गंगा मैया-10 / भैरवप्रसाद गुप्त
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दस
यह कितनी असम्भव बात थी, भाभी जानती थी। फिर भी इस बात को अपने मन में पोसे जा रही थी। आख़िर क्यों?
आदमी के लिए जीने का सहारा उसी तरह आवश्यक है जैसे हवा और पानी। किसी के पास कोई वास्तविक सहारा नहीं होता, तो वह अवास्तविक सहारा ही का सहारा लेता है। वह एक कल्पना, एक स्वप्न का सहारा सामने खड़ा कर लेता है। सभी कल्पनाएँ और स्वप्न किसी ठोस आधार पर ही अवलम्बित हों, ऐसी बात नहीं। बहुत-सी कल्पनाओं और स्वप्नों के आधार भी काल्पनिक और स्वप्निल होते हैं। लेकिन आदमी उन्हीं से जीवन की यथार्थ शक्ति प्राप्त करके जीता रहता है। कौन जाने इस विचित्र संसार में कहीं निराधार कल्पना और स्वप्न भी एक दिन सही हो जाएँ!
यही सही है कि इस तरह के सहारे का सृजन आदमी उसी स्थिति में करता है, जब उसके लिए कोई दूसरा चारा ही नहीं रह जाता। जीने की स्वाभाविक अदम्य चाह आदमी को विवश करती है कि वह ऐसा करे। क्या भाभी की परिस्थिति ऐसी ही नहीं थी? फिर वह ऐसा कर रही थी, तो इसमें अस्वाभाविक क्या है?
जिस दिन उसने मटरू के मुँह से गोपी की वे चन्द बातें सुनी थीं, उसी दिन से जैसे बहुत पहले से उसके हृदय में उगे उस अंकुर को उन बातों ने अमृत से सींचना शुरू कर दिया था। वे बातें उसके जीवन के सूने तारों को हर क्षण झंकृत करती रहती! उसके होंठ सदा एक मन्त्र की तरह बुदबुदाया करते, ‘‘गोपी को उसकी बहुत चिन्ता रहती है। बेचारा रात-दिन भाभी-भाभी की रट लगाये रहता है...इन दोनों में बहुत मोहब्बत थी क्या?’’ और उसके प्राण जैसे एक मधुरतम संगीत के अमृत में नहा उठते। आत्मा जैसे विह्वल हो बोल उठती, ‘‘हाँ, मोहब्बत थी, बहोत...परदेशी, तू उसे चिट्ठी लिखना, तो मेरी तरफ से यह लिख देना कि मुझे भी उसकी चिन्ता लगी रहती है- मेरे प्राण भी रात-दिन उसकी रट लगाये रहते हैं...हाँ, परदेसी, हममें बहुत मोहब्बत थी, बहोत!’’
भाभी को इस मन्त्र के जाप ने बहुत बदल दिया था। वह चिड़चिड़ापन, वह कड़वापन, वह झुँझलाहट, वह क्षुब्धता, वह बेरुखी अब ख़तम हो गयी थी। अब वह अपने को कुछ उत्साहित अनुभव करती, काम में कुछ रस लेती, पूजा-पाठ का कुछ अर्थ समझती, सास-ससुर की सेवा-सुश्रुषा में उसे कुछ फल दिखाई देता। व्यर्थ ज़िन्दगी में एक सार्थकता का आभास होता- कोई है, जो उसकी बहुत-बहुत चिन्ता करता है, उसकी रात-दिन रट लगाये रहता है। कोई है, कोई है...
घर की कलह मिट गयी। सब कुछ सुचारु रूप से चलने लगा। सास को कोई शिकायत नहीं रह गयी। पका-पकाया दोनों जून, मीठी-मीठी, आदर-भाव की बातें, हर आज्ञा पर एक पाँव पर खड़ी बहू, कभी हिलने-डुलने का मौका न देने वाली, बड़ी रात गये तक उबटन की मालिश! करम-फूटी बहू घर की लक्ष्मी न बन जाये तो क्या बने? ससुर तो पहले ही उसके सेवा के गुलाम थे। वे जानते थे कि जिस दिन बहू ने हाथ खींचा, वह कल मरने वाले होंगे, तो आज ही मर जाएँगे। औरत के बस की बात कहाँ रह गयी थी। बल्कि वह तो उनकी लम्बी बीमारी से आज़िज़ आकर कभी-कभी ऐसे सरापने लगती कि जैसे बूढ़ा भार हो गया हो। बहू की बड़ी तीमारदारी ने तो सचमुच उनमें यह उम्मीद पैदा कर दी थी कि वे बच जाएँगे। उनके मुँह से हर क्षण असीस के शब्द झड़ा करते।
कभी-कभी उन असीसों से एक कुलबुलाहट का अनुभव करके भाभी पूछ बैठती, ‘‘बाबूजी, मुझ अभागिन को आप ऐसे असीस क्यों देते हैं?’’
बूढ़े की आँखों में आँसू भर आते। व्याकुल होकर वे बोलते, ‘‘मैं जानता हूँ, बहू, कि यह ऊसर को सींचना है। लेकिन अपने मन को क्या कहूँ? मानता ही नहीं, बहू मैं तो हमेशा यही प्रार्थना करता हूँ कि तू सुखी रहे!’’
एक करुण मुस्कान होंठों पर लाकर भाभी कहती, ‘‘सुख तो उन्ही के साथ चला गया, बाबूजी!’’ और टप-टप आँसू चुआने लगती।
‘‘तू सच कहती है, बहू,’’ बूढ़े आद्र्र कण्ठ से कहते, ‘‘औरत का लोक-परलोक मरद से ही है।’’
उनके ठेहुने पर सिर रखकर बिलखती हुई भाभी कहती, ‘‘मेरा लोक-परलोक दोनों नसा गया, बाबूजी। आप अब मुझे असीस दीजिए कि जितनी जल्दी हो सके, इस संसार से छुटकारा मिल जाए!’’
‘‘नहीं, बहू, नहीं! तू भी इस अपाहिज बूढ़े को छोडक़र चली जाना चाहती है?’’ बूढ़े काँपते स्वर में कहते।
सिर उठाकर आँचल से आँसू पोंछ भाभी कहती, ‘‘देवर की नयी बहू आएगी। वह क्या आपकी सेवा मुझसे कम करेगी?’’
‘‘कौन जाने, बहू कैसी आएगी? तू तो पिछले जनम की मेरी बेटी थी। न जाने कितना गंगा नहाकर इस जनम में तुझे बहू के रूप में पाया!’’ बूढ़े गद्गद होकर कहते, ‘‘दूसरे की बेटी क्या इस तरह किसी की सेवा कर सकती है? यह तो मेरा सौभाग्य है, बेटी, कि तुझ-सी बहू मुझे मिली। नहीं तो कौन जाने अब तक मेरी मिट्टी कहाँ गल-पच गयी होती।’’
‘‘मेरा दुर्भाग्य भी तो यही है बाबूजी, कि सारी उमर विपदा झेलने के लिए जी रही हूँ। परान नहीं निकलते। रोज मनाती हूँ कि कब ये परान निकलें कि साँसत से छुटकारा पाऊँ! आख़िर अब मेरी ज़िन्दगी में क्या बच गया है, जिसके कारण परान अटके रहें!’’ भाभी निढाल होकर कहती।
‘‘अपने भाग से ही कोई नहीं मरता-जीता, रे पगली!’’ बूढ़े उसे सान्त्वना देते ‘‘जाने किसके भाग से तू जी रही है। मेरे मन में तो आता है कि मेरे भाग से ही तू ज़िन्दा है। रामजी ने मुझे ऐसा रोग दिया, तो साथ ही तुझ-सी बहू भी दी, कि रात-दिन सेवा कर सके। बहू, अपने चाहने-न चाहने से क्या होता है? जो रामजी चाहते हैं, वही होता है। कौन जाने रामजी की इसमें क्या मर्जी हो! बहू, मैं तो सोचूँ कि मेरी ही सेवा के लिए तू पैदा हुई।...हाँ री, ऐसा सोचते बख़त तुझे गोपी का मोह नहीं लगता? तुम दोनों में कितनी मोहब्बत थी! मटरू उस दिन कहता कि गोपी को तेरी बहुत चिन्ता रहती है। बहू, वह तुझे बहुत मानता है। जब तक वह जिएगा, तुझे कोई तकलीफ न होने देगा। निसाखातिर रह।’’
‘‘कौन जाने, बाबूजी भाग में क्या लिखा है? देवर का मोह मुझे भी कम नहीं लगता। उसे एक बार देख लेती, फिर मर जाती। जाने उसकी नयी बहू कैसी आये। उसका व्यवहार मेरे साथ कैसा हो। मुझसे तो कुछ सहा न जाएगा, बाबूजी! कहीं देवर का मन मैला हुआ, तो मैं तो कहीं की न रहूँगी।’’ भाभी फिर सिसक उठी।
‘‘यह तू क्या कहती है, बहू?’’ बूढ़े एक मीठी डाँट के साथ कहते, ‘‘तू मेरी बड़ी बहू है! तू घर की मालकिन की तरह रहेगी! मेरे रहते...’’
‘‘आपका बस कहाँ चलने का बाबूजी? निरोग रहते, तो मुझे किसी बात की चिन्ता न रहती। उसने आकर कहीं देवर पर जादू फेंका और वह उसके बस में होकर...नहीं बाबूजी, मेरा तो मर जाना ही अच्छा है! कहीं ताल-पोखर...’’
‘‘बहू!’’ बूढ़े जैसे चौंककर चीख पड़ते, ‘‘ताल-पोखर का नाम कभी फिर मुँह पर न लाना! जानती है, तूने किस खानदान की बहू है! भले ही घर में सड़-गल जाना, लेकिन, बहू, खानदान पर कलंक का टीका न लगाना! किसी को कहने का अगर कभी मौका मिल गया कि फलाँ की बहू ताल-पोखर में डूब मरी, तो मैं अपना सिर फोड़ लूँगा! इस बूढ़े के सिर का ख्य़ाल रखना, बेटी, और चाहे जो करना!’’ आवेश से थककर बूढ़े काँपने लगते।
आँचल से आँसू पोंछते भाभी वहाँ से हट जाती। इस बूढ़े से कोई बात करना व्यर्थ है। यह कुछ नहीं समझता-कुछ नहीं! इसे अपनी तीमारदारी की चिन्ता है। बूढ़ी को घर के काम-काज और अपनी सेवा के लिए उसकी ज़रूरत है। कोई नहीं ख़याल करता कि आख़िर उसे भी तो कुछ चाहिए। लेकिन किसी को ख़याल भी कैसे हो? स्वप्न में भी कोई यह कल्पना कैसे कर सकता है कि एक क्षत्री-कुल की बेवा बहू ...असम्भव, असम्भव! और भाभी में फिर जैसे एक क्षुब्धता भर उठने को होती कि तभी कोई कानों में गुनगुना उठता, ‘‘मुझे तुम्हारी चिन्ता है, भाभी! मैं रात-दिन तुम्हारी रट लगाये रहता हूँ! तुमसे मैं कितनी मोहब्बत करता था! मुझे आ जाने दो भाभी, फिर तो...’’
और भाभी फिर एक हिंडोले पर झूलने लगती। कोई परवाह करे या न करे, वह तो...और यह काम में मगन हो जातीं।
फिर पहले ही का कार्यक्रम चलने लगता था। वही पूजा, वही रामायण-पाठ, वही सब-कुछ। ठाकुर से प्रार्थना करती, ‘‘तेरी बाँह बड़ी लम्बी है, ठाकुर! नामुमकिन को भी मुमकिन करना तेरे लिए कोई मुश्किल नहीं! कुछ ऐसा करना कि...’’
एक दिन बिलरा को भूसे की खाँची थमाने गयी, तो उसके मन में उठा कि बिलरा फिर वही बात कहे। लेकिन बिलरा भय खाकर सिर झुकाये रहा। तब भाभी ने ही टोका, ‘‘क्यों रे, तुझे कोई हत्या लगी है क्या, जो इस तरह चुप बना रहता है!’’
सिर झुकाये ही बिलरा ने कहा, ‘‘सच ही, छोटी मालकिन, क्या मेरे मुँह से उस दिन ऐसी कोई बात निकल गयी थी...’’
‘‘अरे, वह तो मैं भूल गयी। नाहक तू...’’
‘‘छोटी मालकिन, मैं मन की बात न रोक सका, कह डाली। मेरे कहने से तुमको कष्ट हुआ। मुझे माफ कर दो। छोटी मालकिन, हम लोगों के दिल में कोई गाँठ नहीं होती। तुम लोग तो मन में कुछ और रखते हो, मुँह से कुछ और कहते हो। मुझे तो ताज्जुब होता है कि बड़े मालिक और मालकिन आँखों से तुम्हारा यह रूप कैसे देखते हैं! मेरा तो कलेजा फटता है! इसी उम्र से तुम साधुनी बनकर कैसे रह सकती हो? इसलिए मन में उठा कि कहीं छोटे मालिक के साथ तुम्हारा...’’
भाभी का मन गद्गद हो गया। आँखें मुँद सी गयीं। लेकिन दूसरे ही क्षण जैसे किसी ने खींचकर एक थप्पड़ जमा दिया हो। वह बोली, ‘‘ऐसी बात न कहा कर बिलरा।’’ और अन्दर भाग गयी।
बिलरा कुछ क्षण वहीं खड़ा रहा। फिर होंठों पर एक करुण मुस्कान लिये नाँद की ओर चल पड़ा। सोच रहा था कि उस दिन का गरम लोहा आज कुछ ठण्डा पड़ा गया है। आज डाँट नहीं खानी पड़ी। सच, अगर ऐसा हो जाता तो कितना अच्छा होता! बेचारी की ज़िन्दगी सुख से कट जाती। छोटे मालिक ब्याह न कर सकें, तो उसे रख तो सकते ही हैं। कितने ही उनकी बिरादरी के ऐसा करते हैं। सुनने में तो आता है कि इनके परदादा भी एक चमारिन को रखे हुए थे। फिर यह तो उनकी भाभी ही हैं। थोड़े दिन हो-हल्ला होगा, फिर सब आप ही शान्त हो जाएगा। कसाइयों के हाथ पड़ी एक गऊ की जान तो बच जाएगी। कितना पुण्य होगा!
महीने-दो महीने में रात-बिरात मटरू सर-समाचार लेने ज़रूर आ जाता। अब वह मट्ठा भी फूँककर पीता था। दुश्मनों को भूलकर भी अब वह ऐसा कोई मौका देने को तैयार न था कि पहले ही की तरह फिर पकड़ में आ जाए। वह दीयर कभी नहीं छोड़ता। जानता था कि इस प्रकृति के किले में कोई उस पर हमला करने की हिम्मत न करेगा। अब वह पहले की तरह अकेला भी न था। उसकी झोंपड़ी के पास दर्जनों झोंपडिय़ाँ बस गयी थीं। पचासों किसान नौजवान अपनी लाठियों के साथ उनमें रहते थे। कई अखाड़े भी खुल गये थे। सबकी बैल-भैंसें भी वहीं रहती। मटरू जब छूटकर आया था, तो रब्बी की फसल कट चुकी थी। सबका ख़याल था कि दीयर में सिर्फ रब्बी की ही फसल बोयी जा सकती है। फिर तो बरसात शुरू हो जाती है और चारों ओर पानी ही पानी नजर आता है। लेकिन मटरू खाली बैठना न चाहता था, उसने तय किया कि अब ऊख बोयी जाए। सबने ना-ना किया। लेकिन मटरू न माना। उसने कहा कि गंगा मैया की कृपा होगी तो ऊख भी होगी। ऊँची, अच्छी मिट्टी की ज़मीन देखकर उसने ऊख बो दी। उसकी देखा-देखी औरों ने भी हिम्मत की कि एक का जो हाल होगा, सबका होगा। जाएगा तो बीया और कहीं आ गया तो गुड़ रखने की जगह न मिलेगी।
दीयर गुलज़ार हो गया। झोंपडिय़ाँ बस गयीं। चूल्हे जलने लगे। भैंसें रँभाने लगीं। अखाड़े जम गये। बिना किसी विशेष मेहनत के ऊख ऐसी आयी कि देखने वालों को ताज्जुब होता। तर, चिकनी मिट्टी का मुकाबिला बाँगर की मिट्टी क्या करती? वहाँ चार-चार हाथ की भी ऊख हो जाए, तो बहुत, वह भी बड़ी मशक्कत के बाद। और जब यहाँ ऊखों ने सिर उठाया तो ऐसा लगा कि हाथी डूब जाए, बस, अब डर था गंगा मैया का। बरसात सिर पर चढ़ आयी थी। नदी बढऩे लगी थी। सबकी धुकधुकी उसी ओर लगी थी। सब कहते, ‘‘गंगा मैया! किरिपा कर दो, तो ऊख काटे न कटे!’’ सब यही बिनती करते कि गंगा मैया इस साल धार पलट दें।
कुछ ऐसी होनहार कि सच ही नदी की मुख्य धारा अबकी उस पार बन गयी। पानी इधर भी खूब फैला, लेकिन दस-पन्द्रह दिन में ऊखों की जड़ों में और भी मिट्टी छोडक़र चला गया। किसानों की खुशी का ठिकाना न रहा। मटरू की शाबाशी होने लगी। उसने कहा, ‘‘यह सब गंगा मैया की किरिपा है!’’
ज़मींदारों ने सीधे तौर पर छेडऩे की कोशिश न की थी। अब मटरू अकेला न रह गया था। सुनने में बस यही आया कि उन्होंने सदर में दरख़्वास्त दी है कि किसानों ने उनकी ज़मीन पर कब्जा कर लिया है, सरकार पड़ताल कराए और बािगयों को दण्ड दे। वरना बलवा होने का अन्देशा है।
फिर क्या हुआ कुछ पता न चला। सरकार का दरबार बहुत दूर है, जाते-जाते पुकार पहुँचेगी, होते-होते सुनवाई होगी। तब तक क्या दीयर में कोई निशान बाकी रह जाएगा? और फिर कुछ होगा, तो देखा जाएगा। पटवारी के नक्शे में तो बस दीयर लिखा है, कागज-पत्तर में भी दीयर किसी के नाम नहीं है। कोई मेंड़-डाँड़ तो बन नहीं सकती, यहाँ बनायी भी जाए, तो क्या गंगा मैया रहने देंगी? सरकार क्या खाक पड़ताल करेगी!
बरसात में मटरू और उसके साथी काफी होशियारी से रहे। एक तरह से अब उनका एक दल बन गया था। आस-पास के गाँवों के किसान उनके भाई-बन्द थे। हर बात की खोज-ख़बर लेते रहते और मटरू के कान में पहुँचाया करते। अब मटरू पर जान देने वाले सैकड़ों थे। यों भी मटरू को पकड़ ले जाना आसान न था।
मटरू रात में ही अपने दस-पाँच साथियों के साथ गोपी के घर जाता और रात रहते ही चला आता। सब उसका सत्कार बड़ी उमंग से करते। बूढ़े-बूढ़ी पूछते ‘‘गोपी की शादी की कहीं बात चलायी?’’
मटरू कहता, ‘‘अरे, हमें चलाने की क्या जरूरत? दर्जनों यों ही मुँह बाये बैठे हैं। उसे आ तो जाने दो। फिर एक महीने के अन्दर ही शादी लो। वह बहू ला दूँगा कि गाँव देखेगा!’’
मटरू गोपी को बराबर चिट्ठी देता। लेकिन उसने गोपी को उसकी औरत के बारे में कुछ न लिखा था। क्यों खामखाह के लिए दुख का समाचार लिखे? न जाने उसके चले आने के बाद गोपी की कैसे कटती है। कई बार सोचा कि मिल आये। लेकिन फुरसत कहाँ? फिर गंगा मैया को वह कैसे छोड़े, अपने किसान भाइयों को कैसे छोड़े? उसी के दम से तो सब दम है। कहीं उसकी गैरहाज़िरी में ज़मींदार कुछ कर बैठें, तो?
अन्दर खाने जाता, तो भाभी के बनाये खयका की प्रशंसा करके कहता, ‘‘तभी तो गोपी लट्टू है! मंन भी कहूँ, क्या बात है? इतना बढिय़ा खयका जो एक बार खा लेगा, वह क्या गोपी की भौजी को कभी भूल सकता है?’’
सास भी अब कहती, ‘‘ये दोनों बहनें बड़ी गुनवती थीं, बेटा! करम को क्या कहूँ?’’
भाभी सुनती और मन-ही-मन न जाने क्या गुनती। एक बार तो मौका निकालकर उसने अपने को मटरू को दिखा दिया था। मटरू खुद भी उसे देखने को उत्सुक था। वह देखकर जैसे छाती पर एक घूँसा खा गया था। उसने कब सोचा था कि गोपी की भौजी अभी ऐसी जवान है, ऐसा बिजली-सा उसका रूप! तभी से उसका दिल भाभी के प्रति सहानुभूति से भर गया था। कभी-कभी बड़ी मीठी-मीठी बातें वह यही सहानुभूति दरशाने के लिए माँ से भाभी के बारे में कह देता। भाभी निहाल हो उठती।
मटरू को चिन्ता लग गयी। गोपी की भौजी-सी सुन्दर बहू गोपी के लिए कहाँ से खोजकर लाएगा? उसने तो आज तक ऐसी औरत कहीं न देखी। गोपी उस पर जान देता है, तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं। ऐसी औरत पर कौन जान न देगा? इसी तरह इसकी बहन भी तो होगी। फिर दूसरी से उसका मन कैसे भरेगा?
और मटरू के मन में बिलरा की ही तरह बात उठ खड़ी हुई। सदा दीयर में स्वच्छन्द रहने वाले मटरू के मन पर बिरादरी के रीति-रिवाज का उतना संस्कार न चढ़ा था। उसने स्वच्छन्दता से ही जीवन बिताया था। जब जो मन में उठा, वैसे ही किया था। कभी कोई बन्धन न माना था। वह तो बस इतना ही जानता था कि आदमी के पास बल और बहादुरी होनी चाहिए। फिर कौन रोक सकता है उसे कुछ करने से? उसने तो यह भी तय कर लिया था कि अगर गोपी तैयार हो गया, तो वह यह करके ही दम लेगा। बहुत होगा, गोपी को अपना घर छोड़ देना पड़ेगा। तो उसके दीयर में एक झोंपड़ी और बस जाएगी। उसी की तरह वे भी रहे-सहेंगे। चिरई की जान तो बच जाएगी!
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