गंगा मैया-9 / भैरवप्रसाद गुप्त

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नौ

तिरवाही के किसानों में प्राकृतिक रूप से स्वच्छन्दता और साहसिकता होती है। खुले हुए कोसों फैले मैदान, झाऊँ और सरकण्डे के जंगल और नदी से उनका लडक़पन में ही सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। निडर होकर जंगलों में गाय-भैंस चराने, घास-लकड़ी काटने, नदी में नहाने, नाव चलाने, अखाड़े में लडऩे, भैंस का दूध पीने से ही उनकी ज़िन्दगी शुरू होती है और इन्हीं के बीच बीत भी जाती है। प्रकृति की गोद में खेलने, साफ हवा में साँस लेने, निर्मल जल पीने, दूध-दही की इफरात और कसरत के शौक के कारण सभी हट्टे-कट्टे, मज़बूत और स्वभाव के अक्खड़ होते हैं। असीम जंगलों और मैदानों का फैलाव इनके दिल-दिमाग में भी जैसे स्वच्छन्दता और स्वतन्त्रता का अबाध भाव बचपन में ही भर देता है। फिर जमींदार की बस्ती वहाँ से कहीं दूर होती है। वहाँ से वे इन पर वह ज़ोर-ज़बरदस्ती, जुल्म-ज्य़ादती की चाँड़ नहीं चढ़ा पाते, जो आस-पास के किसानों को गुलाम बना देती है। बल्कि इसके विरुद्घ ज़मींदार वहाँ के असामियों से मन-ही-मन डरते हैं। उनकी ताकत, उनके वातावरण उनके अक्खड़पन और मर-मिटने की साहसिकता के आगे, ज़मींदार जानते हैं कि उनका कोई बस नहीं चल सकता। इसी से भरसक वे उनके साथ समझौते से रहते हैं, कहीं कोई ज्य़ादती भी कर जाते हैं, लगान नहीं देते, या आधा-पौना देते हैं, तो भी नज़रन्दाज कर जाते हैं, उनसे भिडऩे की हिम्मत नहीं करते। पुलिस भी सीधे उनके मुकाबिले में खड़े होने से कतराती है। बहुत हुआ, वह भी जब किसी ज़मींदार ने ज़रूरत से ज्य़ादा उनकी मुट्ठी गरम कर दी तो पुलिस ने लुक-छिपकर धोखे-धड़ी से एकाध को पकडक़र अपने अस्तित्व का बोध करा दिया। इससे अधिक नहीं।

वे जितने स्वच्छन्द, स्वतन्त्र और ताकतवर होते हैं, उतने ही वज्र मूर्ख भी। बात-बात में लाठी उठा लेना, खून-खच्चर कर देना, एक-दूसरे से लड़ जाना, फसल काट लेना, खलिहान में आग लगा देना या किसी को लूट लेना आये दिन की बातें होती हैं। दिमाग लगाकर, सोच-विचारकर वे कोई मामला तय करना जानते ही नहीं! वे समझते हैं कि हर मजऱ् की दवा लाठी है, बल है। जिधर आगे-आगे कोई भागा, सब उसके पीछे लग जाते हैं। जिनके मुँह से पहली बात निकल गयी, सब उसी को ले उड़ते हैं। कोई तर्क, कोई बहस, कोई बातचीत, कोई सर-समझौता वे नहीं जानते। बात पर अडऩा और जान देकर उसे निबाहना वे जानते हैं। उनके यहाँ अगर किसी बात की कद्र है तो वह है बल की, साहस की, मर मिटने के भाव की। उनका नेता वही हो सकता है, जो सबसे ज्य़ादा बली हो, दंगल मारा हो, मोर्चे पर आगे-आगे लाठियाँ चलायी हों, भरी नदी को पार कर गया हो, घडिय़ालों को पछाड़ दिया हो, किसी बड़े ज़मींदार से भिड़ गया हो, उसे थप्पड़ मार दिया हो, या सरेआम गाली देकर उसकी इज्ज़त उतार ली हो।

इनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी खेत और बैल-भैंस हैं। ख्ात पर ये जान देते हैं। किसी भी मूल्य पर खेत लेने के लिए तैयार रहते हैं। इनकी इस कमज़ोरी से ज़मींदार अक्सर फायदा उठाते हैं, उन्हें बेवकूफ बनाते हैं। एक बैल या भैंस खरीदनी हुई तो झुण्ड बनाकर, सत्तू-पिसान बाँधकर निकलेंगे। मोल-भाव होगा उसी अक्खड़पन के साथ। जो दाम वे मुनासिब समझेंगे, उसके अलावा कोई और दाम मुनासिब हो ही कैसे सकता है? वे अड़ जाएँगे, धरना दे देंगे, धमकाएँगे, लाठियाँ चमकाएँगे। बेचनेवाला मान गया, तो ठीक। वरना रात-बिरात वे उसे खूँटे से खोलकर तिड़ी कर देंगे और दीयर के जंगल में उसे कहीं छिपाकर अपनी बहादुरी का बखान सुनेंगे और करेंगे। वहाँ यह काम किसी भी दृष्टि से ख़राब नहीं समझा जाता।

मटरू ने जब उन्हें दीयर के खेतों के बारे में समझाया था, तो चूँकि यह एक पहलवान, बहादुर, निडर और ‘‘गंगा मैया’’ के भक्त की बात थी, वे मौन हो गये थे। फिर मटरू के जेल चले जाने के बाद ज़मींदारों की दूसरी बातें उनकी समझ में कैसी आती? यहाँ तक कि ज़मींदारों ने उन्हें लालच दिया कि वे जहाँ चाहें, खेती करें और कुछ न दें। फिर भी वे नकर गये। सबकी अब एक ही रट थी कि मटरू पहलवान जब लौटकर आएगा, वह जैसा कहेगा वैसा ही होगा। उसके आने के पहले कुछ नहीं।

पूजन ने भी चाहा था कि मटरू का काम जारी रखे। लेकिन मटरू की तरह उसमें हिम्मत और ताकत न थी कि वह अकेले झोंपड़ी खड़ी कर नदी के तीर पर जंगलों के बीच, ज़मींदारों से दुश्मनी बेसहकर रहे और खेती करे। इसलिए उसने कोशिश की दस-बीस किसान और उसके साथ तीर पर रहने, खेती करने के लिए तैयार हो जाएँ। लेकिन मटरू के नाम पर ही तैयार न हुए थे। जैसे एक सियार बोलता है, तो सब सियार उसकी ही धुन में बोलने लगते हैं, उसी तरह मटरू के आने के पहले इस दिशा में वे कोई कदम उठाने के लिए तैयार न थे।

मजबूर होकर, अपना दबदबा कायम रखने के लिए तब ज़मींदारों ने खुद वहीं अपनी खेती का सिलसिला कायम किया था। यह काम कुछ-कुछ बाघ के मुँह में हाथ डालने के ही बराबर था। साधारणत: वे ऐसा कभी न करते। लेकिन अब परिस्थिति ही ऐसी आ पड़ी थी। वे कुछ न करते तो यह अन्देशा था कि दीयर में उनके दब जाने की बात उठ जाती और किरकिरी हो जाती। फिर सारा खेल चौपट हो जाता। सब किये-धरे पर पानी फिर जाता। सो, उन्होंने वहाँ अपनी झोंपड़ी खड़ी करवायी। अपने आदमी और हल भिजवाकर जोतवाया-बोवाया और तनखाह पर कुछ मजबूत आदमियों को रखवाली के लिए वहाँ रखा। फिर भी वे जानते थे कि जब तक तिरवाही के किसानों से उनका व्यवहार ठीक न रहेगा, तब तक कुछ बचना मुश्किल है। उन्होंने पहले भी कोशिश की थी कि कम-से-कम रखवाली का जिम्मा वहाँ का ही कोई आदमी ले ले, लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ था। इस तरह ज़मींदारों को काफी खर्च करना पड़ा। यहाँ तक कि अगर फसल कटकर सही-सलामत घर आ जाए, तो भी उसका दाम खर्च से कम ही हो। फिर भी उन्होंने वैसा ही किया। दबदबा कायम रखना ज़रूरी था। दबदबा न रहा तो ज़मींदारी कैसे रह सकती है?

फसल उगी, बढ़ी और देखते-देखते ही छाती-भर खड़ी हो लहरा उठी। तिरवाही के किसानों ने देखा, तो उनकी छातियों पर साँप लोट गये। उन्हें ऐसा लगा, जैसे किसी ने उनके अपने खेत पर ही कब्जा करके यह फसल बोयी हो, जैसे उनके घर से ही कोई अनाज की बोरियाँ उठाये ले जा रहा हो; और वे विवश होकर बस देखते ही जा रहे हों।

ऐसे मौके का फायदा पूजन ने उठाया। मटरू के साथ सम्बन्ध होने के कारण उसका मान आख़िर कुछ किसानों में हो ही गया था। उसने चुपके-चुपके किसानों में बात छेड़ दी, ‘‘बाहर के आदमी हमारी आँखों के ही सामने हमारी गंगा मैया की धरती से फसल काट ले जाएँ! डूब मरने की जगह है! और याद रखो, अगर एक बार भी फसल कटकर ज़मींदारों के घर पहुँच गयी, तो उनका दिमाग चढ़ जाएगा! मटरू पाहुन के आने में अभी सालों की देर है। तब तक यह सारी धरती उनके कब्जे में ही चली जाएगी। आदमी के खून का चस्का लग जाने पर घडिय़ाल की जो हालत होती है, वही ज़मींदारों की होगी। तुम लोग तब मटरू-मटरू की रट लगाते रहोगे और कुछ न होगा। वैसे मौके पर मटरू ही आकर क्या कर लेंगे? जरा तुम लोग भी तो सोचो। तुम इतना तो कर सकते हो कि फसल ज़मींदारों के घर में न जाने पाए।’’

यह किसानों के मन की बात थी। पूजन की बात उनके मन में उतर गयी। कई जवानों ने पूजन का साथ देने का वाद किया। सब तैयारियाँ हो गयीं। और जब फसल तैयार हुई, तो एक रात कटकर, नावों पर लदकर पार पहुँच गयी। रखवाले दुम दबाकर भाग खड़े हुए। जान देने की बेवकूफी वे ज़मींदारों के लिए क्यों करते?

दूसरे दिन एक शोर उठा। एकाध लाल-पगड़ी भी मुखिया के यहाँ दिखाई दी और फिर सब-कुछ शान्त हो गया। कहीं से कोई सुराग कैसे मिलता? सब किसानों की छाती ठण्डी हुई थी। कह दिया कि काटने वाले, हो-न-हो पार से आये होंगे। नदी किनारे कई जगह डाँठ पड़े हुए मिले हैं। रात-ही-रात लाद-लूदकर चम्पत हो गये। उनको तो ख़बर तक न लगी। लगी होती, तो एकाध लाठी तो बज ही जाती।

जवानों का मन बढ़ गया। झाऊँ और सरकण्डों के जंगलों पर भी उन्होंने रात-बिरात हाथ साफ करना शुरू कर दिया और कहीं-कहीं तो महज दिल की जलन शान्त करने के लिए आग भी लगा दी।

ज़मींदार सुनते और ऐंठकर रह जाते। बेबसी से तो उनका कभी पाला ही न पड़ा था। एक बार पुलिस की मुट्ठी गरम करने का जो आख़िरी नतीजा हुआ था, उन्होंने देख लिया था। अब फिर उसे दुहराकर कोई फायदा कैसे देखते?

अब पूजन का मान वहाँ बढ़ गया। लेकिन पूजन भी इससे ज्यादा कुछ न कर सका। ज़मींदार भी चुप्पी साध गये। उन्होंने सोचा कि छेडऩे से कोई फायदा नहीं होने का। अगर वे शान्त रहे तो सम्भव है कि किसान भी शान्त हो जाएँ और फिर पहले ही जैसे हालत सुधर जाए। उनकी ओर से कोई पहल-कदमी न देखकर किसान भी उदासीन हो मटरू का इन्तज़ार करने लगे। वही आए तो आगे कुछ किया जाए। यों उस साल के बाद वहाँ कोई उल्लेखनीय घटना न घटी।

गोपी के घर मटरू का वह समय बड़ी बेकली से कटा। स्टेशन पर मटरू की गाड़ी तीसरे पहर पहुँची थी। वहाँ से उसका दीयर दस कोस पर था। एक छन भी रास्ते में वह न कहीं रुका, न सुस्ताया। भूत की तरह चलता रहा। गंगा मैया की लहरें उसे उसी तरह अपनी ओर खींच रही थीं जैसे कई सालों से बिछुड़े परदेशी को उसकी प्रियतमा। वह भागम-भाग जल्दी-से-जल्दी गंगा मैया की गोद में पहुँच जाना चाहता था। ओह, कितने दिन हो गये! वह हवा, वह पानी, वह मिट्टी, वह गंगा मैया काश, उसके पंख होते!

रास्ते में ही गोपी का घर पड़ता था। सोचा था कि पाँच छन में सर-समाचार ले देकर, वह फिर भाग खड़ा होगा और घड़ी-दो-घड़ी रात बीतते गंगा मैया का कछार पकड़ लेगा। लेकिन गोपी के घर ऐसी स्थिति से उसका पाला पड़ गया कि उसे रुक जाना पड़ा। उन दुखी प्राणियों को छोडक़र भाग खड़ा होना कोई आसान काम न था। मन छन-छन कचोट रहा था, लेकिन न रुक सकने की बात उसके मुँह से न निकली। उनके आदर-सत्कार को इनकार कर, उनके दुखी दिलों को चोट पहुँचाए ऐसा दिल मटरू के पास कहाँ था?

खा-पीकर गोपी की माँ और बाप के साथ बड़ी रात गये तक बातचीत चलती रही। आख़िर जब वे थक गये, माँ सोने चली गयी और बूढ़े खर्राटे लेने लगे, तो मटरू ने सोने की कोशिश की। मगर नींद कहाँ? दिल-दिमाग उसी दीयर में भटकने लगे। वह नदी, वह जंगल, वह हवा-मिट्टी जैसे सब वहाँ बाँह फैलाये खड़े मटरू को गोद में भर लेने को तड़प रहे हैं और मटरू है कि इतने नजदीक आकर भी सबको भुलाकर यहाँ पड़ा हुआ है। ‘‘आओ, आओ! दौडक़र चले आओ बेटा! कितने दिनों से हम तुमसे बिछुडक़र तड़प रहे हैं! आओ, जल्द आकर हमारे कलेजे से चिपक जाओ! आओ! आओ!’’ और इस ‘‘ओ’’ की पुकार इतनी ऊँची और लम्बी होकर मटरू के कानों से गूँज उठी कि उसका रोम-रोम तड़प उठा। वह व्याकुल होकर उठ बैठा। आँखें फाडक़र चारों ओर से ऐसा देखा कि कहीं यह पुकार पास से ही तो नहीं आयी है, कहीं यह जानकर कि मटरू पास आकर यों पड़ा हुआ है, गंगा मैया खुद ही तो नहीं चली आयीं?

मटरू उठ खड़ा हुआ और ऐसे भाग चला, जैसे उसे डर हो कि फिर कहीं कोई उसे पकडक़र न बैठा ले। चारों ओर घना सन्नाटा और अन्धकार छाया था। कहीं कुछ सूझ न रहा था। फिर भी मटरू के पैरों को यह अच्छी तरह मालूम था कि उसकी गंगा मैया तक पहुँचने की दिशा कौन-सी है। फिर उन फौलादी पैरों के लिए रास्ता बना लेना क्या मुश्किल बात थी?

कटे हुए खेतों से सीधा मटरू बेतहाशा भागा जा रहा था? एक क्षण की देर भी अब उसे सह्य न थी। पैरों में खुरकुची गड़ रही है, कहीं कुछ दिखाई नहीं देता, होश-हवाश ठिकाने नहीं है। फिर भी वह भागा जा रहा है। आँखों के सामने बस गंगा मैया की धारा चमक रही है, मन बस एक ही बात की रट लगाये हुए है-आ गया, माँ, आ गया!

नींद से भरी धरती गरम-गरम साँस ले रही है। अन्धकार की सेज पर हवा सो गयी है। गर्मी से परेशान रात जैसे रह-रहकर जम्हुआई ले रही है। उमस-भरा-सन्नाटा ऊँघ रहा है- और आत्मा में मिलन की तड़प लिये मटरू भागा जा रहा है। पसीने के धार शरीर से बह रहे हैं। भीगी आँखों के सामने अन्धकार में गंगा मैया की लहरें बाँह फैलाये उसे अपने गोद में समा लेने को बढ़ी आ रही हैं। ऊपर से तारे पलकें झपकाते यह देख रहे हैं। लेकिन मटरू गंगा मैया के सिवा कुछ नहीं देख रहा है। उसके कानों में माँ की पुकार गूँज रही है। उसके प्राण जल्द-से-जल्द माँ की गोद तक पहुँच जाने को तड़प रहे हैं। वह भागा जा रहा है, भागा जा रहा है...

यह दीयर की हवा की खुशबू है। यह दीयर की मिट्टी की खुशबू है। यह गंगा मैया के आँचल की खुशबू है। मटरू के प्राण उन्मत्त हो उठे। रोम-रोम उत्फुल्ल हो कण्टकित हो गये। उसके पैरों में बिजली भर गयी। वह आँधी की तरह पुकारता दौड़ा, ‘‘माँ! माँ!’’ लहरों की प्रतिध्वनि हुई, ‘‘बेटा! बेटा!’’

दिशाओं ने प्रतिध्वनि की, ‘‘बेटा! बेटा!’’

धरती पुकार उठी, ‘‘बेटा! बेटा!’’

आकाश और धरती जैसे करोड़ों विह्वल माँओं और बेटों की पुकारों से गूँज उठे, जैसे दसों दिशाएँ पुकारती हुई दौडक़र मटरू के गले से लिपट गयीं। मटरू एक भूखे बच्चे की तरह छछाकर, गंगा मैया की गोद में कूद पड़ा। गंगा मैया ने बेटे को अपनी गोद में ऐसे कस लिया, जैसे अपने तन-मन-प्राण में ही उसे समोकर दम लेगी। यह कल-कल के स्वर नहीं, माँ की पुचकारों और चुम्बनों के शब्द हैं। दिशाएँ झूम रही हैं। हवा गुनगुना रही है। मिट्टी खिलखिला रही है-‘‘आ गया! हमारा बेटा आ गया! हमारा लाडला आ गया!’’