गंगा मैया-8 / भैरवप्रसाद गुप्त

Gadya Kosh से
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आठ

दो बरस बीतते-बीतते गोपी के यहाँ मेहमानों का आना-जाना शुरू हो गया। गोपी अभी जेल में है, उसके छूटने के करीब दो साल की देर है, यह जानकर भी वे मेहमान न मानते। वे सत्याग्रहियों की तरह धरना डाल देते। अपाहिज बाप से वे विनती करते कि तिलक ले लें। गोपी के छूटकर आने पर शादी हो जाएगी।

वे दिन माँ की खुशी के होते। उसकी आँखों में चमक और चेहरे पर खुशी की आभा छा जाती। वह दौड़-धूपकर मेहमानों के खातिर-तवाजे का इन्तज़ाम करती। बहू को आदेश देती, यह कर, वह कर। लेकिन भाभी के ये दिन बड़ी अन्यमनस्कता के होते। एक झुँझलाहट के साथ वह काम करती। चेहरा एक गुस्से से तमतमाया रहता। आँखों से चिनगियाँ छूटा करतीं। सास से कभी सीधे मुँह बात न करती। बरतन-भाँड़े को इधर-उधर पटक देती। कभी-कभी दबी जबान से यह भी कहती, ‘‘अभी जल्दी क्या है? उसे छूट तो आने दो।’’ तब सास फटकार देती, ‘‘उसके आने-न-आने से क्या होता है? शादी तो करनी ही है। ठीक हो जाएगी, तो होती रहेगी। बूढ़े की ज़िन्दगी का क्या ठिकाना है! उनके रहते ठीक तो हो जाए।’’

भाभी सुनती तो उसके दिल-दिमाग में एक हैवान-सा उठ खड़ा होता। सारा शरीर जैसे एक विवश क्रोध से फुँक उठता। आते-जाते पैर ज़मीन पर पटकती, मानों सारी दुनिया को चूर-चूर कर देगी। होंठ बिचक जाते, नथुने फूल उठते और जाने पागलों-सी क्या-क्या भुनभुनाती रहती।

सास यह सब देखती, तो भुन्नास होकर कहती, ‘‘तेरे ये सब लच्छन अच्छे नहीं है! मुझे दिमाग दिखाती है! जो भगवान के घर से लेकर आयी थी, वही तो सामने पड़ा है। चाहे रोकर भोग, चाहे हँसकर, इससे निस्तार नहीं! भले से रहेगी, तो दो रोटी मिलती रहेगी। नहीं तो किसी घाट की न रहेगी, सब तेरे मुँह पर थूकेंगे!’’

‘‘थूकेंगे क्या?’’ भाभी जल-भुनकर कह उठती, ‘‘बाप-भाई मर गये हैं क्या? उनके कहने से न गयी, उसी का तो यह नतीजा भुगत रही हूँ! जहाँ जाँगर तोड़ूँगी वहीं दो रोटी मिलेगी! रोएँ वे, जिनके जाँगर टूट गये हों।’’

अपने और अपने मर्द पर फब्ती सुनकर सास जल-भुनकर कोयला होकर चीख पड़ती, ‘‘अच्छा! तो चार दिन से जो तू कुछ करने-धरने लगी है, उसी से तेरा दिमाग इतना चढ़ गया है? तू क्या समझती है मुझे? किसी के हाथ का पानी पीने वाले कोई और होंगे! मुझसे तू बढ़-चढ़ के बातें न कर! मेरे हाथ अभी टूट नहीं गये हैं! तू जो भाई-बाप पर इतरायी रहती है, तो वहाँ जाकर भी देख ले! करमजलियों को कहीं ठिकाना नहीं मिलता! अभी तुझे क्या मालूम है? आटे-दाल का भाव मालूम होगा, तब समझेगी कि कोई क्या कहती थी! मैं इस बूढ़े के रोग से मजबूर हूँ, नहीं तो देखती कि तू कैसे एक बात जबान से निकाल लेती है!’’

इस रगड़े का आख़िरी नतीजा यह होता कि या तो भाभी अपने करम को कोस-कोसकर रोने लगती या सास। बूढ़े सुनते, तो बड़बड़ाने लगते, ‘‘हे भगवान इस शरीर को उठा लो! रोज-रोज की यह कलह नहीं सही जाती।’’

मोहल्लेवालों को इस घर से अब कोई दिलचस्पी न रह गयी थी। रोज-रोज की बात हो गयी थी। कोई कहाँ तक खोज-ख़बर ले? हाँ, औरतों को ज़रूर कुछ दिलचस्पी थी। रोना सुनकर कोई आ जाती, तो भाभी को समझाती-बुझाती, ‘‘अब तुम्हें गम खाकर रहना चाहिए। कौन सास दो बातें बहू को नहीं कहती? सास-ससुर की सेवा ही करके तो तुम्हें ज़िन्दगी काटनी है। इनसे कलह बेसहकर तुम कहाँ जाओगी? भाई-बाप जन्म के ही साथी होते हैं, करम के साथी नहीं। करम फूटने पर अपने भी पराये हो जाते हैं।’’ सास सुनती तो बड़ी निरीह बनकर कहती, ‘‘कोई पूछे तो इससे कि मैंने क्या कहा है? तुम, सब तो जानती ही हो कि भला मैं कुछ बोलती हूँ। एक जवान बेटा उठ गया, दूसरा जेल में पड़ा है, वह हैं तो सालों से चारपाई तोड़ रहे हैं। मुझे क्या किसी बात का होश है? अरे, वह तो पापी प्राण हैं, कि निकलते नहीं। करम में साँसत सहनी लिखी है, तो सुख से कैसे मर जाऊँ?’’ सास कहने को तो सब-कुछ भाभी से कह जाती, लेकिन वह जानती थी कि कहीं वह सचमुच अपने बाप के यहाँ चली गयी, तो मुश्किल हो जाएगी। कौन सँभालेगा घर-द्वार? उसका तो हाथ-पाँव हिलना मुश्किल था। सो, बात को सँवारने की गरज से कहती, ‘‘कौन गल्ला काम है? तीन प्राणी की रसोई बनाना, खाना और खिलाना। यही तो! उस पर भी मुझसे जो बन पड़ता है, कर ही देती हूँ। अब कोई मुझसे पूछे कि इतना भी न होगा, तो क्या होगा? कोई राजा-महाराजा तो हम हैं नहीं कि बैठकर खाएँ और खिलाएँ। ऐसा करने से भला हमा-सुमा का गुज़र होगा?’’

‘‘नहीं, बहू, नहीं, तुझे समझना चाहिए कि सास जो कहती है, तेरे भले ही के लिए कहती है। जाँगर चुराने की आदत तुझे नहीं डालनी चाहिए। बर-बेवा का मान काम से ही होता है, चाम से नहीं।’’ वह औरत कहती, ‘‘भगवान न करे, कहीं ऐसा वक़्त आ पड़े, तो कहीं कूट-पीसकर उमर तो काट लेगी।’’

भाभी के कानों में ये बातें गरम सीसे की तरह सारा तन-मन जलाती चली जातीं। लेकिन वह कुछ न बोलती। गैर के सामने मुँह खोले, ऐसा दुस्साहस उसमें न था। वह चुपचाप बस बुलके चुआती रहती और उसाँसें भरा करती। वह भी कहने को बाप के घर चली जाने की धमकी जरूर दे देती थी, लेकिन सच तो यह था कि वह कहीं भी जाना न चाहती थी। उसके मन में जाने कैसे एक आशा बैठ गयी थी कि देवर के आने पर शायद कुछ हो।

यह सास-भाभी की अपनी-अपनी गरजमन्दी ही थी कि लड़-झगडक़र भी वे फिर मिल-जुल जातीं। झगड़े के दिन कभी सास रूठकर खाना न खाती, तो उसे भाभी मना लेती और भाभी न खाती तो उसे सास मना लेती।

ससुर को अपनी खिदमत चाहिए थी। उन्हें वह मिल जाया करती थी। भाभी अपनी सेवा से उन्हें खुश रखना चाहती थी। बूढ़े उससे खुश भी रहते थे, क्योंकि वैसी सेवा उनकी औरत से सम्भव न थी। वह भाभी का पक्ष भी गाहे-बे-गाहे ले लेते थे। वह गोपी के लिए आने वाले रिश्तों के बारे में भी उससे बातें करते थे और राय माँगते थे। ऐसे अवसर पर वह बड़े ढंग से कह देती, ‘‘रिश्ता तो बुरा नहीं, लेकिन आदमी बराबर का नहीं है। लोग कहेंगे कि पहली शादी अच्छी जगह की और दूसरी बार कहाँ जा गिरे।’’

बूढ़े एक गर्व का अनुभव करके कहते, ‘‘सो तो तू ठीक ही कहती है, बहू। सौ जगह इनकार करने के बाद मैंने वह शादियाँ की थीं। क्या बताऊँ, सब गोटी ही बिगड़ गयी! घर उजड़ गया। एक दग़ा दे गया, दूसरा जेल में पड़ा करम कूट रहा है। मेरी राम-लछमन, सीता-उर्मिला की जोड़ी ही टूट गयी। मैं बेहाथ-पाँव का हो गया।’’ कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आते, ‘‘अब मेरा वह ज़माना न रहा। खेती-गृहस्थी सब बिखर गयी। कौन वैसा मान-प्रतिष्ठा का आदमी मेरे यहाँ रिश्ता लेकर आएगा, कौन उतना तिलक-दहेज देगा?’’

‘‘मन छोटा न करें, बाबूजी, अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। देवर आया नहीं कि सँभाल लेगा। सब-कुछ फिर पहले की तरह जम जाएगा। तब तो कितने आकर नाक रगड़ेंगे। आप जरा सब्र से काम लें, बाबूजी! अभी जल्दी भी काहे की है? वह पहले छूटकर तो आए।’’

‘‘हाँ बहू, यही सब सोचकर तो किसी को जबान नहीं देता, लेकिन तेरी सास है कि जान खाये जाती है। कहती है, दुहेजू हुआ, ज्यादा मीन-मेख निकालने से काम न चलेगा। उसे जाने काहे की जल्दी है, जैसे हम इतने गये-गुजरे हो गये हैं कि कोई रिश्ता जोडऩे ही हमारे यहाँ न आएगा। कुछ नहीं तो खानदान का मान तो अभी है। नहीं, मैं किसी ऐसी जगह न पड़ूँगा। उसके कहने से क्या होता है?’’ ससुर अकडक़र बोलते।

उन्हीं दिनों एक दिन शाम को एक अजनबी आदमी ने आकर गाँव की पश्चिमी सीमा के पोखरे के कच्चे चबूतरे पर बैठे हुए लोगों में से एक से पूछा, ‘‘गोपी सिंह का मकान किस ओर पड़ेगा।’’

गरमी की शाम थी। अँधेरा झुक आया था। आस-पास, घने बागों के होने के कारण वहाँ कुछ गहरा अन्धक़ार हो गया था। खलिहान से छूटकर किसान यहाँ आकर, नहा धोकर चबूतरे पर बैठ गये थे और दिन-भर का हाल-चाल सुन-सुना रहे थे। कइयों के तन पर भीगे कपड़े थे और कइयों ने अपने भीगे कपड़े पास ही सूखने को पसार दिये थे। कई तो अभी पोखरे में गोता ही लगा रहे थे। उनके खाँसने-खँखारने और ‘‘राम-राम’’ कहने और सीढिय़ों से पानी के हलकोरों के टकराने की आवाज़ें आ रही थीं। बागों से चिडिय़ों का कलरव उठ रहा था। हवा बन्द थी। लेकिन पोखरे की दाँती पर फिर भी कुछ तरी थी।

सवाल सुनकर सबकी निगाहें उठ गयीं। पोखरे में पड़े हुओं ने गरदनें बढ़ा-बढ़ाकर देखने की कोशिश की। एक ने तो पूछा कौन है, किसका मकान पूछ रहा है?

अजनबी महज़ एक लुंगी पहने है। शरीर मोटा-तगड़ा है। छाती पर काले घने बालों का साया छा रहा है। गले में काली तिलड़ी है। चेहरा बड़ी-बड़ी मूँछ-दाढ़ी से ढँका है। आँखों में ज़रूर कुछ रोब और गरूर है। सिर के बाल जटा की तरह गरदन तक लटके हुए हैं।

जिससे सवाल पूछा गया था, उसने गोपी के मकान का पता बताकर पूछा, ‘‘कहाँ से आना हुआ है?’’

‘‘काशीजी से आ रहा हूँ। वहाँ जेल में था।’’ अजनबी कहकर आगे बढऩे ही वाला था कि एक आदमी जैसे जल्दी में पूछ बैठा, ‘‘अरे भाई, सुना था कि गोपी भी काशीजी के ही जेल में है। वहाँ उससे तुम्हारी भेंट हुई थी क्या?’’

अजनबी ठिठक गया। बोला, ‘‘हम साथ-ही-साथ थे। उसी का समाचार बताने आया हूँ।’’

सुनकर सभी-के-सभी उठकर उसके चारों ओर खड़े हो गये। पोखरे के अन्दर से सभी भीगी देह लिये ही लपक आये। कइयों ने एक साथ ही उत्सुक होकर पूछा, ‘‘कहो, भैया, उसका समाचार? अच्छी तरह से तो है वह?’’

‘‘हाँ, मज़े में है। किसी बात की चिन्ता नहीं।’’ कहता हुआ अजनबी आगे बढ़ा, तो सभी उसके साथ हो लिये। जिनके कपड़े फैले हुए थे, उन्होंने उठा लिये। एक दौडक़र आगे समाचार देने चला गया।

‘‘उसकी छाती में चोट लगी थी, भैया, ठीक हो गयी न?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘और भी गाँव के कई आदमी उसके साथ जेल गये थे। कुछ उनका समाचार?

‘‘वे सब वहाँ नहीं हैं। शायद सेण्ट्रल जेल में होंगे।’’

‘‘तो तुम दोनों साथ ही रहते थे?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘तुम्हें क्यों जेल हुई थी, भैया? कहाँ के रहने वाले हो तुम?’’

‘‘जमींदारों से दीयर की ज़मीन को लेकर झगड़ा हुआ था। तुम लोगों को मालूम नहीं क्या? ढाई-तीन साल पहले की बात है। मटरू पहलवान को तुम नहीं जानते?’’

‘‘अरे, मटरू पहलवान?’’ सभी चकित हो बोल पड़े, ‘‘जय गंगाजी!’’

‘‘जय गंगाजी!’’

‘‘सब मालूम है भैया, सब! उसकी धमक तो कोसों पहुँची थी। तो तुम्हें सज़ा हो गयी थी। कितने साल की?’’

‘‘तीन साल की।’’

‘‘गोपी की सज़ा तो पाँच साल की थी न? कब तक छूटेगा? बेचारे की घर-गिरस्ती बरबाद हो गयी, जोरू भी मर गयी।’’

‘‘क्या?’’ चकित होकर मटरू बोल पड़ा।

‘‘तुम्हें नहीं मालूम? उसकी जोरू तो साल भीतर ही मर गयी थी। गोपी को किसी ने ख़बर नहीं दी क्या?’’

‘‘ख़बर होती तो क्या मुझसे न कहता? यह तो बड़ी बुरी ख़बर सुनायी तुमने।’’

‘‘कोई अपने अख्तियार की बात है, भैया? भाई मरा, जोरू मर गयी। बाप को गँठिया ने ऐसा पकड़ लिया है कि मालूम होता है कि दम के साथ ही छोड़ेगा। जवान बेवा अलग कलप रही है। क्या बताया जाए, भैया? गोटी बिगड़ती है, तो अकल काम नहीं करती। एक ज़माना उनका वह था, एक आज यह है! याद आता है, तो कलेजा कचोटने लगता है...इधर से आओ।’’

दूर से ही रोने-धोने की आवाज़ आने लगी। माँ-भाभी ख़बर पाते ही रोने लगी थीं। पुरानी बातों को बिसूर-बिसूरकर वे रो रही थीं। सुनकर मुहल्ले की जो औरतें इकट्ठी हुई थीं, उन्हें समझाकर चुप करा रही थीं। बाप किसी तरह उठकर दीवार का सहारा लेकर बैठ गये थे। उनका मन भी चुपके-चुपके रो रहा था।

किसी ने एक खटोला लाकर बूढ़े की चारपाई के पास डाल दिया, किसी ने दीया लाकर ताक पर रख दिया।

मटरू ने बूढ़े के पैर पकडक़र पा लागा। बूढ़े ने गद्गद होकर असीस दिये। फिर पूछा, ‘‘मेरा गोपी कैसा है?’’ और फफक-फफककर रो उठे।

कितने ही लोग वहाँ अपने प्यारे गोपी का समाचार सुनने के लिए आ इकट्ठा हो गये। मटरू जैसे गो-हत्या करके बैठा हो, ऐसा चुप भरा-भरा था। लोग भी आपस में कुछ-न-कुछ कहकर ठण्डी साँसें लेने लगे। कुछ बूढ़े को भी समझाने लगे, ‘‘तुम न रोओ, काका! तुम्हारी तबीयत तो ऐसे ही ख़राब है, और ख़राब हो जाएगी। बहुत दिन बीते, थोड़े दिन और बाकी हैं, कट ही जाएँगे। जिन भगवान् ने बुरे दिखाये हैं, वही अच्छे भी दिखाएगा।’’

‘‘पानी-वानी तो पिओगे न, भैया?’’ एक ने पूछा।

‘‘अरे पूछता क्या है? जल्दी गगरा लोटा ला। थका-माँदा है।’’ एक बूढ़े ने कहा, ‘‘हाथ-मुँह धोकर ठण्डा लो, बेटा। आज रात ठहर जाओ। बेचारों को जरा तसल्ली जो जाएगी।’’

मटरू के मुँह से बेाल न फूट रहा था। वह तो कुछ और सोचकर चला था। उसे क्या मालूम था कि वह कितने ही व्यथा के सोये हुए तारों को छेडऩे जा रहा है।

धीरे-धीरे काफी देर में व्यथा का उफनता हुआ दरिया शान्त हुआ। एक-एक कर लोग हट गये, तो बूढ़े ने कहा, ‘‘बेटा, अब मुँह-हाथ धो ले। तेरा आदर-सत्कार करने वाला यहाँ कोई नहीं है। कुछ ख्य़ाल न करना। तेरी बड़ाई हम सुन चुके हैं। तू समाचार देने आ गया तो हम दुखियों को कुछ सन्तोष हो गया। भगवान् तुझे सुखी रखें!’’

हाथ-मुँह धोकर मटरू बैठा, तो अन्दर से माँ ने लाकर गुड़ और दही का शरबत-भरा गिलास उसके सामने रख दिया। मटरू ने उसके भी पैर छुए। बूढ़ी आँचल से बहते हुए आँसुओं को पोंछती वहीं खड़ी हो गयी।

शरबत पीकर मटरू जैसे अपने ही से बोलने लगा, ‘‘कोई चिन्ता की बात नहीं है, माई। गोपी बहुत अच्छी तरह है। हम तो एक ही साथ खाते-पीते, सोते-जागते थे। एक ही बात का उसे दुख रहता है कि घर का कोई समाचार नहीं मिलता।’’

‘‘क्या करें बेटा? जो आने-जानेवाला था, उसे तो तुम देख ही रहे हो। पहले उसके सास-ससुर चले जाते थे। इधर वे भी मोटा गये हैं। क्या मतलब है उन्हें अब हमसे।’’ सिसकती हुई ही बूढ़ी बोली।

‘‘अरे, तो चिट्ठी-पतरी तो भेजनी थी?’’

‘‘हमें क्या मालूम, बेटा? तो चिट्ठी-पतरी वहाँ जाती है?’’

‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं? महीने में एक चिट्ठी तो मिलती ही है।’’

‘‘तो कल ही लिखाकर पठवाऊँगी।’’

‘‘अब रहने दो। मैं भेजवा दूँगा। तुम लोगों को कोई चिन्ता करने की जरूरत नहीं। हाँ, सुना कि उसकी जोरू भी नहीं रही। उसे तो कोई ख़बर भी नहीं।’’

‘‘मैंने ही मना कर दिया था, बेटा! दुख की ख़बर कैसे कहलवाती? वहाँ तो कोई समझाने-बुझानेवाला भी उसे न मिलता।’’

‘‘अरे, जोरू का क्या?’’ बूढ़े बोले, ‘‘वह छूटकर तो आये। यहाँ तो कितने ही रोज़ नाक रगडऩे आते हैं। फिर ऐसी बहू ला दूँगा कि...’’

‘‘नहीं, काका, अबकी तो उसकी शादी मैं करवाऊँगा। तुम बीमार आदमी आराम करो। मैं सब-कुछ कर लूँगा। उसे आने तो दो। तुम्हें क्या मालूम कि उसे मैं अपने छोटे भाई से भी ज्यादा मानता हूँ। और, काका, वह भी मुझे कम नहीं मानता। हाँ, उसकी भाभी तो अच्छी है? उसे वह बहुत याद करता है।’’

दरवाज़े की ओट में खड़ी भाभी सब सुन रही है, यह किसी को मालूम न था।

बूढ़ी बोली, ‘‘उसका अब क्या अच्छा और क्या बुरा, बेटा? करम जब दग़ा दे गया तो क्या रह गया उसकी ज़िन्दगी में? जब तक जीएगी, पड़ी रहेगी। उसके भाई-बाप ने भी इधर कोई ख़बर न ली।’’

‘‘गोपी को उसकी बहुत चिन्ता रहती है। बेचारा रात-दिन भाभी-भाभी की रट लगाये रहता है। इन दोनों में बहुत मोहब्बत थी क्या?’’ मटरू ने पूछा।

‘‘अरे बेटा, बहू ऐसी प्राणी है ही। बिल्कुल गऊ!’’ बूढ़ा बोल पड़ा, ‘‘उसी की सेवा पर तो मेरा दम अड़ा है। उसकी सूनी माँग देखकर मेरा कलेजा फटता है। इसी उम्र में ऐसी विपत्ति आ पड़ी बेचारी पर। फिर भी बेटा, मेरे रहते उसे कोई दुख न होने पाएगा। वह मेरी बड़ी बहू है, एक दिन घर की मालकिन बनेगी। वह देवी है, देवी!’’

बूढ़ी मन-ही-मन सब सुनकर कुढ़ती रही। जब सहा न गया, तो बोली ‘‘खयका तैयार है। अभी खाओगे या...’’