खामोश लम्हे / भाग 1 / विक्रम शेखावत

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रात अपने पूरे यौवन पर थी। त्रिवेणी एक्सप्रेस अपने गंतव्य को छूने सरपट दौड़ रही थी। सभी यात्री अपनी अपनी बर्थ पे गहरी नींद मे सोये हुये थे मगर एक अधेड़ उम्र शख्स की आंखो मे नींद का नामोनिशान तक नहीं था। चेहरे पर उम्र ने अपने निशान बना दिये थे। जीवन मे लगभग पचपन से ज्यादा बसंत देख चुका निढाल सा अपनी बर्थ पे बैठा ट्रेन की खिड़की से बाहर फैली चाँदनी रात को देख रहा था। जहां दूर दूर तक फैला सन्नाटा इंजन के शोर से तिलमिला कर कुलबुला रहा था। आसमान मे चाँद तारे अपनी हल्की थपकियों से अल्हड़ चाँदनी को लोरियाँ दे रहे थे, जो अंधेरे को अपने आगोश मे ले बेपरवाह सी लेटी हुई थी। कभी-कभी कहीं दूर किसी बिजली के बल्ब की हल्की रोशनी पेड़ों के झुरमुटों से नजर आती थी। उसकी आंखे दूर तक फैली चाँदनी के उस पार अपने अतीत को तलाश रही थी जो वक़्त के लंबे अंतराल मे कहीं दफ़न हो चुका था। वह बार बार अतीत के उन आधे अधूरे दृश्यों को जोड़कर एक सिलसिलेवार श्रींखला बनाने की कोशिश करता मगर वक़्त के बहुत से हिस्से अपना वजूद खो चुके थे। इसी उधेड़बुन मेँ न जाने कब उसके थक चुके मस्तिष्क को नींद ने अपने आगोश मे ले बाहर पसरी चाँदनी से प्रतिस्पर्धा शुरू करदी। ट्रेन लोगों को उनकी मंजिल तक पहुँचाने के लिए बेरहमी से पटरियों का सीना रोंदती बेतहाशा भाग रही थी।

बीस वर्षीय भानु अपने बड़े भाई के साथ अपने कॉलेज दाखिले के लिए अनुपगढ़ आया था। पहली बार गाँव से शहर मे पढ़ने आया भानु शहर की चहल-पहल से बहुत प्रभावित हुआ। भानु के बड़े भाई का अनुपगढ़ मे तबादला हो गया था तो उन्होने भानु को भी अपने पास पढ़ने बुला लिया। बारहवीं तक गाँव मे पढ़ा भानु आगे की पढ़ाई के लिए शहर आया था। हालांकि उसके भाई को सरकारी आवास मिला था मगर वह भानु के कॉलेज से काफी दूर होने के कारण, उसके बड़े भाई विजय ने उसके कॉलेज से मात्र एक किलोमीटर दूर रेलवे कॉलोनी मे, अपने एक दोस्त के खाली पड़े क्वार्टर मे उसके रहने का प्रबंध कर दिया था। दूर तक फैले रेलवे के दो मंज़िला अपार्टमेंट्स में करीब सत्तर ब्लॉक थे और हर ब्लॉक मे आठ परिवार रह सकते थे। जिसमे चार ग्राउंडफ्लोर पे पाक्तिबद्ध बने थे और चार पहली मंजिल पे, जिनके दरवाजे सीढ़ियों में एक दूसरे के आमने सामने खुलते थे। पहली मंजिल मे दो बैडरूम का मकान उस अकेले के लिए काफी बड़ा था। पहले दिन भानु ने पूरे मकान का जायजा लिया, रसोई मे खाना बनाने के लिए जरूरी बर्तन, स्टोव और कोयले की अंगीठी तक का इंतजाम था। भानु अपने घर मे माँ के काम मे हाथ बंटाते बंटाते खाना बनाना सीख गया था। रसोई के आगे बरामदा और बरामदे के दूसरे सिरे और मुख्य दरवाजे के दायें तरफ स्नानघर था जिसके नल से टिप टिप टपकता पानी, टूट कर झूलता हुआ फव्वारा और कोनों मे जमी काई से चिपके कॉकरोच, उसे सरकारी होने का प्रमाणपत्र दे रहे थे।

एक पूरा दिन भानु को उस मकान को रहने लायक बनाने मे ही लगाना पड़ा। शाम को बाजार से दैनिक उपयोग की चीजें खरीद लाया। रात को देर तक सभी जरूरी काम निपटा कर सो गया। पहली रात अजनबी जगह नींद समय पे और ठीक से नहीं आती। अगली सुबह देर से उठा, हालांकि आज रविवार था, इसलिए कॉलेज की भी छुट्टी थी।

शयनकक्ष मे बनी खिड़की से सामने दूर दूर तक रेलवे लाइनों का जाल फैला हुआ था। आस पास के क्वार्ट्स मे रहने वाले बच्चे, रेलवे लाइन्स और अपार्टमेंट्स बीच सामने की तरफ बने पार्क मे खेल रहे थे जो भानु के अपार्टमेंट के ठीक सामने था। बच्चो के शोरगुल को सुनकर भानु की आँख खुल गई थी। अपार्टमेंट के दायें और बरगद का पुराना पेड़ बरसों से अपनी विशाल शाखाओं पर विभिन्न प्रजाति के अनेकों पक्षियों का आशियाना बनाए हुआ था। उसकी काली पड़ चुकी छाल उसके बुढ़ा होने की चुगली खा रही थी। बरसात के दिनों मे उसके चारों तरफ पानी भर जाता था, जिसमे कुछ आवारा पशु कभी कभार जल क्रीडा करने आ धमकते और उसी दौरान पेड़ के पक्षी उनकी पीठ पर सवार हो नौकायन का लुत्फ उठा लेते थे। पार्क मे कुछ बुजुर्ग भी टहल रहे थे। पूरी ज़िंदगी भाग-दौड़ मे गुजारने के बाद बुढ़ापे मे बीमारियाँ चैन से बैठने नहीं देती। मगर कॉलोनी की कुछ औरतें आराम से इकट्ठी बैठकर फुर्सत से बतिया रही थी। उनकी कानाफूसी से लगता था की वो कम से देश या समाज जैसे गंभीर मुद्दो पे तो बिलकुल बात नहीं कर रही थी। हफ्ते मे एक संडे ही तो मिलता है उनको, अगर उसे भी गंभीर मुद्दो मे जाया कर दिया तो फिर क्या फायदा। बीच बीच मे उनके बच्चे चीखते चिल्लाते उनके पास एक दूसरे की शिकायत लेकर आ जाते मगर वो उन्हे एक और धकिया कर फिर से अपनी कानाफूसी मे लग जाती। अपार्टमेंटों के आगे पीछे और मध्य बनी सडकों पे अखबार,सब्जी, और दूधवाले अपनी रोज़मर्रा की भागदौड़ मे लगे थे।

भानु ने दैनिक क्रियायों से निपट कर अपने लिए चाय बनाई और कप हाथ मे लिए रसोई और बाथरूम के मध्य बने बरामदे मे आकर खड़ा हो गया। बरामदे मे पीछे की तरफ लोहे की ग्रिल लगी थी जिसमे से पीछे का अपार्टमेंट पूरा नजर आता था। कोतूहलवश वो नजर आने वाले हर एक मकान के खिड़की दरवाजों से मकान मे रहने वालों को देख रहा था। एक दूसरे अपार्टमेंट्स के बीचो-बीच सड़क पे बच्चे खेल रहते थे। ये सड़के यातायात के लिए नही थी इन्हे सिर्फ अपार्टमेंट्स मे रहने वाले इस्तेमाल करते थे। भानु लिए ये सब नया था। ये मकान, शहर यहाँ के लोग सब कुछ नया था। उसका मकान ऊपर “ए” अपार्टमेंट मे था और ठीक उसके पीछे “बी” अपार्टमेंट था, उसके पीछे ‘सी’ और इस तरह दस अपार्टमेंट की एक शृंखला थी और फिर इसी तरह दाईं तरफ दस दस अपार्टमेंट की अन्य शृंखलाएँ थी। नए लोग नया शहर उसके लिए सबकुछ अजनबी था। बीस वर्षीय भानु आकर्षक कदकाठी का युवक था। उसके व्यक्तित्व से कतई आभास नहीं होता था की, ये एक ग्रामीण परिवेश मे पला-बढ़ा युवक है। भानु चाय की चुसकियों के बीच जिज्ञासावश आस पास के नजारे देखने लगा। चाय खतम करने के बाद वो वहीं खड़ा रहा और सोचता रहा की कितना फर्क है गाँव और शहर की जीवन शैली में। गाँव मे हम हर एक इंसान को भलीभाँति जानते है, हर एक घर मे आना जाना रहता है। अपने घर से ज्यादा वक़्त तो गाँव मे घूमकर और गाँव के अन्य घरों मे गुजरता है। बहुत अपनापन है गाँव मे। इधर हर कोई अपने आप मे जी रहा है। यहाँ सब पक्षियों के भांति अपने अपने घोंसलों मे पड़े रहते हैं। किसी को किसी के सुख-दुख से कोई सरोकार नही। सामने के अपार्टमेंट मे बने मकानों की खुली खिड़कीयों और बालकोनी से घर मे रहने वाले लोग इधर उधर घुमते नजर आ रहे थे। अचानक भानु को अहसास हुआ की कोई बार बार उसकी तरफ देख रहा है, उसने इसे अपना भ्रम समझा और सिर को झटक कर दूसरी तरफ देखने लगा। थोड़े अंतराल के बाद उसका शक यकीन में बदल गया की दो आंखे अक्सर उसे रह रह कर देख रही हैं। उसने दो चार बार उड़ती सी नजर डालकर अपने विश्वास को मजबूत किया।

कुछ देर पश्चात हिम्मत बटोर कर उसने इधर उधर से आश्वस्त होने के बाद नजरें उन दो आंखो पे टीका दी जो काफी देर से उसे घूर रही थी। “बी” ब्लॉक मे दायें तरफ ग्राउंडफ्लोर के मकान के खुले दरवाजे के बीचोबीच, दोनों हाथ दरवाजे की दीवारों पर टिकाये एक लड़की रह रहकर उसकी तरफ देख रही थी। गौरा रंग, लंबा छरहरा बदन हल्के नारंगी रंग के सलवार सूट मे उसका रूप-लावण्य किसी को भी अपनी और आकर्षित करने की कूवत रखता था। वह कुछ पल इधर उधर देखती और फिर किसी बहाने से भानु की तरफ बिना गर्दन को ऊपर उठाए देखने लगती जिस से उसकी बड़ी बड़ी आंखे और भी खूबसूरत नजर आने लगती। हालांकि दोनों के दरम्यान करीब तीस मीटर का फासला था मगर फिर भी एक दूसरे के चेहरे को आसानी से पढ़ सकते थे। भानु भी थोड़े थोड़े अंतराल के बाद उसको देखता और फिर दूसरी तरफ देखने लगता। लगातार आंखे फाड़के किसी लड़की को घुरना उसके संस्कारों मे नहीं था। मगर एक तो उम्र और फिर सामने अल्हड़ यौवन से भरपूर नवयौवना हो तो विवशतायेँ बढ़ जाती हैं। इस उम्र में आकर्षण होना सहज बात है। नजरों का परस्पर मिलन बद्दस्तूर जारी था। मानव शरीर मे उम्र के इस दौर मे बनने वाले हार्मोन्स के कारण व्यवहार तक मे अविश्वसनीय बदलाव आते हैं।उसीका नतीजा था की दोनों धीरे धीरे एक दूसरे से एक अंजान से आकर्षण से नजरों से परखते लगे। दोनों दिल एक दूसरे मे अपने लिए संभावनाएं तलाश रहे थे। भानु ने पहली बार किसी लड़की की तरफ इतनी देर और संजीदगी से देखा था। जीवन मे पहली बार ऐसे दौर से गुजरते दो युवा-दिल अपने अंदर के कौतूहल को दबाने की चेष्टा कर रहे थे। धडकनों मे अनायास हुई बढ़ोतरी से नसों में खून का बहाव कुछ तेज़ हो गया। दिल बेकाबू हो सीने से बाहर निकलने को मचल रहा था। दिमाग और दिल मे अपने अपने वर्चस्व लड़ाई चल रही थी। अचानक बढ़ी इन हलचलों के लिए युवा दिलों का आकर्षण जिम्मेदार था। दोनों उम्र के एक खास दौर से गुजर रहे थे जिसमे एक दूसरे के प्रति खिंचाव उत्पन्न होना लाज़मी है।

मगर यकायक सबकुछ बदल गया। अचानक लड़की ने नाक सिकोडकर बुरा सा मुह बनाया और भानु को चिढ़ाकर घर के अंदर चली गई। भानु को जैसे किसी ने तमाचा मार दिया हो उसे एक पल को साँप सा सूंघ गया। हड्बड़ा कर वो तुरंत वहाँ से अलग हट गया और कमरे के अंदर जाकर अपने बेकाबू होते दिल की धडकनों को काबू मे करने लगा। वो डर गया था, उसे अपनी हरकत मे गुस्सा आ रहा था। क्यों आज उसने ऐसी असभ्य हरकत की ? वो सोचने लगा अगर कहीं लड़की अपने घरवालों से उसकी शिकायत करदे तो क्या होगा ? अजनबी शहर मे उसे कोई जानता भी तो नहीं। उसके दिमाग मे अनेकों सवाल उठ रहे थे। वो सोचने लगा की अब क्या किया जाए जिस से इस गलती को सुधारा जा सके। अचानक दरवाजे पे हुई दस्तक से वो बौखला गया और उसके पूरे शरीर मे सिहरन सी दौड़ गई। उसने चौंक कर दरवाजे की तरफ देखा। कुछ देर सोचता रहा और अंत में मन मे ढेरों संशय लिए धड़कते दिल से वो दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

दरवाजा खुला सामने एक वयक्ति हाथ मे एक लिफाफा लिए खड़ा था।

“आप रमेश बाबू के परिचित हैं ?“ आगंतुक ने पूछा

“जी...जी हाँ, कहिए “ भानु ने हकलाते हुये जवाब दिया। रमेश भानु के भाई विजय के दोस्त का नाम था जिसको रेलवे की तरफ से ये क्वार्टर आवंटित हुआ था।

“उन्होने ये खत आपको देने के दिया था।“ उसने लिफाफा भानु की तरफ बढ़ा दिया।

“हम लोग भी यहीं रहते हैं“ आगंतुक ने सामने के दरवाजे की तरफ इशारा करते हुये कहा।

“किसी चीज की जरूरत हो तो बेहिचक कह देना” आगंतुक ने कहा और सामने का दरवाजा खोलकर घर के अंदर चला गया।

भानु ने राहत की सांस ली, दरवाजा बंद किया और अंदर आकर खत पढ़ने लगा। खत मे बिजली पानी से संबन्धित जरूरी हिदायतों के सिवा सामने के मकान मे रहने वाले शर्माजी से किसी भी तरह की मदद के लिए मिलते रहने को लिखा था। रमेश का पिछले महीने कुछ दिनों के लिए पास के शहर मे ट्रान्सफर हो गया था। दिनभर भानु उस लड़की के बारे मे सोच सोच कर बैचेन होता रहा, वह हर आहट पर चौक जाता।

जैसे तैसे करके दिन बिता, भानु दिनभर उस खिड़की की तरफ जाते वक़्त अपने आप को छुपाता रहा और अगली दोपहर कॉलेज के लिए निकलने से पहले सहसा उसकी नजर पीछे के उस दरवाजे पे पड़ी। दरवाजा बंद देखकर उसने राहत की सांस ली। मकान से उसके कॉलेज का रास्ता कॉलेज का पहला दिन मात्र ओपचारिकताओं भरा रहा, पढ़ाई के नाम पे सिर्फ टाइम-टेबल मिला। उसके कॉलेज का समय दोपहर एक से पाँच बजे तक था। दिनभर रह रहकर उस लड़की का ख्याल भी उसकी बैचेनी बढ़ाता रहा।