खामोश लम्हे / विक्रम शेखावत / भूमिका

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एक इंसान जिसने नैतिकता की झिझक मे अपने पहले प्यार की आहुती दे दी

और जो उम्र भर उस संताप को गले मे डाले, रिस्तों का फर्ज निभाता

चला गया। कभी माँ-बाप का वात्सल्य,कभी पत्नी का प्यार तो कभी

बच्चो की ममता उसके पैरों मे बेड़ियाँ बने रहे। मगर

इन सबके बावजूद वो उसे कभी ना भुला सका

जो उसके दिल के किसी कोने मे

सिसक रही थी। वक़्त उसकी

झोली मे वियोग की

तड़प भरता

रहा………….


“कहाँ आसान है पहली मुहब्बत को भुला देना
बहुत मैंने लहू थूका है घरदारी बचाने में” --- मुन्नवर राणा

मैंने अपना ये लघु उपन्यास मशहूर शायर मुन्नवर राणा साहब के इस शे’र से प्रभावित होकर लिखा है। जहां एक इंसान अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाहण करते करते अपने पहले प्यार को अतीत की गहराइयों मे विलीन होते देखता रहा। मगर उम्र के ढलती सांझ मेन जाकर जब जिम्मेदारियों से हल्की सी निजात मिली तो दौड़ पड़ा उसे अतीत के अंधकूप से बाहर निकालने को.... ---विक्रम