खोया पानी / भाग 5 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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न पूछ हाल मिरा,चोबे - खुश्के - सहरा हूं

लगा के आग जिसे कारवां रवाना हुआ

(मेरा हाल न पूछ मैं रेगिस्तान की सूखी लकड़ी हूं , जिसे आग लगा कर कारवां चला गया )

हमने उनका दिल बढ़ाने के लिए कहा, आपको चोबे-खुश्क (सूखी लकड़ी) कौन कह सकता है? आपकी जवां हिम्मती और मुस्तैदी पर तो हमें ईर्ष्या ही होती है। अकस्मात् मुस्कुराये, जबसे डेन्चर्ज टूटे, मुंह पर रूमाल रख कर हंसने लगे थे। कहने लगे, आप जवान आदमी हैं। अपना तो यह हाल हुआ कि

मुन्फइल हो गये कवा गालिब

अब अनासिर में एतदाल कहां

(सारे अंग प्रत्यंग कमजोर हो गये। अब तत्वों में सामंजस्य कहां )

मैं वो पेड़ हूं जो ट्रेन में जाते हुए मुसाफिर को दौड़ता हुआ नजर आता है।

मेरे ही मन का मुझ पर धावा

यूं वो जहां तक मुमकिन हो अपने गुस्से को कम नहीं होने देते थे, कहते थे मैं ऐसी जगह एक मिनट भी नहीं रहना चाहता, जहां आदमी, किसी पर गुस्सा ही न हो सके और जब उन्हें ऐसी ही जगह रहना पड़ा तो वो जिंदगी में पहली बार अपने आपसे रूठे। अब वो आप ही आप कुढ़ते, अंदर ही अंदर खौलते, जलते, सुलगते रहते :

मेरे ही मन का मुझ पर धावा

मैं ही आग हूं , मैं ही ईंधन

उन्हीं का कहना है कि याद रखो, गुस्सा जितना कम होगा, उसकी जगह उदासी लेती जायेगी, और यह बड़ी बुजदिली की बात है। बुजदिली के ऐसे ही उदास लम्हों में अब उन्हें अपना गांव जहां बचपन गुजरा था, बेतहाशा याद आने लगता। बिखरी-बिखरी जिंदगी ने अतीत में शरण तलाश कर ली। जैसे अलबम खुल गया।

धुंधली, पीले से रंग की तस्वीरें विचार-दर्पण में बिखरती चली जातीं। हर तस्वीर के साथ जमाने का पृष्ठ उलटता चला गया। हर स्नेप शॉट की अपनी एक कहानी थी। धूप में अबरक के जर्रों से चिलकती कच्ची सड़क पर घोड़ों के पसीने की नर महकार, भेड़ के बच्चे को गले में मफलर की तरह डाले शाम को खुश-खुश लौटते किसान। पर्दों के पीछे हरसिंगार के फूलों से रंगे हुए दुपट्टे, अरहर के हरे-भरे खेत में पगडंडी की मांग, सूखे में सावन के थोथे बादलों को रह-रह कर ताकती निराश आंखें, जाड़े की उजाड़ रातों में ठिठुरते गीदड़ों की आवाजें, चिराग जले बाड़े में लौटती गायों के गले में बजती हुई घंटियां। काली भंवर रात में चौपाल की जलती बुझती गश्ती चिलम पर लंबे होते हुए कश, मोतिया के गजरों की लपट के साथ कुंवारे बदन की महक, डूबते सूरज की पीली रोशनी में ताजा कब्र पर जलती हुई अगरबत्ती का बल खाता धुआं, दहकती बालू में तड़कते चनों की सोंधी लपट से फड़कते हुए नथुने, म्यूनिस्पिल्टी की मिट्टी के तेल की लालटेन का भभका। यह थी उनके गांव की सत सुगंध। यह उनकी अपनी नाभि की महक थी, जो यादों के जंगल में बावली फिरती थी।

ओलती की टपाटप

सत्तर साल के बच्चे की सोच में तस्वीरें गडमड होने लगतीं। खुश्बुऐं, नरमाहटें और आवाजें भी तस्वीरें बन-बन कर उभरतीं। उसे अपने गांव में मेंह बरसने की एक-एक आवाज अलग सुनायी देती। टीन की छत पर तड़-तड़ बजते हुए ताशे, सूखे पत्तों पर करारी बूंदों का शोर, पक्के फर्श पर जहां उंगल भर पानी खड़ा हो जाता, वहां मोटी बूंद गिरती तो मोतियों का एक ताज-सा हवा में उछल पड़ता, तपती खपरैलों पर उड़ती बदली के झाले की सनसनाहट, गर्मी के दानों से उपेड़ बालक-बदन पर बरखा की पहली फुहार, जैसे किसी ने मेंथोल में नहला दिया हो, जवान बेटे की कब्र पर पहली बारिश और मां का नंगे सर आंगन में आ-आ कर आसमान की तरफ देखना, फबक उठने के लिए तैय्यार मिट्टी पर टूट के बरसने वाले बादल की हरावल गरम लपट, ढोलक पर सावन के गीत की ताल पर बजती चूड़ियां और बेताल ठहाके, सूखे तालाब के पेंदे की चिकनी मिट्टी में पड़ी हुई दराड़ों के जाल में तरसा-तरसा कर बरसने वाली बारिश के सरसराते रेले। खंबे से लटकी हुई लालटेन के सामने जहां तक रोशनी थी, मोतियों की रिमझिम झालर, हुमक-हुमक कर पराये आंगन में गिरते परनाले। आमों के पत्तों पर मंजीरे बजाती नर्सल बौजर और झूलों पर पींगे लेती लड़कियां और फिर रात के सन्नाटे में, पानी थमने के बाद, सोते जागते ओलती की टपाटप। ओलती की टपाटप तक पहुंचते-पहुंचते किबला की आंखें जल-थल हो जातीं। बारिश तो हम उन्हें लाहौर और नथैया गली की ऐसी दिखा सकते थे कि बीती उम्र की सारी टपाटप भूल जाते। पर ओलती कहां से लाते? इसी तरह आम तो हम मुलतान का एक से एक पेश कर सकते थे। दसहरी, लंगड़ा, समर बहिश्त, अनवर रटौल, लेकिन हमारे पंजाब में तो ऐसे पेड़ हैं ही नहीं जिनमें आमों की जगह लड़कियां लटकी हुई हों।

इसलिए ऐसे अवसर पर हम खामोश, हमातन-गोश (पूरा शरीर कान बन जाता) बल्कि खरगोश बने ओलती की टपाटप सुनते रहते।

किबला का रेडियो ऊंचा सुनता था

दरिया के बहाव के विरुद्ध तैरने में तो खैर कोई नुक्सान नहीं, हमारा मतलब है दरिया का नुक्सान नहीं, लेकिन किबला तो सैकड़ों फुट की ऊंचाई से गिरते हुए नियाग्रा फॉल पर तैर कर चढ़ना चाहते थे या यूं कहिये कि तमाम उम्र नीचे उतरने वाले एस्केलेटर से ऊपर चढ़ने की कोशिश करते रहे और एस्केलेटर बनाने वाले को गालियां देते रहे। एक दिन कहने लगे, 'मियां यह तुम्हारा शहर भी अजीब शहर है। न खरीदारी की तमीज, न छोटों के आदाब, न किसी के बड़प्पन का लिहाज। मैं जिस जमाने में बिशारत मियां के साथ बिहार कालोनी में रहता था, उस जमाने में रेडियो में कार की बैटरी लगानी पड़ती थी। बिहार कालोनी में बिजली नहीं थी। उसका रखना और चलाना एक दर्दे-सर था। बिशारत मियां रोजाना बैटरी अपने कारखाने ले जाते और चार्ज होने के लिए आरा मशीन में लगा देते। सात-आठ घंटे में इतनी चार्ज हो जाती थी कि बस एकाध घंटे बी.बी.सी. सुन लेता था। इसके बाद रेडियो से आरा मशीन की आवाजें आने लगतीं और मैं उठ कर चला आता। घर के पिछवाड़े एक पच्चीस फुट ऊंची, निहायत कीमती, बेगांठ बल्ली गाड़ कर एरियल लगा रखा था। इसके बावजूद वो रेडियो ऊंचा सुनता था। आये दिन पतंग उड़ाने वाले लौंडे मेरे एरियल से पेच लड़ाते। मतलब यह कि उसमें पतंग उलझा कर जोर आजमायी करते। डोर टूट जाती, एरियल खराब हो जाता। अरे साहब! एरियल क्या था, पतंगों का हवाई कब्रिस्तान था। उस पर यह कटी पतंगें चौबीस घंटे इस तरह फड़फड़ाती रहतीं जैसे सड़क के किनारे किसी नये मरे हुए पीर के मजार पर झंडियां। पच्चीस फुट की ऊंचाई पर चढ़ कर एरियल दोबारा लगाना, न पूछिये कैसा कष्टदायक था। बस यूं समझिये! सूली पे लटक के बी.बी.सी. सुनता था। बहरहाल, जब बर्नस रोड वाले फ्लैट में जाने लगा तो सोचा वहां तो बिजली है, चलो रेडियो बेचते चलें। बिशारत मियां भी तंग आ गये थे। कहते थे, इससे तो पतंगों की फड़फड़ाहट ब्रॉडकास्ट होती रहती है। एक दूर के पड़ोसी से 250 रुपये में सौदा पक्का हो गया। सवेरे-सवेरे वो नक्द रकम ले आया और मैंने रेडियो उसके हवाले कर दिया। रात को ग्यारह बजे फाटक बंद करने बाहर निकला तो क्या देखता हूं कि वो आदमी और उसके बैल जैसी गर्दन वाले दो बेटे कुदाल, फावड़ा लिए मजे से एरियल की बल्ली उखाड़ रहे हैं। मैंने डपट कर पूछा, ये क्या हो रहा है? सीनाजोरी देखिए! कहते हैं बड़े मियां, बल्ली उखाड़ रहे हैं, हमारी है।

'ढाई सौ रुपये में रेडियो बेचा है, बल्ली से क्या मतलब?

मतलब नहीं तो हमारे साथ चलो और जरा बल्ली के बिना बजा के दिखा दो। ये तो इसकी Accessory है।'

'न हुआ कानपुर, साले की जबान गुद्दी से खींच लेता और इन हरामी पिल्लों की बैल जैसी गर्दन एक ही बार में भुट्टा-सी उड़ा देता। मैंने तो जिंदगी में ऐसा बेईमान आदमी नहीं देखा। इस दौरान वो कमीन बल्ली उखाड़ के जमीन पे लिटा चुका था। एक बार जी में आया कि अंदर जा कर 12 बोर ले आऊं और इसे भी बल्ली के बराबर लंबा लिटा दूं, फिर खयाल आया कि बंदूक का लाइसेंस तो समाप्त हो चुका है और कमीने के मुंह क्या लगना, इसकी बेकुसूर बीबी रांड हो जायेगी। वो जियादा कानून छांटने लगा तो मैंने कहा, जा जा, तू क्या समझता है? बल्ली की हकीकत क्या है, ये देख, ये छोड़ के आये हैं।' किबला हवेली की तस्वीर दिखाते ही रह गये और वो तीनों बल्ली उठा कर ले गये।

अपाहिज बीबी और गश्ती चिलम

उनकी जिंदगी का एक पहलू ऐसा था जिसके बारे में किसी ने उन्हें इशारों में भी बात करते नहीं सुना। हम शुरु में बता चुके हैं कि उनकी शादी बड़े चाव-चोंचले से हुई थी। बीबी बहुत खूबसूरत, नेक और सुघड़ थीं। शादी के कुछ साल बाद एक ऐसी बीमारी हुई कि कलाइयों तक दोनों हाथों से अपंग हो गयीं। करीबी रिश्तेदार भी मिलने से बचने लगे। रोजमर्रा की मुलाकातें, शादी-गमी में जाना, सभी सिलसिले आहिस्ता-आहिस्ता टूट गये। घर का सारा काम आया और नौकर तो नहीं कर सकते। किबला ने जिस मुहब्बत और दर्दमंदी से तमाम उम्र उनकी सेवा और देख-रेख की, इसका उदाहरण मुश्किल से मिलेगा। कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनकी चोटी बेगुंथी और दुपट्टा बेचुना हो, या जुमे को कासनी रंग का न हो। साल गुजरते चले गये, समय ने सर पर कासनी दुपट्टे के नीचे रुई के गाले जमा दिये। मगर उनकी सेवा और प्यार में जरा जो फर्क आया हो। विश्वास नहीं होता था कि दोस्ती और मुहब्बत का यह रूप उसी गुस्सैल आदमी का है जो घर के बाहर एक चलती हुई तलवार है। जिंदगी भर का साथ हो तो सब्र और स्वभाव की परीक्षा के हजार मोड़ आते हैं, मगर उन्होंने उस बीबी से कभी ऊंची आवाज में भी बात नहीं की।

कहने वाले कहते हैं कि उनकी झल्लाहट और गुस्से की शुरुआत इसी बीमारी से हुई। वो बीबी तो मुसल्ले (नमाज पढ़ने का कपड़ा) पर ऐसी बैठीं कि दुनिया ही में जन्नत मिल गई। किबला को नमाज पढ़ते किसी ने नहीं देखा, लेकिन जिंदगी भर जैसी सच्ची मुहब्बत और रातों को उठ-उठ कर जैसी रियाजत (तपस्या) उन्होंने की, वही उनका दुरूद वजीफा (एक तरह की दुआ) और वही उनकी आधी रात की दुआएँ थीं। वह बड़ा बख्शन-हार है, शायद यही उनकी मुक्ति का वसीला बन जाये। एक दौर ऐसा भी आया कि बीबी से उनकी परेशानी देखी न गई। खुद कहा, किसी रांड बेवा से शादी कर लो। बोले, हां! भगवान! करेंगे। कहीं दो गज जमीन का एक टुकड़ा है जो न जाने कब से हमारी बरात की राह देख रहा है। वहीं चार कांधों पर डोला उतरेगा। बीबी! मिट्टी सदा सुहागन है -

'सो जायेंगे इक रोज जमीं ओढ़ के हम भी'

बीबी की आंखों में आंसू देखे तो बात का रुख फेर दिया। वो अपनी सारी इमेजिरी, लकड़ी, हुक्के और तंबाकू से लिया करते थे। बोले, बीबी! यह रांड बेवा की कैद तुमने क्या सोच के लगाई? तुमने शायद वो पूरबी कहावत नहीं सुनी : पहले पीवे भकुवा, फिर पीवे तमकुवा, पीछे पीवे चिलम चाट यानी जो आदमी पहले हुक्का पीता है वो बुद्धू है कि दरअस्ल वो तो चिलम सुलगाने और ताव पर लाने में ही जुटा रहता है। तंबाकू का अस्ल मजा तो दूसरे आदमी के हिस्से में आता है और जो अंत में पीता है वो जले हुए तंबाकू से खाली भक-भक करता है।

हम जिधर जायें दहकते जायें

कराची में दुकान तो फिर भी थोड़ी बहुत चली, मगर किबला बिल्कुल नहीं चले। जमाने की गर्दिश पर किसका जोर चला है जो उनका चलता। हादसों को रोका नहीं जा सकता, हां, सोच से हादसों का जोर तोड़ा जा सकता है। व्यक्तित्व में पेच पड़ जायें तो दूसरों के अतिरिक्त खुद अपने-आप को भी तकलीफ देते हैं, लेकिन जब वो निकलने लगें तो और अधिक कष्ट होता है। कराची आने के बाद अक्सर कहते कि डेढ़ साल जेल में रह कर जो बदलाव मुझमें न आया, वो यहां एक हफ्ते में आ गया। यहां तो बिजनेस करना ऐसा है जैसे सिंघाड़े के तालाब में तैरना। कानपुर ही के छुटे हुए छाकटे यहां शेर बने दनदनाते फिरते हैं और अच्छे-अच्छे शरीफ हैं कि गीदड़ की तरह दुम कटवा के भट में जा बैठे। ऐसा बिजोग पड़ा कि 'खुद-ब-खुद बिल में है हर शख्स समाया जाता' जो बुद्धिमान हैं वो अपनी दुमें छुपाये बिलों में घुसे बैठे हैं, बाहर निकलने की हिम्मत नहीं पड़ती। इस पर मिर्जा ने हमारे कान में कहा :

'अनीस 'दुम' का भरोसा नहीं, ठहर जाओ'

एक दोस्त ने अपनी इज्जत-आबरू जोखिम में डालकर किबला से कहा कि गुजरा हुआ जमाना लौट कर नहीं आ सकता। हालात बदल गये हैं, आप भी खुद को बदलिए, मुस्कुरा के बोले खरबूजा खुद को गोल कर ले तब भी तरबूज नहीं बन सकता। बात यह थी कि जमाने का रुख पहचानने की शक्ति, क्षमता, नर्मी और लचक न उनके स्वभाव में थी और न जमींदाराना माहौल और समाज में इनकी गिनती गुणों में होती थी। सख्ती, अभिमान, गुरूर और गुस्सा अवगुण नहीं बल्कि सामंती चरित्र की मजबूती की दलील समझे जाते थे और जमींदार तो एक तरफ रहे, उस जमाने के धार्मिक स्कॉलर तक इन गुणों पर गर्व करते थे।

किबला के हालात तेजी से बिगड़ने लगे तो उनके हमदर्द मियां इनआम इलाही ने, जो छोटे होने के बावजूद उनके स्वभाव और मामलात में दख्ल रखते थे, कहा कि दुकान खत्म करके एक बस खरीद लीजिए। घर बैठे आमदनी होगी। रूट परमिट मेरा जिम्मा। आजकल इस धंधे में बड़ी चांदी है, एकदम जलाल (तेज गुस्सा) आ गया। फर्माया चांदी तो तबला सारंगी बजाने में भी है। एक रख-रखाव की रीत बुजुर्गों से चली आ रही है, जिसका तकाजा है कि बरबाद होना ही मुकद्दर में लिखा है तो अपने पुराने और आजमाये हुए तरीके से होंगे, बंदा ऐसी चांदी पर लात मारता है।

आखिरी गाली

कारोबार मंदा बल्कि बिल्कुल ठंडा, तबीयत में उदासी। दुकानदारी अब उनकी आर्थिक नहीं, मानसिक आवश्यकता थी। समझ में नहीं आता था कि दुकान बंद कर दी तो घर में पड़े क्या करेंगे, फिर एक दिन यह हुआ कि उनका नया पठान मुलाजिम जर्रीन गुल खान कई घंटे देर से आया। वो हर प्रकार से गुस्से को पीने की कोशिश करते थे लेकिन पुरानी आदत कहीं जाती है। चंद माह पहले उन्होंने एक साठ साला मुंशी आधी तनख्वाह पर रखा था, जो गेरुवे रंग का ढीला-ढाला लबादा पहने, नंगे पैर जमीन पर आल्थी-पाल्थी मारे हिसाब किताब करता था। कुर्सी या किसी भी ऊंची चीज पर बैठना उसके संप्रदाय में मना था।

वारसी सिलसिले के किसी बुजुर्ग से दीक्षा ली थी। मेहनती, ईमानदार, रोजे नमाज का पाबंद, तुनकमिजाज और काम में चौपट था। किबला ने तैश में आकर एक दिन उसे हरामखोर कह दिया। सफेद दाढ़ी का लिहाज भी न किया। उसने आराम से कहा, 'दुरुस्त! हुजूर के यहां जो चीज मिलती है वही तो फकीर खायेगा। सलाम अलैकुम' और ये जा वो जा। दूसरे दिन से मुंशी जी ने नौकरी पर आना और किबला ने हरामखोर कहना छोड़ दिया, लेकिन हरामखोर के अलावा और भी तो दिल दुखाने वाले बहुतेरे शब्द हैं। जर्रीन गुल खान को सख्त सुस्त कहते-कहते उनके मुंह से रवानी और गुस्से में वही गाली निकल गई जो अच्छे दिनों में उनका तकिया कलाम हुआ करती थी। गाली की भयानक गूंज दर्रा-आदम खेल के पहाड़ों तक ठनठनाती पहुंची, जहां जर्रीन गुल की विधवा मां रहती थी। वो छह साल का था जब मां ने वैधव्य की चादर ओढ़ी थी। बारह साल का हुआ तो उसने वादा किया था कि मां! मैं बड़ा हो जाऊंगा तो नौकरी करके तुझे पहली तनख्वाह से बगैर पैबंद की चादर भेजूंगा। उसे आज तक किसी ने यह गाली नहीं दी थी। जवान खून, गुस्सैल स्वभाव, पठान के स्वाभिमान का सवाल था। जर्रीन गुल खान ने उनकी तिरछी टोपी उतार कर फेंक दी और चाकू तान कर खड़ा हो गया। कहने लगा, 'बुड्ढे! मेरे सामने से हट जा, नहीं तो अभी तेरा पेट फाड़ के कलेजा कच्चा चबा जाऊंगा। तेरा पलीद मुर्दा बल्ली पे लटका दूंगा।'

एक ग्राहक ने बढ़कर चाकू छीना। बुड्ढे ने झुक कर जमीन से अपनी मखमली टोपी उठायी और गर्द झाड़े बगैर सर पर रख ली।

कौन कैसे टूटता है

दस पंद्रह मिनट बाद वो दुकान में ताला डाल कर घर चले आये और बीबी से कह दिया, अब हम दुकान नहीं जायेंगे। कुछ देर बाद मोहल्ले की मस्जिद से इशा (रात की नमाज) की आवाज बुलंद हुई और वो दूसरे ही 'अल्ला हो अकबर' पर हाथ-पांव धो कर कोई चालीस साल बाद नमाज के लिए खड़े हुए तो, बीबी धक-से रह गयीं कि खैर तो है। वो खुद भी धक से रह गये। इसलिए कि उन्हें दो सूरों के अलावा कुछ याद नहीं रहा था। वितरे भी अधूरे छोड़ कर सलाम फेर लिया कि यह तक याद नहीं आ रहा था कि दुआए-कुनूत (नमाज में पढ़ी जाने वाली दुआ) के शुरू के शब्द क्या हैं।

वो सोच भी नहीं सकते थे कि आदमी अंदर से टूट भी सकता है और यूं टूटता है। और जब टूटता है तो अपनों, बेगानों से, हद यह कि अपने सबसे बड़े दुश्मन से भी सुल्ह कर लेता है यानी अपने-आप से। इसी मंजिल पर अंतःदृष्टि खुलती है, बुद्धि और चेतना के दरवाजे खुलते हैं।

ऐसे भी लोग हैं जो जिंदगी की सख्तियों, परेशानियों से बचने की खातिर खुद को अकर्मण्यता के घेरे में कैद रखते हैं। ये भारी और कीमती पर्दों की तरह लटके-लटके ही लीर-लीर हो जाते हैं। कुछ गुम-सुम गम्भीर लोग उस दीवार की तरह तड़खते हैं जिसकी महीन-सी दरार, जो उम्दा पेंट या किसी सजावटी तस्वीर से आसानी से छुप जाती है, इस बात की चुगली खाती है कि नींव अंदर ही अंदर सदमे से जमीन में धंस रही है। कुछ लोग चीनी के बर्तन की तरह टूटते हैं कि मसाले से आसानी से जुड़ तो जाते हैं, मगर बाल और जोड़ पहले नजर आता है, बर्तन बाद में। कुछ ढीठ और चिपकू लोग ऐसे अटूट पदार्थ के बने होते हैं कि च्विंगम की तरह कितना ही चबाओ टूटने का नाम नहीं लेते।'खींचने से खिंचते हैं, छोड़े से जाते हैं सुकड़' आप उन्हें हिकारत से थूक दें तो जूते से इस बुरी तरह चिपकते हैं कि छुटाये नहीं छूटते। रह-रह कर खयाल आता है कि इससे तो दांतों तले ही भले थे कि पपोल तो लेते थे। ये च्विंगम लोग खुद आदमी नहीं पर आदमी की पहचान रखने वाले लोग हैं। यह कामयाब लोग हैं। इन्होंने इंसान को देखा, परखा और बरता है और उसे खोटा पाया तो खुद भी खोटे हो गये, और कुछ ऐसे भी हैं कि कार के विंड स्क्रीन की तरह होते हैं। साबुत और ठीक हैं तो ऐसे पारदर्शी कि दुनिया का नजारा कर लो और एकाएक टूटे तो ऐसे टूटे कि न बाल पड़ा न दरके, न तड़खे। ऐसे रेजा-रेजा हुए कि न वो पहचान रही, न दुनिया की जलवागरी रही, न आईने का पता कि कहां था, किधर गया।

और एक अभिमान है कि यूं टूटता है जैसे राजाओं का प्रताप। हजरत सुलेमान छड़ी की टेक लगाये खड़े थे कि मृत्यु आ गई लेकिन उनका बेजान शरीर एक मुद्दत तक उसी तरह खड़ा रहा और किसी को शक तक न गुजरा कि वो इंतकाल फर्मा चुके हैं। वो उसी तरह बेरूह खड़े रहे और उनके रोब व दबदबे से कारोबारे-सल्तनत नियम के अनुसार चलता रहा। उधर छड़ी को धीरे-धीरे घुन अंदर से खाता रहा। यहां तक कि एक दिन वो चटाख से टूट गई और हजरत सुलेमान की नश्वर देह जमीन पर आ गई। उस समय उनकी प्रजा पर खुला कि वो दुनिया से पर्दा फर्मा चुके हैं।

सो वो दीमक लगी गुरूर-गुस्से की छड़ी, जिसके बल किबला ने जिंदगी गुजारी थी, आज शाम टूट गई और जीने का वो जोश और हंगामा भी खत्म हो गया।

मैं पापन ऐसी जली कोयला भयी न राख

उन्हें उस रात नींद नहीं आई। फज्र (सूरज निकलने से पहले की नमाज) की अजान हो रही थी कि टिंबर मार्किट का एक चौकीदार हांपता-कांपता आया और खबर दी कि 'साहब जी! आपकी दुकान और गोदाम में आग लग गई है। आग बुझाने के इंजन तीन बजे ही आ गये थे। सारा माल कोयला हो गया। साहब जी! आग कोई आप ही आप थोड़ी लगती है।' वो जिस समय दुकान पर पहुंचे तो सरकारी जबान में आग पर काबू पाया जा चुका था, जिसमें फायर बिग्रेड की मुस्तैदी और भरपूर कार्यक्षमता के अलावा इसका भी बड़ा दख्ल था कि अब जलने के लिए कुछ रहा नहीं था। शोलों की लपलपाती जबानें काली हो चुकी थीं। अल्बत्ता चीड़ के तख्ते अभी तक धड़-धड़ जल रहे थे, और वातावरण दूर-दूर तक उनकी तेज खुशबू में नहाया हुआ था। माल जितना था सब जल कर राख हो चुका था, सिर्फ कोने में उनका छोटा सा दफ्तर बचा था।

अरसा हुआ, कानपुर में जब लाला रमेश चंद्र ने उनसे कहा कि हालात ठीक नहीं हैं, गोदाम की इंश्योरेंस पालिसी ले लो, तो उन्होंने मलमल के कुर्ते की चुनी हुई आस्तीन उलट कर अपने बाजू की फड़कती हुई मछलियां दिखाते हुए कहा था। 'ये रही यारों की इंश्योरेंस पालिसी!' फिर अपने डंटर फुला कर लाला रमेश चंद्र से कहा, 'जरा छू कर देखो' लाला जी ने अचंभे से कहा 'लोहा है लोहा!' बोले 'नहीं, फौलाद कहो।'

दुकान के सामने लोगों की भीड़ लगी थी। उनको लोगों ने इस तरह रास्ता दिया जैसे जनाजे को देते हैं। उनका चेहरा एकदम भावहीन था। उन्होंने अपने दफ्तर का ताला खोला। इन्कम टैक्स का हिसाब और रजिस्टर बगल में मारे और गोदाम के पश्चिमी हिस्से में जहां चीड़ से अभी शोले और खुशबू की लपटें उठ रही थीं, तेज-तेज कदमों से गये। पहले इंकमटैक्स के खाते और उनके बाद चाबियों का गुच्छा आग में डाला। फिर आहिस्ता-आहिस्ता दायें-बायें नजर उठाये बिना दुबारा अपने दफ्तर में दाखिल हुए। हवेली का फोटो दीवार से उतारा। रूमाल से पोंछ कर बगल में दबाया और दुकान जलती छोड़ कर घर चले आये।

बीबी ने पूछा 'अब क्या होयेगा?'

उन्होंने सर झुका लिया।

अक्सर खयाल आता है, अगर फरिश्ते उन्हें जन्नत की तरफ ले गये जहां मोतिया धूप होगी और कासनी बादल, तो वो जन्नत के दरवाजे पर कुछ सोच कर ठिठक जायेंगे। दरबान जल्दी अंदर दाखिल होने का इशारा करेगा तो वो सीना ताने उसके पास जा कर कुछ दिखाते हुए कहेंगे :

'ये छोड़ कर आये हैं।'