खिलौने / प्रतिभा सक्सेना / पृष्ठ 3

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पिछला भाग >> सुधा जानती है अब वह पहले जैसा पास नहीं आता पर तृषित निगाहों से कनु के खिलौने देखता है। कई बार उसने देखा है उसकी माँ जब उसे कुछ कहने-बताने या किसी और काम से भेजती है तो वह वहीं जाकर खड़ा होता है जहाँ कनु खेल रहा होता है। कनु उधर न भी हो तो वह खिलौनों के पास ही जाकर खड़ा होता है।

अकेले में छू कर देखता है, किसी के आते ही डर कर अलग हो जाता है। पहले खिलौने पड़े होते थे तो खूब इत्मीनान से समेट कर डब्बे में रखकर अल्मारी में रख देता था। इससे पहले भी सत्ते हमेशा कनु के बाहर पड़े खिलौनों को सम्हाल कर लाता था, ’देखिये, कनु भैया ये बाहर ही छोड़ गये थे, ' - कह कर अल्मारी में जमा देता। पर अब?.. अब कितना बदल गया है, जैसै उसे कोई मतलब ही न हो।

’मैंने तो पहले ही कहा था कि उन लोगों को मत दिखाओ, उनके सामने निकालो ही मत। खेलो ही मत, कैसी ललचायी निगाहों से देखता रहता है ...!’

‘तो खिलौने बंद कर रखने को होते हैं?'

सुधा को अच्छा नहीं लगता कहती है, 'बस बस रहने दो। खिलौने खेलने को हैं कि सेंत कर रखने को? दूसरों को तरसा कर क्या खुशी बढ़ जाती है? ज्यादा संतोष मिलता है? "..

‘क्या फ़ायदा कि मिल कर मन भऱ के खेल भी न पाये? आपस में मेल कराने की जगह भेद डालें! अकेले में निकालो और बंद करके रख दो ये भी कोई खेलना हुआ?'

‘अपने दोस्त आयें उनके साथ खेले।’

‘हाँ, खेले तो पर उन्हें भी ईर्ष्या होती है। और हमारा बच्चा कैसा खुश होता है कि मेरे पास है और किसी के पास नहीं। यह क्या खेलना हुआ?’

‘तो उन्हें मना किया है किसी ने? वे भी मँगा लें।’

‘औरों के बल पर दिखावे की जरूरत नहीं। कोई हमारे यहाँ का तो है नहीं कि कोई चाह कर भी ले ले।

अभी से कनु को ये सब मत सिखाओ। खेलने में सब बराबर। पर यहाँ तो एक सबसे खास बनना चाहता है।’

खिलौने भी दिखावट की चीज़ हो गये!और लोग तरसें और एक खुश हो।

सब मिल कर नहीं खेलें तो खेल काहे का?

वह सोचती रही पता नहीं कैसे खिलौने जो निर्मल आनन्द की जगह दूसरे के अभाव पर खुश हों। खेल की भावना तो मर गई, रह गया दिखावा कि, देखो, हम ऐसे हैं।

एक दूसरे से सहयोग की जगह साथ मिल कर खुश होने के, दूसरे की मजबूरी का मज़ा लेना।.. मिल कर रहने की तो बत ही नहीं। बस हम खास बने रहें, बच्चों में यही भर दो। आपसी दूरियाँ और हीनता की भावना पनप रही है जो किसी को चैन से नहीं रहने देगी।

खिलौने थोड़े ही हैं दिखौने हैं! कोई तरसे किसी को खुशी हो।


कई दिनो से सुधा नोट कर रही है सत्ते की भाव-भंगिमा बहुत बदलती जा रही है। । पहले कनु के लिये दौड़ कर आता था, उसकी आँखों में प्यार और सम्मान था, हमेशा मदद को तैयार। लापरवाह कनु की चीज़े सम्हालता था जैसे उसकी जुम्मेदारी हो उसके लिये। हमेशा मुस्तैद रहता था कि कहीं कोई नुक्सान न हो जाये। कितना मानता था कनु को। दोनों खेलते। वह भी निश्चिंत रहती थी कि वह है तो कनु का पूरा ध्यान रखेगा। चन्दो कहती थी कनु भैया बुलायें तो इसका खाने में भी मन नहीं लगता, तुरंत दौड़ता है।

अब तो कनु घर में ही ज्यादा रहता है। पहले मौका मिलते ही बाहर खुली हवा में दौड़-भाग के खेल खेलने निकल जाता था। अब अंदर घुसा रहता है। कहो तो कह देता है बाहर कोई खेलता ही नहीं। एक-दूसरे को देख कर चेहरे खिल जाते थे -चाहे सत्ते ही क्यों न हो।

कभी-कभी वैसे ही खाली-खाली सा। खिलौनो में भी रुचि कम हो गई लगता है। पहले की चपलता-चंचलता समाप्त हो गई, खिन्न-सा रहता है। सारा उछाह खत्म हो गया हो जैसे। दोस्त आते हैं वे बाहर खुली हवा मे न खेल कर उसके खिलौनों से ही खेलना चाहते हैं। पहले खूब कर भागते-दौड़ते हँसते खिलखिलाते थे। कूदने-फाँदने, गेंद खेलने का किसी को ध्यान ही नहीं आता।

‘जाओ मैदान मे खेल लो, ’ वह कहती है।

वे सब कह देते हैं, ’बाहर से ही तो खेल कर आ रहे हैं।’

कनु नहीं उसके खिलौने इन्हें खींच लाते हैं।

कैसी कुंठाये पनप रही हैं जो संबंधों को सहज नहीं होने देतीं।

चन्दो उदास रहती है। आती है काम करके चली जाती है। बहुत कम बोलती है -सिर्फ़ काम की बात।

सुधा परेशान है। क्या करे कुछ समझ में नहीं आता। घर में चन्दो हँसती-बोलती थी तो कितना अच्छा लगता था।

सुधा ने उसे कभी नीचा नहीं समझा -उसमें ओछापन बिल्कुल भी नहीं, नियत की अच्छी है माँगने की आदत बिल्कुल नहीं। अपनी सीमायें समझती है।

सुधा से रहा नहीं गया।

'चन्दो, क्या हो गया है आजकल? तबीयत खराब चल रही है क्या?'

'क्या कहें बीबी जी, कुछ कहते नहीं बन रहा। आज कल घर में बड़ी अशान्ति चल रही है।’

'क्यों?'

उसने ठंडी साँस भरी। कुछ बोली नहीं।

‘बताती क्यों नहीं, क्या हुआ?'

'क्या बतायें? सत्ते को का जाने का हो रहा है?'

'हाँ, मुझे भी आज कल बड़ा बदला-बदला लगता है।’

'न अपना खुस रहे न किसी को रहने दे। कलेस मचाये रहता है घर में।’

वह रोने लगी, ’बीबीजी भइया के खिलौने आये। पहले कई दिन ये भी बड़ा खुस रहा। आये-गये सबको चाव से बताता रहा -ऐसी रेलगाड़ी है पटरी पर भागती है। उड़न-जहाज उड़ता है और उसे एक बटन दबा कर मनचाही तरफ घुमा दो। और बहुत बातें। बड़ा मगन रहता था - कनु भइया का खिलौना ऐसा है जैे सचमुच का हो।

पर फिर जाने का हुइ गया। अब कैसा होता जा रहा है, चुप चुप रहता है। किसी काम मे मन नही लगता उसका।

उखड़ा-उखड़ा रहता है। छोटे भाई बहनों को जरा सी बात पर पीट देता है।'

ऐसा तो नहीं था। क्या होता जा रहा है सत्ते को। कभी-कभी चन्दो बड़ी दुखी हो जाती है।

दुखी तो सुधा भी हो जाती है।

चन्दो कहे जा रही, ’ पहले कभी ऐसा नहीं था। अब तो बाप के सामने-सामने बोलने लगा है। बहस करता है।’

‘अच्छा! क्यों?'

‘कहता है मुझे भी खिलौने दो लाकर।’

सुधा को कैसा-कैसा लग रहा है।

‘हमने समझाया। कनु भैया के साथ खेल तो लेते हो। पर उसकी समझ मे नहीं आता। कहता है अपने चाहिये।

कुछ दिन से हल्ला मचाये है -मुझे भी ऐसी गाड़ी ला दो जो पटरी पर भागती है। बस एक चीज़ ला दो।

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