में जलने लगे। अब वे अनुसंधान केन्द्र बेहद कम जाते। बच्ची के साथ अधिक से अधिक वक़्त गुजारते। बच्ची को कहानियां सुनने का बड़ा शौक था और उसकी ज़िद पर वह रोज़ रात को कहानियां सुनाते। बचपन में सुनी और बाद में पढ़ी कहानियों का उनका स्टाक जल्दी ही ख़त्म हो गया किन्तु बेटी की फ़रमाइशें जारी रहीं। अब वे मनगढ़ंत किस्से सुनाने लगे थे और जल्द ही इसमें माहिर हो गये। एक दिन उन्हें यह ख़याल आया कि क्यों न इन किस्सों को लिख कर किसी प्रकाशक को थमा दें ताकि अन्य बच्चे भी इससे लाभान्वित हों। प्रोफेसर ने जो किस्से लिखे वे धारावाहिक की शक्ल में थे। एक ख़ास चरित्र था जो उनकी हर कहानी में आ जाता था जिसका नाम उन्होंने क्रेज़ी फ़ैंटेसी रखा था। क्रेज़ी फ़ैंटेसी मनचाही शक्लें अख्तियार करने में माहिर था। कभी वह बड़े जानवर की शक्ल ग्रहण कर लेता तो कभी दैत्य का। कभी वह चुड़ैल बन जाता तो कभी सांप, कभी मछली तो कभी बंदर। वह अच्छों के साथ अच्छे व्यवहार करता और बुरे को दंड देता। यही वे किस्से थे जो प्रोफेसर अपनी बेटी को सुनाते। और जो धारावाहिक कहानियां उन्होंने लिखी थी वे वही थीं। प्रकाशक ने उन्हें अच्छी खासी रकम दी और क्रेज़ी फ़ैंटेसी के कारनामों पर कई धारावाहिक उपन्यास लिखने का प्रस्ताव दे गया। जितने भी खंड वे चाहें लिखें। फिर क्या था प्रोफेसर का काम आसान हो गया। वे किस्सों की दुनिया में डूबते गये। क्रेज़ी फ़ैंटेसी सीरीज का पहला उपन्यास ही धमाकेदार साबित हुआ। बच्चे बड़े बूढ़े सब क्रेज़ी फ़ैंटेसी के तिलिस्म में फंसते नज़र आये। लोगों को उनके अगले उपन्यास का इन्तज़ार रहने लगा। फिर क्या था उनके क्रेज़ी फ़ैंटेसी सीरीज के उपन्यास एक के बाद एक निकलते गये। उपन्यास लोकप्रिय उपन्यासों की कड़ी में एक मील का पत्थर साबित हुआ तथा बिक्री के नये कीर्तिमान भी स्थापित किये। उपन्यासों की लोकप्रियता का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उस पर फ़िल्में बनने लगीं। धारावाहिक बने और रेडियो नाटक भी बने। अखबार-पत्रिकाएं उनकी चर्चा करने लगी थीं। मनोरंजन की दुनिया में यह एक नया धमाका था। कोई उपन्यास इस कदर पापुलर नहीं हुआ था कोई चरित्र इतना चमत्कारपूर्ण और विस्मयकारी नहीं था। क्रेज़ी फ़ैंटेसी बुरे और अच्छे दोनों ही विशेषताओं से लैस था। उसकी खूबियां लोगों को रिझातीं। उसका खामियों का खौफ़ भी जबर्दस्त था। क्रेज़ी फ़ैंटेसी की उपस्थिति हर कहीं थी। उसके रूप अनेक थे सम्मोहक भी और डरावना भी। पुरस्कार और दंड उसके प्रमुख कार्य थे। लेकिन वह सहायक भी हो सकता था किसी का। चरित्र के आसपास बने होने का आभास हो सकता था उसके पाठकों को। फिल्मों ने क्रेज़ी फ़ैंटेसी के कई रूप बड़े पर्दे पर दिखाये थे और कई बार सिनेमाघर में क्रेज़ी फ़ैंटेसी के रूप के देख कर दर्शकों की चीख निकल जाती थी। यह चरित्र की कामयाबी थी और फिल्म में उसके साथ डायरेक्टर का न्याय था, उसकी गंभीरता थी और कला का कौशल था। फ़िल्मी तकनीक का विकास था।

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