गंगा मैया-7 / भैरवप्रसाद गुप्त

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सात

बनारस जिला जेल पहुँचते ही मटरू की साँस की बीमारी उखड़ गयी। तीन-चार दिन तक तो किसी ने उसकी परवाह न की, पर जब वह बिल्कुल लस्त पड़ गया, कोई काम करने के काबिल न रहा, तो उसे अस्पताल में पहुँचा दिया गया। उसका बिस्तर ठीक गोपी की बगल में था।

डाक्टर किसी दिन आता, किसी दिन न आता। विशेषकर कम्पाउण्डर ही सब-कुछ करता-धरता। वह बड़ा ही नेक आदमी था, उसकी सेवा सुश्रुषा से ही मरीज आधे अच्छे हो जाते थे। फिर यहाँ खाना भी कुछ अच्छा मिलता था, थोड़ा दूध भी मिल जाता था, मशक्कत से छुटकारा भी मिल जाता था। यही सुविधा प्राप्त करने के लिए बहुत से तन्दुरुस्त कैदी भी अस्पताल में पड़े रहते। इसके लिए डाक्टर की और वार्डर की मुट्ठी थोड़ी गरम कर देनी पड़ती थी। जाहिर है कि ऐसा खुशहाल कैदी ही कर सकते थे।

एक हफ्ते तक मटरू बेहाल पड़ा रहा। वह सूखी खाँसी खाँसता और पीड़ा के मारे ‘आह-आह’ किया करता। बलगम सूख गया था। कम्पाउण्डर बड़ी रात गये तक उसके सीने और पीठ पर दवा की मालिश करता। वह अपनी छुट्टी की परवाह न करता।

कई इंजेक्शन लगने के बाद जब कफ कुछ ढीला हुआ, तो मटरू को कुछ आराम मिला। अब वह घण्टों सोया पड़ा रहता। सोये-सोये ही कभी-कभी वह ‘‘माँ-माँ’’ चीखता, उठकर बैठ जाता और चारों ओर आँखें फाड़-फाडक़र देखने लगता।

एक दिन ऐसे ही मौके पर गोपी ने पूछा, ‘‘माँ, तुम्हें बहुत याद आती है?’’

‘‘हाँ’’, मटरू ने जैसे दूर देखते हुए कहा, ‘‘वह रात-दिन मुझे पुकारा करती है- जब तक मैं उसके पास न पहुँच जाऊँगा, चैन न मिलेगा। जब तक उसका पानी और हवा मुझे न मिलेगी, मैं निरोग न होऊँगा।’’

गोपी ने अचकचाकर कहा, ‘‘माँ से पानी-हवा का क्या मतलब? तुम... ’’

‘‘तुम कहाँ के रहने वाले हो?’’ मटरू ने जरा मुस्कराकर पूछा, ‘‘मटरू सिंह पहलवान का नाम नहीं सुना है? उसकी माँ गंगा मैया है, यह बात कौन नहीं जानता!’’

‘‘मटरू उस्ताद!’’ गोपी आँखें फैलाकर चीख पड़ा, ‘‘पा लागी! मैं गोपी हूँ, भैया, भला मुझे तुम क्या जानते होगे?’’

‘‘जानता हूँ, गोपी, सब जानता हूँ। मैं उस दंगल में भी शामिल था और फिर जो वारदात हो गयी थी, उसके बारे में भी सुना था। क्या बताऊँ, कोई किसी का बल नहीं देख पाता। जब किसी तरह कोई पार नहीं पाता, तो कमीनेपन पर उतर आता है। तुम्हारे भाई की वह हालत हुई, तुम्हें जेल में डाल दिया गया। मेरा भी तो सुना ही होगा। कमीने से और कुछ करते न बना, तो जाने क्या खिला दिया। साँस ही उखड़ गयी। शरीर मिट्टी हो गया। देख रहे हो न?’’

‘‘हाँ, सो तो आँखों के सामने है,’’ दुखपूर्ण स्वर में गोपी ने कहा, ‘‘फिर यहाँ कैसे आना हुआ, भैया?’’

मटरू हँस पड़ा। बोला, ‘‘वही, ज़मींदारों से मेरी वह ज़िन्दगी भी न देखी गयी। डाके में फाँसकर यहाँ भेज दिया।’’ कहकर वह पूरी कहानी सुना गया। अन्त में बोला, ‘‘क्या बताऊँ, सब सह सकता हूँ, लेकिन गंगा मैया का बिछोह नहीं सहा जाता। आँखों के सामने जब तक वह धारा नहीं रहती, मुझे चैन नहीं मिलता, कुछ करने को उत्साह नहीं रहता। वह हवा, वह पानी, वह मिट्टी कहाँ मिलने की? जब से बिछड़ा हूँ, भर-पेट पानी नहीं पिया। रुचता ही नहीं, भैया, क्या करूँ? जाने कैसे कटेंगे तीन साल?’’

‘‘मुझे तो पाँच साल काटना है, भैया! मर्द के लिए कहीं भी वक़्त काटना मुश्किल नहीं, लेकिन दिल में एक पीर लिये कोई कैसे वक़्त काटे! मुझे विधवा भाभी का ख्याल खाये जाता है, और तुम्हें गंगा मैया का। एक-न-एक दुख सबके पीछे लगा रहता है। फिर भी वक़्त तो कटेगा ही, चाहे दुख से कटे, चाहे सुख से- अब तो हम एक जगह के दो आदमी हो गये। दुख-सुख ही कह-सुनकर मज़े से काट लेंगे। सुना था, तुमने शादी कर ली थी?’’

‘‘हाँ, अब तो तीन बाल-गोपाल भी घर आ गये हैं। बड़े मजे से ज़िन्दगी कट रही थी, भैया! हर साल पचास-सौ बीघा जोत-बो लेता था। गंगा मैया इतना दे देती थीं कि खाये ख़तम न हो- लेकिन ज़मींदारों से यह देखा न गया। गंगा मैया की धरती पर भी उन्होंने अनाचार करना शुरू कर दिया। अन्याय देखा न गया, भैया मर्द होकर माँ की छाती पर मूँग दलते देखूँ, यह कैसे होता!’’

‘‘तुमने जो किया, ठीक ही किया, भैया! ये ज़मींदार इतने हरामी होते हैं कि किसान का जरा भी सुख इनसे नहीं देखा जाता। तुम्हें वहाँ से हटाकर अब मनमानी करेंगे। लोभी किसानों ने जो तुम्हारे रहने पर न किया, उनसे वे अब सब करा लेंगे। तुम्हारा कोई साथी वहाँ होगा नहीं, जो रोकथाम करे?’’

‘‘एक साला है तो। मगर उसमें वह हिम्मत नहीं है। फिर भी वह चुपचाप न बैठेगा। थोड़े दिन की मेरी शागिर्दी का असर उस पर कुछ-न-कुछ पड़ा ही होगा। देखना है।’’

‘‘वह तुमने मिलने आएगा न, पूछना।’’

धीरे-धीरे मटरू और गोपी का सम्बन्ध गहरा हो गया। दोनों के समान स्वभाव, समान दुख, समान जीवन ने उन्हें अन्तरंग बना दिया। उनका जीवन अब एक-दूसरे के साथ-सहारे से कुछ मजे में कटने लगा। एक ही बैरक में वे रहते थे। जहाँ तक काम का सम्बन्ध था, उनसे किसी को कोई शिकायत न थी। इसलिए किसी अधिकारी को उन्हें छेडऩे की जरूरत न थी। मटरू की ‘‘गंगा मैया’’ जेल-भर में मशहूर हो गयीं। उन्हें छोटे-बड़े बहुत ही अधिक धार्मिक आदमी समझते और जब मिलते, ‘‘जय गंगा मैया’’ कहकर जुहार करते। एक तरह की ज़िन्दगी उन दीवारों के अन्दर भी पैदा हो गयी। हँसी-दिल्लगी, लडऩा-झगडऩा, ईर्ष्याी-द्वेष, रोना-गाना; वहाँ भी तो वैसा ही चलता है, जैसे बाहर। कब तक कोई वहाँ के समाजी जीवन से कटा-हटा, अलग-अकेले पड़ा रहे? सैकड़ों के साथ सुख-दुख में घुल-मिलकर रहने में भी तो आदमी को एक सन्तोष मिल जाता है।

अब मटरू और गोपी के बीच कभी-कभी जेल के बाहर भी साथ ही रहने-सहने की बात उठ पड़ती। दोनों में इतनी घनिष्ठता हो गयी थी कि जुदाई का ख़याल करके भी वे बेचैन हो उठते। मटरू कहता, ‘‘जेल से छूटकर तुम भी मेरे साथ रहो, तो कैसा? गंगा मैया के पानी, हवा और मिट्टी का चस्का तुम्हें एक बार लग भर जाए, फिर तो मेरे भगाने पर भी तुम न जाओगे। फिर मुझे तुम्हारे-जैसे एक साथी की ज़रूरत भी है। ज़मींदर अब जोर ज़बरदस्ती पर उतर आये हैं। न जाने मुझे वहाँ से हटाने के बाद उन्होंने क्या-क्या किया हो। लौटने पर फिर वे मुझसे भिड़ेंगे। अब उनका मुकाबिला करना है। जवार के किसान इस बीच फूट न गये, तो मेरा साथ देंगे। मैं चाहता हूँ कि गंगा मैया की छाती पर मेंड़ें न खिंचें। मेंड़ें खिंचना असम्भव भी है, क्योंकि गंगा मैया की धारा हर साल सब-कुछ बराबर कर देती है। कोई निशान वहाँ कायम नहीं रह सकता है। मैया केज़मीन छोडऩे पर जो जितनी चाहे, जोते-बोये। ज़मीन की वहाँ कभी कोई कमी न होगी, जोतने वालों की कमी भले ही हो जाए। वहाँ सबका बराबर अधिकार रहे। ज़मींदार उसे हड़पकर वहाँ अपनी जमींदारी कायम करके लगान वसूल करना चाहते हैं, वही मुझे पसन्द नहीं। गंगा मैया भी क्या किसी की जमींदारी में हैं, गोपी?’’

‘‘नहीं भैया, यह तो सरासर उनका अन्याय है। ऐसा करके तो एक दिन वे यह भी कह सकते हैं कि गंगा मैया का पानी भी उनका है, जो पीना-नहाना चाहे, कर चुकाए?’’

‘‘हाँ, सुनने में तो यह भी आया था कि घाट को वे ठेके पर उठाना चाहते हैं। कहते हैं, घाट उनकी ज़मीन पर है। वहाँ से जो पार-उतराई खेवा मिलता है, उसमें भी उनका हक है। मेरे रहते तो वहाँ किसी की हिम्मत ऐसा करने की नहीं हुई। अब मेरे पीछे जाने उन्होंने क्या-क्या किया हो। सो, भैया, वहाँ एक मोर्चा बनाकर इस अन्याय का मुकाबिला करना ही पड़ेगा। अगर तुम मेरे साथ हो, तो मेरा बल दूना हो जाएगा।’’

‘‘सो तो मैं भी चाहता हूँ। लेकिन तुम्हें तो मालूम है कि घर में मैं ही अकेला बच गया हूँ। बाबू को गँठिया ने अपाहिज बना दिया है। बूढ़ी माँ और विधवा भाभी का भार भी मेरे ही सिर पर है। ऐसे में घर कैसे छोड़ा जा सकता है? हाँ, कभी-कभार तुम्हें सौ-पचास लाठी की जरूरत हुई; तो ज़रूर मदद करूँगा। तुम्हारे इत्तला देने भर की देर रहेगी। यों, दो-चार दिन आ-ठहरकर गंगा मैया का जल-सेवन ज़रूर साल में दो-चार बार करूँगा। तुम भी आते जाते रहना। यों, सर-समाचार तो बराबर मिलता ही रहेगा।

मटरू उदास हो जाता। वह सचमुच गोपी पर जान देने लगा था। लेकिन उसके घर की ऐसी परिस्थिति जानकर भी वह कैसे अपनी बात पर जोर देता? वह कहता, ‘‘अच्छा, जैसे भी हो, हमारी दोस्ती कायम रहे, इसकी हमें बराबर कोशिश करनी चाहिये!’’

इधर बहुत दिनों से मटरू या गोपी की मिलाई पर कोई नहीं आया था। दोनों चिन्तित थे। दूर देहात से कामकाजी किसानों का बनारस आना-जाना कोई मामूली बात न थी। ज़िन्दगी में बहुत हुआ तो सालों से इन्तजाम करने के बाद वे एक बार काशी-प्रयाग का तीरथ करने निकल पाते हैं। उनके पास कोई चहबच्चा तो होता नहीं कि जब हुआ निकल पड़े, घूम आये। फिर उन्हें फुरसत भी कब मिलती है? एक दिन भी काम करना छोड़ दें, तो खाएँ क्या? और खाने को हो तो भी बटोरने और खेत खरीदने की लालसा से उन्हें छुटकारा कैसे मिले?

गोपी के ससुर पहले दो-दो, तीन-तीन महीने पर एक बार आ जाते थे। लेकिन जब से एक बेटी विधवा हो गयी थी और दूसरी चल बसी थी, उनकी दिलचस्पी बिल्कुल ख़तम हो गयी थी। खामखाह की दिलचस्पी के न वह कायल थे, न उसे पालने की उनकी हैसियत ही थी। दूसरा कौन आता।

मटरू के ससुर बिलकुल मामूली आदमी थे। ज़िन्दगी में कभी बाहर जाने का उन्हें अवसर ही न मिला था। हाँ, साले से कुछ उम्मीद ज़रूर थी। लेकिन वह भी जाने किस उलझन में फँसा है, जो एक बार भी ख़बर लेने न आया।

अगले महीने में चन्द्रग्रहण पड़ रहा था। मटरू और गोपी को पूरा विश्वास था कि इस अवसर पर ज़रूर कोई-न-कोई मिलने आएगा। ग्रहण में काशी-नहान का बड़ा महत्व है। एक पन्थ, दो काज।

ग्रहण के एक दिन पहले इतवार था। सुबह से ही मिलाई की धूम मची थी। जिन कैदियों की मिलाई होने वाली थी, उनके नाम वार्डर पुकार रहे थे और फाटक के पास सहन में बैठा रहे थे। जिसका नाम पुकारा जाता, उसका चेहरा खिल जाता, जिसका नाम न पुकारा जाता, वह उदास हो जाता। सहन से एक खुशी का शोर-सा उठ रहा था।

मटरू और गोपी आँखों में उदास हसरत लिये बैरक के बाहर खड़े थे। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि आज कोई-न-कोई उनसे मिलने ज़रूर आएगा। लेकिन जब सब पुकारें ख़तम हो गयीं और उनका नाम न आया तो उनकी आँखों में हसरत मूक रुदन करके मिट गयी।

‘‘देखो न,’’ थोड़ी देर बाद गोपी जैसे रोकर बोला, ‘‘आज भी कोई नहीं आया।’’

‘‘हाँ,’’ उसाँस लेता मटरू बोला, ‘‘गंगा मैया की मरजी...’’

तभी उनके वार्डर ने भागते हुए आकर कहा, ‘‘चलो, चलो, गंगा पहलवान, तुम्हारी मिलाई आयी है! जल्दी करो, पन्द्रह मिनट ऐसे ही बीत गये।’’

मटरू ने सुना, तो उसका चेहरा खिल उठा। तभी गोपी ने वार्डर से पूछा, ‘‘मेरी मिलाई नहीं आयी है, वार्डर साहब?’’

‘‘नहीं, भाई नहीं। आता तो बताता नहीं?’’ वार्डर ने कहा, ‘‘गंगा पहलवान की आयी है। हम तो समझते थे कि इनके गंगा मैया के सिवा कोई है ही नहीं, मगर आज मालूम हुआ कि...’’

‘‘मेरे साथ गोपी भी चलेगा!’’ मटरू ने उदास होकर कहा, ‘‘यह भी तो मेरा रिश्तेदार है।’’

‘‘जेलर साहब के हुक्म के बिना यह कैसे हो सकता है? चलो, देर करके वक़्त ख़राब न करो!’’ वार्डर ने मजबूरी जाहिर की।

‘‘अरे वार्डर साहब, इतने दिनों बाद तो कोई मिलने आया है, कौन कोई महीने-महीने आने वाला है हमारा? मेहरबानी कर दो! हमारे लिए तो तुम्हीं जेलर हो!’’ मटरू ने विनती की।

‘‘मुश्किल है, पहलवान! वरना तुम्हारी बात खाली न जाने देता। चलो, जल्दी करो। मिलने वाले इन्तजार कर रहे हैं!’’ वार्डर ने जल्दी मचायी।

‘‘जाओ, भैया, मिल आओ। हमारी ओर का भी सर-समाचार पूछ लेना। क्यों मेरी खातिर...’’

‘‘तुम चुप रहो!’’ मटरू ने झिडक़कर कहा, वार्डर साहब चाहें तो सब कर सकते हैं, मैं तो यही जानूँ!’’ कहकर मटरू वार्डर की ओर बड़ी दयनीय आँखों से देखकर बोला, ‘‘वार्डर साहब, इतने दिन हो गये यहाँ रहते, कभी आप से कुछ न कहा। आज मेरी विनती सुन लो! गंगा मैया तुम्हें बेटा देंगी!’’

वार्डर निपूता था। कैदी उसे बेटा होने की दुआ करके उससे बहुत-कुछ करा लेते थे। यह उसकी बहुत बड़ी कमज़ोरी थी। वह हमेशा यही सोचता, जाने किसकी जीभ से भगवान् बोल पड़े। वह धर्म-संकट में पडक़र बोल पड़ा, ‘‘अच्छा, देखता हूँ। तुम तो चलो, या मेरी शामत बुलाओगे?’’

‘‘नहीं, वार्डर साहब, बात पक्की कहिए! वरना मैं भी न जाऊँगा। अब तक कोई न मिलने आया, तो क्या मैं मर गया? गंगा मैया...’’

‘‘अच्छा, भाई, अच्छा। तुम चलो। मैं अभी मौका देखकर इसे भी पहुँचा देता हूँ। तुम लोग तो एक दिन मेरी नौकरी लेकर ही दम लोगे!’’ कहकर वह आगे बढ़ा।

मटरू ससुर का पैर छू चुका, तो साला उसका पैर छूकर उससे लिपट गया। बैठकर अभी सर-समाचार शुरू ही किया था कि जाने किधर से गोपी भी धीरे से आकर उनके पास बैठ गया। मटरू ने कहा, ‘‘यह हरदिया का गोपी है। वही गोपी-मानिक! सुना है न नाम?’’

‘‘हाँ-हाँ!’’ दोनों बोल पड़े।

‘‘यह भी यहाँ मेरे ही साथ है। इनके घर का कोई सर-समाचार?’’ मटरू ने पहले दोस्त की ही बात पूछी।

‘‘सब ठीक ही होगा। कोई खास बात होती, तो सुनने में आती न?’’ बूढ़े ने कहा, ‘‘अच्छा है, अपने जवार के तुम दो आदमी साथ हो। परदेश में अपने जर-जवार के एक आदमी से बढक़र कुछ नहीं होता।’’

‘‘अच्छा, पूजन,’’ मटरू ने साले की ओर मुखातिब होकर कहा, ‘‘तू दीयर का हाल-चाल बता। गंगा मैया की धारा वहीं बह रही है, या कुछ इधर-उधर हटी है?’’

‘‘इस साल तो पाहुन, धारा बहुत दूर हटकर बह रही है; जहाँ हमारी झोंपड़ी थी न, उससे आध कोस और आगे। इतनी बढिय़ा चिकनी मिट्टी अबकी निकली है, पाहुन, कि तुम देखते तो निहाल हो जाते! इस साल फसल बोयी जाती, तो कट्टा पीछे पाँच मन रब्बी होती। मैं तो हाथ मलकर रह गया। ज़मींदारों ने पश्चिम की ओर कुछ जोता-बोया है। उनकी फसल देखकर साँप लोट जाता है।’’

‘‘किसानों ने भी...’’

‘‘नहीं, पाहुन, ज़मींदारों ने चढ़ाने की तो बहुत कोशिश की, लेकिन तुम्हारे डर से कोई तैयार नहीं हुआ। ज़मींदारों की भी फसल को भला मैं बचने दूँगा। देखो तो क्या होता है! सब तिरवाही के किसान खार खाये हुए हैं। तुम्हारे जेल होने का सबको सदमा है। पुलिसवालों ने भी मामूली तंग नहीं किया है। जरा तुम छूट तो आओ, फिर देखेंगे कि कैसे किसी ज़मींदार के बाप की हिम्मत वहाँ पैर रखने की होती है। सब तैयारी हो रही है, पाहुन!’’

‘‘शाबाश!’’ मटरू ने पूजन की पीठ ठोंककर कहा, ‘‘तू तो बड़ा शातिर निकला रे! मैं तो समझता था कि तू बड़ा डरपोक है।’’

‘‘गंगा मैया का पानी पीकर और मिट्टी देह में लगाकर भी क्या कोई डरपोक रह सकता है, पाहुन? तुम आना तो देखना! एक दाना भी ज़मींदारों के घर गया तो, गंगा मैया की धार में डूबकर जान दे दूँगा! हाँ!’’

‘‘अच्छा-अच्छा और सब समाचार कह। बाबूजी को इस सरदी-पाले में काहे को लेता आया?’’ मटरू ने सन्तुष्ट होकर पूछा।

‘‘माई नहीं मानी! गरहन का स्नान इसी हीले हो जाएगा। विश्वनाथजी का दर्शन कर लेंगे। ज़िन्दगी में एक तीरथ तो हो जाए। अब तुम अपनी कहो। देह तो हरक गयी है।’’

‘‘कोई बात नहीं। गंगा मैया की कृपा से सब अच्छा ही कट रहा है। तुम सब ख़याल रखना। ज़मींदारों के पंजे में किसान न फँसें, ऐसी कोशिश करना। फिर तो आकर मैं देख लूँगा। और सब तुम्हारी ओर फसल का क्या हाल-चाल है? ऊख कितनी बोयी है?’’

‘‘एक पानी पड़ गया तो फसल अच्छी हो जाएगी। उगी तो बहुत अच्छी थी, लेकिन जब तक रामजी न सींचे, आदमी के सींचने से क्या होता है? ऊख बोयी है दो बीघा। अच्छी उपज है। किसी बात की चिन्ता नहीं। अभी दीयर का भी कुछ अनाज बखार में पड़ा है।’’

‘‘बाबू सब कैसे हैं?’’ मटरू ने लडक़ों के बारे में पूछा।

‘‘बड़े को स्कूल भेज रहा हूँ। उसे ज़रूर-ज़रूर पढ़ाना है, पाहुन! कम-से-कम एक आदमी का घर में पढ़ा-लिखा होना बहुत ज़रूरी है। पटवारी-ज़मींदार जो कर-कानून की बहुत बघारते हैं, उसका ज्ञान हासिल किये बिना उनका जवाब नहीं दिया जा सकता। अपढ़-गँवार समझकर वे हर कदम पर हमें बेवकूफ बनाकर मूसते हैं। हम अन्धों की तरह हकबक होकर उनका मुँह ताकते रहते हैं। दीयर के बारे में भी उन्होंने कोई कानून निकाला है। कहते हैं कि जिनका हक जंगल पर था, उन्हीं का ज़मीन पर भी है। पाहुन, अपनी जोर-ज़बरदस्ती से ही तो वे जंगल कटवाकर बेचते थे। उनका क्या कोई सचमुच का हक उस पर था! पूछने पर कहते हैं, तुम कानून की बात क्या जानो! बड़े आये हैं, कानून बघारने वाले देखेंगे, कैसे फसल काटकर घर ले जाते हैं! हल की मुठिया तो पकड़ी नहीं, मशक्कत कभी उठायी नहीं, फिर किस हक से उसको फसल मिलनी चाहिए? जिन हलवाहों ने मेहनत की, उन्हीं का तो उस पर हक है! और, पाहुन हमने तय कर लिया है कि यह फसल उन्हीं के घर जाएगी!’’

‘‘ठीक है, ठीक है! अरे हाँ, कुछ खाने-पीने की चीज़ नहीं लाया? सत्तू खाने को बहुत दिन से जी कर रहा था।’’ मटरू ने हँसकर कहा।

‘‘लाया हूँ, पाहुन थोड़ा सत्तू भी है, नया गुड़ और चिउड़ा भी है। बाहर फाटक पर धरा लिया है। कहता था, पहुँच जाएगा। तुम्हें मिल जाएगा न पाहुन?’’ पूजन ने अपना सन्देह दूर करना चाहा। फाटक पर वह जमा नहीं करना चाहता था। कहता था, खुद अपने हाथ से देगा। अधिकारी ने कानून-कायदे की बात की, तो कुछ न समझकर भी जमा कर दिया था।

‘‘हाँ, आधा-तिहा तो मिल ही जाएगा।’’

‘‘और बाकी?’’ पूजन ने आश्चर्य से पूछा।

‘‘बाकी कायदे-कानून की पेट में चला जाएगा!’’ कहकर वह जोर से हँस पड़ा। बूढ़े और पूजन उसका मुँह ताकते रहे। वह फिर बोला, ‘‘अबकी आना, तो गोपी के घर का समाचार लाना न भूलना।’’

‘‘आऊँगा तो ज़रूर लाऊँगा। मगर, पाहुन, आना अब मुश्किल मालूम पड़ता है। फुरसत मिलती कहाँ है? और फिर तुम लोग तो मजे से ही हो।’’ पूजन ने विवशता जाहिर की।

‘‘फिर भी कोशिश करना। सर-समाचार मिलता रहता है, तो और किसी बात की चिन्ता नहीं रहती...’’

मिलाई ख़तम होने की घण्टी बज उठी। हँसते हुए आने वाले चेहरे अब उदास होकर भारी दिल लिये लौटने लगे। कोई सिसक रहा था, कोई आँखें साफ कर रहा था, कोई नाक छिनक रहा था, किसी के मुँह से कोई बोल न फूट रहा था। पलट-पलटकर वे फाटक की ओर अपनी ही ओर मुड़-मुडक़र देखते हुए जाते अपने सम्बन्धियों को हसरत-भरी नज़रों से देख रहे थे।