खोया पानी / भाग 15 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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क्या - क्या मची है यारों , बरसात की बहारें :

आदरणीय अपनी लकवाग्रस्त टांग की पोजीशन चौधरी करम इलाही से बदलवाते हुए अक्सर कहते कि जवानी में ऐसा हार्मोनियम बजाता था कि अच्छे-अच्छे हार्मोनियम मास्टर कान पकड़ते थे। उनका यह शौक उस दौर की यादगार था जब वो बंबई से आई हुई थियेट्रिकल कंपनी का एक ही खेल एक महीने तक रोज देखते और शेष ग्यारह महीने उसके डायलॉग बोलते फिरे। 1925 से वो हर खेल आर्केस्ट्रा के पिट में बैठकर देखने लगे थे, जो उस जमाने में शौकीनी और रईसाना ठाठ की चरम सीमा समझी जाती थी। हार्मोनियम एक कंपनी के रिटायर्ड हार्मोनियम बजाने वाले से सीखा था, जो पेटी मास्टर कहलाता था। कहते थे कि पोरों के जोड़ों और उंगलियों के रग पट्ठों को नरम और रवां रखने के लिए मैंने महीनों उंगलियों पर बारीक सूजी का हलवा बांधा। उनका रंग गोरा और त्वचा अत्यंत साफ तथा कोमल थी। इतनी लंबी बीमारी के बावजूद अब भी जाड़े में गालों पर सुर्खी झलकती थी। गिलाफी आंखें बंद कर लेते तो और खूबसूरत लगतीं। सफेद अचकन, भरी-भरी पिंडलियों पर फंसा हुआ चूड़ीदार। जवानी में वो बहुत सुंदर थे। हर प्रकार के कपड़े उन पर सजते थे। अपनी जवानी का जिक्र आते ही तड़प उठते।


इक तीर तूने मारा जिगर में कि हाय हाय !

वो भी कैसे अरमान भरे दिन थे। जब हर दिन, एक नये कमल की भांति खिलता था

जब साये धानी होते थे

जब धूप गुलाबी होती थी

उनकी कल्पना से ही सांस तेज-तेज चलने लगती। बीते हुए दिन, महीना और साल पतझड़ के पत्तों की तरह चारों ओर उड़ने लगते। हाय! वो उस्ताद फय्याज खां का वहशी बगूले जैसा उठता हुआ आलाप, वो गौहरजान की ठिनकती, ठिंकारती आवाज और मुख्तार बेगम कैसी भरी-भरी संतुष्ट आवाज से गाती थी। उसमें उनकी अपनी जवानी तान लेती थी। फिर स्वप्न पियाले पिघलने लगते। यादों का दरिया बहते-बहते स्वप्न मरीचिका के खोये पानियों में उतरता चला जाता। मोटी-मोटी बूंदें पड़ने लगतीं। धरती से लपट उठती और बदन से एक गर्म मदमाती महक फूटती। बारिश में भीगे महीन कुर्ते कुछ भी तो न छुपा पाते। फिर बादल बाहर भीतर ऐसा टूट के बरसता कि सभी कुछ बहा ले जाता।

सीने से घटा उट्ठे , आंखों से झड़ी बरसे

फागुन का नहीं बादल जो चार घड़ी बरसे

ये बरखा है यादों की बरसे तो बड़ी बरसे

झमाझम मेंह बरसता रहता और वो हार्मोनियम पर दोनों हाथों से कभी बीन, कभी उस्ताद झंडे खां की चहचहाती धूम मचाती सलामियां बजाते तो कहने वाले कहते कि काले नाग बिलों से निकल के झूमने लगते। दरीचों में चांद निकल आते, कहीं अधूरे छिड़काव से कोरे बदन की तरह सनसनाती छतों पर लड़कियां इंद्रधनुष को देख देख कर उसके रंग अपने लहरियों में उतारतीं और कहीं चंदन बांहों पर से चुटकी और कच्ची चुनरी के रंग छुटाये नहीं छूटते। अंतरे की लय तेज होती तो वातावरण कैसा झन-झनन-झनन गूंज उठता, जैसे किसी ने मस्ती में धरती और आकाश को उठा कर मंजीरे की तरह टकरा दिया हो और अब रंग-तारों की झलक-झंकार है कि किसी तौर थमने का नाम नहीं लेती।


अखबारी टोपी

तीन-चार महीने बड़ी शांति से बीते, बच्चों का स्कूल गर्मियों की छुट्टियों में बंद हो गया था। एक दिन बिशारत ने तांगा जुतवाया और कोई दसवीं बार नक्शा पास करवाने म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन गये, चलते-चलते मौलाना से कह गये कि आज नक्शा पास करवा के ही लौटूंगा। बहुत हो चुकी। देखता हूं, आज बास्टर्ड कैसे पास नहीं करते। यह केवल गाली भरी शेखी नहीं थी। अब तक वो तर्क और उदाहरण साथ ले के जाते थे लेकिन आज पांच हरे नोटों से सशस्त्र हो के जा रहे थे कि पैसे की तलवार हर गुत्थी और गिरह को काट के रख देती है। तांगा गलियों-गलियों, बड़े लंबे रास्ते से ले जाना पड़ा। इसलिए कि बहुत कम सड़कें बची थीं, जिन पर तांगा चलाने की अनुमति थी। तांगा अब रिक्शा से अधिक फटीचर चीज समझा जाने लगा था, इसलिए सिर्फ अत्यंत गरीब इलाकों में चलता था जो शहर में होते हुए भी शहर का हिस्सा नहीं थे।

समय के उलटफेर को क्या कहिये। कानपुर से यह सपना देखते हुए आये थे कि अल्लाह एक दिन ऐसा भी लायेगा, जब फिटन में टांगों पर इटालियन कंबल डाल के निकलूंगा तो लोग एक दूसरे से पूछेंगे, किस रईस की सवारी जा रही है? परंतु जब सपने की परिणिति सामने आई तो दुनिया इतनी बदल चुकी थीं कि न सिर्फ तांगा छुप कर निकलता बल्कि वो खुद भी उसमें छुप कर बैठते। उनका बस चलता तो इटालियन कंबल सर से पैर तक ओढ़ लपेट कर निकलते कि कोई पहचान न ले। दिन में जब भी तांगे में बैठते तो अखबार के दोनों पृष्ठ अपने चेहरे और सीने के सामने इस प्रकार फैलाकर बैठते कि उनकी लटकी हुई टांगें अखबार का ही परिशिष्ट प्रतीत होती थीं। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग ने तो एक दिन कहा भी कि तुम अखबार की एक टोपी बनवा लो जिसमें अपना मुंह छुपा सको। वैसी ही टोपी जैसी मुजरिम को फांसी पर लटकाने से पहले पहनाई जाती है। बल्कि वो तो यहां तक कहते हैं कि मुजरिम को अखबारी टोपी ही पहना कर फांसी देनी चाहिये ताकि अखबार वालों को भी तो सीख मिले।


घोड़े की इक छलांग ने ...

म्यूनिस्पिल कॉरपोरेशन की इमारत चार-पांच सौ गज दूर रह गयी होगी कि अचानक गली के मोड़ से एक जनाजा आता दिखाई दिया। खलीफा को नौकरी पर रखते समय उन्होंने सख्ती से निर्देश दिया था कि घोड़े को हर हाल में जनाजे से दूर रखना, परंतु इस समय उसका ध्यान कहीं और था और जनाजा था कि घोड़े पर चढ़ा चला आ रहा था। बिशारत अखबार फेंक कर संपूर्ण शक्ति के साथ चीखे 'जनाजा! जनाजा!! खलीफा!!!' यह सुनते ही खलीफा ने चाबुक मारने शुरू कर दिये। घोड़ा वहीं खड़ा हो के हिनहिनाने लगा। खलीफा और बदहवास हो गया। बिशारत ने खुद लगाम पकड़ कर घोड़े को दूसरी ओर मोड़ने का प्रयास किया, लेकिन वो अड़ियल होकर दुलत्तियां मारने लगा। उन्हें मालूम नहीं था कि दरअस्ल यही वो जगह थी, जहां खलीफा रोज घोड़े को बांध कर हजामत करने चला जाता था। वो चीखे, 'जरा ताकत से चाबुक मार' उधर खतरा यानी जनाजा पल-प्रतिपल निकट आ रहा था। उन पर अब दहशत तारी हो गयी। उनके बौखलाये अनुमान के अनुसार जनाजा अब उसी 'रेंज' में आ गया था जहां चंद माह पूर्व, बकौल स्टील मिल सेठ के

घोड़े की इक छलांग ने

तय कर दिया किस्सा तमाम

इस समय वो खुद घोड़े से भी जियादा बिदके हुए थे। इसलिए कि घोड़े के पेट पर लात मारने की कोशिश कर रहे थे, उसकी हिनहिनाहट उनकी चीखों में दब गयी। घोड़े के उस पार खलीफा दीवानों की तरह चाबुक चला रहा था। चाबुक जोर से पड़ता तो घोड़ा पिछली टांगों पर खड़ा हो-हो जाता। खलीफा ने गुस्से में बेकाबू हो कर दो बार उसे 'तेरा धनी मरे!' की गाली दी तो बिशारत सन्नाटे में आ गये, परंतु फिलहाल वो घोड़े को नियंत्रित करना चाहते थे। खलीफा को डांटने लगे 'अबे क्या ढीले-ढीले हाथों से मार रहा है। खलीफे!'

यह सुनना था कि खलीफा फास्ट बॉलर की तरह स्टार्ट लेकर दौड़ता हुआ आया और दांत किचकिचाते हुए, आंखें बंद करके पूरी ताकत से चाबुक मारा जिसका अंतिम सिरा बिशारत के मुंह और आंख पर पड़ा। ऐसा लगा, जैसे किसी ने तेजाब से लकीर खींच दी हो। कहते थे, 'यह कहना तो ठीक न होगा कि आंखों तले अंधेरा छा गया। मुझे तो ऐसा लगा जैसे दोनों आंखों का फ्यूज उड़ गया हो।' खलीफा से खलीफे, खलीफे से अबे और अबे से उल्लू के पट्ठे की सारी मंजिलें एक ही चाबुक में तय हो गयीं। वहशत की हालत में वो खलीफा तक कैसे पहुंचे, घोड़े को छलांग कर गये या टांगों के नीचे से, याद नहीं। खलीफा के हाथ से चाबुक छीनकर दो तीन उसी के मारे। उसने अपनी चीखों से घोड़े को सर पर उठा लिया।

एक आंख में इतनी जलन थी कि उसके असर से दूसरी भी बंद हो गयी और वो बंद आंखों से घोड़े पर चाबुक चलाते रहे। कुछ देर बाद अचानक महसूस हुआ कि चाबुक को रोकने के लिए सामने कुछ नहीं है। घायल दायीं आंख पर हाथ रखकर बायीं खोली तो नक्शा ही कुछ और था। जनाजा बीच सड़क पर डायग्नल रखा था। तांगा बगटुट जा रहा था। कंधा देने वाले गायब, खलीफा लापता। अलबत्ता एक शोकाकुल बुजुर्ग जो अमलतास के पेड़ से लटके हुए थे, घोड़े की वंशावली में पिता की हैसियत से दाखिल होने की इच्छा व्यक्त कर रहे थे।

कुछ मिनट के बाद लोगों ने अपनी-अपनी घुड़पनाह से निकल कर उन्हें घेरे में ले लिया। जिसे देखो अपनी ही धांय-धांय कर रहा था। उनकी सुनने को कोई तैय्यार नहीं। तरह-तरह की आवाजें और वाक्य सुनायी दिये। 'इस पर साले अपने आप को मुसलमान कहते हैं' 'घोड़े को शूट कर देना चाहिए' 'थाने ले चलो'। (बिशारत की टाई पकड़ कर घसीटते हुए) 'हमारी मय्यत की बेइज्जती हुई है।' 'इसका मुंह काला करके इसी घोड़े पे जुलूस निकालो।' बिशारत ने उसी समय फैसला कर लिया कि वो इंजेक्शन से बलबन को मरवा देंगे।

घर आकर उन्होंने बलबन को चाबुक से इतना मारा कि मोहल्ले वाले जमा हो गये।

उस रात वो और बलबन दोनों न सो सके। इससे पहले उन्होंने नोटिस नहीं किया था कि खलीफा ने चाबुक में बिजली का तार बांध रखा है।


बलबन को सजा - ए - मौत

सुब्ह उन्होंने खलीफा को बर्खास्त कर दिया। वो पेटी बगल में मार के जाने लगा तो हाथ जोड़ के बोला, 'बच्चों की कसम! घोड़ा बेकुसूर था। वो तो चुपका खड़ा था। आप नाहक में पिटवा रहे थे। इतनी मार खा के तो मुर्दा घोड़ा भी तड़प के सरपट दौड़ने लगता। अस्सलामअलैकुम (लौट कर आते हुए) कुसूर माफ! हजामत बनाने शुक्रवार को किस समय आऊं?'

एक दोस्त ने राय दी कि घोड़े को 'वैट' से इंजेक्श्न न लगवाओ। जानवर बड़ी तकलीफ सह के तड़प-तड़प के मरता है। मैंने अपने अल्सेशियन कुत्ते को अस्पताल में इंजेक्शन से मरते देखा तो दो दिन तक ठीक से खाना न खा सका। वो मेरे कठिन समय का साथी था। मुझे बड़ी बेबसी से देख रहा था। मैं उसके माथे पर हाथ रखे बैठा रहा। ये बड़ा बदनसीब, बड़ा दुखी घोड़ा है। इसने अपनी अपंगता और तकलीफ के बावजूद तुम्हारी, बच्चों की बड़ी सेवा की है।

उसी दोस्त ने किसी से फोन पर बात करके बलबन को गोली मारने की व्यवस्था कर दी। बलबन को ठिकाने लगवाने का काम मौलवी करामत हुसैन के सुपुर्द हुआ। वो बहुत उलझे, बड़ी बहस की। कहने लगे, पालतू जानवर, खिदमती जानवर, जानवर नहीं रहता वो तो बेटा बेटी की तरह होता है। बिशारत ने उत्तर दिया, आपको मालूम है घोड़े की उम्र कितनी होती है? इस लंगड़दीन को आठ नौ बरस तक खड़ा कौन खिलायेगा? मैंने सारी उम्र इसे ठुंसाने, जिंदा रखने का ठेका तो नहीं लिया। मौलाना अपनी नौकर की हैसियत भूल कर एकाएक क्रोध में आ गये। जमीन के झगड़े का रुख आसमान की ओर मोड़ते हुए कहने लगे कि इंसान की यह ताकत, यह मजाल कहां कि किसी को रोजी दे सके। अन्नदाता तो वही है जो पत्थर के कीड़े को भी खाना देता है। जो बंदा यह समझता है कि वो किसी को रोजी देता है वो दरअस्ल खुदाई का दावा करता है। प्रत्येक प्राणी अपना खाना अपने साथ लाता है। अल्लाह का वादा सच्चा है। वो हर हाल में हर सूरत में खाना देता है।

'बेशक! बेशक! रिश्वत की सूरत में भी!' बिशारत के मुंह से निकला और मौलाना के दिल में तीर की तरह उतर गया। मौलाना ही नहीं स्वयं बिशारत भी धक से रह गये कि क्या कह दिया। जिस कमीने, प्रतिशोधी वाक्य को व्यक्ति वर्षों सीने में दबाये रखता है, वो एक न एक दिन उछल कर अचानक मुंह पर आ ही जाता है। पट्टी बांधने से कहीं दिल की फांस निकलती है और जब तक वो न निकल जाये, आराम नहीं आता।

मौलाना तड़के बलबन को लेने आ गये। ग्यारह बजे गोली मारी जाने वाली थी।

बिशारत नाश्ते पर बैठे तो ऐसा महसूस हुआ जैसे हल्क में फंदा लग गया हो। आज उन्होंने बलबन की सूरत नहीं देखी। 'गोली तो जाहिर है माथे पर ही मारते होंगे' उन्होंने सोचा बायीं आंख के ऊपर वाली भौरी सच में मनहूस निकली। जान लेके रहेगी। मौलाना को उन्होंने रात ही को समझा दिया था कि लाश को अपने सामने ही गढ़े में दफ्न करायें। जंगल में चील कौओं के लिए पड़ी न छोड़ दें। उन्हें झुरझुरी आई और वो कबाब-परांठा खाये बिना अपनी दुकान रवाना हो गये। रास्ते में उन्होंने उसका सामान और पुरानी रुई का वो खून से भरा पैड देखा तो उसकी घायल गर्दन पर बांधा जाता था। ऐसा लगा जैसे उन्हें कुछ हो रहा है। वो तेज-तेज कदम उठाते हुए निकल गये।

आदरणीय को अस्ल सूरते-हाल नहीं बतायी गयी। उन्हें सिर्फ यह बताया गया कि बलबन दो ढाई महीने के लिए चरायी पर पंजाब जा रहा है। वो कहने लगे, गाय भैंसों को तो चरायी पर जाते सुना था मगर घोड़े को घास खाने के वास्ते जाते आज ही सुना!' यह उनसे उलझने का अवसर नहीं था! उनका ब्लड प्रेशर पहले ही बहुत बढ़ा हुआ था। उन्हें किसी जमाने में अपनी ताकत और कसरती बदन पर बड़ा घमंड था। अब भी बड़े गर्व से कहते थे कि मेरा ब्लड प्रेशर दो आदमियों के बराबर है। दो आदमियों के बराबर वाले दावे की पुष्टि हम भी करेंगे। हमने अपनी आंखों से देखा कि उन्हें मामूली सा दर्द होता तो दो आदमियों की ताकत से चीखते थे, इसलिए बिशारत अपने झूठ पर डटे रहे, और ठीक ही किया। मिर्जा अक्सर कहते हैं कि अपने छोटों से कभी झूठ नहीं बोलना चाहिये, क्योंकि इससे उन्हें भी झूठ बोलने की प्रेरणा मिलती है, परंतु बुजुर्गों की और बात है, उन्हें किसी बाहरी प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती।

मौलाना रास पकड़े बलबन को आदरणीय से मिलवाने ले गये। उनका आधे से जियादा सामान उनके अपने कमरे में शिफ्ट हो चुका था। हार्मोनियम रहीम बख्श के लाल खेस में लपेटा जा रहा था। बलबन का फोटो जो रेस जीतने के बाद अखबार में छपा था, अभी दीवार से उतारना बाकी था। वो रात से बहुत उदास थे। अपने नियम के विरुद्ध रात की नमाज के उपरांत दो बार हुक्का भी पिया। अब वो सुब्ह शाम कैसे काटेंगे? इस समय जब बलबन उनके पास लाया गया तो वो सर झुकाये देर तक अपनी दुम में उंगलियों से कंघी कराता रहा। आज उन्होंने उसके पांव पर दुआ पढ़के फूंक नहीं मारी। जब वो उसके माथे पर अल्लाह लिखने लगे तो उनकी उंगली चाबुक के उपड़े हुए लंबे निशान पर पड़ी और वो चौंक पड़े। जहां तक यह दर्द की लकीर जाती थी वहां तक वो उंगली की पोर से खुद को जख्माते रहे। फिर दुख-भरे स्वर में कहने लगे 'किसने मारा है, हमारे बेटे को?' मौलाना उसे ले जाने लगे तो उसके सर पर हाथ रखते हुए बोले 'अच्छा बलबन बेटे! हमारा तो चल-चलाव है। खुदा जाने वापसी पर हमें पाओगे भी या नहीं। जाओ अल्लाह की हिफाजत में दिया।' बलबन की जुदाई के खयाल से वो ढह गये। अब वो अपने मन की बात किससे कहेंगे? किसकी सेहत की दुआ को हाथ उठेंगे? उन्होंने सोचा भी न था कि कुदरत को इतना-सा आसरा, एक जानवर की दुसराथ तक स्वीकार न होगी। जो कभी स्वयं अकेलेपन की जान को घुला देने वाली पीड़ा से न गुजरा हो, वो अनुमान नहीं लगा सकता कि अकेला आदमी कैसी-कैसी दुसराथ का सहारा लेता है।

मौलाना दिन भर अनुपस्थित रहे, दूसरे दिन वो बंद-बंद और खिंचे-खिंचे से नजर आये। कई सवाल होंठों पर कांप-कांप कर रह गये। किसी को उनसे पूछने की हिम्मत न हुई कि बलबन को गोली कहां लगी। कहते हैं जानवरों को मौत का पूर्वाभास हो जाता है। तो क्या जब वो वीरान पहाड़ियों में ले जाया जा रहा था तो उसने भागने की कोशिश की? और कभी अंतिम क्षण में चमत्कार भी तो हो जाता है। वो बहुत मेहनती, सख्त जान, और साहसी था। दिल नहीं मानता था कि उसने आसानी से मौत से हार मानी होगी।

Do not go gentle into that good night,

rage, rage against the dying of the light.


आहा आहा ! बरखा आई !

कोई दो सप्ताह बाद बिशारत की ताहिर अली मूसा भाई से मुठभेड़ हो गयी। मूसा भाई वोहरी था और उसकी लकड़ी की दुकान उनसे इतनी दूरी पर थी कि पत्थर फेंकते तो ठीक उसकी सुनहरी पगड़ी पर पड़ता। यह हवाला इसलिए भी देना पड़ा कि कई बार बिशारत का दिल उस पर पत्थर फेंकने को चाहा। वो कभी सीधे मुंह बात नहीं करता था। उनके लगे हुए ग्राहक तोड़ता और तरह-तरह की अफवाहें फैलाता रहता। दरअस्ल वो उनका बिजनेस खराब करके उनकी दुकान खरीदना चाहता था। उसकी छिदरी दाढ़ी तोते की चोंच की तरह मुड़ी रहती थी।

वो कहने लगा 'बिशारत सेठ! लास्ट मंथ हमको किसी ने बोला आप घोड़े को शूट करवा रहे हो। हम बोला, बाप रे बाप! ये तो एकदम हत्या है। वो घोड़ा तो मुहर्रम में जुलजिनाह बना था। हमारी आरा मशीन पे एक मजूर काम करता है तुराब आली, उसने हमको आ के बोला कि मेरी झुग्गी के सामने से दुलदुल की सवारी निकली थी। आप ही का घोड़ा था सेम टू सेम सोला आने। तुराब अली ने उसको दूध जलेबी खिलाई। आपके कोचवान ने उसका पूरा भाड़ा वसूल किया। पचास रुपये, बोलता था कि बिशारत सेठ दुलदुल को भाड़े टैक्सी पे चलाना मांगता है। दुलदुल के आगे आगे वो शाहे-मर्दां, शेरे-यजदां वगैरा वगैरा गाता जा रहा था। उसके पंद्रह रुपये अलग से। घोड़े को हमारे पास भी सलाम कराने लाया था। गरीब बाल-बच्चेदार मानुस है।'

उसके अगले रोज मौलाना काम पर नहीं आये। दो दिन से मुसलसल बारिश हो रही थी। आज सुब्ह घर से चलते समय कह आये थे 'बेगम आज तो कढ़ाई चढ़नी चाहिये।' कराची में तो सावन के पकवान को तरस गये। खस्ता समोसे, करारे पापड़, और कचौरियां। कराची के पपीते खा-खा के हम तो बिल्कुल पिलपिला गये। शाम को जब दुकान बंद करने वाले थे, एक व्यक्ति सूचना लाया कि कल शाम मौलाना के पिता का देहांत हो गया। आज दोपहर के बाद जनाजा उठा। चलो अच्छा हुआ, अल्लाह ने बेचारे की सुन ली। बरसों का कष्ट समाप्त हुआ। मिट्टी सिमट गयी। बल्कि यूं कहिये कीचड़ से उठा के सूखी मिट्टी में दबा आये। वो पुर्से के लिए सीधे मौलाना के घर पहुंचे। बारिश थम चुकी थी और चांद निकल आया था। आकाश पर ऐसा लगता था जैसे चांद बड़ी तेजी से दौड़ रहा है और बादल अपनी जगह खड़े हैं। ईटों, पत्थरों और डालडा के डिब्बों की पगडंडियां जगह-जगह पानी में डूब चुकी थीं। नंग धड़ंग लड़कों की एक टोली पानी में डुबक-डुबक करते एक घड़े में बारी-बारी मुंह डाल कर फिल्मी गाने गा रही थी। एक ढही हुई झुग्गी के सामने एक बहुत बुरी आवाज वाला आदमी बारिश को रोकने के लिए अजान दिये चला जा रहा था। हर लाइन के आखिरी शब्द को इतना खींचता जैसे अजान के बहाने पक्का राग अलापने की कोशिश कर हो। कानों में उंगली की पोर जोर से ठूंस रखी थी ताकि अपनी आवाज की यातना से बचा रहे। एक हफ्ते पहले इसी झुग्गी के सामने इसी आदमी ने बारिश लाने के लिए अजानें दी थीं। उस वक्त बच्चों की टोलियां घरों के सामने 'मौला मेघ दे! मौला पानी दे! ताल, कुएं, मटके सब खाली मौला! पानी! पानी! पानी!' गातीं और डांट खातीं फिर रही थीं।

अजीब बेबसी थी। कहीं चटाई, टाट, और अखबार की रद्दी से बनी हुई छतों के पियाले पानी के लबालब बोझ से लटके पड़ रहे थे और कहीं घर के मर्द फटी हुई चटाइयों में दूसरी फटी चटाइयों के जोड़ लगा रहे थे। एक व्यक्ति टाट पर पिघला हुआ तारकोल फैला कर छत के उस हिस्से के लिए तिरपाल बना रहा था, जिसके नीचे उसकी बीमार मां की चारपायी थी। दूसरे की झुग्गी बिलकुल ढेर हो गयी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था मरम्मत कहां से शुरू करे, इसलिए वो एक बच्चे की पिटाई करने लगा।

एक झुग्गी के बाहर बकरी की आंतों पर बरसाती मक्खियां खुजलटे कुत्ते के उड़ाये से नहीं उड़ रही थीं। ये दूध देने वाली मगर बीमार और दम तोड़ती हुई बकरी की आंतें थी जिसे थोड़ी देर पहले उसके दो महीने के बच्चे से एक गज दूर तीन पड़ौसियों ने मिलकर हलाल किया था ताकि छुरी फिरने से पहले ही खत्म न हो जाये इसका खून नालों और नालियों के जरिये दूर-दूर तक फैल गया था। वो तीनों एक दूसरे को बधाई दे रहे थे कि एक मुसलमान भाई की मेहनत की कमाई को हराम होने से बाल-बाल बचा लिया। मौत के मुंह से कैसा निकाला था उन्होंने बकरी को, झुग्गियों में महीनों बाद गोश्त पकने वाला था। जगह-जगह लोग नालियां बना रहे थे जिनका उद्देश्य अपनी गंदगी को पड़ौसी की गंदगी से अलग रखना था।

एक साहब आटे की भीगी बोरी में बगल तक हाथ डाल-डाल कर देख रहे थे कि अंदर कुछ बचा भी है या सारा ही पेड़े बनाने योग्य हो गया। सबसे जियादा आश्चर्य उन्हें उस समय हुआ जब वो उस झुग्गी के सामने से गुजरे, जिसमें लड़कियां शादी के गीत गा रही थीं। बाहर लगी हुई कागज की रंग-बिरंगी झंडियां तो अब दिखाई नहीं दे रही थीं लेकिन उनके कच्चे रंगों के लहरिये टाट की दीवार पर बन गये थे। एक लड़की आटा गूंधने के तस्ले पर संगत कर रही थी कि बारिश से उसकी ढोलक का गला बैठ गया था।

अम्मा! मेरे बाबा को भेजो री के सावन आया!

अम्मा! मेरे भैया को भेजो री के सावन आया!

हर बोल के बाद लड़कियां अकारण बेतहाशा हंसतीं, गाते हुए हंसतीं और हंसते हुए गातीं तो राग अपनी सुर सीमा पार करके जवानी की दीवानी लय में लय मिलाता कहीं और निकल जाता। सच पूछिये तो कुंवारपने की किलकारती, घुंघराली हंसी ही गीत का सबसे अलबेला हरियाला अंग था।

एक झुग्गी के सामने मियां-बीबी लिहाफ को रस्सी की तरह बल दे कर निचोड़ रहे थे। बीबी का भीगा हुआ घूंघट हाथी की सूंड़ की तरह लटक रहा था। बीस हजार की इस बस्ती में दो दिन से बारिश के कारण चूल्हे नहीं जले थे। निचले इलाके की कुछ झुग्गियों में घुटनों-घुटनों पानी खड़ा था। बिशारत आगे बढ़े तो देखा कि कोई झुग्गी ऐसी नहीं जहां से बच्चों के रोने की आवाज न आ रही हो। पहली बार उन पर खुला कि बच्चे रोने का आरंभ ही अंतरे से करते हैं। झुग्गियों में आधे बच्चे तो इस लिए पिट रहे थे कि रो रहे थे और बाकी आधे इसलिए रो रहे थे कि पिट रहे थे।

वो सोचने लगे, तुम तो एक व्यक्ति को धीरज बंधाने चले थे। यह किस दुख सागर में आ निकले। तरह-तरह के खयालों ने घेर लिया। बड़े मियां को तो कफन भी भीगा हुआ नसीब हुआ होगा। यह कैसी बस्ती है। जहां बच्चे न घर में खेल सकते हैं, न बाहर। जहां बेटियां दो गज जमीन पर एक ही जगह बैठे-बैठे पेड़ों की तरह बड़ी हो जाती हैं जब ये दुल्हन ब्याह के परदेस जायेगी तो इसके मन में बचपन और मायके की क्या तस्वीर होगी? फिर खयाल आया, कैसा परदेस, कहां का परदेस। यह तो बस लाल कपड़े पहन कर यहीं कहीं एक झुग्गी से दूसरी झुग्गी में पैदल चली जायेगी। यही सखियां सहेलियां 'काहे को ब्याही बिदेसी रे! लिखी बाबुल मोरे!' गाती हुई इसे दो गज पराई जमीन के टुकड़े तक छोड़ आयेंगी। फिर एक दिन मेंह बरसते में जब ऐसा ही समां होगा, वहां से अंतिम दो गज जमीन की ओर डोली उठेगी और धरती का बोझ धरती की छाती में समा जायेगा। मगर सुनो! तुम काहे को यूं जी भारी करते हो? पेड़ों को कीचड़ गारे से घिन थोड़ा ही आती है। कभी फूल को भी खाद की बदबू आई है?

उन्होंने एक फुरेरी ली और उनके होठों के दायें कोने पर एक कड़वी-सी, तिरछी-सी मुस्कराहट का भंवर पड़ गया। जो रोने की ताकत नहीं रखते वो इसकी तरह मुस्करा देते हैं।

उन्होंने पहले इस अघोरी बस्ती को देखा था तो कैसी उबकाई आई थी। अब डर लग रहा था। भीगी-भीगी चांदनी में यह एक भुतहा नगर प्रतीत हो रहा था। जहां तक नजर जाती थी ऊंचे-नीचे बांस ही बांस और टपकती चटाइयों की गुफायें; बस्ती नहीं बस्ती का पिंजर लगता था, जिसे परमाणु धमाके के बाद बच पाने वाले ने खड़ा किया हो। हर गढ़े में चांद निकला हुआ था और भयानक दलदलों पर भुतहा किरणें अपना छलावा नाच नाच रही थीं। झींगुर हर जगह बोलते सुनायी दे रहे थे और किसी जगह नजर नहीं आ रहे थे। भुनगों और पतंगों के डर से लोगों ने लालटेनें गुल कर दी थीं। ठीक बिशारत के सर के ऊपर से चांद को काटती हुई एक टिटहरी बोलती हुई गुजरी और उन्हें ऐसा लगा जैसे उसके परों की हवा से उनके सर के बाल उड़े हों। नहीं! यह सब कुछ एक भयानक सपना है। जैसे ही वो मोड़ से निकले, अगरबत्तियों और लोबान की एक उदास-सी लपट आई और आंखें एकाएकी चकाचौंध हो गयीं। या खुदा! होश में हूं या सपना है?

क्या देखते हैं कि मौलाना करामत हुसैन की झुग्गी के दरवाजे पर एक पेट्रोमेक्स जल रही है। चार-पांच पुर्सा देने वाले खड़े हैं और बाहर ईंटों के एक चबूतरे पर उनका सफेद बुर्राक घोड़ा बलबन खड़ा है। मौलाना का पोलियो-ग्रस्त बेटा उसको पड़ोसी के घर से आये हुए मौत के खाने की नान खिला रहा था।