खिलौने / प्रतिभा सक्सेना / पृष्ठ 2
पिछला भाग >> इधर सुधा एक चीज़ नोट कर रही है - चंदो का वह बेटा जिसका मुँह ‘भइया भइया ‘ करते नहीं थकता था, बड़े सहज रूप से घर में खप गया था, अलग-थलग रहने लगा है। अभी तक कनु और सत्ते दोनों मिल कर खेलते थे। सत्ते कनु का पूरा-पूरा ध्यान रखता था। अब चुप-चुप रहता है, पहले की तरह हँसना-बोलना खत्म हो गया है। पहले जो सहज रूप से घर के सामान की सम्हाल करता था अब तटस्थ-सा देखता रहता है। विमल होते हैं तो बाहर-बाहर से चला जाता है।
पिता ने कनु को समझाया था, ’ज़रा सावधान रहा करो।’
‘क्यों, पापा?'
‘सब के सामने निकाल कर बैठ जाते हो और सत्ते वहीं मँडराया करता है, ज्यादा सिर मत चढाओ उसे।
’वह तो उपत कर वहीं जाता है जहाँ खिलौने रखे हैं।’
फिर एक दिन -
विमल के ऑफ़िस के तनेजा सपरिवार आये थे।
बातों-बातों में कमल की शादी की चर्चा।
‘बढ़िया नौकरी है। वहाँ के ठाठ के क्या कहने!'
‘हाँ, हमारे साढू का भाई भी वहीं है। जाकर आने का नाम नहीं लेता। क्या फटाफट अंग्रेजी बोलते हैं बच्चे।
वहाँ के कपड़े भेजता है। क्या मेटीरियल, क्या सिलाई। सालोंसाल खराब नहीं होते।’
'एक हमारे यहाँ! एक टाँका निकले तो उधड़ता चला जाये। क्वालिटी पर कोई ध्यान नहीं देता।’
‘और खिलौने यहाँ के ऐसे कि पानी पड़े रंग उतर जाये। एकाध बार खेलें तो कोरें निकल आती हैं। नोंके और कोरें चुभने लगती हैं। .. और वहाँ के खिलौने! नन्हा बच्चा भी मुँह में दे ले तो भी कोई डर नहीं। अभी कमल ने भेजे हैं, कनु के लिये। बस, देखने की चीज़ है।’
‘अच्छा, कमल ने भेजे? .. वहाँ से?'
कनु की पुकार हुई।
'वह सत्ते के साथ बाहर खेल रहा था। साथ-साथ सत्ते भी चला आया।’
खिलौने मँगाये गये।
‘उत्साह में सत्ते कनु के साथ उठा-उठा कर लाने लगा।'
रेलगाड़ी औऱ पटरी दोनों एक साथ उठाये चला आ रहा था।
‘अरे, सम्हालकर,’ जोर से विमल ने टोका।
सत्ते चौंक गया, सब उधऱ देखने लगे।
'दोनों एक साथ उठा लिये? उसे क्यों दे दिये कनु? कहीं गिरा दिया तो यहाँ तो ठीक भी नहीं होगा,' विमल ने एकदम कहा।
‘पापा, इतना वह समझता है। वह तो मुझे भी बताता रहता है।'
इस बीच सत्ते एकदम सहम गया था गाड़ी उसके हाथ से छूट गई।
‘देखो कनु कुछ टूटा तो नहीं। मैंने पहले ही कहा था।’
सत्ते जड़-सा खड़ा। फिर धीरे से बाहर निकल गया।
उस दिन कनु का उड़नजहाज नहीं मिल रहा था। सारा घर छान डाला। बाहर झाड़ियों में पड़ा मिला। फिर तो आये दिन खिलौने कहीं के कहीं मिलते। एक तो कूड़े में पड़ा दिखा। सुधा कहीं से आ रही थी उसने देख लिया।
टूटा हुआ था। हारकर सुधा ने अल्मारी में रख दिया ।
विमल का शक सत्ते पर है।
’उस लड़के को इतनी छूट मिलेगी तो यही होगा।
कनु को दस बार समझाया उससे थोड़ा दूर -दूर रहे पर उसके साथ खेले बिना इसका जी नहीं भरता।’
‘पर कहाँ खेलता है अब सत्ते साथ? सुस्त सा घर में बैठा रहता है। और उसके साथ खेलने में बुराई क्या थी? मैं तो निश्चिंत हो जाती थी। कनु तो लापरवाह है उसकी चीजों की वही तो ध्यान रखता था।’
'क्यों, कनु से खुद नहीं रखा जाता? अब देख लिया न नतीजा। पता नहीं क्या-क्या चुरा ले गया हो।’
‘बस करो उन लोगों पर सारा घर छोड़ जाती हूँ। कितने साल हो गये। बेकार तोहमत मत लगाओ किसी पर।’
‘मैं तो लड़के की बात कर रहा हूँ। अपने पास नहीं है तो इसका उड़ा दिया।’
‘माँ-बाप ऐसे नहीं कि ऐसी चीज़ घऱ में रख लें। फिर खेलना तो यहीं है न '!
विमल भुनभुनाते रहे।
उसने कनु से पूछा था - ‘सत्ते अब तुम्हारे साथ नहीं खेलता?'
’उसे इन चीजों से खेलने का ढंग नहीं है। पापा कह रहे थे गिरा देगा तो खराब हो जायेगा। यहाँ तो ऐसा मिलेगा भी नहीं। उसकी नियत मेरी चीजों पर लगी रहती है। अकेले में मेरी चीजें छूता है।’
जिस दिन खिलौने आये थे सुधा को याद है, सत्ते का उत्साह कनु से कम नहीं था। दौड़- दौड़ कर पैकिंग खुलवाने में चीज़ें उठाने-धरने में मदद करता रहा। कनु से किसी तरह घट कर नहीं था उसका चाव और खुशी। उमंग और कौतूहल से भरे दोनों एक-एक चीज़ को समझने की कोशिश करते रहे।
कितना परायापन आ गया है अब! कुण्ठित-सा अलग-थलग खड़ा रहता है। कनु से दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। उसकी नज़रों में अक्सर ही क्या होता है – द्वेष, घृणा, प्रतिहिंसा? वह समझ महीं पाती।
परेशान है वह भी। पति कहते हैं उसी सत्ते के कारनामे हैं। सुधा कुछ बोल नहीं पाती। कुछ कुछ शक उसे भी है।
पर कैसे हो गया यह सब? सत्ते तो कभी ऐसा नहीं था! कनु उस पर कतना निर्भर रहा है! उससे ज़्यादा सावधान वह रहता था कि कनु को या उसकी चीज़ों को कोई नुक्सान न पहुँचे। कनु के लिये दूसरों से लड़ जाता था। उसके लिये कोई कुछ कह दे तो उसे सहन नहीं होता था। और दोस्त हों या न हों, सत्ते के साथ मगन रहता था कनु। और अब क्या हो गया कि किसी काम से आता भी है तो रुकता नहीं, फ़ौरन चला जाता है। चेहरे पर न मुस्कराहट न खुशी, जैसे अपरिचित लोगों के बीच आ गया हो।