खोया पानी / भाग 17 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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कोई नमाज और मुजरा नहीं छोड़ा

वैसे तो आपको मालूम ही है कि वालिद पाक-साफ, पांचों वक्त नमाज पढ़ने वाले आदमी थे। हम सब भाई-बहन पांचों वक्त नमाज पढ़ते हैं ये सब उन्हीं के कारण है। उन्होंने कभी कोई नमाज और मुजरा नहीं छोड़ा। 1922-23 का जिक्र है जब एक पारसी थ्येट्रिकल कंपनी आई तो एक महीने तक एक ही खेल रोजाना... बिना नागा... इस तरह देखा जैसे पहली बार देख रहे हैं। कुछ ही दिनों में थियेटर वालों से ऐसे घुल-मिल गये कि डॉयलाग में तीन-चार जगह मूड के हिसाब से परिवर्तन करवाया। एक मौके पर दाग के बजाय उस्ताद जौक की गजल राग यमन कल्याण में गवायी। बिब्बू को समझाया कि तुम डॉयलाग के दौरान एक ही वक्त में आंखें भी मटकाती हो, कमर और कूल्हे भी। मौके की जुरूरत के हिसाब से तीनों में से सिर्फ एक हथियार चुन लिया करो। दो मर्तबा हीरो को स्टेज पर पहनने के लिए अपना साफ पाजामा दिया। मैनेजर को आगाह किया कि तुमने जिस शख्स को लैला का बाप बनाया है उसकी उम्र मजनूं से भी कम है। नकली दाढ़ी की आड़ में वो लैला को जिस नजर से देखता है उसे बाप का प्यार हरगिज नहीं कहा जा सकता।

एक दिन पेटी मास्टर गुर्दे के दर्द से निढाल हो गया तो हमारे बाबा हारमोनियम बजाने बैठ गये। हिना के इत्र में बसा रूमाल सर पर डाल लिया और मान लिया कि कोई नहीं पहचानेगा। लाली मिला हुआ सफेद रंग सफेद चमकदार दांत, पतले होंठ, कम हंसते थे मगर जब हंसते थे तो गालों पर लाली और आंखों से आंसू छलकने लगते। हर लिबास उन पर फबता था। चुनांचे शीरीं बात फरहाद से करती मगर नजरें हमारे बाबा पर ही जमाये रखती। थियेटर से उनका ये लगाव मां को बुरा लगता था। हम भाई-बहन सयाने हो गये तो एक दिन मां ने उनसे कहा `अब तो ये शौक छोड़ दीजिये। औलाद जवान हो गयी है` कहने लगे `बेगम! तुम कमाल करती हो। जवान वो हुए हैं और नेक चलनी का उपदेश मुझे दे रही हो।`

उन्हें ये शौक पागलपन की हद तक था। आगा हश्र कश्मीरी को शेक्सपियर से बड़ा ड्रामा लिखने वाला समझते थे। इस तुलना में जान बूझकर डंडी मारने या धार्मिक भेदभाव का जरा भी हाथ न था। उन्होंने शेक्सपियर सिरे से पढ़ा ही नहीं था। इसी तरह अपने दोस्त पंडित सूरज नारायण शास्त्री से इस बात पर लड़ मरे कि दाग देहलवी कालीदास से बड़ा शायर है। तुलना के समय दलील में जोर पैदा करने के लिए उन्होंने कालीदास को एक गाली भी दी। जिसका पंडितजी पर गहरा असर हुआ और उन्होंने दाग देहलवी के शागिर्द नवाब साइल देहलवी तक को कालीदास से बड़ा मानने के लिए अपनी तरफ से प्रतिबद्धता प्रकट की।

जिस दिन आगा हश्र काश्मीरी की मौत की खबर आई तो वालिद की जेबी घड़ी में दस बज रहे थे। दुकान पर ग्राहकों का झुंड था मगर उसी समय दुकान में ताला डाल कर घर आ गये। दिन भर मुंह-औंधे पड़े रहे। पंडितजी ढांढस बंधाने आये तो चादर से मुंह निकाल कर बार-बार पूछते कि पंडितजी! मुख्तार बेगम (जो आगा हश्र काश्मीरी की संभावित बीबी थीं) का क्या बनेगा? पहाड़ सी जवानी कैसे कटेगी? आखिर में पंडितजी ने जवाब दिया। हर पहाड़ को कोई न कोई काटने वाला फरहाद मिल ही जाता है। कला का सुहाग भी कभी उजड़ा है? उसकी मांग तो सदा सिंदूर और सितारों से भरी रहेगी। वालिद जैसे ही सुब्ह घर में दुखी और उदास दाखिल हुए, बरामदे की चिवफें डाल दीं और मां से कहा `बेगम! हम आज लुट गये। आज घर में चूल्हा नहीं जलेगा` सरे-शाम ही कलाकंद खा कर सो गये।

पंडितजी को गाने से बिल्कुल शौक नहीं था लेकिन बला के मुहब्बती और उतने ही दूसरे के दुःख में शरीक होने वाले। दूसरे दिन सुब्ह तड़के वालिद साहब से भी जियादा उदास रोनी सूरत बनाये, आहें भरते आये। शेव भी बढ़ा हुआ था। घर से हलवा पूरी और काशीफल की तरकारी बनवा कर लाये थे। वालिद को नाश्ता करवाया। हमें तो आशंका हो गयी थी कि वालिद के डर के मारे पंडितजी कहीं भदरा (किसी निकट संबंधी की मृत्यु के बाद सर, दाढ़ी और मूंछ के बाल मुंड़वाना) न करवा लें।


आसमान से उतरा, कोठे पर अटका

माफ कीजिये ये किस्सा शायद मैं पहले भी सुना चुका हूं। आप बोर तो नहीं हो रहे? हर बार वर्णन में कुछ अंतर आ जाये तो याददाश्त का कुसूर है गलत बताना उद्देश्य नहीं है। बाबा से कभी हम नाटक देखने की फरमाइश करते तो वो मैनेजर को चिट्ठी लिख देते कि बच्चों को भेज रहा हूं, अगली सीटों पर जगह दे दीजियेगा। बाद को तो मैं खुद चिट्ठी लिख कर बाबा के दस्तखत बना देता था। ये बात उनकी जानकारी में भी थी, इसलिए कि एक दिन झुंझला कर कहने लगे, जाली दस्तखत बनाते हो तो बनाओ मगर गलतियों से तो मुझे शर्मिंदा मत करो। सही शब्द `बराहे-करम` है `बराए-करम` नहीं।

हमेशा मैटिनी शो में भेजते थे। उनका खयाल था कि मैटिनी शो में खेल देखने से होने वाली बरबादी और बिगड़ने का असर, टिकट की कीमत की तरह आधा रह जाता है। सब मुझे बच्चा समझते थे, मगर अंदर कयामत की खद-बद मची थी। मुन्नी बाई जब स्टेज पर गाती तो एक समां बंध जाता। ये वो उस्ताद दाग वाली मुन्नी बाई हिजाब नहीं, जिस पर उन्होंने पूरा महाकाव्य लिख डाला। गजब की आवाज, बला की खूबसूरत। पलक झपकने, सांस भी लेने को जी नहीं चाहता कि इससे भी खलल पड़ता था। क्या शेर है वो अच्छा-सा, आपको तो याद होगा। `वो मुखातिब भी हैं, करीब भी हैं` लुक्मा, `उनको देखूं कि उनसे बात करूं` शुक्रिया, साहब! याददाश्त तो बिल्कुल चौपट हो गयी है। महफिल में पहले तो शेर याद नहीं आता और आ भी जाये तो पढ़ने के बाद पता लगता है कि बिल्कुल गलत मौके का शेर पढ़ा, जैसा कि उस समय हुआ। दोगुनी झुंझलाहट होती है। दरअस्ल उस समय `नज्जारे को ये जुंबिशे-मिजगां भी बार है` (दृश्य को पलक झपकना भी बोझ है) वाला शेर पढ़ना चाहता था। खैर, फिर कभी। आपने उस दिन बड़े अनुभव और पते की बात कही कि पचपन के बाद शेर की सिर्फ एक पंक्ति पर सब्र करना चाहिये। तो साहब! जिस वक्त मुन्नी बाई उस्ताद दाग की गजल गाती तो न उसे होश रहता, न सुनने वालों को।

माना कि दाग आशिक की हैसियत से निरा लौंढिहार है और उसका माशूक बाजारी, मगर इश्क की बातचीत बाजारी नहीं है। जबान जमुना में धुली किला मुअल्ला की है। मुहावरा और रोजाना की बातचीत की जबान दाग की शायरी का ओढ़ना-बिछौना है, मगर गजब ये किया कि बिछाने की चीज ओढ़ कर सार्वजनिक जगह पर लंबे हो गये। हजरते-दाग जहां लेट गये, लेट गये। बकौल आपके मिर्जा वदूद बेग के, दाग का कलाम सरल भाषा के आसमान से उतरा तो कोठे पर अटका, वहां से फिसला तो कूल्हे पे आके मटका। लेकिन ये फिराक गोरखपुरी की सरासर जियादती है कि, `उस शख्स ने हरमजदगी को जीनियस की जगह बिठा दिया।` आपने तो खैर वो समय नहीं देखा, मगर आज भी... किसी भी गायकी की सभा में दाग की गजल पिट नहीं सकती। देखने वालों ने दाग की सर्वप्रियता का वो समय भी देखा है जब मौलाना अब्दुल सलाम नियाजी जैसे अद्वितीय विद्वान को शायरी का शौक चर्राया तो दाग के शिष्य हो गये। श्रद्धा की यह स्थिति कि कोई उस्ताद का शेर पढ़ता तो सुब्हानअल्लाह कह कर वहीं सिजदे में चले जाते।

तो मैं ये कह रहा था कि, जह्रे-इश्क में मुन्नी बाई ने दाग की पांच गजलें गाईं। पांचों लाजवाब और पांचों की पांचों बेमौका। साहब! सन् 47 के बाद रंडियां तो ऐसी गयीं जैसे कभी थीं ही नहीं मगर ये भी सही है कि अब वैसे कद्रदान भी नहीं रहे।


चांदी का कुश्ता और चिन्योट की चिलम

खूब याद आया। हमारे एक जानने वाले थे, मियां नजीर अहमद, चिन्यौट बिरादरी से तअल्लुक रखते थे। चमड़े के कारोबार से सिलसिले में बंबई जाते रहते थे। वहां रेस का चस्का लग गया। घोड़ों से जो कमाई बच रहती, उसी से घर-परिवार का खर्चा चलता। गुलनार तवायफ से निकाह पढ़वा लिया था। हज करने के बाद जो तौबा की सो की। बल्कि मियां नजीर अहमद को भी बहुत-सी इल्लतों से तौबा करवा दी और उनके दिन फिर गये। जो अधेड़ उम्र में तवायफों की सूरत पे फिटकार बरसने लगती है और आवाज फटा बांस हो जाती है वो हालत कतई नहीं थी। मीलाद (धार्मिक प्रवचन के काव्य) खूब पढ़ती थी, आवाज में गजब का दर्द था। जब सफेद दोपट्टे से सर ढांके जामी (एक शायर) की नात (पैगंबर मुहम्मद के सिलसिले की कविता) या अनीस का मर्सिया (शोक काव्य) पढ़ती तो माहौल में आस्था तैर जाती।

हम छुप-छुप कर सुनते। मुहर्रम में काले कपड़े उस पर फबते थे। पाकिस्तान आ गयी थी। बर्नस रोड पर अदीब सहारनपुरी के फ्लैट से जरा दूर तीन कमरों का फ्लैट था। मियां साहब जाड़े में भी मलमल का कुरता पहनते और सुब्ह ठंडे पानी से नहा कर लस्सी पीते थे। मशहूर था कि तुरंत ताकत हासिल करने के हौके में ढेर सारा रूप-रस यानी चांदी का अधकच्चा कुश्ता (उस जमाने की वियाग्रा) खा बैठे थे।

गुलनार की छोटी बहनें मुन्नी और चुन्नी भी आफत की परकाला थीं। आपने भी तो एक बार किसी छोटी इलायची और बड़ी इलायची का जिक्र किया था। बस वैसा ही कुछ नक्शा था। अफसोस अब खानों में बड़ी इलायची का इस्तेमाल खत्म होता जा रहा है। हालांकि इसकी महक, इसका जायका ही और है। आप तो खैर बड़ी इलायची से चिढ़ते हैं, मुझे तो किसी तरफ से भी काकरोच जैसी नहीं लगती। तो साहब, मुन्नी बेगम का चेहरा और भरे-भरे बाजू कुछ ऐसे थे कि कुछ भी पहन ले, नंगी-नंगी सी लगती थी। यू नो व्हाट आई मीन। चुन्नी बेगम फारसी की गजलें गाती थी। लोग बार-बार फरमाइश करते। वो भी आम तौर पर बैठ कर गाती।

कभी दाद कम मिलती या यूं ही तरंग आती तो अचानक उठ खड़ी होती। दोनों सारंगे और तबलची भी अपने-अपने जरी के कामदार पटके कस लेते और खड़े हो कर संगत करते। महफिल में दो तीन चक्कर तो नाचती हुई लगाती, फिर एक जगह खड़ी हो कर फिरकी की तरह तेजी से घूमने लगती। जरदोजी की लश्कारा मारती पिशवाज (लहंगा) हर चक्कर के बाद ऊंची उठती-उठती कमर तक पहुंच जाती। यूं लगता कि जुगनुओं का एक झुंड नाचता हुआ घूम रहा है। लय और चाल तेज होती। किरन से किरन में आग लगती चली जाती, फिर नाचने वाली नजर न आती, सिर्फ नाच नजर आता था।

और जब अचानक रुकती तो पिशवाज सुडौल टांगों पर अमरबेल की तरह तिरछी लिपटी चली जाती। साजिंदे हांफने लगते और खिरन (तबले की सियाही) पर तबलची की तन्नाती उंगलियों से लगता कि खून अब टपका कि अब टपका।

देखिये, मैं फिर भटक कर उसी लानत के मारे बाजार में जा निकला। आपने Nots लेने बंद कर दिये। बोर हो गये? या मैं घटनाओं को दुहरा रहा हूं। वादा है, अब किसी तवायफ को चाहे वो कितनी आफत की परकाला क्यों न हो, अपने और आपके बीच नहीं पड़ने दूंगा। साहब, हमारी बातें ही बातें हैं।

बातें हमारी याद रहें, फिर बातें न ऐसी सुनियेगा

परसों आप लंदन चले जायेंगे। मीर ही ने अस्थिर दुनिया पर अपने एक शेर में यारों की महफिल को जाने वाली महफिल कहा है, कि यहां हर यार मुसाफिर और हर साथ बीतने वाला है। तो साहब! जिक्र मियां नजीर अहमद साहब का हो रहा था। मियां साहब कानपुर के 104 डिग्री टेंप्रेचर से घबराकर मई का महीना हमेशा से चिन्यौट की 104 डिग्री टेंप्रेचर की गर्मी में गुजारते थे। उनका दावा था कि चिन्यौट की लू कानपुर की लू से बेहतर होती है। हम लोग आपस में शेक्सपियर के गीत की दुर्गति बनाते थे,

'Blow thou Chinyot loo'

"Thou art not so unkind

As local specimen`s of mankind,

who could not care who is who!"

मियां साहब अक्सर कहते थे कि प्रकृति का कोई भी काम अकारण नहीं होता। चिन्यौट की गर्मी में साल भर के इकट्ठे, गंदे विचार पसीने के रास्ते बह जाते हैं। रोजे कभी रेस और बीमारी की हालत में भी नहीं छोड़े। मई जून में भी एक डली लाहौरी नमक की चाट कर हुक्के के आंतों तक उतर जाने वाले कश से रोजा खोलते।

पहले तीन-चार बार यूं ही चैक करने के लिए गुड़गुड़ाते जैसे संगत करने से पहले सितार बजाने वाले मिजराब से तारों की कसावट को और तबलची हथौड़ी से तबले के रग-पट्ठों को ठोक बजा कर टैस्ट करता है। फिर एक ही सिसकी भरे कश में सारे तंबाकू की जान निकाल लेते, बल्कि अपनी जान से भी गुजर जाते। सु सु सु, शूअ शूअ, सू सू, वू वू वू...वह। हाथ पैर ढीले पड़ जाते। ठंडे पसीने आने लगते। पुतलियां ऊपर चढ़ जातीं। पहले बेसत, फिर बेसुध हो कर वहीं पड़े रह जाते। गुलनार उन्हें अनार का शर्बत पिला कर नमाज के लिए खड़ा करती।

हुक्के की नय पर चमेली का हार और नेचे पर खस लिपटी होती। तंबाकू तेज और कड़वा बेबना पसंद करते थे। किवाम लखनऊ से मंगवाते थे। चांदी की मुंहनाल दिल्ली के कारीगर से गढ़वायी थी। मिट्टी की चिलम और तवा हमेशा चिन्यौट से आता था। फर्माते थे, बादशाहो! इस मिट्टी की खुशबू अलग से आती है।


लाहौर में आज बसंत है।

मियां नजीर अहमद संक्रांति के दिन कड़कड़ाते जाड़े में मलमल का कुरता पहने, नंगे सर छत पर पतंग जुरूर उड़ाते थे। यह भी उनका भोलापन ही था कि मलमल के कुरते को जवानी का सर्टिफिकेट बल्कि पोस्टर समझ कर पहनते थे। मियां साहब लिहाफ सिर्फ उस वक्त ओढ़ते जब हिल-हिला कर जाड़ा-बुखार चढ़ता। यू.पी. के जाड़े को कुछ नहीं समझते थे। हिकारत से कहते, ये भी कोई सर्दी है। दरअस्ल वो लाहौर के जाड़े के बाद सिर्फ मलेरिया के जाड़े के कायल थे।

आपके मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग भी तो यही इल्जाम लगाते हैं ना कि यू.पी. के कल्चर में जाड़े को रज के सैलिब्रेट करने की कोई सोच ही नहीं, जबकि पंजाब में गर्मी के इस तरह चोंचले और नखरे नहीं उठाये जाते जिस तरह यू.पी. में। साहब यू.पी. में जाड़े और पंजाब में गर्मी को केवल सालाना सजा के तौर पर बर्दाश्त किया जाता है। कमो-बेश इसी तरह का अंतर बरसात में दिखाई देता है। पंजाब में बारिश को केवल इसलिए सह लेते हैं कि इसके बगैर फस्लें नहीं उग सकतीं। जबकि यू.पी. में सावन का एकमात्र उद्देश्य ये होता है कि कड़ाही चढ़ेगी। पेड़ों पर आम और झूले लटकेंगे। झूलों में कुंवारियां। पंजाब में पेड़ों पर आम या कुछ और लटकने की खुशी केवल तोतों को होती है।

और इंग्लैंड में बारिश का फायदा, जो साल के 345 दिन होती है (बाकी बीस दिन बर्फ पड़ती है) आप यह बताते हैं कि इससे शालीनता और विनम्रता को बढ़ावा मिलता है। मतलब ये कि जो गालियां अंग्रेज एक दूसरे को देते, अब मौसम को देते हैं। संक्रांति के दिन मियां नजीर अहमद पेंच तो क्या खाक लड़ाते, बस छह-सात पतंगें कटवा और डोर लुटवा कर अपना... और अपनों से जियादा दूसरों का... जी खुश कर लेते थे। हर पतंग कटवाने के बाद लाहौर के मांझे को बेतहाशा याद करते। अरे साहब, पतंग कटती नहीं तो और क्या। पेच कानपुर में लड़ाते और किस्से लाहौर के बसंत के रंगीले आसमान के सुनाते जाते। आंखें भी अच्छी खासी कमजोर हो चली थीं, लेकिन चश्मा केवल नोट गिनने और मछली खाते समय सावधानी और परेशानी के कारण लगा लेते थे। चश्मा न लगाने का एक नतीजा ये निकलता कि जिस पतंग को वो प्रतिस्पर्धी की पतंग समझ कर बेतहाशा खेंच करते, वो दरअस्ल उनकी अपनी ही पतंग निकलती जो कुछ क्षणों बाद विरोधी रगड़ से कट कर हवा में लालची की नीयत की तरह डांवाडोल होने लगती। डोर अचानक लिजलिजी पड़ जाती तो अचानक उन्हें पता चलता।


कटी पतंग तिरी डोर अब समेटा कर

मियां साहब अक्सर फर्माते कि पतंग और कनकव्वे बनाने में तो बेशक लखनऊ वालों का जवाब नहीं, लेकिन बादशाहो! हवा लाहौर ही की बेहतर है। सच पूछो तो पतंग लाहौर ही की हवा में पेटा छोड़े (झोल खाये) बिना डोर पे डोर पीती और जोर दिखाती है। पतंग के रंग और मांझे के जौहर तो लाहौर ही के आसमान में खुलते और निखरते हैं। कानपुर में वो काटा इस तरह कहते हैं जैसे क्षमा मांग रहे, बल्कि शोक व्यस्त कर रहे हों। लाहौर में वो काटा में पिछड़े हुए पहलवान की छाती पर चढ़े हुए पहलवान का नारा सुनायी देता है बल्कि पसीने में डूबे हुए बदन से चिमटी हुई अखाड़े की मिट्टी तक दिखाई देती है।

मियां साहब की चर्खी लाहौर ही के एक जिंदादिल पकड़ते थे, जो हलीम कॉलेज कानपुर में लेक्चर थे। अब्दुल कादिर नाम था। शायरी भी करते थे। दोनों मिल कर पतंग को लंतरानी का मांझा और यादों की उलझी-सुलझी तल चांवली (दुरंगी) डोर ऐसी पिलाते कि चर्खियां खाली हो जातीं और पतंग आसमान पे तारा हो कर लाहौर की चौबुर्जी पे जा निकलती।

यहां से बिशारत का बयान खत्म और ख्वाबे-नीम रोज (दोपहर का सपना) शुरू होता है।

दोपहर का सपना : अब यह चढ़ी पतंग जो कुछ रावी पार देखती, उसका हाल कुछ इन दोनों लाहौर के जिंदादिलों, कुछ बिशारत और रहा-सहा तीनों से दुखी किस्सा कहने वाले की जबानी सुनिये।

आज लाहौर में बसंत है। रंग हवा से यूं टपके है जैसे शराब चुवाते हैं। बसंत और बरसात में लाहौर का आसमान आपको कभी बेरंग, उकताया हुआ और निचला नजर नहीं आयेगा। लाड़ले बच्चे की तरह हर वक्त चीख-चीख कर अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाता है और ध्यान खींचता है कि इधर देखो, इस वक्त मुझे एक और शोखी सूझी है। कैसे कैसे रंग बदलता है। कभी तारों भरा... बच्चों की आंखों की तरह जगमग-जगमग, कभी प्रकाशवर्षों की दूरी पर आकाशगंगा-सा झिलमिलाता, कभी सांवली घटाओं से सोने के तार-सा बरसता हुआ, कभी तांबे की तरह तपता-तपता एकाएकी अमृत बरसाने लगा और सूखी खेतियों और उदास आंखों को जल-थल कर गया। अभी कुछ और था, अभी कुछ और है। घड़ी भर को चैन नहीं। कभी कृपालु, कभी अनिष्टकारी।

पल में अग्निकुंड, पल में नील-झील, पल भर पहले बीहड़ रेगिस्तानों की धूल-धमास उठाये, लाल-पीली आंधियों से भरा बैठा था, फिर आप-आप धरती के गले में बांहें डाल कर खुल गया, जैसे कुछ हुआ ही न था। समुद्री झाग जैसे बादलों के बजरे पिघले नीलम में फिर तैरने लगे। कल शाम ढले जब क्षितिज लाल हुआ तो यूं लगा जैसे आसमान और धरती का मलगिजा संगम जो सूरज को निगल गया, अब यूं ही तमतमाता रहेगा। फिर गर्म हवा एकाएकी थम गयी, सारा वातावरण ऐसे दम साधे खड़ा था कि पत्ता नहीं हिलता था। देखते-देखते बादल घिर आये और पिछले पहर तक बिजली के त्रिशूल आसमान पर लपकते, लहराते रहे। पर आज दोपहर से न जाने क्या दिल में आई कि अचानक ऐसा मोरपंखी नीला हुआ कि देखे से रंग छूटे। पहर रात गये तक अपनी धुली-धुलाई नीलाहटें रावी की चांदी में घोलता रहा।

लाहौर के आसमान से अधिक सुंदर और अधिक रंगों से भरी, चंचल कोई चीज है तो वो है सिर्फ लाहौर की फूलों भरी धरती, चार सौ साल पहले भी ये धरती और आसमान ऐसे ही थे। तभी तो नूरजहां ने जान के बदले में लाहौर की जन्नत में दो गज जमीन खरीद ली, मगर लाहौर के जिंदादिल लोगों ने लाहौर को इस कदर चाहने वाले को याद रखने की तरह याद न रखा, नूरजहां की कब्र में अब अबाबीलों का डेरा है।

दोपहर का सपना तो खत्म हुआ। अब बाकी कहानी बिशारत की जबानी उन्हीं के अंदाज में सुनिये। जहां तक कलम और याददाश्त साथ देगी हम उनका खास मुहावरा और लहजा... और लहजे की ललक और लटक ज्यों की त्यों बरकरार रखने की कोशिश करेंगे। वो एक बार कहानी सुनाना शुरू करें तो विवादी स्वर भी अपना अलग सम्वाद करने लगते हैं। हुंकार भरने की भी मुहलत नहीं देते। मिर्जा ऐसे शिकंजे में जकड़े जाने को कहानी पाठ कहते हैं।

तो साहब! मियां नजीर अहमद का मकान भी देखने गया। कैसी-कैसी यादें जुड़ीं हैं मकान से, मगर अब पहचाना नहीं जाता। अच्छी खासी फेस लिफ्टिंग हुई है। तीन एयरकंडीशनर चल रहे थे। बरामदे में एक बूढ़े सरदार जी कंघा हाथ में पकड़े जूड़ा बांध रहे थे। सिर्फ यही ऐसा मकान है जो पहले से बेहतर दिखाई दिया। मैंने अपना परिचय दिया और अपने आने का कारण बताया तो खुशी-खुशी अंदर ले गये। बड़ी आवभगत की। देर तक अपनी जन्मभूमि गुजरांवाला का हाल पूछते रहे। मैं गढ़-गढ़ के सुनाता रहा, और क्या करता? एक साल पहले मिनी बस में गुजरांवाला से गुजरा था, उस एक स्नेप शाट को एनलार्ज करके उर्दू का बैस्ट-सेलर यात्रा वृतांत बना दिया।

गुजरांवाला गुजरांवाला है : सरदार जी कुरेद-कुरेद कर बड़े चाव से पूछते रहे और मैं बड़े भरोसे के साथ गुजरांवाला का झूठा सच्चा हाल सुनाता रहा। उन्होंने आवाज दे कर अपने बेटों, पोतों और बहुओं को बुलाया, इधर आओ। बिशारत जी को सलाम करो। ये नवंबर में अपने गुजरांवाला हो कर आये हैं। इधर मेरी ये मुसीबत कि मैंने लाहौर के अलावा सिर्फ एक कस्बा टोबा टेक सिंह करीब से देखा है। वहां मेरा एक रिश्तेदार, अक्खन खाला का पोता, एग्रीकल्चर बैंक में तीन महीने नौकरी करने के बाद, ग्यारह महीने से निलंबित पड़ा था, बस इसी कस्बे के भूगोल को ध्यान में रख कर गुजरांवाला को याद करते हुए सरदार जी की प्यास बुझाता रहा।

आश्चर्य इस बात पर हुआ कि सरदार जी मेरे झूठे विस्तृत विवरण से न केवल संतुष्ट हुए बल्कि एक-एक बात की पुष्टि भी की। मैंने उस नहर का भी काल्पनिक चित्रण कर दिया जिसमें सरदार जी कपड़े उतार कर पुल पर से छलांग लगाते थे और कुंवारी भैंसों के साथ तैरा करते थे। मैंने उनके उस प्रश्न के उत्तर में यह भी स्वीकार किया कि पुल की दायीं तरफ कैनाल के ढलवान पर जिस टाहली थले वो अपनी हरक्यूलिस साइकिल और कपड़े रखते थे, वो जगह मैंने देखी है। यहां से एक बार चोर उनके कपड़े उठा कर ले गया मगर साइकिल छोड़ गया। इस घटना के बाद सरदार जी ने एहतियातन साइकिल लानी छोड़ दी।

मैंने जब ये टुकड़ा बताया कि अब वो शीशम बिल्कुल सूख गया है और कोई दिन जाता है कि बूढ़े तने पर नीलामी का आरा चल जाये तो बूढ़े सरदार जी की आंखें डबडबा आईं। उनकी मंझली बहू ने जो बहुत सुंदर और शोख थी मुझसे कहा, बाबू जी को अभी पिछले महीने ही हार्ट अटैक हुआ है। आप उन्हें मत रुलायें अंकल। उसका मुझे अंकल कहना जरा भी अच्छा नहीं लगा, और यह तो मुझे आप ही से पता लगा कि नहर में भैंस नहीं तैर सकती चाहे वो कुंवारी ही क्यों न हो।

सरदार जी मेरी किसी बात या सुंदर वाक्य पर खुश होते तो मेरी जांघ पर हाथ मारते और अंदर से लस्सी का एक गिलास और मंगा कर पिलाते। तीसरे गिलास के बाद मैंने टॉयलेट का पता पूछा। अपनी जांघों को उनके कृपापूर्ण हाथों से बचाया और बातचीत में एहतियात बरतनी शुरू कर दी कि बेध्यानी में कोई शोख वाक्य न निकल जाये। सरदार जी कहने लगे, इधर अपना ट्रांसपोर्ट का बड़ा शानदार बिजनेस है। सारा हिंदुस्तान घूमा हूं, पर गुजरांवाला की बात ही और है। यहां की मकई और सरसों के साग में वो स्वाद, वो सुगंध नहीं और गुड़ तो बिल्कुल फीका फूक है। उन्होंने यहां तक कहा कि यहां के पानी में पानी बहुत है जबकि गुजरांवाला के पानी में शराब की ताकत है। वो शरीर को शक्ति देने वाली हर वस्तु की उपमा शराब से देते थे।

विदा होते हुए मैंने कहा कि मेरे योग्य कोई सेवा हो तो निसंकोच कहें। बोले, तो फिर किसी आते जाते के हाथ लाहौरी नमक के तीन-चार बड़े से डले भेज देना। उनकी इच्छा थी कि मरने से पहले एक बार अपने बेटों पोतों को साथ लेकर गुजरांवाला जायें और अपने मिडिल स्कूल के सामने खड़े होकर फोटो बनवायें। उपहार में उन्होंने मुझे Indian Raw Silk का छोटा थान दिया। चलने लगा तो मंझली बहू ने मुझे आदाब किया। इस बार अंकल नहीं कहा।

सरदार जी ने मुझे सारा घर दिखाया। बहुओं ने लपक-झपक बिखरी हुई चीजें बड़े करीने से गलत जगह पर रख दी थीं। जो चीजें जल्दी में रखी न जा सकीं उन्हें समेट कर बिस्तर पर डाल दिया और ऊपर सफेद चादर डाल दी। इसलिए घर में जहां जहां साफ चादर नजर आई मैं ताड़ गया कि नीचे काठ कबाड़ दफ्न है। साहब Curiosity भी बुरी बला है। एक कमरे में मैंने नजर बचा कर चादर का कोना सरकाया तो नीचे से सरदार जी के मामा निहायत संक्षिप्त कच्छा पहने केश खोले बरामद हुए। उनकी दाढ़ी इतनी लंबी और घनघोर थी कि कच्छे के तकल्लुफ की जरा भी जुरूरत नहीं थी।

घर का नक्शा बदल गया है। सह्न अब पक्का करवा लिया है। चमेली की बेल और अमरूद का पेड़ नहीं दिखाई दिया। यहां मियां साहब शाम को छिड़काव करके मूढ़े बिछवा दिया करते थे। अपने लिए खराद पर बने चिन्यौट के रंगीन पायों वाली चारपायी बिछवाते थे। वतन की याद जियादा सताती तो हमें लोकल गंडीरियां खिलाते। उनका गला लायलपुर की गंडीरियों की याद करके रुंध जाता। चांदनी रातों में अक्सर ड्रिल मास्टर की आवाज में मिर्जा साहिबां और जुगनी चिमटा बजा कर सुनाते। खुद भी रोते और हमें भी रुलाते। यूं हमारे रोने का कारण दूसरा होता। कुछ देर बाद खुद ही अपने बेसुरेपन का अहसास होता तो चिमटा बड़ी खिन्नता से सह्न में फेंक कर कहते कि बादशाहो! कानपुर के चिमटे गाने की संगत के लिए नहीं, चिलम भरने के लिए ही स्यूटेबिल हैं।

सरदार जी से झूठ-सच बोल कर बाहर निकला तो सारा नास्टेल्जिया हिरन हो चुका था। पुराना मकान दिखाने मुझे इनआमुल्ला बरमलाई ले गये थे। वापसी में एक गली के नुक्कड़ पर मिठाई की दुकान के सामने रुक गये। कहने लगे, रमेश चंद अडवानी एडवोकेट के यहां भी झांकते चलें। जेकबाबाद का रहने वाला है, सत्तर का है, मगर लगता नहीं। अस्सी का लगता है। जबसे सुना है, कोई साहब कराची से आये हैं, मिलने के लिए तड़प रहा है। जेकबाबाद और सक्खर की खैरियत मालूम करना चाहता है। सितार पर तुम्हें काफियां सुनायेगा, अगर तुमने प्रशंसा की तो और सुनायेगा, न की तो भी और सुनायेगा कि शायद ये बेहतर हों। शाह अब्दुल लतीफ भट्टायी का रसालू जबानी याद है। हिंदी सीख ली है मगर जोश में आता है तो अजीब प्रेत-भाषा में बात करने लगता है। खिसका हुआ है मगर है दिलचस्प।

तो साहब अडवानी से भी बातचीत रही। बातचीत क्या Monologue कहिये। `कंधा भी कहारों को बदलने नहीं देते` वाला मामला है। उन्होंने यह पुष्टि चाही कि जेकबाबाद अब भी उतना ही हसीन है या नहीं, जैसा वो जवानी में छोड़ कर आया था? यानी क्या अब चौदहवीं को पूरा चांद होता है? क्या अब भी सिंध नदी की लहरों में लश-लश करती मछलियां दूर से ललचाती हैं? मौसम वैसा ही हसीन है? (यानी 115 डिग्री गर्मी पड़ती है या उस पर भी उतार आ गया है) और क्या अब भी खैरपुर से आने वाली हवायें लू से पकती हुई खजूरों की महक से बोझल होती हैं? सब्बी में सालाना दरबार मेला मवेशियां लगता है कि नहीं।

मैंने जब उसे बताया कि मेला मवेशियां में अब मुशायरा भी होता है तो देर तक मेले के पतन पर अफसोस करता रहा और पूछने लगा कि सिंध में अच्छे मवेशी इतने कम हो गये? उसे गंगा जमनी मैदान जरा नहीं भाता। कहने लगा, सांईं। हम सीधे, खुरदरे, रेगमाली, रेगिस्तानी लोग हैं। अपने रिश्ते, प्यार और संबंधों पर काई नहीं लगने देते। आप सफाचट दोआबे और दलदली मैदानों में रहने वाले, आप क्या जानें कि रेगिस्तान में गर्म हवा रेत पर कैसी चुलबुली लहरें, कैसे कैसे चित्र बना-बना के मिटाती और मिटा-मिटा के बनाती है। सांईं, हमारा सारा Sand Scape अंधड़, आंधियां तराशती हैं।

गर्म हवा, झक्कड़ और जेठ के मीनार बगूले सारे रेगिस्तान को मथ के रख देते हैं। आज जो रेत की वादी है, कल वहां से लाल आंधी की धूम सवारी गुजरती थी। जलती दोपहर में भूबल, धूल बरसाती रेत पहाड़ियां। पिछले पहर की ठंडी होती मखमल बालू पर धीमी-धीमी पवन पखावज, जवान बलवान बांहों की मछलियों की तरह रेत की उभरती फड़कती लहरें, एक लहर दूसरे लहर जैसी नहीं। एक टीला दूसरे टीले से, एक रात दूसरी रात से नहीं मिलती। बरसात की रातों में जब थोथे बादल सिंध के रेत सागर से आंख मिचौली खेलते गुजरते हैं तो उदास चांदनी अजब इंद्रजाल रचती है। जिसको सारा रेगिस्तान एकसार लगता है, उसकी आंख ने अभी देखना ही नहीं सीखा, सांईं। हम तुम्हारे पैरों की धूल, हम रेत महासागर की मछली ठहरे। आधी रात को भी रेत की तहों में उंगली गड़ा के ठीक-ठाक बता देंगे कि आज पोछांड़ू कहां था। (यानी टीले का वो हिस्सा जिस पर सूरज की पहली किरन पड़ी) दोपहर को हवा का रुख क्या था। ठीक इस समय शहर की घड़ियों में क्या बजा होगा। धरती ने हमें फूल, फल और हरियाली देते समय हाथ खींच लिया तो हमने इंद्रधनुष के सारे चंचल रंगों की पिचकारी अपनी अजरकों, रल्लियों, ओढ़नियों, शलूकों, चोलियों और सजावटी टाइलों पर छोड़ दी।

वो अपनी आंसू-धार पिचकारी छोड़ चुका तो मैंने बाहर आकर इनामुल्ला बरमलाई से कहा, भाई मेरे, बहुत हो चुकी, ये कैसा हिंदू है जो गंगा-किनारे खड़ा रेगिस्तान के सपने देखता है।

कहीं दिल और कहीं नगरी है दिल की

ये सारी उम्र का वनवास देखो

ऐसा ही है तो उसे ऊंट पर बिठा कर बीकानेर ले जाओ और किसी टीले या कीकर के ठूंठ पर बिठाओ कि `ऊपर छांव नहीं-नीचे ठांव नहीं।` अबके तुमने मुझे किसी अतीत में खोये आदमी से मिलाया तो कसम खुदा की लोटा, डोर, चटाई, नजीर अकबराबादी की किताब और फ्रूटसाल्ट बगल में मार कर बियाबान को निकल जाऊंगा और कान खोल कर सुन लो, अब मैं किसी ऐसे व्यक्ति से हाथ भी मिलाना नहीं चाहता जो मेरा हमउम्र हो, साहब! मुझे तो आपसे कै आने लगी। आपके मिर्जा साहब ने कुछ गलत नहीं कहा था कि अपने हमउम्र बूढ़ों से हाथ मिलाने से आदमी की उम्र हर बार एक साल घट जाती है।

मुल्ला आसी भिक्षू : कानपुर में जी भर कर घूमा। एक एक से मिला। एक जमाना आंखों के आगे से गुजर गया मगर यात्रा की उपलब्धि मुल्ला आसी अब्दुल मन्नान से भेंट रही। अब्दुल मन्नान के नाना अपने हस्ताक्षर से पहले आसी लिखा करते थे। उन्होंने उचक लिया और सातवीं क्लास से अपना नाम आसी अब्दुल मन्नान लिखना शुरू कर दिया। आठवीं में ही दाढ़ी निकल आई थी। दसवीं तक पहुंचते पहुंचते मुल्ला आसी कहलाने लगे। ये ऐसा चिपका कि इसी नाम से पहचाने और पुकारे जाते हैं। नेम प्लेट पर भी A. Asi A. Mannan लिखा है।

अजीब तमाशा है। इकहरा गठा हुआ बदन। खुलता हुआ गेहुंआ रंग, मंझोला कद। आजानुभुज यानी असाधारण लंबे हाथ, जैसे बंदर के होते हैं। कोट हैंगर के से ढलके हुए कंधे। घने बाल अब सफेद हो गये हैं मगर घुंघरालापन बाकी है। बाहर निकली हुई मछली जैसी गोल गोल आंखें, दायीं आंख और मुंह के दायें कोने में बचपन में ही Tick था। अब भी इसी तरह फड़कते रहते हैं। दाढ़ी निकलने के दस साल बाद तक रेजर नहीं लगने दिया। सच पूछिये तो दाढ़ी से बहुत बेहतर लगते थे। लंबी गर्दन, छोटा और गोल मटोल चेहरा, जिस रोज दाढ़ी मुंडवा आये तो ऐसे लगे जैसे हुक्के पर चिलम रक्खी है।

मुल्ला आसी खुद कहते हैं कि समझ आने और बालिग होने के बाद मैंने कभी नमाज नहीं पढ़ी। अलबत्ता कहीं नमाज के समय फंस जाता और लोग जिद करते तो पढ़ा देता था। दाढ़ी का ये बड़ा हैंडीकैप था। आखिर तंग आकर मुंडवा दी। जबसे उन्होंने बुद्धिज्म का ढोंग रचाया, लोगों ने मुल्ला भिक्षू कहना शुरू कर दिया। अभी तक `र` साफ नहीं बोल सकते थे मगर उनके मुंह से अच्छा लगता है। बातचीत का लहजा जैसे मिसरी की डली। सनकी जैसे तब थे, अब भी हैं, बल्कि और उभार पर हैं। करीब से देखा तो देखता-ही रह गया, जीवन ऐसे भी गुजारा जा सकता है। सारा काम छोड़ कर साये की तरह साथ रहे, मजा आ गया, क्या बताऊं ऐसी दरिया मुहब्बत, ऐसा बरखा प्यार।

यकीन कीजिये सन् 48 में जैसा छोड़ कर आये थे वैसे के वैसे ही हैं। पिचहत्तर से कुछ ऊपर ही होंगे, लगते नहीं। मैंने पूछा, इसका क्या राज है? बोले कभी शीशा नहीं देखता, कसरत नहीं करता। कल के बारे में नहीं सोचता। आखिरी बात उन्होंने कुछ जियादा ही बढ़ा-चढ़ा कर कही, इसलिए कि कल तो बाद की बात है, ऐसा लगता है वो आज के बारे में भी नहीं सोचते। जिस पीड़ा से जीवन शुरू किया, उसी से बिता दिया। बड़ी गर्मजोशी से मिले। सीने से क्या लगाया, अचानक Twenties में पहुंचा दिया। ऐसा लगा जैसे अपने ही जवान स्वरूप से भेंट हो गयी है। वैसे मैं आपकी इस राय से सहमत हूं कि कुछ लोग इस तरह सीने से लगते हैं कि उसके बाद आप वो नहीं रहते जो इससे पहले थे लेकिन आपने जिस चपड़कनात बुजुर्ग की मिसाल दी, मैं उससे सहमत नहीं, दिल नहीं ठुकता।

आप आज भी मुल्ला आसी को हर एक का काम, हर तरह का काम करने के लिए तैयार पायेंगे, सिवाय अपने काम के। शहर में हर अफसर से उनकी जान पहचान है। किसी को आधी रात को भी सिफारिश की जुरूरत हो तो वो साथ हो लेते हैं। कोई बीमार बेआसरा हो तो दवा-दारू, हाथ-पैर की सेवा के लिए पहुंच जाते हैं। होम्योपैथी में भी दख्ल रखते हैं। होम्योपैथिक दवा में असर हो या न हो उनके हाथ में शिफा जुरूर है। बीमार घेरे रहते हैं। मशवरे और दवा का कुछ नहीं लेते।

जवानी में भी ऐसे ही थे। इलाहदीन के जिन्न की तरह हर काम करने के लिए तैयार। बला के इंतजाम करने वाले। सन् 47 की घटना है, गर्मियों के दिन थे, मियां तजम्मुल हुसैन को दूर की सूझी, किसलिए कि उनके वालिद कलकत्ता गये हुए थे। कहने लगे यार मुल्ला `मुजरा देखे अरसा हुआ, आखिरी मुजरा जमाल साहब के बेटे की शादी पर देखा था, सात महीने होने को आये, दस बारह जने मिल कर चंदा कर लेंगे। बस तुम बिल्ली की गर्दन बल्कि पैरों में घुंघरू बांध कर लिवा लाओ तो मजा आ जाये।`

कोर्निश बजा लायेगी : शनिवार को देखा कि दोपहर की नमाज के बाद अपनी जिम्मेदारी को इक्के में बिठाये लिए आ रहे हैं। खुद इक्के के पर (तख्ते का बाहर निकला किनारा) पे टिके हुए थे। पानदान, तबले, सारंगी, चौरासी (घुंघरू) और बुढ्ढे तबलची को अपने हाथों से उतारा। मेरे कान में कहने लगे, दाढ़ी के कारण तवायफ को मेरे साथ आने में संकोच था। रुपया तो खैर हम सबने चंदा करके इकट्ठा किया मगर बाकी सारा इंतजाम उन्हीं पर था। इसमें शहर के बाहर इस सरकारी बंगले का चयन और अनुमति भी सम्मिलित थी जहां ये महफिल होनी थी। डिप्टी कलक्टर से उनकी यारी थी।

दस्तरख्वान पर खाना उन्होंने अपने हाथ से चुना। कानपुर से सफेद और लाल रसगुल्लों के कुल्हड़ स्वयं खरीद कर लाये, मीठे में मिला कर खाने के लिए मलाई खासतौर से लखनऊ से मंगवायी। उनका कहना था कि गिलौरियां भी वहीं की एक बांकी तंबोलिन के हाथ की हैं। करारे पान की गिलौरी इस तरकीब से बनाती है कि किसी के खींच के मारे तो बिलबिला उठे। गिलौरी टुकड़े-टुकड़े भले ही हो जाये लेकिन मजाल है कि खुल जाये। दस्तरख्वान बिछने से जरा पहले अपनी निगरानी में तंदूरी रोटी पर गुड़ और नमक का छींटा दिलवाया। कानपुर में इसे छींटे की रोटी कहते थे। दो ताजा कलई की हुईं सिलफचियों में नीम के पत्ते डाल कर रखवा दिये। मुजरे और दावत का सारा इंतजाम कर दिया। सब खाने पर बैठ गये तो किसी ने पूछा मुल्ला कहां हैं? ढुंडैया पड़ी। कहीं पता न था। महफिल तो हुई मगर उकतायी हुई रही। दूसरे दिन उनसे पूछा गया तो तुनक कर बोले, आपने मुझे इन्वाइट कब किया था। मेरे सुपुर्द इंतजाम किया गया था, सो मैंने कर दिया।

क्या छिपकली दूध पिलाती है : स्वभाव का सदैव से यही रंग रहा। जो टेढ़ और सनक तब थी, वो अब भी है। कुछ बढ़ ही गयी है। एक घटना हो तो सुनाऊं। पढ़ाई का जमाना था। वो कोई असामान्य बौड़म नहीं थे। मेरा मतलब है सामान्य श्रेणी के नार्मल नालायक थे। परीक्षाओं में तीन महीने रह गये थे, दिसंबर का महीना-कड़कड़ाते जाड़े। उन्होंने क्रिसमस के दिन से पढ़ाई की तैयारियां प्रारंभ कीं।

वो इस तरह कि आंखों और दिमाग को तरावट पहुंचाने के लिए सर मुंडवा कर तेल से सिंचाई की, जो एक मील दूर से पहचाना जाता था कि विशुद्ध सरसों का है। पहली ही रात उनके सर पर नजला गिरा तो दूसरे दिन चहकते हरे रंग का रुई का टोपा सिलवाया जिसे पहन कर पान खाते तो बिल्कुल तोता लगते थे। वृहस्पतिवार को तड़के सफेद बकरी की सिरी और कलेजी खरीद लाये। सिरी पकवा कर शाम को फकीरों को खिलाई। उस जमाने में बेपर्दगी के अंदेशे से मुहल्ले के मर्दों को छत पर चढ़ना मना था। इसके बावजूद छत पर खड़े हो कर देर तक चील, चील, चील, पुकारा किये, फिर हवा में उछल-उछल कर चीलों को कलेजी की बोटियां और खुद को पर्दे वाले घरों के मर्दों की गालियां खिलवायीं। दोपहर को बान की चारपायी बाहर निकाली और औटते पानी से उन खटमलों को जिन्हें बरसों अपना खून पिला कर बड़ा किया था, अंतिम स्नान कराया, फिर चारपायी धूप में उल्टी करके मुर्दों और अधमरों पर ढेरों गर्म मिट्टी डाली।

मच्छरदानी के बांस में झाड़ू बांध कर ततैया के छत्ते और जाले उतारे। रात को अलग-अलग समय पर छत पर टार्च से रौशनी डाल-डाल कर छिपकलियों की संख्या की गिनती की। उनमें तीन छिपकलियां शायद छिपकले थे। शायद इसलिए कि मिर्जा के कथानानुसार पक्षियों, छिपकलियों, मछलियों, पंक्स और उर्दू शब्दों में नर-मादा पहचान पाना मनुष्य के बस का काम नहीं। पक्षी, छिपकलियां, मछलियां और पंक्स तो फिर भी शारीरिक आवश्यकताओं के वशीभूत अपने-अपने विपरीत लिंग को पहचान कर क्रिया और कार्य करते हैं लेकिन उर्दू शब्दों के केस में तो यह सुविधा भी उपलब्ध नहीं। उनके लिंग तय करना और स्त्री-पुरुष की पहचान करना, टटोलना संभव ही नहीं।

उस्ताद जलील मानकपुरी ने कभी एक शोधपरक लेख स्त्रीलिंग और पुलिंग पर लिखा था, जिनमें सात हजार शब्दों के यौन-परीक्षण के बाद हर एक के बारे में दो टूक फैसला कर दिया था कि वे स्त्री हैं या पुरुष। साथ ही उन शब्दों की भी पहचान कर दी थी, जिनके लिंग के बारे में असमंजस था और जिन पर लखनऊ वाले और दिल्ली वाले एक-दूसरे का सर फोड़ने को तैयार हो जाते थे।

वो तीन रंगीन स्वभाव के छिपकले, जिनके कारण से यह बात निकली, टर्राते थे। रात भर डबलडैकर बने छत पर छुटे फिरते थे, जिसके कारण पढ़ायी और मानसिक शांति के भंग होने का भय था। इन सब कुकर्मियों को उनके अंतिम बुरे परिणाम तक पहुंचाने के लिए वो एक दोस्त से डायना एयरगन मांग कर लाये, मगर चलाई नहीं क्योंकि उनके अनुसार, लिबलिबी पर हाथ रचाते ही ध्यान आया कि उनमें कइयों के दूध पीते बच्चे हैं।

मैंने टोका कि यार, छिपकली अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाती। बोले, तो फिर जो कुछ पिलाती है वो समझ लो। छत की झाड़-पोंछ के बाद दीवार की बारी आई, लिखने की मेज के ऊपर टांगी हुई माधुरी, कज्जन और सुलोचना एक्ट्रेसों की तस्वीरें हटायीं तो नहीं, मगर उल्टी कर दीं। खुद को सही मार्ग पर रखने और खुदा का खौफ दिलाने की गरज से तस्वीरों के बीचों-बीच आपने वालिद गिरामी (पूज्य पिता) का, जो बड़े हथछुट और विकट बुजुर्ग थे, फोटो टांग दिया। ड्रेकुला की तरह शीशे भी कपड़े से ढंक दिये ताकि चेहरे पर इम्तहान की घबराहट देख कर और न घबरायें। उनके दोस्त हरि प्रकाश पांडे ने इम्तहान के जमाने में सात्विक रहने और ब्रह्मचर्य का बड़ी सख्ती से पालन करने की ताकीद की जो बिल्कुल बेतुकी थी। कारण कि उनकी और हमारी नस्ल के लिए असात्विक रहना प्रॉबलम नहीं, हार्दिक इच्छा थी।

खुद को ठंडा, और शांत रखने का उन्होंने यह गुर बताया कि मन में कोई ऐसी वैसी कामना आ जाये, तो फौरन अपने अंगूठे में पिन चुभो लिया करो और जब तक इच्छा पूरी तरह दिल से निकल न जाये पिन चुभोये रखो, मगर हुआ ये कि उनके मुंह से हमेशा चीख निकल गयी लेकिन इच्छा नहीं निकली। पहले ही दिन यह नौबत आ गयी कि दोनों Pin Cushions यानी दोनों अंगूठों में पिन चुभोने की जगह न रही। पांव के अंगूठे प्रयोग करने पड़े। दूसरे दिन जब वो जूते पहनने के काबिल न रहे तो पिन चुभोने की बजाय मुस्कुरा देते और कपड़ा हटा कर शीशा देख लेते थे।

बुरी आदतों से तौबा कर ली थी, मतलब यह कि रात गये तक अनुपस्थित दोस्तों की बुराई, ताश, शतरंज, बाइस्कोप और बुरी सुहबत यानी अपने-ही जैसे दोस्तों की सुहबत से मीयादी तौबा की, यानी क्रिसमस के दिन से परीक्षा के दिन तक और दिल में both days inclusive कह कर मुस्कुरा दिये। मसनवी `जह्रे-इश्क`, जो एक प्रतिबंधित किताब थी और दस-बारह बदनाम मसनवियों के वृहद संस्करण, जिनकी गिनती उन दिनों Porn में होती थी, ताला बंद अलमारी से निकाले। यह सब उनके हाथ की लिखी नक्लें थीं। इन सब को ताश की दो गड्डियों के साथ, जिनमें से एक नयी थी, जलाने के लिए सह्न में ले गये।