गंगा मैया-6 / भैरवप्रसाद गुप्त
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छह भाभी का जीवन एक साधना का जीवन बन गया।
कलेजे में पति की चुभती हुई यादें दबाये वह रात-दिन अपने को किसी-न-किसी काम में बझाये रखती। आँखों से टप-टप खून के आँसू चुआ करते और हाथ काम करते रहते। सास-ससुर चुपचाप सब देखते! एक बात भी उनके मुँह से न निकलती। ऐसी विधवा के लिए कोई कौन-सी सान्त्वना की बात कहे? कोई बच्चा रहता, तो उसका मुँह ही देखकर उसे जीने की, सब्र करने की, बात कही जाती। यहाँ तो वह भी हीला न था, कोई क्या कहता? ऐसी विधवा का जीवन एक ठूँठ की ही तरह होता है, जिस पर कभी हरियाली नहीं आने की, कभी फल-फूल नहीं लगने के, व्यर्थ, बिलकुल व्यर्थ, धरती का व्यर्थ भार! हाँ, ठूँठ का बस एक उपयोग होता है। उसे काटकर लावन में जला दिया जाता है गृहस्थ-जीवन में शायद ऐसी विधवा का उपयोग लावन की ही तरह है, ज़िन्दगी-भर जलते रहना, जलकर गृहस्थी की सेवा करना, जिस सेवा के फल का भोग दूसरे भोगें और खुद वह राख होकर रह जाए।
यही हाल भाभी का था। वह सब काम करती। बूढ़ी सास कोने में बैठी अपने बेटों को बिसूर-बिसूर कर रात दिन रोया करती। अपाहिज ससुर के दिल-दिमाग को अचानक एक-पर-दूसरी पड़ी विपत्तियों के कारण लकवा मार गया था। वह गहरी मानसिक पीड़ा में डूबे रहते—यह क्या हो गया? क्या था और क्या हो गया? उन्हें जब अपना हरा-भरा चमन याद आता, तो चुप-चुप ही कूल्हने लगते वे...आह, आह राम! तूने यह क्या कर दिया! ऐसा कौन-सा पाप मैंने किया था, जो यह दिन दिखाया?
कभी-कभी ऐसा होता कि तीनों प्राणी एक-दूसरे को सान्त्वना देने इकट्ठे हो जाते। और फिर बातों-ही-बातों में जाने क्या हो जाता कि तीनों एक साथ ही संकोच और लेहाज छोडक़र रोने लगते, एक-दूसरे से लिपट जाते। समान व्यथा की तड़प जैसे उन्हें एक कर देती। उस वक़्त पास-पड़ोस के औरत-मर्द इकट्ठे होकर उन्हें समझा-बुझाकर जबर्दसती अलग करते और आँसू पोंछकर चुप कराते। फिर सब-कुछ मसान की तरह शान्त हो जाता। जैसे वहाँ कोई जीवित आदमी ही न रहता हो। व्यथा का वेग अन्दर-अन्दर ही खून सुखाता रहता। लेकिन होंठ न हिलते। लोग वहाँ से जाने लगते, तो उनकी साँसें भी आह बन जातीं। ओह, क्या था और क्या हो गया? बेचारा गोपी छूटकर आ जाता, तो इन्हें कुछ ढाढ़स बँधता।
भाभी को कभी ठीक तरह से नींद न आती। कभी झपकी आ जाती, तो जैसे कोई भयानक सपना देखकर चिहुँक उठती और चुप-चुप रोने लगती। एक-एक याद उभरती और एक-एक हूक उठती। रात का सन्नाटा और अन्धकार जैसे पूरा इतिहास खोल देता। भाभी बेचैन हो-हो करवटें बदलती और एक-एक पन्ना उलटता जाता। आख़िर जब सहा न जाता, तो उठकर रसोई के बरतन-बासन उठा, आँगन में लाकर माँजने-धोने लगती। सास बरतनों का बजना सुनती, तो सोये-सोये ही बोलती, ‘‘अरे बहू, अभी उठ गयी? अभी तो बड़ी रात मालूम देती है। सो रह, अभी सो रह।’’
भाभी गला साफ करके कहती, ‘‘कहाँ रात है अब? सुकवा उग आया है अम्माजी!’’
‘‘अभी मेरी एक भी नींद पूरी नहीं हुई है और तू कहती है कि सुकवा उग गया है? सो रह, बहू, सो रह? कौन खाने पीने वाला है, जो इसी वक़्त बरतन भाँड़ा लेकर बैठ गयी? सो रह, बहू, सो रह।’’
भाभी कोई जवाब न देती। सास कहर-कहरकर करवट बदलती बुदबुदाती, ‘‘हे राम, हे राम!’’ और नींद में गोता लगा जाती।
धीमे-धीमे बिना कोई आवाज़ किये भाभी बरतन माँज-धोकर उठती; धीरे-धीरे चौका लगाती। फिर स्नान करके कपड़े बदलती और ठाकुर घर साफ कर, दीप जला, मूरत के सामने बैठकर, रामायण खोलकर होंठों ही में मिला-मिलाकर पढऩे लगती। उसकी समझ में कुछ न आता। वह पढ़ी-लिखी बिलकुल नहीं थी। बचपन में एक-दो महीने भाई के साथ खेल-खेल में स्कूल गयी थी। उसी दौरान खेल-खेल में उसने अक्षर और मात्राएँ सीख ली थी। फिर माँ ने उसे स्कूल जाने से रोक दिया था। लडक़ी को पढऩे-लिखने की भला क्या जरूरत? फिर सब-कुछ भूल गयी। अब, जब वक़्त काटे न कटता, तो उसने फिर सालों बाद उस अक्षर-ज्ञान को धीरे-धीरे ताजा किया। घर में रामायण के सिवा और कोई किताब न थी। वह उसी पर अभ्यास करने लगी। एक-एक चौपाई में उसके मिनटों बीत जाते। अक्षर-अक्षर मिला कर वह शब्द बनाती। फिर कई बार दुहराकर आगे बढ़ती। फिर दो शब्दों को कई बार दुहराकर आगे बढ़ती। इस तरह एक चरण ख़तम करके वह उसे बीसों बार दुहराती।
इसमें वक़्त काटने के साथ ही, कुछ भी न समझते हुए भी, उसे एक आध्यात्मिक सुख और सान्त्वना मिलती। उसका ख़याल था कि धीरे-धीरे अभ्यास हो जाने पर वक़्त काटने का एक अच्छा साधन लग जाएगा। दुखी प्राणी के लिए वक़्त काटने की समस्या से बढक़र कोई समस्या नहीं होती। और वह तो ऐसी दुखी प्राणी थी, जिसे सारा जीवन ही इसी तरह काटना था। विधवा के जीवन में सुख के एक क्षण की भी कल्पना कैसे की जा सकती है?
सुबह सास-ससुर के उठने के पहले ही वह सारा घर बुहारकर साफ कर लेती? हलवाहा आता, तो उससे भैंस दुहवाती, उसे नाँदों में चलाने के लिए भूसा-घर से भूसा निकालकर देती। फिर ज़रूरी सामान देकर उसे खेत पर भेज देती। पुराना हलवाहा बड़ा ही नमकहलाल था। उसी पर आजकल पूरी खेती का भार छोड़ दिया गया था। घर के आदमी की तरह वही सब-कुछ करता और भाभी को पूरा-पूरा हिसाब देता।
ससुर की नींद खुलती, तो वे बहू को पुकारते। भाभी जल्दी-जल्दी आग तैयार करके हुक्का भरकर उनके हाथ में थमा आती। सास ने कुछ इस तरह देह छोड़ दी थी कि भाभी को ससुर के सभी काम सब लोक-लाज छोडक़र करने पड़ते थे।
चारपाई पर ही वह उनके हाथ-मुँह धुलाती, दूध गरम करके पिलाती। फिर हुक्का ताजा कर, उनके हाथ में दे, दवा की मालिश करने लगती। ससुर कहर-कहर कर हुक्का गुडग़ुड़ाते रहते। कहीं किसी जोड़ पर बहू का हाथ ज़रा जोर से लग जाता, तो चीख़कर कहते, ‘‘अरे बहू, सँभालकर मल! ओह, आह!’’
फिर वह घर के काम में लग जाती। फटकने-पछोडऩे, कूटने-पीसने से लेकर खिलाने-पिलाने तक के सभी काम वह करती। सास बिसूर-बिसूरकर किसी कोने में बैठी रोती रहती या टुकुर-टुकुर बहू को काम करते निहारा करती।
भाभी अब पहले की भाभी नहीं रह गयी—न वह रूप, न रंग, न वह जवानी न वह देह। अब तो वह जैसे पहले की भाभी की एक चलती-फिरती छाया रह गयी थी। दुबली-पतली, सूखी देह, बेआब-पीला चेहरा, उदास, आँसुओं में सदा तैरती-सी आँखें, मुरझाये-सिले-से होंठ, रोएँ-रोएँ से जैसे करुणा टपक रही हो एक ज़िन्दगी की जैसा मुर्दा तस्वीर हो, या जैसे एक मुर्दा ज़िन्दा होकर चल-फिर रहा हो।
हाय, वह क्यों ज़िन्दा है? आह, उसके भी प्राण उन्हीं के साथ क्यों न निकल गये! बहन ने कैसा पुण्य किया था कि उसे भगवान् ने बुला लिया! हाय, वह कैसी महापापिन है कि नरक भोगने को रह गयी? इस नरक से वह कब उबरेगी, इस यातना से आखिर कब छुटकारा मिलेगा?
महीनों बाद व्यथा की बरसाती धारा जब धीरे-धीरे धीमी होकर शान्त हुई और जब भाभी धीरे-धीरे कर सब-कुछ करने-सहने की अभ्यस्त हो गयी, तो उसके जीवन की व्यर्थता और असीम निराशा के, जो प्राणों के चूर-चूर हो जाने से आयी थी, डंक भी कुन्द होने लगे। अब भाभी कभी-कभी कुछ सोचती थी, अब कभी-कभी उसके हृदय में जीवन के उन सुखों के अंकुर फिर उभरते-से अनुभव होते, जिन्हें एक बार वह अपने जीवन के फल-फूल से लदे देख चुकी थी। पति की याद से भी अब कभी-कभी उसके मानस से उन्हीं कोमल भावनाओं का स्फुरण होता, जो उसके सहवास में उसे मिली थीं। अब बार-बार उसके मन के सात पर्दों’’ में दबे स्थान से सवाल उठता, ‘‘क्या जीवन में वे दिन फिर कभी न आएँगे? क्या वह सुख फिर कभी न मिलेगा? वह, वह...’’ और उसके मुँह से एक दबी हुई ठण्डी साँस निकल जाती। प्राणों में जाने कैसी एक ऐंठ और दर्द महसूस होता। वह कुछ व्याकुल-सी हो उठती काश...
ऐसे अवसर पर जाने कैसे उसका ध्यान अपने देवर की ओर चला जाता। वह सोचती कि उसकी हालत भी तो ठीक उसी की जैसी होगी। उसका भी तो सुख का संसार उसी की तरह उजड़ गया। उसके मन में भी तो आज ठीक उसी की तरह के भाव उठते होंगे। वह भी तो उसी की तरह तड़पता होगा कि काश...
और तभी जैसे कोई उससे कह जाता, ‘वह तो मर्द है। जैसे ही वह जेल से लौटेगा, उसका दूसरा ब्याह हो जाएगा और फिर उसकी एक नयी ज़िन्दगी शुरू होगी, जिसमें पहले ही-सा सुख...’
और वह मर्माहत हो उठती। उसके होंठ बिचक-से जाते, जैसे उसमें एक नफरत, एक गुस्से का भाव भर उठता हो और यह प्रश्न उसकी आत्मा की तड़प में लिपटकर उठ पड़ता हो, ‘‘ऐसा क्यों, ऐसा क्यों होता है? यह अन्तर क्यों? क्यों एक को अपनी उजड़ी दुनिया को गले से लिपटाये तिल-तिल जलकर राख हो जाने को विवश होना पड़ता है और दूसरे को अपनी उजड़ी हुई दुनिया फिर से बसाकर सुख-चैन से ज़िन्दगी बिताने का अधिकार मिलता है?’’
और वह तिलमिला उठती? नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए, हरगिज नहीं! उसे भी अधिकार होना चाहिए कि...
यह कैसी बातें उठने लगी हैं मन में? भाभी को जब होश आता, तो उसे स्वयं पर आश्चर्य होता। अभी कल की ही तो बात है कि पति के वियोग में तड़पकर वह मर जाना चाहती थी। लेकिन आज, आज यह क्या हो रहा है कि वह एकदम बदल गयी है, ऐसी-ऐसी बातें सोच रही है, ऐसे-ऐसे विचार मन में उठते हैं, ऐसी-ऐसी इच्छाएँ अन्तर में सिर उठा रही है! और वह अभी कल की ही अपनी मन:स्थिति की बात सोचकर अपने ही सामने आज शर्मिन्दा हो उठती है। कहीं किसी को आज उसके मन में उठने वाले भाव मालूम हो जाएँ, तो? नहीं, नहीं, नहीं! लोग क्या कहेंगे? लोग उसे कितनी पापिनी समझेंगे? लोग उसे क्या-क्या ताने देंगे कि पति को मरे अभी दो-तीन साल भी न हुए और यह कलमुँही ऐसी-ऐसी बातें सोचने लगी! यह विधवा-जीवन की पवित्रता आगे क्या कायम रख सकती है? ओह, ज़माना कितना बिगड़ गया है। देखो न, कल की विधवा आज...
और वह एक विवशता और व्याकु लता से तड़प उठती। वह इस अपने मन को क्या करे? वह कैसे इन अपवित्र भावों को दबा दे। वह ठाकुर-घर में आजकल प्रार्थना करती है, ‘‘भगवान्, मुझे शक्ति दे कि मैं कुल-रीति पर कायम रहूँ! मन में उठती अपवित्र भावनाओं पर काबू पा सकूँ! विधवा-जीवन पर कलंक न लगने दूँ!’’ लेकिन भगवान् से उसे वह शक्ति नहीं मिल रही थी। मन हरिण की तरह जब-तब छलाँगें मारने लगता। वह बरबस पति को याद करती। सोचती कि जब तक उनकी याद बाकी रहेगी, वह न डिगेगी। लेकिन अब उनकी याद भी धुँधली पड़ती जा रही थी। बहुत कोशिश करके भी वह बहुत देर तक उन यादों में न बिता पाती। न जाने कब यादें अपना रूप बदल देतीं! व्यथा उत्पन्न करने वाली यादें उन सुखों की याद दिलाने वाली बन जातीं जो उसे अपने पति से मिले थे। और फिर उन सुखों की याद करके उन्हें फिर से प्राप्त करने की चाह मन में उठ पड़ती। अन्तर एक मीठी सिहरन से भर जाता। और जब उसे इसका ख़याल आता, तो वह अपने को धिक्कारने लगती। इस तरह एक अजीब रहस्यमय द्वन्द्व उसके मन में बस गया। और वह जान-बूझकर यह भी अनुभव करती रही कि कौन पक्ष जीत रहा है, कौन हार रहा है।
अब पहली-सी हालत उसकी न रही। अब घर में काम-काज, सास-ससुर की सेवा में उसकी वह तन्मयता न रही। अब जैसे वह-सब आधे मन से करती, अब कभी-कभी सास किसी काम में देर होने पर उसे डाँटती, तो वह जवाब भी दे देती, ‘‘दो ही हाथ हैं मेरे! क्यों नहीं तुम्हीं कर लेतीं? लौंडी की तरह रात-दिन तो खट रही हूँ! फिर भी यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ! सुनते-सुनते मेरे कान पक गये! ...’’
सास सुनती, तो बड़बड़ाने लगती। अनाप-शनाप जो भी मुँह में आता, कह जाती। भाभी में अभी उससे ज़बान लड़ाने की हिम्मत न थी। फिर भी होंठों में बुदबुदाने से अब वह भी बाज न आती।
धीरे-धीरे दोनों चिड़चिड़ी हो गयीं और झल्ला-झल्लाकर बातें करने लगीं। एक दुखमय शान्ति, जो इतने दिनों घर में छायी रही थी, वह अब ख़तम हो गयी। अब तो टोले-मोहल्लेवालों के कानों तक भी इस घर की बातें पहुँचने लगीं। ये बातें दो कुण्ठित, बीमार जिन्दगियों की थी—चिढ़, गुस्से, विवशता और व्यर्थता से भरी।
एक दिन सुबह भूसा-घर से खाँची में भूसा निकालकर दालान में खड़े हलवाहे को देने भाभी आयी तो खाँची हाथ में लेते हुए हलवाहे ने कहा, ‘‘छोटी मालकिन, कई दिनों से एक बात कहने को जी होता है, बुरा तो न मानेंगी?’’
कपड़े पर पड़े भूसे के तिनकों को साफ करती हुई भाभी बोली, ‘‘क्या बात है? तुझे कुछ चाहिए क्या?’’
‘‘नहीं, मालकिन,’’ हलवाहे ने आँखों में नंगी करुणा और होंठों पर सच्चा मोह लाकर, बड़ी ही सहानुभूति के स्वर में कहा, ‘‘मालकिन, आपकी देह देखकर मुझे बड़ा दु:ख होता है! अभी आपकी उम्र ही क्या है? इसी उम्र से इस तरह आपकी ज़िन्दगी कैसे कटेगी? इतने ही दिनों में आपकी सोने की देह कैसे माटी हो गयी? मालकिन, आपको इस रूप में देखकर मुझे बड़ा दुख होता है!’’ कहते-कहते ऐसा लगा कि वह रो देगा।
भाभी के चेहरे की उदास छाया और भी काली हो गयी। वह बोली, ‘‘क्या करें, बिलरा, भाग्य के आगे किसका बस चलता है? विधाता ने सेनुर मिटा दिया, करम फोड़ दिया, तो अब इस तरह रो-धोकर ही तो ज़िन्दगी काटनी है। तू दुख काहे को करता है? करम का साथी कौन होता है? विधाता से ही जब मेरा सुख न देखा गया, तो...’’ वह आँखों पर आँचल रखती सिसक पड़ी।
एक ठण्डी साँस लेकर बिलरा बोला, ‘‘यह कैसा रिवाज है मालकिन, आपकी बिरादरी का? इस मामले में तो हमारी ही बिरादरी अच्छी है, जो कोई बेवा इस तरह अपनी ज़िन्दगी ख़राब करने को मजबूर नहीं। मेरी ही देखिये न। भैया भाभी को छोडक़र गुजर गये, तो भौजी का ब्याह मुझसे हो गया। मजे से ज़िन्दगी कट रही है। और आप ऊँची बिरादी में क्या पैदा हुईं कि आपकी ज़िन्दगी ही ख़राब हो गयी...क्या कहूँ मालकिन, मन में उठता तो है कि छोटे मालिक से अगर आपका ब्याह हो जाता...’’
‘‘बिलरा!’’ ऊँची बिरादरी का अहंकार भभक उठा, ‘‘फिर कभी यह बात जबान पर मत लाना! जिस कुल का तू नमक खाता है, उसकी मर्यादा का तू ख़याल न कर, ऐसी बात फिर मुँह से निकाली, तो मैं तेरी ज़बान खींच लूँगी! तुझे क्या मालूम नहीं कि इस कुल की विधवा ज़िन्दा जलकर चिता में भस्म हो जाती है, लेकिन...जा, हट जा तू!’’ कहकर भाभी अपनी चारपाई पर जा गिरी और फफक-फफककर रोने लगी।
सास-ससुर अभी सो रहे थे। काफी देर तक भाभी रोती रही। यह रोना एक अपमानित आत्मा के अहंकार का था। नीच, कमीने आदमी ने जिस तार को छेड़ा था, वह कितनी ही बार आप-ही-आप भी झंकृत हुआ था, भाभी ने उसका स्वाद मन-ही-मन लिया था। लेकिन यह तार इतना गोपनीय, इतना अहंकारों और संस्कारों के बीच छिपाकर सावधानी से रखा गया था कि उसे कभी कोई छू पाएगा, इसकी कल्पना भाभी को न थी। उसी तार पर उस नीच कमीने आदमी ने सीधे उँगली रख दी थी। यह क्या कोई साधारण अपमान की बात थी! भाभी की क्षुब्धता ही रुदन में फूटी थी। इस क्षुब्धता की एक धार जहाँ उस कमीने की गरदन पर थी, वहीं उसकी दूसरी धार स्वयं भाभी की गरदन पर, इसका ज्ञान भाभी को था। वरना वह कमीना क्या थप्पड़ खाये बिना जा पाता? राजपूतनी के खून की बात थी कि कोई ठट्ठा?
भाभी उस दिन से और सावधान हो गयी, ठीक उसी तरह जैसे एक बार चोरी पकड़े जाने पर चोर। अब वह बिलरा के सामने भी न जाती। सास को सुबह ही जगा देती। उसी के हाथ दूध निकालने के लिए घूँचा और नाँद में चलाने के लिए भूसा भी भिजवाती। कोई भी हो, आख़िर मरद ही तो है। किसी मरद के सामने विधवा न जाना चाहे, तो इसकी प्रशंसा कौन न करे?
जो भी हो, उस कमीने आदमी की उस बात ने भाभी की गोपनीय, पाप-मय कल्पनाओं को परवान चढऩे के लिए एक मजबूत आधार दे दिया। जाने-अनजाने भाभी के ख़याल में देवर अब उभर-उभर आता। उनकी सैकड़ों बातों की यादें ऐसा-ऐसा रूप लेकर आतीं कि भाभी को शंका होने लगी कि देवर कहीं सचमुच तो उसे नहीं चाहता था। मासूम, निष्कलंक, निश्छल, पवित्र स्नेह पर वासना की झीनी चादर ओढ़ाते किसको कितनी देर लगती है? फिर भाभी का भूखा मन आजकल तो ऐसी कल्पनाओं में ही मँडराया करता, कभी-कभी तो उस कमीने की बिरादरी से भी ईर्ष्या हो जाती कि काश...तभी फिर न जाने कहाँ से एक कठोर पुरुष आ भाभी पर इतने कोड़े लगा देता कि भाभी खून-खून हो छटपटा उठती।
भाभी की कल्पनाओं की सेज भी काँटों की थी, जिस पर उसकी देह पल-पल छिदती रहती।
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