क्षतशीश किन्तु नतशीश नहीं / कांति कुमार जैन
बच्चन जी बैंकुठपुर में
जब हमारे लिए बच्चन का अर्थ जी डबल ओ डी गुड होता था
जब पहली बार मैंने 43 या 44 में सरस्वती के पुराने अंक पलटते हुए बच्चनजी की प्रसिद्ध कविता 'इस पार प्रिये तुम हो, मधु है, उस पार न जाने क्या होगा' पढ़ी तो मेरा ध्यान कविता की ओर कम गया, कविता के शीर्ष पर प्रकाशित कवि के चित्र और उसके हस्ताक्षर पर ज्यादा एकाग्र हुआ। मैं उस समय सातवीं या आठवीं का रहा होऊँगा। 12 या 13 साल की उम्र में प्रिये और मधु वाली कविताओं के मर्म को पूरी तरह हृदयंगम करने की होती भी नहीं है। कविता के ऊपर कवि का जो चित्र छपा था- उसकी एक-एक बात मुझे आज भी- इतने वर्षों के लंबे अंतराल के बाद भी- बिल्कुल साफ-साफ याद है। कवि की केश राशि का घटाटोप, उसके घुँघराले, घोंसले से, बड़े-बड़े खींच कर काढ़े गए बाल, उसके चौड़े से माथे को और भी चौड़ा बना रहे थे।
बाल उसके जरूरत से कुछ ज्यादा ही बढ़े हुए थे और छतनार लग रहे थे। चेहरे पर चश्मा भी था- नैन नक्श बड़े साफ और सुपरिभाषित थे। मुख मुद्रा बड़ी कोमल-कोमल-सी थी- बेहद भाव प्रवण, सेंसेटिव और सेंसुअल चेहरे पर शायद एक मसा भी था। पर इस तस्वीर से भी ज्यादा ध्यानाकर्षक थे कवि के हस्ताक्षर।
मुझे लगा ही नहीं कि यह कवि का नाम होगा और ये कवि के हस्ताक्षर होंगे। कवियों के नाम जो अभी तक पढ़ने सुनने में आए थे रसा, पूर्ण, शंकर, एक भारतीय आत्मा, हरिऔध, नवीन, प्रसाद, निराला जैसे थे। बच्चन भी किसी कवि का नाम होगा- यह कल्पनातीत था। अपने अनाकर्षक, अकाव्यात्मक, बचपन के भदेस नामों को आकर्षक, काव्यात्मक, नफीस छवि प्रदान करने के लिए नाथूराम 'शंकर' बन जाते थे, देवी प्रसाद 'पूर्ण', सूर्यकान्त 'निराला', माखनलाल 'एक भारतीय आत्मा' तो गुसाई दत्त सुमित्रानंदन।
हरिवंश राय जैसे अच्छे खासे, कर्णप्रिय, बढ़िया नाम को पीछे ढकेलकर कोई बच्चन बनना पसंद करेगा, यह बाल बुद्धि की समझ में नहीं आया कि छायावाद की उदत्त भाषा, उदत्त शैली, उदात्त विषय वस्तु और उदात्त भावना को नकारने और उससे विद्रोह करने का यह कवि का अपना तरीका था। यह विद्रोह शायद अनजाने ही घटित हुआ था। कुछ विशिष्ट दिखने के लिए उन्होंने बच्चन जैसा खरेलू नाम ही नहीं स्वीकारा होगा, अपने बाल भी बढ़ा लिए हों तो कोई आश्चर्य नहीं। बच्चनजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है- 'वास्तव में बीसवीं सदी के नवजागरण के साथ हिन्दी के प्रायः सभी नवयुवक कवियों ने अपने समाज में अपने को अजनबी पाया होगा।
समाज से अपने को अलग करना चाहा होगा, किसी ने नया नाम लेकर, किसी ने नया रूप बनाकर, बाल बढ़ाकर, किसी ने नया परिधान धारण कर,। 'बच्चनजी के कवि नाम से, उनके बढ़े हुए बालों से, उनकी लिखावट से, समाज से अपने को अलग करने की यही लालसा प्रकट हो रही थी। बच्चनजी ने अपनी आत्मकथा में ही कहीं स्वीकार किया है कि उनके हस्ताक्षर की पद्धति में ही उनके काव्य का चरित्र, कवि-स्वभाव की व्यंजना, कवि व्यक्तित्व की विशिष्टता छिपी है।
बच्चनजी हिन्दी कविता को द्विवेदी युगीन पूजा घर से, छायावादी युगीन ड्राइंग रूम से बाहर निकाल कर जीवन के आँगन में लाए थे। वे जीवन के अच्छे- बुरे, खरे-खोटे, पापयुक्त, वासनामय, नैतिकों के बीच हिकारत से देखी जाने वाली भावनाओं और अनुभवों को कविता के केंद्र में लाने वाले कवि थे।