खामोश चीखों का जंगल हैं बंदिनी प्रकोष्ठ / संतोष श्रीवास्तव
विचाराधीन कैदी... अंग्रेज़ी में जो अंडर ट्रायल प्रिजनर्स कहलाते हैं। उनका अपराध? यह तो अदालत तय करेगी कि वे अपराधी हैं या निर्दोष। लेकिन कब? अदालत की लंबी-लंबी सुनवाई का तारएकों का एक के बाद एक इंतजार करते-करते सालों साल गुजर जाते हैं। कैदी अगर निर्दोष साबित हुआ तो क्या कानून लौटा पायेगा उसके जेल में गुजारे साल? कैदी अगर स्त्री है तो कैद एक लंबी यातना बन जाती है क्योंकि न तो वहाँ उसका कोई सुनने वाला है, न ही उसकी पीड़ा को महसूस करने वाला। बच्चों के लिए तरसती, रोती, कलपती इन निर्दोष बंदिनियों के पास नारी शरीर भी तो है जहाँ पुरुष की लार सबसे पहले टपकती है। भारत की 1128 जेलों में एक लाख अस्सी हजार विचाराधीन कैदी हैं। आंकड़े ज़्यादा भी हो सकते हैं। इन स्त्रियों को अक्सर चोरी, तस्करी, नशीले पदार्थ, चरस, गांजा, अफीम, हेरोइन आदि को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने के जुर्म में या फिर ऐसी सास, ननदें जो बहू, भाभी की हत्या करने, जलाने के जुर्म में पकड़ी गई हैं या फिर पति प्रेमी से मिले धोखे, प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या का प्रयास, पितृसत्तात्मक परिवार में हाशिए पर धकेली गई स्त्री का बिगड़ता मानसिक संतुलन, बिना टिकट यात्रा, जुर्माना भर न सकने की स्थिति में जेल, टैक्सी का किराया न दे पाना, बीयर बार से धरपकड़ की गई बालाएँ, चकला-कोठा चलाने वाली आंटियाँ, जेब काटना, चेन खींचना, लूट-खसोट और भी न जाने किन-किन अपराधों के तहत पकड़ा जाता है। गवाहों के अभाव, आर्थिक संकट के कारण जमानत न हो पाना आदि के कारण ये विचाराधीन कैदियों के प्रकोष्ठ में ढकेल दी जाती है और फिर शुरू होता है इंतजार का जानलेवा समय। जिन प्रकोष्ठों में मात्र 35 कैदी रह सकते हैं वहाँ 150 कैदी बोरों में आलू-प्याज की तरह ठूंस दिए जाते हैं। महिला पुलिस की संख्या कम होने के कारण एस्कोर्ट के इंतजार में सुनवाई की तारएक निकल जाती है और कैद लंबी होती जाती है।
जेल में कमरों के आगे बड़ा-सा आंगन तीन ओर ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरा होता है। पूजा-अर्चना के लिए तुलसी का चौरा किनारे-किनारे पौधों की लंबी कतारें। हरी साड़ी में लिपटी कैदी औरतें... इन औरतों में कितनों को सजा मिल चुकी है। कितनी यूं ही ज़िन्दगी काट रही हैं अदालत के फैसले के इंतजार में। ऐसी औरतों के लिए आवश्यक नहीं है कि वे जेल की पोशाक पहनें। खुरपी से क्यारियों की घास निकालते, पौधे रोपते हुए न जाने कितने आंसू इनकी आंखों से गिरे होंगे। जिन्होंने अपराध किया है उनके आंसूं पछतावे भरे होंगे। जिन्होंने नहीं किया उनके आंसू फिसलती ज़िन्दगी को न पकड़ पाने की पीड़ा से भरे होंगे। औरतों का एक समूह मन से या बेमन से कसीदाकारी, बातिक कला, मारवाड़ी कला सएक रहा है। कुछ निरक्षर महिलाएँ, साक्षर होने के लिए स्लेट-पेंसिल हाथ में लिए अक्षर ज्ञान में जुटी हैं और बाकी सूनी आंखों से कुछ तलाश रही हैं... शायद अपना परिवार, पति, बच्चे, माता-पिता।
औरत कितनी अधिक जुड़ी है अपने परिवार से। कई औरतों से जुर्म करवाए जाते हैं, उनका नाम फंसाया जाता है। वे दूसरों का अपराध अपने सिर लेकर दूसरों की सजा खुद भुगतती है। जेल का आंगन बड़ा हो या छोटा... उनके दर्द का प्रतिशत तो वही होता है। दर्द खुद मोल लेने की सजा उन्हें भीतर ही भीतर कचोटती है। इन सभी कैदी औरतों की अपनी-अपनी कहानियाँ हैं, जुर्म की लंबी-लंबी दास्तान हैं। इन्हीं में से एक है रायपुर सेंट्रल जेल की शैल साहू। उसे हत्या के जुर्म में आजीवन कारावास की सजा मिली है और उसने उच्च न्यायालय में अपील की जो विचाराधीन है। जल्द ही जेल से रिहा हो जाने की उम्मीद में शैल की आंखें मुस्कराती हैं। वह कैद के इन दिनों को व्यर्थ नहीं जाने दे रही है। उसमें आत्मविश्वास है कुछ कर दिखाने की तमन्ना है। इसलिए वह वकालत की पढ़ाई में जुटी है। जेल से छुटकारा पाते ही वह गरीब और बेसहारा औरतों के लिए लड़ना चाहती है। वह इस बात से भी चिंतित है कि जो अपराध उसने किया ही नहीं उसके बारे में जब उसकी तीन साल की बेटी जानेगी तो उस पर क्या गुजरेगी? क्या वह भी अपनी माँ को दोषी पायेगी। तब उसके लिए पूरा जीवन ही कैद से बदतर हो जाएगा।
जेल के नियमानुसार 6 वर्ष तक की उम्र होने तक ही बच्चा अपनी माँ के साथ जेल में रह सकता है। उसके बाद या तो उसे परिवार वाले ले जाते हैं या वह बाल आश्रम भेज दिया जाता है। बिछुड़े हुए बच्चे की याद में बिसूरती माँ की रातों की नींद उड़ जाती है। औरत हृदय से ही कोमल होती है। जुर्म करना उसकी फितरत नहीं पर हालात उसे अपराधी बना देते हैं। जेल में रहते हुए न तो उसके मन में बदले की भावना रहती है न जेल से छुटकर उसे फंसाने वाले लोगों को मजा चखाने की। वह केवल अफने परिवार के लिए चिंतित रहती है और वहीं लौटना चाहती है। जेल में सांसें चलाए रखने के लिए ज़रूरी इंतजामात है पर परिवार तो नहीं है।
इक्कीस वर्षीय सुमित्रा भी आजीवन कारावास की सजा भुगत रही है। इतनी छोटी उम्र में परिवार के बगैर रहते हुए अब जान गई है आजीवन कारावास क्या होता है। उसके हाथों गैर इरादतन हत्या अपनी आत्मरक्षा के लिए ही हुई, लेकिन उसका वकील यह सिद्ध नहीं कर पाया। गवाह कमजोर, आर्थिक अभाव, नतीजा-आजीवन कारावास। चकित हिरणी-सी उसकी आंखें क्षणमात्र में ही आंसुओं का सोता बन गई-देश की रक्षा के लिए सैनिक खून करे तो ये गर्व की बात है, मैंने अपनी रक्षा के लिए पत्थर उस बलात्कारी राक्षस के सिर पर दे मारा और वह मर गया तो ये अपराध हो गया? जिसकी सजा आजीवन कारावास... उम्र के सारे वसंत उसे इन ऊंची-ऊंची दीवारों के साये में गुजारने होंगे। जब वह लौटेगी तो उम्र की पतझड़ के सूखे पत्ते उसके कदमों के संग-संग उड़ेंगे।
नशीले पदार्थों की तस्करी करते हुए यदि कोई विदेशों में पकड़ा जाता है तो उसे फौरन बंदूक से उड़ा दिया जाता है। भारत का कानून अभी इतना कठोर नहीं बना है। यहाँ सात-आठ साल की कैद उनके लिए पर्याप्त मानी जाती है। कैद की अवधि पूरी होने पर जब वे जेल के बाहर आती हैं तो ऐसी विदेशी औरतों के लिए अनजान देश अनेक समस्याएँ खड़ी करता है। अव्वल तो वे जाएँ कहाँ? न कोई परिचित और न ही कोई जानी-पहचानी जगह। जेल से छुटने के समय पुलिस कागजात इकट्ठे कर देती है। फिर पासपोर्ट के रिकार्ड की छानबीन होती है। जेल में कमाए धन से टिकट अवश्य खरीदी जा सकती है। पर वीजा कि जद्दोजहद भी उठानी पड़ती है। इस लंबी प्रक्रिया में औरत रहे कहाँ। यदि उसके रहने का इंतजाम पुलिस के जरिए होता है तो उसे कभी-कभी असुरक्षा भी घेर लेती है। सभी पुलिसकर्मी एक से नहीं होते... कभी-कभी औरत को बुरे अनुभवों से भी गुजरना पड़ता है।
नशीले पदार्थों की तस्करी के जुर्म में मुंबई के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हांगकांग से आई पच्चीस वर्षीया सबीना पकड़ी गई। जुर्म साबित होने पर उसे छह वर्ष की जेल हुई। छह वर्ष पश्चात जब वह जेल से बाहर आई तो मुंबई उसके लिए अनजान नगरी थी। इस बीच उसके परिवार के सदस्यों ने भई उसकी खोज खबर नहीं ली। हांकांग के उसके मित्रो के पते भी उसके पास नहीं थे। जेल की महिला वार्डन ने उसकी सहायता करने के उद्देश्य से उसे एक पुलिस कर्मी के साथ समाजसेवा के कार्य में रत एनजीओ संस्था के पास भेजा। पुलिसकर्मी अपने दो तीन दोस्तों को साथ लेकर उसे होटल में ले आया और झूठी सांत्वना देकर उसका विश्वास जीत कर उसे कुछ दिन होटल में रहने की सलाह दी, जब तक कि वीजा नहीं मिल जाता। सबीना के पास होटल में रुकने के अलावा कोई चारा न था। दूसरे दिन पुलिसकर्मी अपने दोस्तों के साथ फिर आया लेकिन इस बार उसका इरादा कुछ और था। उन्होंने पूरी रात सबीना के साथ बिताई। उसे शराब पिलाई और फिर सबने उसके साथ बलात्कार किया। बाद में पता चला कि वह होटल कॉल गर्ल्स के लिए ही बनाया गया था। सबीना टूट चुकी थी। वह पेशेवर अपराधी नहीं थी और अपनी एक गलती की उसने लंबी सजा पाई थी। उसने हिम्मत को अपने भीतर टटोला और जेल की वार्डन को फोन करके सारी हकीकत बयान कर दी। वार्डन ने सबीना का साथ दिया। उसके देश में उशकी वापसी के साथ ही पुलिसकर्मी अपने दोस्तों के साथ ठगी और बलात्कार के जुर्म में सींखचों के अंदर था।
औरत का सबसे बड़ा दुश्मन है उसका शरीर। वह चाहे अपराधी हो या निर्दोष, शरीर को लेकर हमेशा मात खा जाती है। सबीना जैसी न जाने कितनी लड़कियाँ ऐसे वाकयों से दो-चार होती रहती हैं। उनके गुनाहों की सजा कानून से तो मिलती ही है उनके शरीर से भी मिलती है।
मध्य भारत में एक जनजाति है कंजर। प्राचीन भारत की यह सबसे प्रमुख घुमंतू जाति है। जो जंगलों में घूमते रहने के कारण पहले कानन चर कहलाई फिर कंजर। वह जाति अक्सर शहर से बाहर कुछ दिनों के लिए बसेरा करती है। पुरुष लकड़ी से बनाया हुआ सामान शहर के बाजारों में बेचते हैं और स्त्रियाँ शहर के रईसदाजों के संग देह व्यापार करती हैं। इस काम के लिए उन्हें अपने परिवार से स्वीकृति प्राप्त है। कंजर हीरा, मंगला, महुआ और बचनों को तीन-चार रईसजादों के साथ छापे के दौरान पुलिस ने हिरासत में ले लिया। रईसदाजे तो जमानत पर छूट गए पर कंजर औरतों की न तो किसी ने जमानत ली और न थानेदार ने ही उन्हें छोड़ा। वैसे थानेदार उन्हें एक दिन से ज़्यादा हवालात में रख भी नहीं सकता वह भी धारा 151 के अंतर्गत। क्योंकि देह व्यापार के इल्जाम में हवालात में रखने का अधिकार केवल डीएसपी को ही है।
वैसे भी कंजर औरतें हवालात से नहीं घबरातीं। इस सबकी वे अभ्यस्त होती हैं। हफ्ते भर के बाद भी डेरे पर नहीं लौटने के कारण परिवार की औरतें थाने आई। थानेदार ने जब जमानत के रुपये जमा करने की बात की तो औरतें इंकार करती रहीं। वैसे भी उतनी बड़ी रकम जमा करने की औकात उनकी नहीं थी। थानेदार ने सबको बिना जमानत छोड़ने की शर्त रखी, साथ आई पंद्रह वर्षीय रत्ती को एक रात उसके साथ गुजारने की। यानी जिस अपराध में कंजर औरतें पकड़ी गई उसी के बल पर वे छूट सकती हैं। न्याय प्रणाली की इस भयावह स्थिति पर क्या कभी समाज सुधारकों का ध्यान गया है। माना कि यह न्याय की प्रणाली नहीं है पर न्याय देने वाले पदासीन अधिकारी तो जनता को यही बता रहे हैं कि यही प्रणाली है।
देह के स्तर पर मात खाई, हवालात के बाहर समाज में पदार्पण करते ही इन कैदी औरतों को तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी परिवार उन्हें स्वीकार नहीं करता, कभी वे खुद भी परिवार में लौटना नहीं चाहतीं। क्योंकि उनके लिए घर, जेल की कोठरी से भी ज़्यादा सीलन, बदबू और घुटन से भरा होता है और उसका पति पुलिस से भी ज़्यादा बर्बर, हिंसक। वे अपने बारे में फैसला नहीं कर पातीं कि आखिर अब ज़िन्दगी की शुरूआत कैसे करें? कैदी होने का धब्बा उन्हें चरित्रहीनता का सर्टिफिकेट थमा देता है। उन्हें नौकरी भी नहीं मिल पाती। वे मानसिक संतुलन खो देती हैं। चारों ओर से चकराई, घबराई ऐसी औरतों की मदद के लिए ही प्रयासरत है टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंसेज का प्रयास नामक प्रोजेक्ट। यह संस्था जेल से छूटी कैदी औरतों के पुनर्वसन का कार्य कर रही है तथा आर्थिक, मानसिक सहयोग देते हुए जीवन के प्रति उनमें रुचि जगा रही है। ऐसी कई गैर-सरकारी संस्थाएँ हैं जो इसी दिशा में प्रयासरत हैं लेकिन इन संस्थाओं तक कैद से रिहा हुई औरतों को पहुँचाएँ कौन? राह में बहकाने फुसलाने वाले अनेक हैं, मार्गदर्शन देने वाला बिरला ही कोई। कई बार औरतें दलालों के हाथ पड़ जाती हैं और उन्हें देह व्यापार से जुड़ना पड़ता है। चक्रव्यूह कुछ ऐसा कि वे बस छटपटाती रह जाती हैं, छूट नहीं पातीं।
महिला संगठनों और महिलाओं के लिए काम करने वाली संस्थाएँ यदि सीधे जेल से ही संपर्क करें तो महिला कैदियों के साथ बहुत कुछ अनर्थ होने से रुक सकता है। वैसे प्रयास संस्था मुंबई के आर्थर रोड जेल के संपर्क में है और जिन महिलाओं को मदद या मार्गदर्शन चाहिए उन्हें वह पूरा सहयोग देती है।
किस तरह बिखर जाता है जीवन? औरत चूंकि अभी भी पूरी तरह से आत्मनिर्भर या अपने निर्णय स्वयं लेने योग्य खुद को नहीं पाती। अत: जेल के दरवाजों के अंदर ज्योंहि उसका प्रवेश होता है यूं समझिए कि एक पूरा परिवार टूट जाता है। यदि पुरुष को जेल होती है तो औरत परिवार को बड़ी होशियारी से संभाले रखती है लेकिन औरत के बिना पुरुष कुछ नहीं कर पाता। वह अपनी तमाम कुंठा, बेचैनी और झुंझलाहट को शराब के प्याले में घोलकर पी जाता है और नशे में भरकर बच्चों को मारता-पीटता है। पड़ोसी भी बच्चों को माँ के कैदी होने के ताने देते हैं, उनका तिरस्कार करते हैं। स्कूल में भी उन्हें तीरस्कार, अवहेलना सहनी पड़ती है। औरत की ससुराल के सदस्य भी बच्चों को प्रताड़ित करते हैं और उन्हें भोजन, दवाई, स्कूल की फीस, किताब-कॉपी, कपड़ों आदि से वंचित रखते हैं। कई बार इन प्रताड़नाओं से तंग आकर बच्चा ग़लत राह पकड़ लेता है, हिंसक और झगड़ालू हो जाता है। आत्महत्या कर लेता है या आतंकवादी हो जाता है। लड़कियाँ यौन उत्पीड़न का शिकार हो जाती है।
अगर कैदी लड़की है और परिवार आर्थिक संकट से गुजर रहा है तो वह नहीं चाहता कि लड़की कैद से छूटकर घर आए। इससे एक आदमी के खर्चे में इजाफा ही होगा। तब वह बदनामी और लड़की की अन्य बहनों की शादी न होने का बहाना बनाकर पल्ला झाड़ लेता है। पति अपनी कैदी पत्नी को तलाक दे देता है बल्कि कैद की अधि में ही वह दूसरा ब्याह रचा लेता है। असामाजिक तत्व ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं। वे कम उम्र की कैद से छूटी लड़कियों को वैश्यालय या अरब देशों में भारी रकम वसूल कर बेच देते हैं। इस काम में कभी-कभी पुलिस भी शामिल रहती है और अपना हिस्सा वसूलती है। आतंकवादी भी महिलाओं की टोह में रहते हैं क्योंकि महिलाएँ गुप्तचरी का या जीवित बम का काम बखूबी निभा लेती हैं। जेल में सजा काटने की पीड़ा और जेल से बाहर आकर समाज और परिवार के तिरस्कार की पीड़ा औरत का मानसिक संतुलन बिगाड़ देती है। ऐसे में उसका इलाज कौन करवाए? वह बौराई हुई नशीले पदार्थोें का सेवन करने वाले पुरुषों के हत्थे चढ़ जाती है या आवारा मनचले मर्दों के द्वारा बलात्कार की शिकार हो रेलवे स्टेशनों, सिनेमाघरों के बाहर गर्भभार ढोती नजर आती हैं।
आखिर विश्वास करें तो किस पर? सरकारी नीतियों, घोषणाओं, आंकड़ों पर या औरतों की वास्तविक स्थिति पर? इन दोनों के बीच कितनी गहरी खाई नजर आती है। पटना के रिमांड होम (उत्तर रक्षा होम) पर यदि एक नजर डाली जाए तो लगभग पचास लड़कियाँ ऐसी नजर आएंगी जो वर्षों से इसलिए कैद हैं क्योंकि उन्होंने अफने परिजनों की इच्छा के खिलाफ अपनी पसंद से जीवनसाथी चुन प्रेम विवाह किया। बालिग हो जाने के बाद तो अपनी मर्जी से विवाह करना कानूनी है। शादी के बाद पति-पत्नी को साथ रहकर जीवन-यापन करने की आजादी है। लेकिन परिजनों ने उन्हें नाबालिग बताकर उनके पति पर अपहरण का झूठा मुकदमा दायर कर उन्हें जेल भिजवा दिया। अब उन लड़कियों को शादी के पैगाम का इंतजार है जो अदालती आदेश के बाद आएगा। पिछले बीस वर्षों से रिमांड होम परिसर में शहनाइयाँ नहीं बजी हैं। क्योंकि शादी पर अदालत ने रोक लगा रखी है। अदालत का कहना है कि पिछली बार रिमांड होम में संपन्न शादी के बाद कुछ लड़कियों ने शिकायत की थी कि उन्हें बेच दिया गया है और यह भी कि शादी के नाम पर कुछ लड़कियों को बूढ़ों के हवाले कर दिया गया है। इसलिए शादी पर पूर्णतया रोक लगा दी गई। सही-गलत की तलवार पर अपना संतुलन साधती इन लड़कियों के जीवन में सिवा एक इंतजार के और बचा ही क्या है। प्रेम करना यदि गुनाह है तो बेशक वे सजा पा रही हैं और यदि गुनाह नहीं है तो फैसले के इंतजार में गुजरे सालों को क्या कानून लौटा पाएगा? क्या निरंतर उम्रदराज होती ये लड़कियाँ विवाह योग्य रह भी पाएंगी?
कमोबेश यही हालत पटना स्थित फुलवारी कैंप जेल की महिला कैदियों की है। जेल के गंगा-गंगोत्री वार्ड में कई ऐसी कैदी हैं जो छोटे-मोटे अपराध के लिए यहाँ वर्षों से कैद हैं। उनकी जमानत हो सकती है लेकिन इसके लिए पहल करने वाला कोई नहीं है। वे पढ़ी-लिखी नहीं होने के कारण यह भी नहीं जानतीं कि ऐसी परिस्थिति में क्या करना उचित है। जेल प्रशासन की ओर से भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। उनकी सुध लेने वाला, उनका मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं है। महिला अधिकार और उनके सवालों को लेकर सड़कों पर शोर मचाने वाले महिला संगठनों की चुप्पी से महिला कैदी चकित हैं।
कानून का काम यदि अपराधी को केवल सजा देना है तो वह इस काम में निश्चय ही सफल हुआ है। लेकिन क्या बस इतने तक ही उसकी जिम्मेदारी है? देश का कानून यदि नागरिक सुरक्षा नहीं दे सकता तो सचमुच वह अंधा है। क्या उसे ऐसे सुधारगृह नहीं बनाने चाहिए जहाँ कैद से छूटी महिलाएँ अपना आत्मविश्वास पुन: पा सकें? अपनी जीविका चलाने लायक तालीम हासिल कर सकें? लघु उद्योगों के लिए सही मार्गदर्शन पा सकें, समाज में वे उस जगह तक पहुँच जाएँ जहाँ वे सुधरी हुई शख्सियत के रूप में स्वीकारी जाएँ न कि तिरस्कृत रूप में।
अपनी वजह से औरत कम ही अपराधी बनती है। समाज की उसके विरुद्ध साजिश जिसे वह धर्म, परिवार, इज्जत से जोड़ता है, ही उसे अपराधी बनाती है। कुछ अपवाद अवश्य हैं जब औरतें पेशेवर अपराधी होती हैं। लेकिन ज्यादातर मामलों में हालात, माहौल और अत्याचार उसे अपराधी बनाते हैं। आखिर उसे न्याय मिलता ही कहाँ है? चाहे भंवरी बाई हो चाहे रूप कुंवर कानून उसे लपटों में जलता मूक दर्शक की तरह बस देखता ही रह जाता है। मुकदमा चलता है, आंकड़े उछाले जाते हैं। समाचार चैनलों पर बुद्धिजीवियों को बैठाकर इन मसलों पर तर्क-कुतर्क कराए जाते हैं और घर की दहलीज लांघना कैद से रिहा औरत के लिए एक ज्वलंत प्रश्न बन जाता है जो वाजिब, गैर वाजिब की सारी हदें पार कर जाता है। कानून की विसंगतियों अंतर्विरोधों से चरमराई, चोट खाई औरत यह मान लेती है कि वह जो जेल से बाहर निकलेगी सो कोई न तो उसका इंतजार करता मिलेगा और न ही उसका अपना कोई घर होगा। बल्कि वह पति के लिए बदनामी का, बच्चों के लिए ताने, तिरस्कार का और माता-पिता के लिए बोझ का सबब होगी और इनमें से हर कोई उससे छुटकारा पाना चाहेगा। उसकी स्थिति एक बनजारिन की तरह हो जाएगी जिनका कोई ठिकाना नहीं होता।