खोया पानी / भाग 16 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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न्यूनाधिक 45 बरस का साथ था। आधी सदी ही कहिये। बीबी की मौत के बाद बिशारत बहुत दिन खोये-खोये से गुम-सुम रहे। जैसे उन्होंने कुछ खोया न हो खुद खो गये हों। जवान बेटों ने मय्यत कब्र में उतारी, उस समय भी सब्र, धीरज की तस्वीर बने ताजा खुदी मिट्टी के ढेर पर चुपचाप खड़े देखते रहे। अभी उनके बटुए में स्वर्गीया के हाथ की रखी हुई इलाइचियां बाकी थीं और डीप फ्रीज में उसके हाथ के पकाये हुए खानों की तहें लगी थीं।

क्रोशिये की जो टोपी वो उस वक्त पहने हुए थे वो इस स्वर्गीया बीवी ने चांदरात को दो बजे पूरी की थी ताकि वो सुब्ह इसे पहन कर ईद की नमाज पढ़ सकें। सब मुट्ठी भर-भरकर मिट्टी डाल चुके और कब्र गुलाब के फूलों से ढक गयी तो उन्होंने स्वर्गीया के हाथ के लगाये हुए मोतिया की चंद कलियां जिनके खिलने में अभी एक पहर बाकी था, कुर्ते की जेब से निकाल कर अंगारा फूलों पर बिखेर दीं, फिर खाली-खाली नजरों से अपना मिट्टी में सना हुआ हाथ देखने लगे।

अचानक ऐसी दुर्घटना हो जाये तो कुछ अर्से तक तो विश्वास ही नहीं होता कि जिंदगी भर का साथ यूं अचानक आनन-फानन बिछड़ सकता है। नहीं, अगर वो सब कुछ सपना था तो ये भी सपना ही होगा। ऐसा लगता था जैसे वो अभी यहीं किसी दरवाजे से मुस्कुराती हुई आ निकलेंगी। रात के सन्नाटे में कभी-कभी तो कदमों की परिचित आहट और चूड़ियों की खनक तक साफ सुनायी देती और वो चौंक पड़ते कि कहीं आंख तो नहीं झपक गयी। किसी ने उनकी आंखें भीगी नहीं देखीं। अपने-बेगाने सभी ने उनके सब्र और धीरज की दाद दी फिर अचानक एक दरार डालने वाला क्षण आया और एकदम यकीन आ गया फिर सारे भरोसे, सारे आंसुओं के बांध और तमाम धीरज की दीवारें एक साथ ढह गयीं और वो बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोये।

लेकिन हर दुःख बीतने वाला है हर सुख समाप्त होने वाला। जैसे और दिन गुजर जाते हैं ये दिन भी गुजर गये। लारोश फोको के अनुसार प्रकृति ने कुछ ऐसी जुगत रखी है कि इंसान मौत और सूरज को जियादा देर तक टकटकी बांध कर नहीं देख सकता। धीरे-धीरे सदमे की जगह दुःख और दुःख की जगह उदास तन्हाई ने ले ली।

मैं जब मियामी से कराची पहुंचा तो वो इसी दौर से गुजर रहे थे, बेहद उदास, बेहद अकेले। जाहिर में वो इतने अकेले नहीं थे जितना महसूस करते थे मगर आदमी उतना ही अकेला होता है जितना महसूस करता है। तन्हाई आदमी को सोचने पर विवश कर देती है। वो जिधर नजर उठाता है आईने को सामने पाता है इसलिए वो तन्हाई यानी अपने साथ से ही बचता है और डरता है। अकेले आदमी की सोच उसकी अंगुली पकड़कर खेंचती हुई, हर छोड़े राजपथ, एक-एक पगडंडी, गली-कूचे और चौराहे पर ले जाती है। जहां-जहां रास्ते बदले थे वहां खड़े होकर इंसान पर ये बात प्रकट होती है कि वस्तुतः रास्ते नहीं बदलते इंसान बदल जाता है। सड़क कहीं नहीं जाती वो तो वहीं की वहीं रहती है मुसाफिर खुद कहां से कहां पहुंच जाता है। राह कभी गुम नहीं होती राह चलने वाले गुम हो जाते हैं।

बुढ़ापे में पुरानी कहावत के अनुसार सौ बुराइयां हो न हों, एक बुराई ऐसी है जो सौ बुराइयों पर भारी है और वो है नास्टेलजिया। बुढ़ापे में आदमी आगे अपनी अप्राप्य और अनुपलब्ध मंजिल की तरफ बढ़ने के बजाय उल्टे पैरों उस तरफ जाता है जहां से यात्रा शुरू की थी। बुढ़ापे में अतीत अपनी तमाम रौशनियों के साथ जाग उठता है। बूढ़ा और अकेला आदमी एक ऐसे खंडहर में रहता है जहां भरी दोपहर में दीवाली होती है और जब रोशनियां बुझा कर सोने का वक्त आता है तो यादों के फानूस जगमग-जगमग रौशन होते चले जाते हैं। जैसे-जैसे उनकी रौशनी तेज होती जाती है खंडहर की दरारें, जाले और टूटी-फूटी ढही दीवारें उतनी जियादा रौशन होती जाती हैं। सो उनके साथ भी यही कुछ हुआ।


खोये अतीत की तलाश

कराची में अल्लाह ने उन्हें इतना दिया था कि सपने में भी अपने छूटे बल्कि छोड़े हुए वतन कानपुर जाने की इच्छा नहीं हुई मगर इस दुर्घटना के बाद अचानक एक हूक सी उठी और उन्हें कानपुर की याद बेतहाशा सताने लगी। इससे पहले अतीत ने उनके अस्तित्व पर यूं पंजे गाड़ कर कब्जा नहीं जमाया था। वर्तमान से मुंह फेरे प्रत्यक्ष और प्रकट से आंखें मूंदे भविष्य से निराश अब वो सिर्फ अतीत में जी रहे थे। वर्तमान में कोई विशेष बुराई नहीं थी सिवाय इसके कि बूढ़े आदमी के वर्तमान की सबसे बड़ी बुराई उसका अतीत होता है जो भुलाये नहीं भूलता।

हर घटना बल्कि सारी जिंदगी की फिल्म उलटी चलने लगी। जटाधारी बरगद क्रोध में आकर फुनंग के बल अपनी भुजंग-जटायें और पाताल-जड़ें आसमान की तरफ करके शीर्षासन में उल्टा खड़ा हो गया। 35 बरस बाद उन्होंने अपनी खोयी जन्नत कानपुर जाने का फैसला किया। वो गलियां, बाजार, मुहल्ले, आंगन, चारपायी, अधूरे छिड़काव से रात गये तक जवान बदन की तरह सुलगती छतें, वो दीवानी ख्वाहिशें जो रात को ख्वाब बन कर आतीं और ख्वाब जो दिन में सचमुच ख्वाहिश बन जाते... एक-एक करके बेतहाशा याद आने लगे। हद ये कि वो स्कूल भी जन्नत का टुकड़ा मालूम होने लगा जिससे भागने में इतना मजा आता था। सब मजों, सब यादों ने एकाएक हमला कर दिया। दोस्तों से चरचराती चारपाइयां और हरी-हरी निबोलियों से लदे-फंदे नीम की छांव, आमों की बौर, महुए की महक से बोझल पुरवा, इमली पर गदराये हुए कतारे और उन्हें ललचायी नजरों से देखते हुए लड़के, हिरनों से भरे जंगल, छर्रे से जख्मी होकर दो-तीन सौ फिट की ऊंचाई से गद से गिरती हुई मुर्गाबी, खस की टट्टियां, सिंघाड़ों से पटे तालाब, गले से फिसलता मखमल फलूदा, मौलश्री के गजरे, गर्मियों की दोपहर में जामुन के घने पत्तों में छुपे हुए गिरगिट की लपलपाती महीन जबान, अपने चौकन्ने कानों को हवा की दिशा के साथ ट्यून किये टीले पर अकेला खड़ा हुआ बारहसिंघा, उमड़-घुमड़ जवानी और पहले प्यार की घटाटोप उदासी, ताजा कलफ लगे हुए दुपट्टे की करारी महक, धूम मचाते दोस्त... अतीत के पहाड़ों से ऐसे बुलावे, ऐसी आवाजें आने लगीं कि -

इक जगह तो घूम के रह गयी

एड़ी सीधे पांव की

वो बच्चे नहीं रहे थे। हमारा मतलब है कि सत्तर के आसपास थे। लेकिन उन्हें एक पल के लिए भी ये ध्यान नहीं आया कि तमाम रंगीन और रोमांटिक चीजें... जिन्हें याद करके वो सौ-सौ decibel की आहें भरने लगे थे, पाकिस्तान में न केवल उपलब्ध थीं बल्कि बेहतर क्वालिटी की थीं। हां! सिर्फ एक चीज पाकिस्तान में न थी और वो थी उनकी जवानी, जो तलाश करने के बाद कानपुर में भी न मिली।

ये बच्चे कितने बूढ़े हैं, ये बूढ़े कितने बच्चे हैं

उन्होंने अपने नार्थ नाजिमाबाद वाले घर के सामने मौलश्री का पेड़ लगाने को तो लगा लिया, लेकिन यादों की मौलश्री की भीनी-भीनी महक, फबन और छब-छांव कुछ और ही थी। अब वो पहली सी किस्म के फूल कहां कि हर फूल से अपनी ही खुश्बू आये। उन पर भी वो मुकाम आया जो बुढ़ापे के पहले हमले के बाद हर शख्स पर आता है, जब अचानक उसका जी बचपन की दुनिया की एक झलक... आखिरी झलक... देखने के लिए बेकरार हो जाता है, लेकिन उसे ये मालूम नहीं होता कि बचपन और बुढ़ापे के बीच कोई दैवीय हाथ चुपके-से सौगुनी ताकत का Magnifier (बड़ा दिखाने वाला शीशा) रख देता है। बुद्धिमान लोग कभी इस शीशे को हटाकर देखने की कोशिश नहीं करते। इसके हटते ही हर चीज खुद अपना Miniature मालूम होने लगती है। कल के राक्षस बिल्कुल बालिश्तिये नजर आने लगते हैं, अगर आदमी अपने बचपन के Locale से लंबे समय तक दूर रहा है तो उसे एक नजर आखिरी बार देखने के लिए हरगिज नहीं जाना चाहिये लेकिन वो जाता है। वो दृश्य उसे एक अदृश्य चुंबक की तरह खींचता है और वो खिंचा चला जाता है। उसे क्या मालूम कि बचपन के सारे इंद्रजाल, अगर प्रौढ़ locale पड़ जाये तो टूट जाते हैं। रूपनगर की सारी परियां उड़ जाती हैं और शीश महल पर कालिख पुत जाती है; और इस जगह तो अब सुगंधों की जगह धुआं ही धुआं है। यहां जो कामदेव का दहकता इंद्रधनुष हुआ करता था वो क्या हुआ?

ये धुआं जो है ये कहां का है

वो जो आग थी वो कहां की थी

आदमी को किसी तरह अपनी आंखों पर यकीन नहीं आता वो सौंदर्य क्या हुआ? वो चहकती बोलती महक कहां गयी? नहीं, ये तो वो चित्रकारों की बनाई गलियां और बाजार नहीं जहां हर चीज अचंभा लगती थी। ये हर चीज, हर चेहरे को क्या हो गया? Was this face that launched a thousand ships and burnt the topless towers of Ilium! जिस घड़ी ये इंद्रजाल टूटता है, अतीत के तमन्नाई का स्वप्न महल ढह जाता है, फिर उस शख्स की गिनती न बच्चों में होती है न बूढ़ों में। जब ये पड़ाव आता है तो आंखें अचानक कलर ब्लाइंड हो जाती हैं। फिर इंसान को सामने नाचते मोर के सिर्फ पैर दिखाई देते हैं और वो उन्हें देख-देख कर रोता है। हर तरफ बेरंगी और बेदिली का राज होता है।

बेहलावत उसकी दुनिया और मुजबजब उसका दीं

जिस शहर में भी रहना, उकताये हुए रहना

सो इस बच्चे बूढ़े ने कानपुर जा कर बहुत आंसू बहाये। 35 बरस तक तो इस पर रोया किये कि हाय ऐसी जन्नत छोड़ कर कराची क्यों आ गये, अब इस पर रोये कि लाहौल विला कूव्वत! इससे पहले ही छोड़कर क्यों न आ गये। ख्वामख्वाह प्यारी जिंदगी का एक तिहाई हिस्सा गलत बात पर रोने में गंवा दिया। रोना ही जुरूरी था तो इसके लिए 365 मुनासिब कारण मौजूद थे, इसलिए कि साल में इतनी ही मायूसियां होती हैं। अपनी ड्रीमलैंड का चप्पा-चप्पा जन मारा लेकिन

वो लहर न दिल में फिर जागी

वो रंग न लौट के फिर आया

35 साल बाद पुराना नास्टेल्जिया अचानक टूटा तो हर जगह उजाड़, हर चीज खंडहर नजर आई। हद ये जिस मगरमच्छ भरे दरिया में जिसका ओर न छोर, वो आसमान चूमने वाले बरगद की फुंगी से बिना डरे छलांग लगा दिया करते थे, अब उसे जाकर पास से देखा तो वो एक मेंढक भरा बरसाती नाला निकला। अब वो विराट बरगद तो निरा बोंजाई पेड़ लग रहा था।


कबूतर खाने की नक्ल

यूनानी कोरस (Greek Chorus) बहुत दर्शन बघार चुका। अब इस कहानी को खुद इसके हीरो बिशारत की जुबानी सुनिये कि इसका मजा ही कुछ और है

ये अफसाना अगरचे सरसरी है

वले उस वक्त की लज्जत भरी है

साहब मैं तो अपना मकान देख कर भौंचक्का रह गया कि हम इसमें रहते थे और इससे जियादा हैरानी इस पर कि बहुत खुश रहते थे। मिडिल क्लास गरीबी की सबसे दयनीय और असह्य किस्म वो है, जिसमें आदमी के पास कुछ न हो लेकिन उसे किसी चीज की कमी महसूस न हो। ईश्वर की कृपा से हम तले-ऊपर के नौ भाई थे और चार बहनें, और तले-ऊपर तो मैंने मुहावरे की मजबूरी के कारण कह दिया वरना खेल-कूद, खाने और लेटने-बैठने के वक्त ऊपर-तले कहना जियादा सही होगा। सबके नाम त पर खत्म होते थे। इतरत, इशरत, राहत, फरहत, इस्मत, इफ्फत वगैरा। मकान खुद वालिद ने मुझसे बड़े भाई की स्लेट पर डिजाइन किया था। सवा सौ कबूतर भी पाल रखे थे, हर एक की नस्ल और जात अलग-अलग। किसी कबूतर को दूसरी जात की कबूतरी से मिलने नहीं देते थे। लकड़ी की दुकान थी। हर कबूतर की काबक उसकी लंबाई बल्कि दुम की लंबाई-चौड़ाई और बुरी आदतों को ध्यान में रखते हुए खुद बनाते थे। साहब अब जो जाके देखा तो मकान के आर्किटेक्चर में उनके फालतू शौक का प्रभाव और दबाव नजर आया बल्कि यूं कहना चाहिये कि सारा मकान दरअस्ल उनके कबूतरखाने की भौंडी सी नक्ल था। वालिद बहुत प्रैक्टिकल और दूर की सोचने वाले थे। इस भय से कि उनकी आंख बंद होते ही औलाद घर के बंटवारे के लिए झगड़ा करेगी, वो हर बेटे के पैदा होते ही अलग कमरा बनवा देते थे। कमरों के बनाने में खराबी की एक जियादा सूरत छिपी हुई थी, यानी बड़े-छोटे का लिहाज-पास था कि हर छोटे भाई का कमरा अपने बड़े भाई के कमरे से लंबाई-चौड़ाई दोनों में एक-एक गज छोटा हो। मुझ तक पहुंचते-पहुंचते कमरे की लंबाई-चौड़ाई तकरीबन पंजों के बल बैठ गयी थी। मकान पूरा होने में पूरे सात साल लगे। इस अरसे में तीन भाई और पैदा हो गये। आठवें भाई के कमरे की दीवारें उठायीं तो कोई नहीं कह सकता था कि कदमचों की नींव रखी जा रही है या कमरे की। हर नवजात के आने पर स्लेट पर पिछले नक्शे में जुरूरी परिवर्तन और एक कमरे में बढ़ोतरी करते। धीरे-धीरे सारा आंगन खत्म हो गया। वहां हमें विरसे में मिलने वाली कोठरियां बन गयीं।

साहब! कहां कराची की कोठी, उसके एयरकंडीशंड कमरे, कालीन, खूबसूरत पेंट और कहां ये ढंढार कि खांस भी दो तो प्लास्टर झड़ने लगे। चालीस बरस से रंग सफेदी नहीं हुई। फुफेरे भाई के मकान में एक जगह तिरपाल की छत बंधी देखी। कराची और लाहौर में तो कोई छतगीरी और नमगीरी के अर्थ भी नहीं बता पायेगा।

छतगीरी पर तीन जगह नेल पालिश से X का निशान बना है मतलब ये कि इसके नीचे न बैठो। यहां से छत टपकती है। कानपुर और लखनऊ में जिस दोस्त और रिश्तेदार के यहां गया, उसे परेशान हाल पाया। पहले जो सफेदपोश थे, वो अब भी हैं मगर सफेदी में पैवंद लग गये हैं। अपने स्वाभिमान पर कुछ जियादा ही घमंड करने लगे हैं। एक छोटी-सी महफिल में मैंने इस पर उचटता सा जुमला कस दिया तो एक जूनियर लैक्चरर जो किसी स्थानीय कॉलेज में इकोनोमिक्स पढ़ाते हैं, बिगड़ गये। कहने लगे 'आपकी अमीरी अमेरिका और अरब देशों की देन है। हमारी गरीबी हमारी अपनी गरीबी है। (इस पर उपस्थित लोगों में से एक साहब ने गा कर अल्हम्दुलिल्लाह कहा) कर्जदारी का सुख आप ही को मुबारक हो। अरब अगर थर्ड वर्ल्ड को भिखारी कहते हैं तो गलत नहीं कहते।' मैं मेहमान था उनसे क्या उलझता। देर तक जौ की रोटी, कथरी, चटायी, सब्र, गरीबी और स्वाभिमान की आरती उतारते रहे और इसी तरह के शेर सुनाते रहे। लिहाज में मैंने भी दाद दी।

कोई चीज ऐसी नहीं जो हिंदुस्तान में नहीं बनती हो। एक कानपुर ही क्या सारा देश कारखानों से पटा पड़ा है। कपड़े की मिलें, फौलाद के कारखाने, कार और हवाई जहाज की फैक्ट्रियां। टैंक भी बनने लगे। एटम बम तो बहुत दिन हुए फोड़ लिया। सैटेलाइट भी अंतरिक्ष में छोड़ लिया। अजब नहीं कि चांद पर भी पहुंच जायें। एक तरफ तो ये है, दूसरी तरफ ये नक्शा भी देखा कि एक दिन मुझे इनआमुल्ला बरमलाई के यहां जाना था। एक पैडल-रिक्शा पकड़ी। रिक्शा वाला टी.बी. का मरीज लग रहा था। बनियान में से भी पसलियां नजर आ रहीं थीं। मुंह से बनारसी किवाम वाले पान के भबके निकल रहे थे। उसने उंगली का आंकड़ा-सा बना कर माथे पर फेरा तो पसीने की तलल्ली बंध गयी। पसीने ने मुंह और हाथों पर लसलसी चमक पैदा कर दी थी जो धूप में ऐसी लगती थी जैसे वैसलीन लगा रखा हो। नंगे पैर, सूखी कलाई पर कलाई से जियादा चौड़ी घड़ी, हैंडिल पर परवीन बॉबी का एक सैक्सी फोटो। पैडिल मारने में दोहरा हो हो जाता और पीसने में तर माथा बार-बार बॉबी पर सिजदे करने लगता। मुझे एक मील ढो कर ले गया मगर अंदाजा लगाइये कितना किराया मांगा होगा? जनाब! कुल पिचहत्तर पैसे, खुदा की कसम! पिचहत्तर पैसे। मैंने उनके अलावा चार रुपये पच्चीस पैसे का टिप दिया तो पहले तो उसे यकीन नहीं आया फिर बांछें खिल गयीं। कद्दू के बीज जैसे पान में लिथड़े दांत निकले के निकले रह गये। मेरे बटुए को ललचाई नजरों से देखते हुए पूछने लगा, बाऊजी आप कहां से आये हैं? मैंने कहा - पाकिस्तान से। मगर 35 बरस पहले यहीं हीरामन के पुरवे में रहता था। उसने पांच का नोट अंटी से निकाल कर लौटाते हुए कहा `बाबूजी मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूं? आपसे तो मुहल्लेदारी निकली। मेरी खोली भी वहीं है।`


गरीब गुर्राने लगे

और आबादी, खुदा की पनाह। बारामासी मेले का-सा हाल है। जमीन से उबले पड़ते हैं। बाजार में आप दो कदम नहीं चल सकते। जब तक कि दायें-बायें हाथ और कुहनियां न चलायें। सूखे में खड़ी तैराकी कहिये। जहां कोहनी मारने की भी गुंजाइश न हो वहां धक्के से पहुंच जाते हैं। लाखों आदमी फुटपाथ पर सोते हैं और वहीं अपनी जीवन की सारी यात्रा पूरी कर लेते हैं, मगर फुटपाथ पर सोने वाला किसी से दबता है-न डरता है, न सरकार को बुरा कहने से पहले मुड़ कर दायें-बायें देखता है। हमारे जमाने के गरीब वास्तव में दयनीय होते थे। अब गरीब गुर्राते बहुत हैं। रिक्शे को तो फिर भी रास्ता दे देंगे मगर कार के सामने से जरा जो हट जायें।

अजीजुद्दीन वकील कह रहे थे कि हमारे यहां राजनैतिक जागरूकता बहुत बढ़ गयी है। खुदा जाने, मैंने तो यह देखा कि जितनी गरीबी बढ़ती है उतनी ही हेकड़ी भी बढ़ती जाती है। ब्लैक का पैसा वहां भी बहुत है, मगर किसी की मजाल नहीं कि बिल्डिंग में नुमाइश करे। शादियों में खाते-पीते घरानों तक की औरतों को सूती साड़ी और चप्पलें पहने देखा। मांग में अगर सिंदूर न हो तो विधवा-सी लगें। चेहरे पर बिल्कुल मेक-अप नहीं। जबकि अपने यहां ये हाल कि हम मुर्गी की टांग को भी हाथ नहीं लगाते जब तक उस पर रूज न लगा हो। साहब आपने तारिक रोड के लाल-भबूका चिकन सिकते देखे होंगे? कानपुर में मैंने अच्छे-अच्छे घरों में दरियां और बेंत के सोफा-सेट देखे हैं और कुछ तो वही हैं जिन पर हम 35 साल पहले ऐंडा करते थे। साहब रहन-सहन के मामले में हिंदुओं में इस्लामी सादगी पायी जाती है।


जो होनी थी सो बात हो ली, कहारो!

कहने को तो आज भी उर्दू बोलने वाले उर्दू ही बोलते हैं, मगर मैंने एक अजीब परिवर्तन महसूस किया। आम आदमी का जिक्र नहीं, उर्दू के प्रोफेसरों और लिखने वालों तक का वो ढंग नहीं रहा जो हम-आप छोड़ कर आये थे। करारापन, खड़ापन, वो कड़ी कमान वाला खटका चला गया। देखते-देखते ढुलक कर हिंदी के पंडताई लहजे के करीब आ गया है `Sing-Song` लहजा You know what I mean. विश्वास न हो तो ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू खबरों के लहजे की, कराची रेडियो या मेरे लहजे से तुलना कर लीजिये। मैंने पाइंट आउट किया। इनामुल्ला बरमलाई सचमुच नाराज हो गये। अरे साहब! वो तो आक्षेपों पर उतर आये। कहने लगे `और तुम्हारी जुबान और लहजे पर जो पंजाबी छाप है तुम्हें नजर नहीं आती, हमें आती है। तुम्हें याद होगा 2 अगस्त 1947 को जब मैं तुम्हें ट्रेन पर सी-ऑफ करने गया तो तुम काली रामपुरी टोपी, सफेद चूड़ीदार पाजामा और जोधपुरी जूते पहने हाथ का चुल्लू बना-बना कर आदाब-तस्लीमात कर रहे थे, कहो हां! कल्ले में पान, आंखों में ममीरे का सुरमा, मलमल के चुने हुए कुर्ते में इत्रे-गिल! कहो, हां! तुम यहां से चाय को चांय, घास को घांस और चावल को चांवल कहते हुए गये! कहो हां! और जिस वक्त गार्ड ने सीटी बजायी तुम चमेली का गजरा गले में डाले थर्मस से गरम चाय प्लेट में डाल कर, फूंकें मार-मार कर सुटर-सुटर पी रहे थे। उस वक्त भी तुम कराची को किरांची कह रहे थे। कह दो कि नहीं। और अब तीन Decades of decadence के बाद सर पर सफेद बालों का टोकरा रखे, टखने तक हाजियों जैसा झाबड़ा-झिल्ला कुर्ता पहने, टांगों पर घेरदार शलवार फड़काते, कराची के कंक्रीट जंगल से यहां तीर्थ यात्रा को आये हो तो हम तुम्हें पंडित-पांडे दिखाई देने लगे। भूल गये? तुम यहां `अमां! और ऐ हजरत` कहते हुए गये थे और अब सांईं-सांईं कहते लौटे हो।` साहब मैं मेहमान था। बकौल आपके, अपनी बेइज्जती खराब करवा के चुपके से उठकर रिक्शा में घर आ गया।

जो होनी थी सो बात हो ली, कहारो

चलो ले चलो मेरी डोली, कहारो


हम चुप रहे , हम हंस दिये

लखनऊ और कानपुर उर्दू के गढ़ थे। अनगिनत उर्दू अखबार और पत्रिकायें निकलती थीं। खैर आप तो मान कर नहीं देते। मगर साहब, हमारी जबान प्रामाणिक थी। अब हाल यह है कि मुझे तो सारे शहर में एक भी उर्दू साइन बोर्ड नजर नहीं आया। लखनऊ में भी नहीं। मैंने ये बात जिससे भी कही वो आह भर के या मुंह फेर के खामोश हो गया। मत मारी गयी थी कि ये बात एक महफिल में दोहरा दी तो एक साहब बिखर गये। शायद जहीर नाम है। म्यूनिस्पिलिटी के मैंबर हैं। वकालत करते हैं। न जाने कब से भरे बैठे थे। कहने लगे `खुदा के लिए हिंदुस्तानी मुसलमानों पर रहम कीजिये। हमें अपने हाल पर छोड़ दीजिये। पाकिस्तान से जो भी आता है, हवाई जहाज से उतरते ही अपना फॉरेन एक्सचेंज उछालता, यही रोना रोता हुआ आता है। जिसे देखो, आंखों में आंसू भरे शहर का मर्सिया पढ़ता चला आ रहा है। अरे साहब! हम आधी सदी से पहले का कानपुर कहां से ला कर दें। बस जो कोई भी आता है, पहले तो हर मौजूदा चीज की तुलना पचास बरस के पहले के हिंदुस्तान से करता है। जब ये कर चुकता है तो आज के हिंदुस्तान की तुलना आज के पाकिस्तान से करता है। दोनों मुकाबलों में चाबुक दूसरे घोड़े के मारता है, जितवाता है अपने ही घोड़े को।` वो बोलते रहे। मैं मेहमान था क्या कहता, वरना वही सिंधी कहावत होती कि गयी थी सींगों के लिए, कान भी कटवा आई।

लेकिन एक सच्चाई को स्वीकार न करना बेईमानी होगी। हिंदुस्तान का मुसलमान कितना ही परेशान, बेरोजगार क्यों न हो, वो मिलनसार, मुहब्बत-भरा, स्वाभिमानी और आत्मविश्वासी है। नुशूर भाई से लंबी-लंबी मुलाकातें रहीं। साक्षात् मुहब्बत, साक्षात् प्यार, साक्षात् रोग। उनके यहां लेखकों और शायरों का जमाव रहता है। पढ़े-लिखे लोग भी आते हैं। पढ़े-लिखे हैं मगर बुद्धिमान नहीं। सब एक सुर में कहते हैं कि उर्दू बड़ी सख्त जान है। पढ़े-लिखे लोगों को उर्दू का भविष्य अंधकारपूर्ण दिखाई देता है। बड़े-बड़े मुशायरे होते हैं। सुना है कि एक मुशायरे में तो तीस हजार से जियादा श्रोता थे। साहब! मैं आपकी राय से सहमत नहीं कि जो शेर एक साथ पांच हजार आदमियों की समझ में आ जाये वो शेर नहीं हो सकता, कोई और चीज है।

अनगिनत सालाना कांफ्ऱैंस होती हैं। सुना है कई उर्दू लेखकों को पद्मश्री और पद्मभूषण के एवार्ड मिल चुके हैं। मैंने कइयों से पद्म और भूषण के अर्थ पूछे तो जवाब में उन्होंने वो रकम बतायी जो एवार्ड के साथ मिलती है। आज भी फिल्मी गीतों, द्विअर्थी डॉयलॉग, कव्वाली और आपस की मारपीट की जबान उर्दू है। संस्कृत शब्दों पर बहुत जोर है मगर आप आम आदमी को संस्कृत में गाली नहीं दे सकते। इसके लिए संबोधित का पंडित और विद्वान होना जुरूरी है। साहब! गाली, गिनती और गंदा लतीफा तो अपनी मादरीजबान में ही मजा देता है। तो मैं कह रहा था कि उर्दू वाले काफी उम्मीद से भरे हैं। कठिन हिंदी शब्द बोलते समय इंदिरा गांधी की जुबान लड़खड़ाती है तो उर्दू वालों को कुछ आस बंधती है।


कौन ठहरे समय के धारे पर

नुशूर वाहिदी उसी तरह तपाक और मुहब्बत से मिले। तीन-चार घंटे गप के बाद जब भी मैंने ये कह कर उठना चाहा कि अब चलना चाहिये तो हाथ पकड़ कर बिठा लिया। मेरा जी भी यही चाहता था कि इसी तरह रोकते रहें। याददाश्त खराब हो गयी है। एक ही बैठक में तीन-चार बार आपके बारे में पूछा `कैसे हैं? सुना है हास्य व्यंग्य लेख लिखने लगे हैं। भई हद हो गयी।` रोगी तो आप जानते हैं सदा के थे। वज्न 75 पौंड रह गया है। उम्र भी इतनी ही होगी। चेहरे पर नाक ही नाक नजर आती है। नाक पर याद आया, कानपुर में चुनिया केले, इसी साइज के अब भी मिलते हैं। मैंने खास तौर पर फरमाइश करके मंगवाये। मायूसी हुई। अपने सिंध के चित्तीदार केलों के आसपास भी नहीं। एक दिन मेरे मुंह से निकल गया कि सरगोधे का मालटा, नागपुर के संतरे से बेहतर होता है, नुशूर तड़प कर बोले `ये कैसे मुमकिन है?` वैसे नुशूर माशाअल्लाह चाक-चौबंद हैं। सूरत बहुत बेहतर हो गयी है। इसलिए कि आगे को निकले हुए लहसुन की पोथी जैसे ऊबड़-खाबड़ दांत सब गिर चुके हैं।

आपको तो याद होगा, सुरैया एक्ट्रेस क्या कयामत का गाती थी? मगर लंबे दांत सारा मजा किरकिरा कर देते थे। सुना है कि हमारे पाकिस्तान आने के बाद सामने के निकलवा दिये थे। एक फिल्मी मैगजीन में उसका ताजा फोटो देखा तो खुद पर बहुत गुस्सा आया कि क्यों देखा? फिर उसी डर के मारे उसके रिकार्ड नहीं सुने। एजाज हुसैन कादरी के पास उस जमाने के सारे रिकार्ड मय भोंपू वाले ग्रामोफोन के अभी तक सुरक्षित हैं। साहब! विश्वास नहीं हुआ कि यह हमारे लिए साइंस, गायकी और ऐश की इंतहा थी। उन्होंने उस जमाने के सुर-संगीत सम्राट सहगल के दो-तीन गाने सुनाये। साहब! मुझे तो बड़ा शॉक लगा कि माननीय के नाक से गाये हुए गानों से मुझ पर ऐसा रोमांटिक मूड कैसे तारी हो जाता था।

मोती बेगम का मुंह झुरिया कर बिल्कुल किशमिश हो गया है। नुशूर कहने लगे, मियां तुम औरों पर क्या तरस खाते फिरते हो। जरा अपनी सूरत तो 47 के पासपोर्ट फोटो से मिला कर देखो। कोई अखिल भारतीय मुशायरा ऐसा नहीं होता, जिसमें नुशूर न बुलाये जायें। शायद किसी शायर को इतना पारिश्रमिक नहीं मिलता, जितना उन्हें मिलता है। बड़ी इज्जत की नजर से देखे जाते हैं। अब तो माशाअल्लाह घर में फर्नीचर भी है मगर अपनी पुरानी परंपरा पर डटे हुए हैं। तबियत हमेशा की तरह थी, यानी बहुत खराब।

मैं मिलने जाता तो बान की खुर्री चारपायी पर लेटे से उठ बैठते और तमाम वक्त बनियान पहने तकिये पर उकड़ू बैठे रहते। अक्सर देखा कि पीठ पर चारपायी के बानों का नालीदार पैटर्न बना हुआ है। एक दिन मैंने कहा प्लेटफॉर्म पर जब एनाउंस हुआ कि ट्रेन अपने निर्धारित समय से ढाई घंटा विलंब से प्रवेश कर रही है तो खुदा की कसम मेरी समझ में ही नहीं आया कि ट्रेन क्या कर रही है। आ रही है या जा रही है या ढाई घंटे से महज कुलेलें कर रही है। ये सुनना था कि नुशूर बिगड़ गये।

जोश में बार-बार तकिये पर से फिसल पड़ते थे। एक बेचैन पल में जियादा फिसल गये तो बानों की झिरी में पैर के अंगूठे को जड़ तक फंसा के फुट ब्रेक लगाया और एकदम तन कर बैठ गये। कहने लगे `हिंदुस्तान से उर्दू को मिटाना आसान नहीं। पाकिस्तान में पांच बरस में उतने मुशायरे नहीं होते होंगे जितने हिंदुस्तान में पांच महीने में हो जाते हैं। पंद्रह बीस हजार की भीड़ की तो कोई बात ही नहीं। अच्छा शायर आसानी से पांच सात हजार पीट लेता है। रेल का किराया, ठहरने-खाने का इंतजाम और दाद इसके अलावा। जोश ने बड़ी जल्दबाजी की। बेकार चले गये, पछताते हैं।` अब मैं उन्हें क्या बताता कि जोश को 7-8 हजार रुपये महीना... और कार... दो बैंकों और एक इंश्योरेंस कंपनी की तरफ से मिल रहे हैं। शासन की तरफ से मकान अलग से। यूं इसकी शक्ल कृपा की जगह कष्ट की-सी है।

गा कर पढ़ने में अब नुशूर की सांस उखड़ जाती है। ठहर-ठहर कर पढ़ते हैं, मगर आवाज में अब भी वही दर्द और गमक है। बड़ी-बड़ी आंखों में वही चमक। तेवर और लहजे में वही खरज और निडरपन जो सिर्फ उस वक्त आता है जब आदमी पैसे ही नहीं, जिंदगी और दुनिया को भी हेच समझने लगे। दस-बारह ताजा गजलें सुनायीं। क्या कहने। मुंह पर आते-आते रह गया कि डेंचर लगाकर सुनाइये। आपने तो उन्हें बहुत बार सुना है। एक जमाने में `ये बातें राज की हैं किबला-ए-आलम भी पीते हैं` वाली गजल ने सारे हिंदुस्तान में तहलका मचा दिया था, मगर अब `दौलत कभी ईमां ला न सकी, सरमाया मुसलमां हो न सका` वाले शेरों पर दाद के डोंगरे नहीं बरसते। सुनने वालों का मूड बदला हुआ है। श्रोताओं का मौन भी एक प्रकार की बेआवाज हूटिंग है, अगर उस्ताद दाग या नवाब साइल देहलवी भी अपनी वो तोप गजलें पढ़ें जिनसे 70-80 बरस पहले छतें उड़ जाती थीं तो श्रोताओं की अरसिकता से तंग आ कर उठ खड़े हों मगर अब नुशूर का रंग बदल गया। मुशायरे अब भी लूट लेते हैं। हमेशा के मस्त-मलंग हैं। कह रहे थे कि अब कोई तमन्ना, कोई हसरत बाकी नहीं। मैंने तो हमेशा उन्हें बीमार, कमजोर, बुरे हाल और निश्चिंत पाया। उनके स्वाभिमान और रुतबे में कोई फर्क नहीं आया। धनी-मानी लोगों से कभी पिचक कर नहीं मिले। साहब ये नस्ल ही कुछ और थी। वो सांचे ही टूट गये जिनमें ये मस्त और दीवाने चरित्र ढलते थे। भला बताइये, असगर गोंडवी और जिगर मुरादबादी से जियादा दिमाग वाला और स्वाभिमानी कौन होगा? पेशा, चश्मे बेचना। वो भी दुकान या अपने ठिये पर नहीं... जहां पेट का धंधा ले जाये। नुशूर से मेरी दोस्ती तो अभी हाल में चालीस बरस से हुई है वरना इससे पहले दूसरा रिश्ता था। मैंने कसाइयों के मुहल्ले में स्थित मदरसा-उल-इस्लाम में फारसी इन्हीं से पढ़ी थी। और हां! अब इस मुहल्ले के कसाई पोथ की अचकन और लाल पेटेंट लेदर के पंप-शू नहीं पहनते। उस जमाने में कोई शख्स अपनी बिरादरी का लिबास छोड़ नहीं सकता था। उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता।


दुबारा रिश्वत देने को जी चाहता है

जाने पहचाने बाजार अब पहचाने नहीं जाते। ऐसे मिलनसार दुकानदार नहीं देखे। बिछे जाते थे। दुकान में पैर रखते ही ठंडी बोतल हाथ में थमा देते थे। मेरा ऐसी जालिम सेल्समैनशिप से वास्ता नहीं पड़ा था। बोतल पी कर दुकान से खाली हाथ निकलना बड़ा खराब मालूम होता था, इसलिए सेल्समैनों की पसंद की चीजें खरीदता चला गया। अपनी जुरूरत और फरमाइश की चीजें खरीदने के पैसे ही नहीं रहे। यकीन नहीं आया जहां इस वक्त धक्कम-पेल, चीखम-दहाड़ मच रही है और बदबुओं के बगोले मंडरा रहे हैं, ये वही चौड़ी साफ-सुथरी `मॉल` बल्कि `दी मॉल` है। साहब! अंग्रेज ने हर शहर में `दी मॉल` जुरूर बनायी। फैशनेबल ऊंची दुकानों वाली माल। धनी लोगों की धन-राह कहिये, अभी कल की-सी बात मालूम होती है। मॉल के किनारे काफी दूर तक बबूल की छाल बिछी होती थी, ताकि कोतवाले के लौंडे के घोड़े को दुलकी चलने में आसानी रहे। दायें बायें दो साईस नंगे पैर साथ-साथ दौड़ते जाते कि लौंडा गिर न जाये। वो हांफने लगते तो हंसी से दोहरा हो जाता। हमारी उससे दोस्ती हो गयी थी।

एक दफा हम पंद्रह बीस दोस्तों को बहराइच के पास अपने गांव शिकार पे ले गया। हर पांच लोगों के लिए एक अलग खेमा। खेमों के पीछे एक सम्मानित फासले पर नौकरों की छोलदारी। हम खेमों में सोते थे। क्या बताऊं जंगल में कैसे ऐश रहे। एक रात मुजरा भी हुआ। सूरत इतनी अच्छी थी कि खुदा की कसम! गलत सोच पर भी प्यार आने लगा। पेशेवर शिकारी रोज शिकार मार कर ले आते थे, जिसे बावर्ची लकड़ियों और छपटियों की आग पर भूनते। हमारे जिम्मे तो सिर्फ पचाना और ये बताना था कि कल कौन किस जानवर का गोश्त खाना पसंद करेगा। सांभर का गोश्त पहले-पहल वहीं चखा। आखिरी शाम चार भुने हुए पूरे काले हिरन दस्तरख्वान पर सजा दिये गये। हर हिरन के अंदर एक काज और काज में तीतर और तीतर के पेट में मुर्गी का अंडा। हमारी आंखें फटी की फटी रह गयीं। खाते क्या खाक।

कानपुर का वो कोतवाल हद दर्जा लायक, सूझ-बूझ वाला, इंतहाई मिलनसार और उसी दर्जे का बेईमान था। साहब आप रिश्वतखोर, व्यभिचारी और शराबी को हमेशा मिलनसार और मीठे स्वभाव का पायेंगे। इस वास्ते कि वो अक्खड़पन, सख्ती और बदतमीजी एफोर्ड कर ही नहीं सकता। इस लड़के ने कुछ करके नहीं दिया। लिवर के सिरोसिस में मरा। उसका छोटा भाई पाकिस्तान आ गया। लोगों से कह सुन कर मारीपुर के स्कूल में टीचर लगवा दिया। कोई तीन बरस हुए मेरे पास आया था। कहने लगा मैं बी.टी. नहीं हूं। थोड़ी-सी तन्ख्वाह में गुजारा नहीं होता। सऊदाबाद से मारीपुर जाता हूं। दो जगह बस बदलनी पड़ती है। आधी तन्ख्वाह तो बस के किराये में निकल जाती है। अपने यहां मुंशी रख लीजिये। उसकी तीन जवान बेटियां कुवांरी बैठी थीं। एक के कपड़ों में आग लग गयी, वो जल कर मर गयी। लोगों ने तरह-तरह की बातें बनायीं। खुद उसे दो बार हार्ट अटैक हो चुके थे। जिन्हें उसने स्कूल वालों से छिपाया, वरना वो गयी-गुजरी नौकरी भी जाती रहती। कोतवाल सारे शहर का, गुंडों समेत, बादशाह होता था, मतलब यह जिसे चाहे जलील कर दे। साहब मिर्जा ठीक ही कहते हैं कि डेढ़ सौ साल के हालात पढ़ने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि तीन डिपार्टमेंट ऐसे हैं जो पहले दिन से बेईमान हैं। पहला पुलिस, दूसरा पी.डब्ल्यू.डी., तीसरा इंकमटैक्स। अब इनमें मेरी तरफ से एंटीकरेप्शन विभाग को और बढ़ा लीजिये। ये सिर्फ रिश्वत लेने वालों से रिश्वत लेता है। रिश्वत हिंदुस्तान में भी खूब चलती है। मुझे भी थोड़ा बहुत निजी अनुभव हुआ मगर साहब हिंदू रिश्वत लेने में ऐसी नम्रता, ऐसी शालीनता और गंभीरता बरतता है कि खुदा की कसम दुबारा देने को जी चाहता है।

और साहब विनम्रता का ये हाल कि क्या हिंदू-क्या मुसलमान, क्या बूढ़ा-क्या जवान सब बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर सलाम-प्रणाम करते हैं। बड़े-बड़े लीडर स्पीच से पहले और स्पीच के बाद और बड़े से बड़ा संगीत सम्राट भी पक्के राग गाने से पहले और गाने के बाद इंतहाई विनम्रता के साथ श्रोताओं के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है। मैंने खुद अपनी आंखों और कानों से एक मुशायरे में हजरत अली सरदार जाफरी को दस-बारह बहुत लंबी नज़्में सुनाने के बाद हाथ जोड़ते हुए स्टेज से उतरते देखा। खैर ऐसी वारदात के बाद तो हाथ जोड़ने का कारण हमारी समझ में भी आता है।


बाजारे-हुस्न पे क्या गुजरी

और साहब मूलगंज देखकर तो कलेजा मुंह को आ गया। ये हुस्न का बाजार हुआ करता था। आप भी दिल में कहते होंगे, अजीब आदमी है। डबल हाजी, माथे पर गट्टा मगर हर किस्से में तवायफ को जुरूर कांटों में घसीटता है। क्या करूं, हमारी नस्ल तो तरसती फड़कती बूढ़ी हो गयी। उस जमाने में तवायफ साहित्य और स्नायु-समूह पर बुरी तरह सवार थी। कोई जवानी और कहानी उसके बगैर आगे नहीं बढ़ सकती थी। ये भी ध्यान रहे कि रंडी अकेली वो परायी औरत थी, जिसे आप नजर भर कर देख सकते थे। वरना हर वो औरत जिससे निकाह जायज हो, मुंह ढांके रखती थी। मैंने देखा कि अब तवायफों ने गृहस्थिनों के से शरीफाना लिबास और ढंग अपना लिए हैं। अब उन्हें कौन समझाये कि इसी चीज से तो घबरा कर दुखियारे तुम्हारे पास आते थे। गृहस्थी, पवित्रता और एकरंगी के उकताये हुए लोग अजनबी बदन-सराय में रात-बिरात विश्राम के लिए आ जाते थे। यह आसरा भी न रहा।

तो मैं कह रहा था कि मूलगंज में हुस्न का बाजार हुआ करता था। जमाने भर की दुर-दुर, हुश-हुश के बाद तवायफों ने अब रोटी वाली गली में पनाह ली है। बाजार काहे को है, बस एक गटर है, यहां से वहां तक। वो जगह भी देखी जहां पचास बरस पहले मैं और मियां तजम्मुल हुसैन दीवार की तरफ मुंह करके सींक से उतरे कबाब खाया करते थे। जैसे चटखारेदार कबाब तवायफों के मुहल्ले में मिलते थे, कहीं और नहीं देखे। सिवाय लखनऊ के मौलवी मुहल्ले के। गजरे भी गजब के होते थे और हां! आपके लिए असलम रोड का एक कबाबिया डिस्कवर किया है। आपके लंदन जाने से पहले बानगी पेश करूंगा। साहब! कबाब मैंने बाहर का और पान हमेशा घर का खाया है। आपने कभी तवायफ के हाथ की गिलौरी खाई है, मगर आप तो कहते हैं कि आपने अपने खत्नों पर (लिंग की खाल काटना) मुजरे के बाद कभी रंडी का नाच ही नहीं देखा और बरसों इसी इंप्रेशन में रहे कि मुजरा देखने से पहले हर बार इस पड़ाव से गुजरना होता है। रंडी के हाथ का पान कभी नहीं रचता। मैंने देखा है कि बुड्ढों, भड़भड़ियों और शायरों को पान नहीं रचता। मगर आप नाचीज के होंठ देख रहे हैं। आदाब!

मियां तजम्मुल घर जाने से पहले रगड़-रगड़ के होंठ साफ करते और कबाब, प्याज के भबके को दबाने के लिए जिंतान की गोली चूसते। हाजी साहब (उनके बाप) ताजा-ताजा चेंवट से आये थे, सींक के कबाब और पान को यू.पी. की अय्याशियों में गिनते थे। कहते थे बेटो! तुम्हें जो कुछ करना है मेरे सामने करो लेकिन अगर उनके सामने ये काम किया जाता तो कुल्हाड़ी से सर फाड़ देते, जो उनके लिए बायें हाथ का खेल था कि वो एक अरसे से रोज कसरत के तौर पर सुब्ह की नमाज के बाद दस सेर लकड़ी फाड़ते थे। आंधी-पानी हो तो मर्दाना बैठक में दस-दस सेर के मुगदर घुमा लेते। वो चेंवट से रोजी-रोटी की तलाश में निकले थे। उनके वालिद यानी मियां तजम्मुल के दादा ने बुरी राह पे भटकने से रोकने के लिए एक हजार दाने की जपने की माला, एक जोड़ी मुगदर, कुल्हाड़ी और बीबी सफर के सामान में रख दी और कुछ गलत नहीं किया, इसलिए कि इन उपकरणों पे अभ्यास करने के बाद बुराई तो एक तरफ रही, आदमी अच्छाई करने के लायक भी नहीं रहता।

मगर खुदा के लिए आप मेरी बातों से कुछ और न समझ बैठियेगा। बार-बार तवायफ और कोठे का जिक्र आता है, मगर `तमाम हो गयीं सब मुश्किलात कोठे पर` वाला मामला नहीं। खुदा गवाह है, बात कभी पान, कबाब खाने और कोठे पर जाने वालों को ईर्ष्या की नजर से देखने से आगे न बढ़ी। कभी-कभी मियां तजम्मुल बड़ी हसरत से कहते, यार! ये लोग कितने लकी हैं। इनके बुजुर्ग या तो मर चुके हैं या अंधे हैं।

बात ये है कि वो जमाना और था। नयी पौध पर जवानी आती थी तो बुजुर्ग-नस्ल दीवानी हो जाती थी। सारे शहर के लोग एक दूसरे के चाल-चलन पर पहरा देना अपना फर्ज समझते थे।

हम उसके पासबां हैं वो पासबां हमारा

बुजुर्ग कदम-कदम पर हमारी इस्तेमाल में न आई जवानी की चौकीदारी करते थे; बल्कि यूं कहना चाहिये कि हमारी भटकनों और लड़खड़ाहटों को पकड़ने के लिए अपना सारा बुढ़ापा चौकन्ने विकेट कीपर की तरह घुटनों पर झुके-झुके गुजार देते थे। समझ में नहीं आता था कि अगर यही सब कुछ होना था तो हम जवान काहे को हुए।

साहब अपनी तो सारी जवानी-दीवानी दंड पेलने और भैंस का दूध पीने में गुजर गयी। अब इसे दीवानापन नहीं तो और क्या कहें?


खुली आंखों से गाना सुनने वाले

मेरे वालिद, अल्लाह-बख्शे, थियेटर और गाने के रसिया थे। ऐसे-वैसे! जब मौज में होते और बैठक में हारमोनियम बजाते तो रस्ता चलते लोग खड़े हो जाते। बजाते में आंखें बंद रखते। उस जमाने में शौकीन सुनने वाले भी गाना सुनते वक्त आंखें बंद ही रखते थे ताकि ध्यान केवल सुरों पर ही केन्द्रित रहे। अलबत्ता तवायफ का गाना खुली आंखों से सुनना जायज था। उस्ताद बुंदू खां की तरह वालिद के मुंह से कभी-कभार अनायास गाने का बोल निकल जाता जो कानों को भला लगता था। वैसे बाकायदा गाते भी थे मगर उसके सामने, जो खुद भी गाता हो। ये उस जमाने के शरीफों का ढंग था। शाहिद अहमद देहलवी भी यही करते थे।

आपने तो वालिद साहब का आखिरी जमाना देखा जब वो बिल्कुल बिस्तर पर लेट चुके थे। जवानी में हीराबाई के गाने के आशिक थे। `दादर कंठिया` थी यानी दूसरों में कयामत ढाती थी। `बेशतर मुजरई`, मेरा मतलब है बैठ कर गाती थी। सौ मील के दायरे में कहीं उसका गाना हो, तो सारा काम-धंधा छोड़ कर पहुंच जाते। इत्तफाकन किसी महफिल में न पहुंच पायें तो खुद भी बेचैन-सी रहती। राजस्थानी मांड और भैरव थाट सिर्फ उन्हीं के लिए गाती थी। धैवत और रिषभ सुरों को लगाते वक्त जरा थम-थम के उन्हें झुलाती तो एक समां बांध देती। जैसी चौंचाल तबियत पायी, वैसी ही गायकी थी। दादरा गाते-गाते कभी चंचल सुर लगा देती तो सारी महफिल फड़क उठती। आपको बखूबी मालूम है कि वालिद घर के रईस नहीं थे। इमारती लकड़ी की छोटी सी दुकान थी। मेरी मौजूदा दुकान की एक चौथाई समझिये। बस काम-चलाऊ। लकड़मंडी में किसी की दुकान तीन दिन तक बंद रहे तो उसका ये मतलब होता था कि किसी करीबी रिश्तेदार की मौत हो गयी है। चौथे दिन बंद होने का मतलब था कि खुद उसकी मौत हो गयी है लेकिन वालिद साहब की दुकान सात दिन भी बंद रहे तो लोग चिंतित नहीं होते थे। समझ जाते कि हीराबाई से अपनी गुणग्राहकता की दाद लेने गये हैं, लेकिन उनके बंधे ग्राहक लकड़ी उन्हीं से खरीदते। हफ्ते-हफ्ते भी वापसी का इंतजार करते बल्कि आखिर-आखिर तो ये हुआ कि तीन-चार ग्राहकों को भी चाट लगा दी। वो भी उनकी अर्दली में हीराबाई का गाना सुनने जाने लगे। जब उन्हें पूरी तरह चस्का लग गया तो सवारी का इंतजाम, सेहरा गाने पर बेल और हर अच्छे शेर या मुरकी पर रुपया देने का काम भी उन्हीं के सुपुर्द कर दिया। हीराबाई रुपया उनसे लेती, सलाम वालिद को करती। ये तो मुझे मालूम नहीं कि उन दुखियारों को संगीत की भी कुछ सूझ पैदा हुई कि नहीं लेकिन आखिर में वो लकड़ी खरीदने के लायक नहीं रहे थे। एक ने तो दीवाला निकालने के बाद हारमोनियम मरम्मत करने की दुकान खोल ली। दूसरा इस लायक भी न रहा। कर्जदारों से इज्जत बचा कर बंबई चला गया जहां बगैर टिकिट के रोज थियेटर देखता और मुख्तार बेगम, मास्टर निसार का गाना सुनता था। मतलब यह कि थियेटर में पर्दा खींचने का औनरेरी काम करने लगा। दिन में तुर्की टोपी के फुंदने बेचता था। उस जमाने में दाऊद सेठ भी बंबई में फुंदने बेचा करता था, हालांकि उसने तो हीराबाई का गाना भी नहीं सुना था।

और ये जो आप ठुमरी, दादरा और खयाल में मेरा शौक देख रहे हैं, ये बाबा की ही मेहरबानी है। इकबाल बानो, सुरैया और फरीदा खानम अब मेरी सूरत पहचानने लगी हैं; मगर मियां तजम्मुल कहते हैं कि सूरत से नहीं सफेद बालों से पहचानती हैं। अरे साहब! पिछले साल जो डांस टॉप आया था, उसके शो में खुदा झूठ न बुलवाये हजार आदमी तो होंगे। मियां तजम्मुल का टिकट भी मुझी को खरीदना पड़ा। तीसरा हज करने के बाद उन्होंने अपने पैसे से नाच-गाना और सिनेमा देखना छोड़ दिया है। कहने लगे `इस भीड़ में एक आदमी तुम जैसा नहीं` मैंने शुक्रिया अदा किया `आदाब` तो बोले `मेरा मतलब तुम्हारी तरह झड़ूस नहीं, एक आदमी नहीं, जिसके तमाम बाल और भवें तुम्हारी तरह सफेद हों। भाई मेरे या तो इन्हें काले कर लो या डांस मुजरे से तौबा कर लो।` मैंने कहा `भाई तजम्मुल मुंह काला करने के लिए तुम्हारे साथ इस गली की परिक्रमा मेरे लिए काफी है। मैं एक साथ अपना मुंह और बाल काले नहीं करना चाहता।`