खिलौने / प्रतिभा सक्सेना / पृष्ठ 1
‘वहाँ की यहाँ से क्या बराबरी? वहाँ की चीजों की बात ही और है। क्या फ़िनिश, क्या बारीकियाँ, जैसे असली ही छोटी कर के रख दी हो।’
‘भाई कब से अमरीका में है?’ सुदीप के पापा कनु के खिलौनों की हाथ में उठा उठा कर तारीफ़ कर रहे हैं।
कनु के लिये चाचा ने भेजे हैं अमरीका से!
‘कौन? कमल? वह गया था दो साल के लिये, पर वहीं जॉब ले लिया। एक बार आया था बीच में, पर यहाँ कहाँ मन लगता उसका!’ विमल गर्व से बता रहे हैं – ’अब शादी करवाने आयेगा अगले साल।’
‘सच में! क्या परफ़ेक्शन है?’ सुधा उत्फुल्ल भाव से सोच रही है।
सुदीप के माता-पिता आये हैं। उन्हें चाचा के भेजे खिलौने दिखाये जा रहे हैं। कनु और सुदीप रेलगाड़ी चला रहे है, ’देखो, कैसे पटरी पर दौड़ती है।’
सुदीप की माँ छोटा सा वायलिन उठाती हैं - ’ये बजाना सीखना पड़ता होगा?'
‘अरे नहीं, इसमें सात ट्यूने भरी हुई हैं - देखिये, ऐसे बजाते हैं।'
विमल वायलन की ट्यून सुनवा रहे हैं।
‘वाह, क्या बात है!'
सत्ते आ कर खड़ा हो गया, चन्दो का बड़ा बेटा। कनु से दो साल बड़ा।
कई साल हो गये हैं चन्दो को इस घर में काम करते। यहीं पास में रहती है। साफ़-सुथरी समझदार महिला है। रंग-ढंग देख कर कोई नहीं कह सकता कामवाली है। वो तो समय ने काम करने पर मजबूर कर दिया नहीं तो खाता-पीता परिवार था, ससुर की दुकान थी, अच्छी चलती थी। पर तीनों भाइयों के बँटवारे में सब चौपट हो गया।
चन्दो का आदमी सबसे छोटा था। पढ़ने लिखने में मन नहीं, दुकान पर बैठने लगा। बँटवारे के बाद पनप नहीं पाया। ठेला लगा कर गृहस्थी पालता है, चन्दो दो घरों में काम कर लेती है। बड़ा बेटा सत्य नारायण उर्फ़ सत्ते का इस घर में अबाध रूप से आना-जाना है। कनु से अच्छी पटरी बैठती है उसकी।
चन्दो का व्यवहार ही ऐसा है कि वह कामवाली नहीं घर की सी लगती है। उस पर बहुत निर्भर है सुधा।
सत्ते खिलौनों का प्रदर्शन देखता रहा, फिर कनु की ओर बढ़ गया।
कोई घर में आ जाये तो विमल को सत्ते का कनु के साथ होना भाता नहीं। इसका यहाँ क्या काम!
‘क्या सत्ते, अम्माँ ने किसी काम से भेजा है?'
‘नहीं। हम तो ऐसे ही चले आये। कनु भैया के पास।’
‘सत्ते, वो वायलिन इधर लेते आना, ’ कनु ने कहा।
वह वायलिन लेने बढ़ा।
विमल ने टोका, ‘देखो इसके तार वगैरा न दब जायें, कनु तुम क्यों नहीं ले जाते?'
‘पापा, उसे सब पता है। वो अच्छी तरह बजा भी लेता है। सत्ते बजा कर दिखाओ तो।'
विमल का मुँह बिगड़-सा गया।
‘ठीक है, ठीक है। पर जरा सम्हाल कर।’
‘बच्चों, तुमलोग उस तरफ़ जाकर गाड़ी और प्लेन चलाओ वहाँ खुली जगह है।’
सुधा चाय की व्यवस्था करने जाते-जाते बोली।
वे लोग दूसरी ओर चले गये।
सत्ते के उधऱ जाते ही सुदीप के पिता ने पूछा, ’यह लड़का पड़ोस में रहता है क्या?'
‘हाँ, ’ विमल कह नहीं पाये कि कामवाली का बेटा है।
वे एक-एक की बारीकियाँ बता रहे हैं। बच्चों से ज्यादा उछाह तो उनमें है।
सुदीप की मम्मी बड़ा सा टैडी बियर उठाते हुये कह रही थीं, ’और ये स्टफ़्ड वाले भी तो देखो। कितने सुन्दर एकदम मुलायम!'
‘वहाँ बच्चे इन्हें साथ में लेकर सोते हैं।’
‘हैं ही इतने प्यारे!'
‘पेंग्विन तो लग रहा है, अभी चल पड़ेगी।’
‘और सबसे अच्छी बात, गंदे हो जायँ तो वाशिंग मशीन में डाल कर धो लो, फिर एकदम साफ़, जैसे के तैसे!'
उनकी बेटी उससे गाल सटा कर खुश हो रही है।
‘ये मिकी माउस है, वहाँ डिज़नी लैंड हैं न! वहाँ का खासमखास।’
‘सुना है बिल्कुल परीलोक है।’
‘हमारे पास एल्बम है। वहाँ की तस्वीरें देख के अंदाजा मिल जायेगा।’
विमल एल्बम निकाल लाये।
बड़े लोग तस्वीरों पर झुक आये।
‘ये मिकीमाउस-मिनीमाउस हैं। ये इनका घर। ये कॉसल है, परियों के महल जैसा। लेक बनाई है, एक ट्रेन पूरा चक्कर लगवाती है, और खूब सारे राइड्स!. अरे, एक दिन में तो आधे भी नहीं ले पाते! ..रात को फ़ायरवर्क्स..।'
‘वंडरफ़ुल!'
दोस्त आते हैं तो कनु उन्हे बड़े चाव खिलौने से निकाल कर दिखाता है।
बताता हैं यहाँ थोड़े ही मिलते हैं, चाचा ने अमेरिका से भेजे हैं।
बच्चों के माता-पिता भी उत्सुक हैं। कभी कभी ख़ुद पूछ देते हैं - ’विधु बता रहा था देखें तो कौन सा खिलौना है अमरीकावाला।’
कनु ला कर दिखाता है बड़े लोग हाथ में लेकर घुमा फिरा कर देखते हैं। परम संतुष्ट भाव विमल के चेहरे पर! वे उनकी आँखों में प्रशंसा देख तुष्ट होते हैं। अगला भाग >>