गंगा मैया-12 / भैरवप्रसाद गुप्त
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बारह
दीयर में इस साल खूब हुमककर रब्बी आयी थी। मीलों पकी गेहूँ की फसल से जैसे आसमान लाल हो उठा था। कटिया लगने की ख़बर पाकर दूर-दूर से कितने ही औरत-मर्द बनिहार आकर वहाँ बस गये थे। कम-से-कम पन्द्रह-बीस दिन कटिया चलेगी। मटरू पहलवान खूब बन देता है और किसानों को भी ताकीद कर दी है कि बनिहारों के बन में कोई कमी न करें। सो, बनिहार मोटरी बाँध-बाँधकर अनाज ले जाएँगे।
गंगा मैया के किनारे एक मेला-सा लग गया है। कई दुकानदार भी घाठी-पिसान, साग-सत्तू, बीड़ी-तमाकू की छोटी-छोटी दुकानें लगाकर बैठ गये हैं। अनाज के बदले वे सौदा देते हैं। पैसा यहाँ किसके पास है? बनिहारों को रोज शाम को बन मिलता है, उसी में से खर्चे के लिए वे थोड़ा सा मीस लेते हैं और ज़रूरत की चीजों से दुकानदारों के यहाँ बदल आते हैं। दिन में तो सभी बनिहार सत्तू खाते हैं। लेकिन रात में रोटी-लिट्टी सेंकने के लिए जब सैकड़ों अहरे गंगा मैया के किनारे जल उठते हैं, तो मालूम होता है, जैसे आसमान में धुँए के बादल छा गये हों।
मटरू यह सब देखता है, तो फूला नहीं समाता। लोग-बाग मटरू की इतनी सराहना करते हैं कि वह शरमा जाता है। लोग कहते हैं, ‘‘यह मटरू पहलवान का बसाया इलाका है। दूसरे किसमें इतनी सूझ और हिम्मत थी, जो जंगल को भी गुलज़ार कर देता? पुश्तों से दीयर पड़ा था। कभी कहीं कोई दिखाई न देता था। अब वही धरती है कि मेला लग गया है। सैकड़ों किसानों और बनिहारों की रोजी का सहारा लग गया है। सब उसे असीस दे रहे हैं। पुश्तों से धाँधली करके ज़मींदार जंगल बेचकर हज़ारों हड़पते रहे। मटरू पहलवान के पहले था कोई उनका हाथ पकडऩे वाला? भाई आदमी हो तो मटरू पहलवान की तरह! शेर है, उस पर हज़ारों आदमी क्या यों ही जान दे रहे हैं? दिलों पर ऐसे ही इन्सान राज करते हैं। अब है ज़मींदारों की मजाल कि उसकी तरफ आँख उठा दें।’’
मटरू सुनता है, तो दोनों हाथ नदी की ओर उठाकर कहता है, ‘‘यह सब हमारी गंगा मैया की किरिपा है! उसके भण्डार में किसी चीज की कमी नहीं। लेने वाला चाहिए, भैया, लेनेवाला! माँ का आँचल क्या कभी बेटों के लिए खाली होता है? वह भी जगत् की माता, गंगा मैया का!’’
कृष्ण पक्ष का चाँद जैसे ही आसमान में प्रकट हुआ, मटरू और पूजन ने बनिहारों को हाँक देना शुरू कर दिया। दिन में गरमी और लू के मारे बनिहार परेशान हो जाते हैं, ठण्डी सुबह के दो-तीन घण्टे में जितना काम हो जाता है, उतना दिन के आठ-दस घण्टों में भी नहीं होता। बनिहार नदी के किनारे ठण्डी रेत पर गहरी नींद में कतार लगाकर सोते थे। बड़ी प्यारी उत्तरहिया हवा बह रही थी। चाँद मीठी शीतलता की बारिश कर रहा था। नदी धीमे-धीमे कोई मधुर गीत गुनगुना रही थी। हाँक सुनते ही बनिहार और बनिहारिनें उठ खड़ी हुईं। आलस का नाम नहीं। थकी देहों को नदी की हवा जैसे ही छूती है, उनमें फिर से नयी ताजगी और स्फूर्ति आ जाती है। यहाँ की दो-चार घण्टे की नींद से ही गाँवों की रात-भर की नींद से कहीं ज्यादा आराम और विश्राम आदमी को मिल जाता है।
डाँड़ पर आग सुलग रही है, पास ही तमाकू और खैनी रखी हुई है। जो तमाकू पीता है, वह चिलम भर रहा है। जो खैनी खाता है, वह सुरती फटक रहा है। थोड़ी देर तक बूढ़े-बूढिय़ों की खों-खों से फिज़ा भर जाती है। फिर कटनी शुरू हो जाती है।
खेत की पूरी चौड़ाई में बनिहार और बनिहारिनें कतार लगाकर पाँवों पर बैठी काट रही हैं, बनिहार एक ओर बनिहारिनें दूसरी ओर। एक सिरे पर मटरू जुटा है और दूसरे पर पूजन। पूजन ने बगल की बूढ़ी औरत को कुहनी मारकर हँसते हुए कहा, ‘‘कढ़ाओ एक बढिय़ा गीत।’’
बूढ़ी ने मुस्कराकर अपनी बगलवाली को कुहनी मारी, और फिर पूरी जंजीर झनझना उठी। नवेलियों ने खाँसकर गला साफ किया। एकाध क्षण ‘‘तू कढ़ा, तू कढ़ा’’ रहा। फिर धरती की बेटियों के कण्ठ से धरती का जंगली मधु-सा गीत फूट पड़ा। चेहरे दमक उठे, आँखें चमक उठीं, हाथों में तेजी आ गयी। काम और संगीत की लय बँधी, फिजा झूम उठी, चाँद और सितारे नाचने लगे, गंगा मैया की लहरें उन्मत्त हो-होकर तट से टकराने लगीं-
‘‘ऐ पिया, तू परदेस न जा,
वहाँ तुझे क्या मिलेगा, क्या मिलेगा?
यहाँ खेत पक गये हैं, सोने की बालियाँ झूम रही हैं।
मैं हँसिया लेकर भिनसारे जाऊँगी,
गा-नाचकर फसलों के देवता को रिझाऊँगी,
खुश होकर वह नया अन्न देगा, मैं फाँड़ भरकर लाऊँगी।
कूटूँगी, पीसूँगी, पुआ पकाऊँगी,
ठहर देके पीढ़े पर तुझको बैठाऊँगी!
अपने ही हाथों से रच-रच खिलाऊँगी।
याद है तुझे वह पिछली फसल की बात?
ऐ पिया, तू परदेस न जा।
वहाँ तुझे क्या मिलेगा, क्या मिलेगा?’’
ऊषा की सिन्दूरी आभा धीरे-धीरे खेतों में फैलकर रंगीन झील की तरह मुस्करा उठी। बनिहारों और बनिहारिनों के चेहरे स्वर्ण-मूर्तियों की तरह दमक उठे। नदी का पानी सुनहरी आबेरवाँ के दुपट्टे की तरह लहरा उठा। कहीं दूर से दरियाई पक्षियों की कूकें शान्त, सुहाने वातावरण में गूँजने लगीं। प्रकृति ने एक अँगड़ाई लेकर खुमार-भरी पलकें उठायीं। सूरज की पहली किरण ने उसके अधर चूमे और चर-अचर ने झूमकर जीवन और प्रेम की रागिनी छेड़ दी।
तभी मटरू के कानों में आवाज पड़ी, ‘‘मटरू भैया!’’
अचकचाकर मटरू ने देखा और लपककर गोपी के गले से लिपटकर कहा, ‘‘गोपी, अरे गोपी! तू कब आ गया, भैया?’’
‘‘खूब पूछ रहे हो! चार-पाँच महीने हो गये हमें आये, ख़बर भी न ली?’’ गोपी ने शिकायत की।
‘‘इतनी जल्दी कैसे छूट गये? मैं तो सोचता था, इस महीने में छूटोगे।’’ उसके दोनों बाजुओं को अपने हाथों से दबाता मटरू बोला।
‘‘छ:महीने और रेमिशन के मिल गये। सुना कि उधर तुम बराबर घर आते-जाते रहे। इधर क्यों नहीं आये? मैं तो बराबर तुम्हारा इन्तज़ार करता रहा। मजे में तो रहे?’’ गोपी बोला।
‘‘हाँ, गंगा मैया की सब किरिपा है! तुम अपनी कहो? इधर कामों में बहुत फँसे रहे। यहाँ से हटना बड़ा मुश्किल होता है। सोचा था कि कटनी ख़तम होते ही तुम्हारे पास यहाँ एक रात हो आऊँगा। अच्छा किया कि तुम आ गये। मेरे तो पाँव फँस गये हैं।’’ अपनी झोंपड़ी की ओर गोपी को ले जाते हुए मटरू ने कहा।
‘‘तुम तो कहते थे कि यहाँ तुम्हीं रहते हो, मैं देखता हूँ कि यहाँ तो एक छोटा-मोटा गाँव ही बस गया है।’’ चारों ओर देखता हुआ गोपी बोला।
मटरू हँसा। बोला, ‘‘सब गंगा मैया की किरिपा है। अब तो सैकड़ों किसान हमारे साथ यहाँ बस गये हैं। मटरू अब अकेला नहीं है। उसका परिवार बहुत बड़ा हो गया है!’’ और फिर वह हँस पड़ा।
झोंपड़ी के सामने लखना कन्धे तक दाहिने हाथ में पानी-भूसा लिपटाये खड़ा उन्हें देख रहा था। मटरू ने कहा, ‘‘तेरा चाचा है बे, क्या देख रहा है? चल, पाँव पकड़!’’
लखना पाँव पकडऩे लगा, तो गोपी ने उसे हाथों से उठाकर कहा, ‘‘बडक़ा है न?’’
‘‘हाँ,’’ मटरू ने कहा, ‘‘क्यों बे, भैंस दुह चुका?’’
‘‘हाँ,’’ लडक़े ने सिर झुकाकर कहा।
‘‘तो चल, चाचा के लिए एक लोटा दूध तो ला। और हाँ, लपककर खेत पर जा। पाँती छोडक़र आया हूँ।’’ चटाई पर गोपी को बैठाते हुए मटरू ने कहा।
‘‘अरे, अभी तो मुँह-हाथ भी नहीं धोया। क्या जल्दी है?’’ गोपी ने कहा।
‘‘शेर भी कहीं मुँह धोते हैं? और फिर दूध के लिए क्या मुँह धोना?’’ हँसकर मटरू ने कहा।
जेल घर की सब बातें कहकर गोपी ने कहा, ‘‘प्राण संकट में पड़ गये हैं। तुमसे राय लेने चला आया। अब तुम्हीं उबारो, तो जान बचे। रोज-रोज मेहमान घर खन रहे हैं। समझ में नहीं आता, क्या करूँ। भाभी की दशा नहीं देखी जाती। बड़ा मोह लगता है! उसकी छाती पर खुशी मनाना हमसे तो न होगा!’’
‘‘सच पूछो, तो इसी उधेड़-बुन में मैं भी पड़ा था। वहाँ जाने पर माई और बाबूजी तुम्हारी शादी पक्की करने की बात कहते थे और मैं टाल जाता था। जब से तुम्हारी भाभी को देखा, दुनिया भर की लड़कियाँ नजर से उतर गयीं। सोचा थे, तुम आ जाओ, तो कुछ सोचा जाए। भैया सच कहना, तेरा मन भाभी के साथ शादी करने को है? हमको तो लगता है कि तुम उसे बहुत मानते हो।’’
‘‘मेरे चाहने से ही क्या हो जाएगा?’’ गोपी ने उदास होकर कहा।
‘‘क्यों न होगा? मर्द हो कि कोई ठट्ठा है? सारी दुनियाँ के ख़िलाफ तुम्हारा मटरू अकेले तुम्हें लेकर खड़ा होगा! क्या समझते हो मुझे? मैंने तो यहाँ तक सोचा कि अगर तुम्हारे माँ-बाप घर से निकाल दें, तो यहाँ मेरी झोंपड़ी के पास एक और झोंपड़ी खड़ी हो जाएगी। और देख रहे हो न ये खेत! मिल-जुलकर काम करेंगे। कोई साला हमारा क्या कर लेगा? सच कहूँ, गोपी, तेरी भाभी की सोचकर मेरा भी कलेजा फटता है। तू उसे अपना ले! बड़ा पुण्य होगा, भैया! कसाई के हाथ से एक गऊ और मिस्कार के हाथ से एक चिरई बचाने में जो पुण्य मिलता है, वही तुझे मिलेगा। बहादुर ऐसे मौके पर पीठ नहीं फेरते!’’ गोपी की पीठ ठोंकते हुए मटरू ने कहा।
‘‘लेकिन उसकी भी तो कोई बात मालूम हो। जाने क्या सोच रही हो। वह तैयार होगी, भैया?’’ गोपी ने होंठों में कहा।
‘‘अरे, पाँच महीने तुझे आये हो गये और तुझे यह भी मालूम नहीं हुआ?’’ मटरू ने आश्चर्य प्रकट किया।
‘‘कैसे मालूम हो, भैया? वह तो बिलकुल गूँगी हो गयी है। बस आँसू भरी आँखों से वैसे ही देखा करती है, जैसे छूरी के नीचे कबूतरी। मैं कैसे जानूँ...’’
‘‘अबे, तो एक दिन पूछकर देख।’’
‘‘लेकिन, माई, बाबू...’’
‘‘एक बात तू समझ ले। माई-बाबू के चक्कर में अगर पड़ा, तो यह नहीं होगा! रीति-रिवाज और संस्कार को बूढ़े जान के पीछे रखते हैं। उम्र-भर की कमाई इज्ज़त आबरू को वे प्राणों से वैसे ही चिपकाये रहते हैं, जैसे मरे बच्चे को बन्दरिया। समझा? तू उनके चक्कर में न पड़! जवान आदमी है। अबे, तुझे डर काहे का? फिर मैं जो हूँ तेरी पीठ पर! देखेंगे कि तेरे ख़िलाफ जाकर कौन क्या कर लेता है! हिम्मत चाहिए, बस हिम्मत! हिम्मत के आगे दुनिया झुक जाती है!’’
‘‘अच्छा, तो तुम कब आओगे? तुम जरा माई-बाबूजी को समझाते। वे बड़ी जल्दी मचाये हुए हैं।’’
‘‘बस, चार-पाँच दिन में। खेत कटने-भर की देर है। मैं सब कर लूँगा। बस, तू अपनी भाभी को समझा ले। चल, तुझे खेत दिखाऊँ। उधर से ही गंगा मैया में गोता लगाकर लौटेंगे।’’
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