क्रेज़ी फ़ैंटेसी की दुनिया / अभिज्ञात / पृष्ठ 2

Gadya Kosh से
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क्रेज़ी फ़ैंटेसी लोकप्रिय उपन्यासों का एक अविस्मरणीय चरित्र बना रह सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसने अपनी हदें पार कर दी। अचानक क्रेज़ी फ़ैंटेसी में जान आ गयी और हंगामा बरपा हो गया। साहित्य की दुनिया में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। कोई औपन्यासिक और एकदम काल्पनिक चरित्र जीता जागता दुनिया में उपस्थित नहीं हुआ था किन्तु ऐसा हो गया। पहले पहल तो प्रोफेसर निगम को विश्वास नहीं हुआ। उसने इधर उधर से सुना था। यह बात उसी की तरह जब लोगों ने पहले सुनी तो सोचा यह उपन्यास के किरदार को हिटकरने का कोई फंडा है। चूंकि क्रेज़ी फ़ेंटेसी पर फिल्में बन रही थीं, नावेल बिक रहे थे, धारावाहिक चल रहे थे सो स्वाभाविक था करोड़ों की पूंजी इस चरित्र में लगी थी और क्रेज़ी फ़ैंटेसी को लेकर किसी प्रकार की अतिरिक्त चर्चा इसे और लोकप्रिय बना सकती थी। जिनका ध्यान इस पर अब तक नहीं गया है उनका ध्यान आकृष्ट करा सकती है किन्तु ऐसा नहीं था। देश के कई हिस्सों में ऐसी खबरें एक साथ सुनायी दीं कि क्रेज़ी फ़ैंटेसी देखा गया है, जिसे देखने के बाद कई लोग बेहोश हो गये और उन्हें अस्पतालों में भर्ती कराया गया है। कुछेक लोगों की मौत की खबरें भी सुनी गयी हैं। इन खबरों से देश के अखबार भरे पड़े थे और टीवी चैनल लगातार उन लोगों के इंटरव्यू प्रसारित कर रहे थे जिन लोगों ने उसे साक्षात देखा है। पते की बात यह थी कि लोगों ने क्रेज़ी फ़ैंटेसी को उन्हीं रूपों में देखा जैसा उपन्यासों में उसका वर्णन था। किसी ने कहा कि जब वह टीवी पर क्रेज़ी का सीरियल देख रहा था एकाएक वह टीवी से बाहर निकल कर सामने आ गया था और वह जब उसकी ओर लपका तो वह बेहोश हो गया। कोई कह रहा था कि वह देर रात को वह क्रेज़ी का नावेल पढ़ रहा था और एकाएक क्रेज़ी की जोरदार गुर्राहट उसे सुनायी दी। पलट कर उसने देखा तो पाया कि वह दैत्याकार उसके पीछे खड़ा था। उसकी जीभ लपलपा रही थी। उसके बड़े-बड़े नाखून वाले हाथ उसकी ओर लपके थे फिर क्या हुआ इसका उसे होश नहीं। उसने बाद में अपने को अस्पताल में पाया। इस प्रकार की दहशत की खबरें लगातार आने लगी थीं और फिर तब ग़जब हुआ जब सिनेमाहाल में क्रेज़ी फ़ैंटेसी की फिल्म चल रही थी और वह सिनेमाहाल में ही प्रगट हो गया। भगदड़ में दस लोगों की जानें गयीं कई अन्य घायल हो गये। कोई यह नहीं बता पाया कि वह परदे से निकल कर ठीक उसके सामने खड़ा हो गया किन्तु गया कहां। किसी को यह देखने का होश नहीं था। सब अपनी जान बचाकर भागने के फेर में थे।

टीवी और अखबार वाले उसके घर के सामने मजमां लगाये हुए थे और उससे तरह-तरह के सवाल पूछे जा रहे थे। क्रेज़ी फ़ैंटेसी क्या है? वह कहां रहता है? क्या खाता पीता है? पहली बार वह कहां देखा गया था? उससे सामना करने का क्या उपाय हैं? वे उससे पहली बार कब मिले थे?

मीडिया यह मानने को कत्तई तैयार नहीं था कि यह काल्पनिक चरित्र था जो अब वास्तविक हो उठा है। यह संभव ही नहीं है। और यह बात कोई वैज्ञानिक कहे तो और गले उतरने लायक नहीं है। यह कैसे संभव है कि कोई वास्तविक प्राणी की पहले ही कल्पना कर ले। उसके हाव-भाव तौर तरीकों, रूप-रंग और आवाज़ों तक को जान ले जैसे कि वह अरसे से उसे जानता हो।

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक निगम से पूछताछ करने से पहले तो प्रशासन कतराता रहा किन्तु मीडिया के बेलौस सवालों ने उसका हौसला बढ़ाया। मुख्यमंत्री तक ने सीधे केन्द्रीय गृह मंत्रालय से बात की और उनसे आरम्भिक पूछताछ की गयी। यह ज़रूर हुआ कि उनको पर्याप्त सम्मान देते हुए उनसे उनकी प्रयोगशाला में पूछताछ का समय लिया गया और फिर वहीं पूछताछ की गयी। प्रोफेसर निगम के सवालों के जवाब जांचकर्ताओं को संतुष्ट नहीं कर सके। वे बार-बार क्रेज़ी फ़ैंटेसी के काल्पनिक होने की बात दुहराते रहे। उनके जवाब से गृह मंत्रालय को अवगत कराया गया। केन्द्रीय टीम खुद चलकर उनके यहां पहुंची लेकिन कोई नतीज़ा नहीं निकला। देश भर में क्रेज़ी फ़ैंटेसी के प्रकट होने के नये नये मामले आते रहे और लोगों का प्रोफेसर निगम और सरकार के खिलाफ प्रदर्शन जोर पकड़ता गया। अन्ततः प्रोफेसर निगम को उनकी बेटी सहित उनकी प्रयोगशाला में नज़रबन्द कर दिया गया। ऐसा इसलिए भी किया गया क्योंकि प्रोफेसर की जान को ख़तरा हो सकता था, प्रदर्शन उग्र होते जा रहे थे। क्रेज़ी के बारे में जब तक प्रोफेसर नहीं बताते कोई कार्रवाई संभव ही नहीं लग रही थी। लोगों का कहना था कि प्रोफेसर इस अलौकिक शक्ति सम्पन्न प्राणी के सम्बंध में बहुत अच्छी तरह से जानते हैं किन्तु किन्हीं कारणों से वे उसका बचाव कर रहे हैं या फिर सरकार सब कुछ जानते-बूझते हुए लोगों के बचाव में आगे नहीं आ रही है। क्रेज़ी से जुड़े साहित्य, फिल्म व धारावाहिकों पर प्रतिबंध लगाया जा चुका था लेकिन मामला थमता नज़र नहीं आ रहा था। मरने वालों की संख्या सौ से अधिक हो चुकी थी। जिन लोगों ने देखा था वे दहशत से उबर नहीं पा रहे थे। कुछ लोग मानसिक रूप से विक्षिप्त हो चुके थे।


प्रोफेसर निगम अरसे बाद अपनी प्रयोगशाला में थे। क्रेज़ी फ़ैंटेसी सीरिज के लेखन ने उन्हें वक्त ही नहीं दिया था कि वे कछुओं से जुड़े अपने शोध को आगे बढ़ा सकें। अब क्रेज़ी फ़ैंटेसी की कहानियां लिखने का उनमें साहस नहीं रह गया और ज़रूरत भी नहीं थी। उसके चलते वे विकट परिस्थितियों में फंस गये थे। वे उलझन में थे कि ऐसा हुआ तो कैसे। उन्हें दूर-दूर तक याद नहीं आता कि ऐसे किसी प्राणी के बारे में उन्होंने किसी किताब में पढ़ा हो और अवचेतन में वे उसके बारे में लिख बैठे हों।

मन उदास और बुझा-बुझा सा था। बाहर कहीं निकल कर घूम आने का कोई उपाय न था। बाहर सख्त पहरा था।जाने कब तक वे नज़रबन्द रहेंगे और इस नज़रबन्दी से क्या हासिल होगा। उन्होंने पुराने शोध को आगे बढ़ाने का मन बनाया। कछुओं की बातों को समझने की ही कोशिश की जाये इस नज़रबन्दी में। उन्होंने कम्प्यूटरों पर वह मैसेज चेक किये जो कछुओं पर फिट किये गये थे। वे यह देखकर रोमांचित हो उठे कि एक कछुए ने अपनी ओर से भी उनसे सम्पर्क करने की काफी कोशिशें की हैं। उसका वाइस मैसेज चेक किया। वह पहले से काफी बदला लगा। यह साफ़ दिखायी देता था कि कछुओं की भाषा समझने में उन्होंने जितनी कोशिश की है उससे अधिक कोशिश एक कछुए ने आदमी की भाषा समझने में और उसी प्रकार बोलने में की है। ध्वनि तरंगों को लिपि और उसे मानवीय आवाज़ में बदलने वाले साफ्टवेयर की मदद से कम्प्यूटर ने कछुए की भाषा का तर्जुमा किया था। वह कछुआ मदद चाहता था मनुष्य से। निगम ने कछुए से तत्काल सम्पर्क किया। आदमी की आवाज से उठती तरंगों को उपकरणों की सहायता से कछुए तक सम्पर्क सध गया। और यह चमत्कार था जिसका प्रोफेसर को हमेशा से इन्तज़ार था। वे कछुए से संवाद कर सकते थे और उन्होंने किया भी। इसे वे बेहद गोपनीय भी रखना चाहते थे।

यह साढ़े चार सौ साल की उम्र का कछुआ था। वह उनसे मदद मांग रहा था। उसका कहना था कि समुद्र में तेल निकालने के जो प्रयास किये जा रहे थे उससे समुद्र की भारी क्षति होने जा रही है। समुद्र के पास अथाह सम्पदा है किन्तु उसे प्राप्त करने के तरीके मनुष्य ने नहीं सीखे हैं। उन्हें सीखना होगा। जिस प्रकार से तेल निकालने के प्रयास किये जा रहे हैं उससे स्वयं कछुए की जाति भी खतरे में पड़ने जा रही है और मछली सहित अन्य जीव भी जो समुद्र में रहते हैं।


धीरे-धीरे कछुआ प्रोफेसर का दोस्त बन गया और वे उसके साथ चैट पर बैठे रहते। प्रोफेसर ने अपनी समस्या बतायी क्रेज़ी फ़ैंटेसी के सम्बंध में। अपने अनुमान बताये कि क्या-क्या संभव है। कैसे हो सकती है ऐसी वारदात। कछुए के पास अपना साढ़े चार सौ साल का तजुर्बा था। उसके और भी साथी थे दुनिया भर के समुद्र में फैले हुए। अन्य प्राणी भी उसके दोस्त थे। कछुए ने सबसे सम्पर्क साधा। सबको बताया कि पृथ्वी के एक खास भूखंड में क्या हो रहा है। और फिर कछुए ने जो जानकारी दी वह प्रोफेसर के लिए पर्याप्त चौंकाने वाली थी।


प्रोफसर ने प्रधानमंत्री कार्यालय को फ़ोन लगाया और प्रधानमंत्री से मिलने का समय मांगा। समय तय हो गया क्योंकि वे स्वयं भी उनसे मिलना चाहते थे। प्रोफेसर के उपन्यास के चरित्र क्रेज़ी फ़ैंटेसी के चलते उनकी सरकार की खासी बदनामी हो चुकी थी। तत्काल एक विशेष विमान से उन्हें दिल्ली ले जाया गया और फिर प्रधानमंत्री निवास पर एक अति गोपनीय बैठक प्रधानमंत्री व प्रोफसर के बीच हुई। बैठक में उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था।

प्रोफेसर ने कहा-'प्रधानमंत्री जी क्या आपको पता है देश के कुछ हिस्सों में एक खास प्रकार की मछलियां विभिन्न समुद्र तटों पर पायी गयी हैं जिनका आकार सामान्य से कुछ बड़ा था।'

-'यह क्या सवाल हुआ। क्या आपको लगता है कि मेरे पास यह सब जानने का वक्त होता है। आपके कहने का आशय क्या है हम आपसे क्रेज़ी के बारे में जानना चाहते हैं और आप हैं कि मछलियों की चर्चा कर रहे हैं।'

-'यह बात उसी के संदर्भ में हो रही है। इन मछलियों में एक खास तरह के वायरस प्लांट किये गये थे जिनके कारण मछलियों का आकार सामान्य की तुलना में अधिक हो गया था। वे अस्वस्थ थीं और देश के विभिन्न तटों पर सुमद्र से बाहर निकल पड़ी थीं। जिन्होंने उस मछली को खाया उनमें एक खास प्रकार के फोबिया का संक्रमण हो गया, जो सच और कल्पना का फर्क़ भूल जाते हैं। जो बात उनके दिलों दिमाग को गहरे तक प्रभावित करती है उसे वे सच मान बैठते हैं और अपनी कल्पना को ही हक़ीकत समझ बैठते हैं। चूंकि इन दिनों मेरे उपन्यास लोगों को जेहन पर छाये हुए थे इसीलिए उन्होंने मेरी रचना के एक सशक्त पात्र को हक़ीकत समझ लिया।'

-'आपका कहने का मतलब है कि क्रेज़ी फ़ैंटेसी केवल कल्पना है। लोगों को उसके होने का वहम हुआ है।'

-'हां। क्योंकि जो लोग भी उससे प्रभावित हुए हैं वे केवल दहशत से हुए हैं। क्रेज़ी के सशरीर होने का प्रमाण कोई नहीं दे पाया है। जो लोग मरे हैं वे दुर्घटना में मरे हैं या फिर तनाव के कारण।'

-'आपको कैसे पता चला कि मछलियों में वायरस प्लांट किये गये हैं।'

-'मेरे अपने सोर्स हैं। जिन्होंने मुझे बताया। हम एक बहुत बड़ी अंतर्राष्ट्रीय साजिश का शिकार हुए हैं। हमें हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठना चाहिए।'

-'प्रोफेसर। क्या आपको पूरा यक़ीन है कि जो कुछ आप कह रहे हैं वह सच है।'

-'हां। मैं जानता हूं कि मैं किससे बात कर रहा हूं। यह वक़्त व्यर्थ में समय गंवाने का नहीं है देश के तमाम लोग संकट में हैं।' -'एक खास तरह के वायरस के बारे में मुझे गृह मंत्रालय ने बताया ज़रूर था लेकिन यह नहीं बताया था कि वह वायरस मछलियों में प्लांट किया गया था और वह मछलियां हमारे देश में पायी गयीं।'

-'कृपया पता लगवाइये, प्रधानमंत्री जी। इस बात का भी पता लगवा लीजिए कि जो लोग फोबिया का शिकार हुए वे शाकाहारी हैं या नहीं। मेरा मतलब है वे मछलियां खाते हैं या नहीं।'