ख़ुद अपना एक दिलचस्प अपयश : जितेन्द्र कुमार / अशोक अग्रवाल

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“अगर मैं किस्सागो हूँ तो क्या यह जरूरी है कि मैं किसी और का किस्सा कहूँ- ज्यादातर कल्पना से लिखा गया और दूसरों के दिलोदिमाग में एक सर्वद्रष्टा-सा झाँककर? क्या यह जरूरी है कि किस्सा हमेशा किसी दूसरे का ही अपयश हो? यदि इस बार यह जरूरी न हो, तो आइये किस्सागोई की प्रचलित चतुराइयों को परे रखकर मैं आज आपको अपना किस्सा सुनाऊँ- खुद अपना एक दिलचस्प अपयश, कतई सच्चा और सहज, जैसा आजकल के किस्सों में नहीं होता. इस पर विवाद हो सकता है. कि मैं आला किस्सागो हूँ भी या नहीं, पर इसमें विवाद की गुंजाइश नहीं है कि अब मैं एक किस्सा कहने जा रहा हूँ ‘अपने’ बारे में- एक ऐसे आदमी के बारे में जिसके अन्दर झाँकने से वे दूसरे कतराते हैं- खुद अपने अन्दर, वे किस्सागो जो कवि बनने की फिराक में रहते हैं.”

यह जितेन्द्र कुमार की एक कहानी ‘खेल’ का प्रारम्भ है, यदि उन्होंने यशस्वी कवि-कथाकारों की तरह आत्मवृत्तान्त लिखा होता तो सम्भवतः उसकी शुरुआत भी कुछ इस तरह हुई होती. ‘खुद अपना एक दिलचस्प अपयश’ वह केन्द्रीय भाव है जिसे पकड़कर जितेन्द्र कुमार के व्यक्तित्व और कृतित्व में मर्म को कुछ हद तक समझा जा सकता है.

सुदूर दक्षिणी तटवर्ती शहर विशाखापत्तनम से 50-60घंटे की लम्बी रेल यात्रा करते वह पहली बार वर्ष 1978में हापुड़ आये थे, सामान के नाम पर सिर्फ नीले रंग का मोटी जीन्स से बना ढक्कनदार बड़ा झोला-इसी में जरूरी वस्त्र, डायरी और एकाध पांडुलिपि. लगभग उसी रंग और कपड़े की मटमैली जीन्स पहने थे जिसके पाउँचों के फुनगे जमीन से लिस्सड़ रहे थे. बुशर्ट की दोनों जेबों में सिगरेट के छोटे-छोटे टुकड़े भरे थे. बातचीत के मध्य जितेन्द्र एक टुकड़ा निकालते उसे सुलगाते और फिर दो-तीन कश खींचकर उसे बुझा जेब में रख लेते.

तथाकथित ‘भद्र’ और ‘सुसंस्कृत’ संसार की तमाम आचार संहिता को ठेंगा दिखाते इस व्यक्ति को देख यह अनुमान लगा पाना कि यह केन्द्रीय विद्यालय की आंग्ल भाषा का वरिष्ठ प्राध्यापक होगा लगभग नामुमकिन ही था. यह भी कि आचरण व्यवहार में इतना बेतरतीब अटपटा और औंघड़ दिखाई देने व्यक्ति अपने लिखे को लेकर उतना ही सतर्क, चौकस और संवेदनशील कि एक भी बाहरी, फालतू और निरर्थक शब्द की आवाजाही उसके रचना संसार को प्रदूषित न कर पाये.

दोहरा बलिष्ठ शरीर, अतिरिक्त रूप से बड़ी-बड़ी आँखें जिनमें शैतानी के साथ तंज और व्यंग्य का भाव घुला-मिला था, आडम्बरहीन बेलौस भाषा और खनक-खरज से भरपूर स्वर उस पहली मुलाकात की स्मृति आज भी बनी है,

कुछ घंटे हापुड़ में ठहर जितेन्द्र मुजफ्फरनगर की बस पकड़ते. दो-तीन दिन बाद वापसी में एक रात हापुड़ ठहर अगली सुबह दिल्ली के लिए निकल लेते. और फिर वहाँ से पुनः वही लम्बी यात्रा- विशाखापत्तनम, राउरकेला या चेन्नई, वर्ष ‘78से 86’ तक उनकी ये यात्राएँ अनवरत बनी रहीं. कभी-कभी साल में दो-तीन बार भी. रचनात्मकता की दृष्टि से यही समय जितेन्द्र के लिए सबसे अधिक उर्वर कहा जा सकता है. तीन उपन्यास, दो कविता-संग्रह, और दो कहानी-संग्रह इसी दौरान प्रकाशित हुए.

यह पहली दफा हुआ था कि जितेन्द्र मुजफ्फरनगर से कुछ ही घंटों में वापिस लौट आये. उखड़े हुए लेकिन संयत. मेरे कुछ पूछने से पहले स्वयं सहजता से बोले- ‘मुजफ्फरनगर जाना भविष्य में सम्भव नहीं होगा, शायद हापुड़ आना भी.’ मुजफ्फरनगर वह अपने किसी निकट सम्बन्धी के घर जाते थे. उनकी किशोर पुत्री के दैहिक आकर्षण में जिसका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं था. इस बार रंगे हाथ पकड़े गये.

“तुम क्या समझते थे मैं किताबें छपवाने के लिए ये यात्राएँ करता हूँ? अपने बारे में मुझे कोई मुगालता नहीं है, छपास को लेकर मेरे भीतर तनिक लोभ या आकर्षण नहीं है, हापुड़ रास्ते में पड़ता था इसलिए…. “

खुद अपना एक दिलचस्प अपयश जिसे जितेन्द्र निहायत निर्वैयक्तिक और तटस्थ भाव से बता रहे थे जैसे वह अपने बारे में नहीं किसी दूसरे के बारे में कह रहे हों.

चेन्नई के केन्द्रीय विद्यालय में उनका स्थानान्तरण प्रधानाचार्य पद पर हुआ. इस पद पर नियुक्ति से जितेन्द्र बेहद दुखी और उखड़े हुए थे. जिसका आभास उनके उन दिनों के लिखे पत्रों से मिलता था. उनका अंग्रेजी में लिखा पोस्ट कार्ड मिला- जिसमें प्रधानाचार्य की ओर से संभावना प्रकाशन को दस हजार रुपये की पुस्तकों का आदेश दिया गया था जिसकी अनिवार्य शर्त थी कि बिल पर दस प्रतिशत छूट दी जायेगी और बीस प्रतिशत राशि दिल्ली आने पर उन्हें नकद दी जायेगी. मिलने पर जितेन्द्र अपने उसी चिर-परिचित अन्दाज में हँसे-

“तुम्हें हैरानी हुई होगी. मैंने जानबूझकर पोस्ट कार्ड लिखा था. पोस्ट करने के लिए अपने क्लर्क को ही दिया. मैं चाहता था वह मेरे भ्रष्ट आचरण का यशोगान करे और मुझे भ्रष्ट आचरण के आरोप में प्रधानाचार्य के पद से बरखास्त कर दिया जाये. अनुशासन, अध्यापकों की चापलूसी और बाबूगिरी मेरे बस का रोग नहीं.’

ऐसे न जाने कितने दिलचस्प अपयशों की श्रृंखला जिन्हें जितेन्द्र ने स्वयं रचा.

दरअसल, उनकी मानसिक बुनावट आदिम युग के व्यक्ति की नैसर्गिक प्रवृत्तियों के अधिक नजदीक थी जहाँ नियम, परम्पराएँ, संविधान और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की संहिता सभी सहज व लचीला था. वन्य पशु-पक्षियों की तरह-सब कुछ प्रकृतिजन्य, कुछ भी आरोपित नहीं. इसी कारण भद्रता और शालीनता के दम्भ से फूले हुए गुब्बारे में धीरे से पिन चुभो देना जितेन्द्र का प्रिय शगल था.


पंचमढ़ी कथा शिविर में- जितेन्द्र कुमार, उदयन वाजपेयी और कृष्ण बलदेव वैद जी (बाएं से दाएं) फोटो आभार: अभिषेक अग्रवाल पंचमढ़ी में कृष्णबलदेव वैद द्वारा आयोजित कथा शिविर में जितेन्द्र कुमार भी शिरकरत करने आये थे. ‘प्ले ब्वाय’ की ख्याति पाये एक प्रतिष्ठित नाटककार, कथाकार, उपन्यासकार (अब स्व.) अपने तमाम भद्र लटके-झटकों, अपनी उपलब्धियों, विदेश यात्राओं, विश्व साहित्य के धुरन्धरों के पाठों और कलाक्षेत्र की ऊँची हस्तियों के साथ सम्पर्कों का बखान करते प्राणपण से एक युवा कवयित्री को लुभाने-प्रभावित करने की चेष्टा कर रहे थे. उन्होंने जितेन्द्र कुमार को लिखा तो पढ़ा क्या होगा सम्भवतः उनका नाम तक न सुना होगा. उनकी ‘आत्म प्रशस्ति’ जब सीमा पार कर गयी और सम्भवतः एकाध कटाक्ष भी उन्होंने जितेन्द्र कुमार को लक्षित कर दिये थे, फिर तो जितेन्द्र भी अपनी सम्पूर्ण वाक्-विदग्धता, खनकती-लरजती भावप्रवण स्वरलहरी, मौलिक चिन्तन के साथ उस फूले हुए गुब्बारे में उस समय तक पिन चुभोते रहे जब तक उनके तमाम बाहरी मुखौटे धराशायी नहीं हो गये और दयनीय, पस्त, हारे हुए, ईर्ष्या और क्रोध से थरथराते वह नशे में लड़खड़ाते उठकर अपने कमरे की ओर नहीं चले गये. उनके जाने के बाद जितेन्द्र कुमार फिर उसी तरह असंपृक्त और सहज-

‘वह नाटककार अवश्य बड़ा रहा होगा लेकिन मैं जानता हूँ कि उससे बेहतर अभिनेता हूँ.’

अपने तमाम निजी अराजक स्वभाव, जिससे प्रभावित होने वाले वह स्वयं या उनका छोटा सा निजी परिवार होता, जितेन्द्र कुमार अपने मित्रों व सम्पर्क में आये युवा लेखकों के प्रति उतने ही स्नेहिल, पारदर्शी और उनकी निजी समस्याओं के प्रति बेहद चिन्तित, सचेत और अनुशासित थे- लगभग अभिभावक की तरह. स्नेह और प्रेम का नैसर्गिक सोता उनके भीतर बहता रहता. मित्रों के साथ लड़ने-भिड़ने, उनकी टाँग खींचने या व्यंग्य भरे कटाक्ष करने के पीछे कोई वैमनस्य, द्वेष या कटुता का अंशमात्र भी नहीं होता था. यश-लिप्सा और ‘स्व’ से उदासीन निस्पृह व्यक्तित्व के प्रति इनके मन में गहरे सम्मान का भाव था. अकसर वह अशोक सेकसरिया की चर्चा इस सन्दर्भ में हमेशा आदर के साथ करते.

जितेन्द्र कुमार के जीवन में उन मित्रों की उपस्थिति विशेष महत्व रखती थी जिन्होंने उन्हें उनके कठोर, बेलौस खरे-खांटी व्यक्तित्व के साथ स्वीकारा था. विशाखापत्तनम जाते हुए ट्रेन के रास्ते में रायपुर आता था और रायपुर में विनोद से होकर गुजर रहे हों और विनोद कुमार शुक्ल से भेंट न हो यह उन्हें गंवारा नहीं था. उन्हें मालूम था विनोद जी संकोची, घरघुस्सू और आलसी जीव हैं. पता होने पर भी वह ऐन वक्त पर भूल जायेंगे या घर से नहीं निकलेंगे. जितेन्द्र कुमार ने इसका तोड़ निकाल लिया था. वह दिल्ली रवाना होने से पहले उन्हें पोस्टकार्ड लिखते कि उनकी ट्रेन किस समय रायपुर स्टेशन पहुँचेगी और वह स्वास्थ्य कारणों से प्लेटफॉर्म का भोजन नहीं कर सकते और उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं होगा. पोस्टकार्ड पोस्ट करने के बाद जितेन्द्र शरारत से हँसते-

‘विनोद कुमार शुक्ल ट्रेन पहुँचने से घंटे भर पहले हाथ में टिफिन लटकाए मेरा इन्तजार करेंगे. मिलने के लिए वह नहीं आते लेकिन मेरी भूख की चिन्ता उन्हें वहाँ खींच लाएगी.’

वह स्वयं भी मित्रों के प्रति उतने ही संवेदनशील थे. 1985का जून माह रहा होगा. पंकज सिंह उन दिनों नार्थ ऐवन्यू में एक सांसद की बरसाती में रहते थे. अपनी आवारगी और यायावरी के चलते वह दिनों तक दिल्ली से बाहर रहते उनकी बरसाती के ताले की एक अतिरिक्त कुँजी मेरे पास थी. जितेन्द्र कुमार को कुछ दिन के लिए दिल्ली ठहरना था. हमने पंकज सिंह के घर का इस्तेमाल करना तय किया. हमेशा की तरह पंकज सिंह दिल्ली से बाहर थे. जिस दिन शाम को जितेन्द्र को विशाखापत्तनम के लिए ट्रेन पकड़नी थी उस दिन वह सुबह बिना बताए बाहर निकले और ठीक दोपहरी में पसीने में लथपथ जब वापस लौटे तो उनके हाथों में एक महँगा बढ़िया स्टील का वाटर फिल्टर था,

‘पंकज बेहद लापरवाह है वह तो यह लाने से रहा, दिनों तक बाहर रहता है. दूषित पानी पी बीमार पड़ जायेगा.’

मुझे मालूम था उस समय उनकी जेब में टिकट के अलावा थोड़े से ही पैसे शेष रहे होंगे.

बातचीत के दरम्यान जब वह मुखर हो अपनी खुराफातों, निर्लज्ज आचरण और बेतुके स्वभावों का निर्वस्त्र बखान कर रहे होते उनके अनुपस्थित आत्मीय मित्रों की आवाजाही बनी रहती- विशेषकर सागर के दिनों की स्मृतियाँ. हँसते हुए वह बेलौस कहा करते-

‘विश्वविद्यालय के बाहर चाय के खोके के सामने बिछी बेंचों पर अशोक वाजपेयी, रमेश दत्त दूबे और बहुत से युवा कवियों को साहित्य की गम्भीर चर्चा या काव्य पाठ में मशगूल देखता तो उन्हें सताने के लिए मैं उनके सामने साइकिल खड़ी कर उससे टिककर खड़ा हो जाता और उनकी ओर व्यंग्य से मुस्कराता और जेब में भरी सूखी मछलियाँ निकालकर चकर-चकर खाने लगता. कविगण खीजते हुए उपहास से मेरी ओर देखते अपनी पीठ घुमा लेते. कविता से दूर तक मेरा कोई वास्ता नहीं था. उनकी देखा-देखी, कि जरा देखें तो सही ये तीसमारखाँ कौन तीर मार रहे हैं, मैंने भी कविता लिखनी शुरू कर दी.’

जितेन्द्र कुमार को अपने कवि होने का मुगालता न रहा हो या वह अपने को ‘श्रम साध्य’ कवि के रूप में शुमार करते हों, लेकिन ‘ऐसे भी तो सम्भव है मृत्यु की कविताएँ जिस गहरी संवेदना और शास्त्रीय संगीत के रागों की ऊँचाई का स्पर्श करती ऐन्द्रिकता से रची गयी हैं, वह जितेन्द्र कुमार को हिन्दी कविता में अनूठा और दुर्लभ (‘काल तुझसे होड़ है मेरी’- शमशेर बहादुर सिंह की प्रेम कविताओं का स्मरण करते हुए) स्थान दिलाने के लिए पर्याप्त है.

बीस वर्ष पूर्व की वह रात्रि आज भी मेरी स्मृति में उसी मोहाविष्ट कर देने वाली सघन अनुभूति के साथ जीवन्त है जब जितेन्द्र कुमार ने मोमबत्ती की हल्की रोशनी में (विद्युतआपूर्ति की कटौती के चलते)‘ऐसे भी तो संभव है मृत्यु’ की सभी कविताओं का पाठ अपने मंत्रबिद्ध कर देने वाले स्वर में किया था.

उदयन वाजपेयी ने सम्भवतः ‘ऐसे भी तो सम्भव है मृत्यु’ की कविताओं को पढ़ते हुए ही प्रेम और मानवीय नश्वरता का बड़ा कवि बताते हुए ठीक ही लिखा है -

‘जितेन्द्र की कविता का संसार देखने का, हजार-हजार आँखों से देखने का, सुनने का, छूने का, हजार-हजार कानों से सुनने का, छूने का, हजार-हजार उंगलियों से छूने का संसार है, और तब भी उस पर महीन गन्ध सा अभाव फैला रहता है.’

मन को अवसादग्रस्त करने वाली जितेन्द्र कुमार की आख़िरी भेंट । जितेन्द्र के फौजी डॉक्टर बेटे, जो कश्मीर में कार्यरत था, की आतंकवादियों द्वारा नृशंस हत्या कर दी गई थी । इस त्रासद घटना के कुछ माह बाद मेरा भोपाल जाना हुआ। वहाँ मैं राजेश जोशी के घर ठहरा हुआ था। जितेन्द्र कुमार लगभग एकान्तवास में चले गए थे । मैंने फोन पर मिलने की इच्छा जतायी तो कुछ क्षण की खामोशी के बाद सिर्फ इतना कहा - ‘अच्छा लगेगा, सिर्फ इस बात का ध्यान रखना कि हम उस बारे में कोई चर्चा नहीं करेंगे ।’

जितेन्द्र जी ने मेरे और मेरे मित्रों के हालचाल पूछे, निर्मला जी आईं और चाय की ट्रे रख उसी तरह वापिस लौट गईं. राजेश और मैं क़रीबन एक घण्टा उनके साथ रहे । जितेन्द्र जी उपस्थित होकर भी उपस्थित नहीं थे । चलते समय उन्होंने बरामदे से ही विदा ली - ‘मुझे ‘सन बर्न’ हो गया है गेट तक पहुँचाने नहीं आ सकूँगा ।’ मैंने उनके चेहरे की ओर देखा - माथा और आँखों के नीचे के हिस्से ।

स्याह मटमैले बड़े-बड़े चकत्ते उभर आए थे । ‘सन बर्न’ यानी सूरज की रोशनी से बचाव । यह तो सिर्फ़ बीमारी का बाहरी लक्षण था । असली अदृश्य ‘सन बर्न’ तो उनकी आत्मा में हुआ था - उस दिन जिस दिन उनके अपने बेटे की नृशंस हत्या का समाचार मिला था और उन्होंने बाहरी संसार से अपने सारे सूत्र समेट लिए थे ।