खामोश लम्हे / भाग 3 / विक्रम शेखावत
“आज आप कॉलेज नहीं गए”, दुर्गा ने धीरे से पूछा।
“नहीं, आज छुट्टी है।”
“खाना बना लिया ?”, दुर्गा ने थोड़ी देर रुककर फिर सवाल किया।
“हाँ, खा भी लिया। ”
दोनों कुछ समय चुपचाप खड़े रहे। दुर्गा के हाथों मे कुछ गीले कपड़े थे, उनको वो सायद छत पे सुखाने ले जा रही थी। भानु सीढ़ियों में खड़ा झरोखेदार दीवार से सामने सड़क पर खेलते बच्चों को देख रहा था। दुर्गा भी कभी भानु तो कभी सामने के बच्चों को देख रही थी। वो बात आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक नजर आ रही थी।
“उसका नाम रंजना है”, अचानक दुर्गा ने कहा, और भानु के चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश करने लगी।
“किसका ?”, भानु ने लापरवाही से बिना दुर्गा की तरफ देखते हुये पूछा।
“वही.... जो पीछे “बी” ब्लॉक मे नीचे वाले क्वार्टर मे रहती है”, दुर्गा ने भानु की आखों मे झाँकते हुये कहा।
“क...कौन...”, भानु चौंकां और पलटकर कर दुर्गा की तरफ देखने लगा।
”वो जिनके एक गाय भी है”, दुर्गा ने बात पूरी की और भानु की आंखो मे देखने लगी।
भानु उसका जवाब सुनकर सकपका गया, और हकलाते हुये बोला,”म...मुझे तो नहीं पता, क...कौन रंजना ?, में.....में तो नहीं जानता।‘ लेकिन मन ही मन वो “रंजना” के बारे मे जानने की जिज्ञासा पाले हुये था मगर संकोचवश कुछ पूछ न सका।
“वो आपकी तरफ देखती रहती है ना ?”, दुर्गा ने प्रश्नवाचक निगाहों से भानु की तरफ देखा, ”मैंने देखा है उसको ऐसा करते”, दुर्गा ने कुछ देर रुककर कहा।
भानु की जुबान तालु से चिपक गई।
“वो बस स्टैंड के पास जो महिला कॉलेज है उसमे पढ़ती है, उसके पापा रेलवे में हैं। ये लोग पंजाबी है। ” दुर्गा ने सिलसिलेवार सूचना से अवगत कराते हुये बात खत्म की और प्रतिक्रिया के लिए भानु का चेहरा ताकने लगी।
“अच्छा”, भानु ने ऐसे कहा जैसे उसे इसमे कोई खास दिलचस्पी नहीं है। मगर दुर्गा उसके चेहरे के बदलते भावों को भाप गई थी, वो भानु को सतबद्ध करके चली गई।
दुर्गा के इस रहस्योद्घाटन से भानु के चेहरे पे पसीने की बुँदे छलक आई थी। उसको लगा जैसे पूरी कॉलोनी को ये बात पता चल गई है और अब सभी उसकी तरफ देख उसपे हंस रहे हैं।
दुर्गा और भानु के क्वार्टर साथ साथ थे, उनके मुख्य द्वार एक दूसरे के आमने सामने थे। अंदर से सभी मकान एक ही डिजाईन से बने हुये थे। ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ कॉमन थी। दुर्गा ने अपने पीछे वाली खिड़की से रंजना को भानु के क्वार्टर की तरफ देखते हुये देख लिया था।
ऊपर से माँ की आवाज सुन दुर्गा जल्दी छत की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी और उसके पीछे भानु लूटा पीटा सा अपने दरवाजे की तरफ बढ़ गया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था की, किसी को उनके बारे मे जरा सा भी इल्म होगा। एक भय सा लग रहा था की, कहीं उस लड़की के परिवार के किसी सदस्य को पता चल गया तो कितना हँगामा होगा।
जब कभी खाना बनाने का मूड नही होता था तो भानु शाम को अक्सर बाहर पास के किसी होटल में खाने के लिए चला जाता था। आज वैसे भी दुर्गा ने उसको अजीब उलझन में डाल दिया था। खाना खाने के बाद वो इसी चिंता में खोया हुआ वापिस अपने मकान मे आ रहा था। कॉलोनी में दाखिल होने के बाद वो अपने अपार्टमेंट के सामने वाली सड़क से गुजर रहा था की सामने से आती “रंजना” को देख चौंक पड़ा। दोनों ने एक दूसरे को देखा। निगाहें टकराई। शरीर मे एक मीठी-सी सिहरन दौड़ने लगी। निस्तब्ध ! नि:शब्द ! दो दिलों में अचानक धडकनों का एक ज्वार ठाठे मारने लगा। उद्वेलित नजरें मिली और उलझकर रह गई। एक दूसरे के बगल से गुजरते हुये एक दूसरे के दिल की धडकनों को साफ महसूस कर रहे थे। जुबान अपना कोई हुनर नहीं दिखा पाई। सब कुछ इतना जल्दी हो गया की जब दोनों संभले तो दूर जा चुके थे।
रात मे भानु भविष्य के सपने बुनते बुनते सो गया। वो रातभर उसके ख्यालों मे खोया रहा। रंजना को लेकर उसने बहुत से ख्वाब बुन लिए थे। वह रंजना को लेकर एक कशिश सी महसूस करने लगता। रंजना का चेहरा हर वक़्त उसे अपने इर्द-गिर्द घूमता हुआ सा महसूस होता था।
सुबह दरवाजे पर होने वाली दस्तक ने उठा दिया। देखा। उसने दरवाजा खोला तो सामने दुर्गा को खड़े पाया। ऊपर छत पे जाने वाली सीढ़ियों पे दुर्गा खड़ी थी। उसने इशारे से भानु को अपने पास बुलाया। भानु नीचे जाने वाली सीढ़ियों मे जाकर खड़ा हो गया। और प्रश्नवाचक निगाहों से दुर्गा की तरफ देखने लगा।
“रंजना ने लैटर मांगा है”, दुर्गा ने धीरे से फुसफुसाते हुये कहा।
“ऊं ” भानु को जैसे किसी ने नंगा होने के लिए कह दिया हो।
“किसने ?”, चौंक कर विस्मय से दुर्गा की तरफ देखा।
“उसी ने “ दुर्गा ने मुस्कराते हुये गर्दन से “रंजना” के घर की तरफ इशारा करके कहा।
भानु के पास कहने को शब्द नहीं थे। खिसियाकर गर्दन नीचे झुकाली।
“मुझे दे देना मे उसको दे दूँगी”
“.....”
किसी के कदमों के आहट से दुर्गा घर के अंदर चली गई,भानु भी अपने कमरे मे आ गया। वो सबसे ज्यादा वक़्त रसोई और कमरे के बीच आने जाने मे ही गुजारता था,क्योंकि इसी आने जाने के दरम्यान वो एक उड़ती सी नजर उसके घर के दरवाजे पे भी डाल देता था। चितचोर के मिलने पर वो खिड़की पे आ जाता, और फिर दोनों लोगों की नजरों से नजरें बचाकर नजरें मिला लेते। रंजना की तरफ से अब प्यार का मूक आमंत्रण मिलने लगा था। चिढ़ाने और गुस्सा करने की जगह पर अब हल्की मुस्कान ने डेरा जमा लिया था। उसके बाद तो ये दो दीवाने आँखों ही आंखो मे एक दूसरे के हो गए थे, बहुत से सपने पाल लिए जो बीतते वक़्त के साथ जवां होते गए।
भानु का दिल करता था की रंजना से ढेर सारी बाते करे मगर उसका शर्मिला और संकोची स्वभाव उसके आड़े आ जाता था। एक दिन उसने हिम्मत करके खत लिखने की सोची। उसे ये भी डर था की कहीं वो खत किसी के हाथ ना लग जाए। लेकिन प्यार पे भला किसका ज़ोर चलता है। वो लिखने बैठ गया। बिना किसी सम्बोधन एक छोटी प्रेम-कविता लिख दी। अंत मे अपना नाम तक नहीं लिखा। दूसरे दिन चुपके से दुर्गा को दे दिया। काफी दिन बीत जाने पर मौका पाकर भानु ने दुर्गा को रंजना से भी पत्र लाने को कहा। दुर्गा ने उसे भरोसा दिलाया की वो रंजना से भी पत्र लाकर देगी। दिन बीतते गए मगर रंजना का पत्र नहीं मिला। दुर्गा का एक ही जवाब मिलता की,”वो लिखने को कह रही थी”। वक्त बीतता गया और दोनों अपने प्रेम को परवान चढ़ाते रहे। सिर्फ आँखों मे ही कसमें वादों की रश्म अदायगी होती रही। कभी सामना होने पर दोनों अंजान बन जाते और धड़कते दिलों को संभालने में ही वक़्त निकल जाता। दोनों बहुत कुछ कहना चाहते मगर दिल की धड़कने जुबान का गला दबा देती।
भानु नहाने के बाद बनियान और हाफ-पैंट पहले अपने लिए नाश्ता बना रहा था। दरवाजे पे हल्की ठक ठक की आवाज सुन भानु ने दरवाजा खोला तो सामने दुर्गा और रंजना को देख चौंक पड़ा। धड़कने बढ़ गई। दिल मचलकर हलक मे आ फँसा।