गंगा मैया-13 / भैरवप्रसाद गुप्त

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तेरह

कितने ही मेहमान आ-आकर जब निराश हो-होकर लौट गये, तो एक दिन, जब भाभी अपनी पूजा में तल्लीन थी, माँ ने गोपी को बुलाया और पिता के सामने ला खड़ा किया। पिता की मुख-मुद्रा अत्यधिक गम्भीर थी। गोपी समझ न सका कि आख़िर क्या बात है।

पिता ने उसे और पास बुलाकर कहा, ‘‘बेटा, मेरी और अपनी माँ की अवस्था देख रहे हो न?’’

गोपी ने जैसे किसी आशंका से भरकर सिर हिला दिया।

‘‘बेटा, अब हमारा कोई ठिकाना नहीं। आज किसी तरह कट गया, तो कल दूसरा दिन समझो। हमारे दिल में क्या-क्या अरमान थे, आज उन्हें याद करके हमारा कलेजा फट जाता है। खैर, भगवान् की जो इच्छा थी, पूरी हुई। लेकिन अब क्या तू चाहता है कि घर-गिरस्ती को इसी उजड़ी अवस्था में छोडक़र हम...’’ कहते-कहते उनका कण्ठ उमड़ती हुई पीड़ा के आवेग से रुद्ध हो गया।

माँ ने सिसकते हुए अपना मुँह आँचल से ढँककर फेर लिया।

गोपी के दुखी हृदय के जख्मों के टाँके जैसे किसी ने निर्दयतापूर्वक पट-पट तोड़ दिये। उसकी आत्मा दर्द के मारे कराह उठी। वह अपने को और सँभालने में असमर्थ होकर वहाँ से हटने लगा, तो पिता ने भरे गले से टूटे स्वर में कहा, ‘‘हमारे रहते ही अगर तू घर बसा लेता, तो कम-से-कम हम शान्ति से...’’

गोपी आगे की बात न सुन सका। वह चौपाल में जाकर बिलख-बिलखकर रो पड़ा। ओह, उसे कोई क्यों नहीं समझ रहा है? किसी को अपनी बेटी के ब्याह की फिक्र है, तो किसी को उसके कुल के नाम-निशान की फिक्र है। माँ-बाप को उजड़ा घर बसाने की फिक्र है। लेकिन उसके चोट खाये दिल की क्यों किसी को फिक्र नहीं है?

यह सोच-सोचकर वह बार-बार झुँझलाया और उसने झुँझला-झुँझलाकर इसे बार-बार सोचा। आख़िर वह एक नतीजे पर पहुँच गया। उसे दृढ़ता के साथ समाज की ओर से, दुनिया की ओर से आँखें मूँदकर उत्तेजना की स्थिति में निश्चय किया कि वह घर बसाएगा, ज़रूर बसाएगा, लेकिन इस तरह बसाएगा, कि एक साथ ही उसके हृदय की चोटों पर भी मरहम लग लाए और उसकी विधवा भाभी के जलते जीवन पर भी शीतल जल के छींटें पड़ जाएँ।

दूसरे दिन शाम को जब माँ बाप के पैताने बैठकर उनके पैर दबा रही थी, गोपी पूजा-घर में जाकर धक-धक करता हृदय लिये भाभी के पीछे खड़ा हो गया। भाभी पूजा में तल्लीन थी। रामायण का पाठ चल रहा था...‘‘एहि तन सती भेंट अब नाहीं...’’ भाभी इसी पंक्ति को बार-बार भरे गले से दुहरा रही थी। आँखों से टप-टप आँसू चू रहे थे।

गोपी का हृदय करुणा से भर गया। उसकी आँखों से भी आँसू की धारा बह चली।

आख़िर आँचल से आँखें सुखाकर, भाभी ने पूजा समाप्त कर ठाकुर के चरणों पर सिर नवाया। फिर चरणामृत पान करके उठी, तो सामने देवर को एक विचित्र अवस्था में खड़ा देखकर पहले तो उसकी आँखें फैल गयीं, फिर दूसरे क्षण पलकें झपकने लगीं। जेल से लौटने के बाद गोपी एक बार भी भाभी से आँखें न मिला सका था, एकान्त में मिलने की बात तो दूर रही। भाभी एक बार गोपी की ओर चकित हिरनी की तरह देखकर बगल से जाने लगी, तो गोपी ने प्राणों का सारा साहस बटोरकर अपने काँपते हुए हाथ से उसकी कलाई पकड़ ली। भाभी के मुँह से जैसे एक चीख़-सी निकल गयी, ‘‘बाबू!’’

गोपी का चेहरा तमतमा उठा। आवेश में जलता हुआ वह काँपते स्वर में बोला, ‘‘भाभी, अब मुझसे यह-सब नहीं देखा जाता!’’

भाभी अपने देवर को खूब जानती थी। उसकी एक ही बात, एक ही हरकत से वह उसके मर्म की सारी बातें जान गयी। उसकी आँखों की वीरानी और विवशता पर खुशी की एक किरण फूटी और अदृश्य हो गयी। वह रुदन भरे स्वर में बोली, ‘‘मेरे भाग्य में यही लिखा था, बाबू;’’ और रुदन के उमड़ते आवेश को रोकने के लिए उसने होंठों को दाँतों से भींच लिया।

‘‘मैं भाग्य-वाग्य की बात तो नहीं जानता, भाभी! मैं तो सिर्फ अपने दुख और तुम्हारे दुख की बात जानता हूँ। क्या हम दोनों मिलकर यह दुखी जीवन साथ-साथ नहीं काट सकते? उजड़े हुए दो दिलों के मिलने पर क्या कोई नयी दुनिया नहीं बस सकती?’’ कहकर गोपी ने भरी आँखों से आग्रहपूर्ण निवेदन लाकर भाभी की ओर देखा।

भाभी ने एक ठण्डी साँस ली, दूसरे क्षण उसका चेहरा एक आशा और निराशा की द्वन्द्व भरी करुण मुस्कान से विचित्र सा हो गया। बोली, ‘‘ऐसा कभी नहीं हुआ...बाबू, ऐसा भी क्या...

‘‘ऐसा कभी नहीं हुआ, इसीलिए आगे भी कभी नहीं होगा, यह बात मैं नहीं मानता। भाभी! मैं तो बस यही जानता हूँ और खूब सोच-समझकर देख भी लिया है कि इसके सिवा हमारे-तुम्हारे लिए कोई दूसरी राह नहीं है! मैं तुम्हारी इस अवस्था के रहते अपने जीवन में एक क्षण को भी चैन से न रह पाऊँगा!’’ गोपी ने सीधे दिल की बात कहकर आँखें नीची कर लीं।

उसके हृदय की तड़पती सच्चाई को भाभी समझ न पायी हो, यह बात नहीं। देवर के हार्दिक स्नेह से यह सदा दबी रही है। उसी का सहारा लेकर वह आज भी एक असम्भव को उसी तरह गले लगाये हुए है, जैसे बिच्छी अपने पेट में बच्चों को पालती है। बिच्छी के प्राण उसके बच्चे ले लेते हैं यही सोचकर वह उनसे अपना गला तो नहीं छुड़ा लेती! भाभी के प्राण भी ऐसे ही निकल जाएँगे, वह जानती है। फिर भी उस असम्भव को अपने मन से एक क्षण को भी वह अलग कहाँ कर पायी है? आज के इस अवसर को उसे मुद्दतों से इन्तज़ार था। उसने बहुत बार यह भी सोचा था कि ऐसे अवसर पर वह क्या कहेगी। लेकिन अब अवसर सचमुच उसके सामने आ गया, तो उसे लगा कि मन की बात उसके होंठों पर आयी नहीं कि देवर के सामने वह छोटी हो जाएगी। इस अवस्था में उसे लगा कि उस बात को बरबस दबाना ही पड़ेगा। उसकी विवशता देवर को भी मालूम है, उसे यह भी मालूम है कि भाभी अपने प्यारे देवर के हार्दिक स्नेह, सच्ची सहानुभूति का भार वहन कर सकने में आज कितनी असमर्थ है; वह यह भी जानता है कि उसके किए ही कुछ हो सकता है। भला भाभी के लिए वैसे देवर का निवेदन ठुकरा देना, अपने और उसके अब तक चले आये स्नेह-सूत्र में बँधे सम्बन्ध को तोड़ देना कैसे सम्भव है? इतना सब जानकर भी भाभी के मुँह से कुछ निकालकर उसे वह छोटा क्यों बनाना चाहता है।

असमंजस में पड़ी-सी भाभी बोली, ‘‘हमारा समाज, हमारी बिरादरी, हमारे माँ-बाप ऐसा कभी नहीं होने देंगे, बाबू!’’

‘‘भाभी, इस सबको तुम मेरे ऊपर छोड़ दो, मैं तो तुमसे यह जानना चाहता हूँ कि जिस राह पर चलना मैंने तय कर लिया है, उस पर तुम भी मेरे साथ-साथ चल सकोगी न!’’ कहकर गोपी ने भाभी की कलाई अपने हाथ में दबाकर उसकी ओर ऐसे आँखों में कलेजा निकालकर देखा, जैसे उसके जवाब पर ही उसका जीवन-मरण निर्भर हो।

भाभी के होंठों में कम्पन हुआ। मन की बात होंठों पर आकर उबलने लगी। लेकिन फिर भी, लाख साहस बटोरने के बाद भी मुँह से कुछ निकल न सका। उसके हृदय का द्वन्द्व मुँह तक आयी बात को जैसे गट-से पी गया। हृदय की तूफानी धडक़न पर काबू पाने के लिए उसने अपना तमतमाया, काँपता मुँह नीचे कर लिया। और गोपी को मानो उत्तर मिल गया। उसके जी में आया कि भाभी को खींचकर अपने कलेजे से लिपटा ले। उसके हाथ में एक हरकत भी हुई, लेकिन दूसरे ही क्षण वह अपने को रोकने के लिए ही भाभी की कलाई छोडक़र, झपटकर बाहर हो गया।

भाभी हृदय का उमड़ता आवेग निकालने को ठाकुर के चरणों में गिरकर विह्वल होकर रो पड़ी—‘‘भगवान्! भगवान्! क्या सच ही...’’

गोपी माँ-बाप के सामने जाकर खड़ा हो गया। बाप ने उसकी ओर देखकर पूछा, ‘‘दाना मीसना अब कितना रह गया, बेटा?’’

‘‘आज ख़तम हो गया, बाबूजी।’’

‘‘अच्छा, तो जा, हाथ-मुँह धो ले। भाभी ने रोटी सेंक ली हो, तो गरम-गरम खा ले। दिन-भर का थका-हारा है।’’ फिर अपनी औरत की ओर देखकर कहा, ‘‘फसल घर आ जाती है, तो किसाऩ की साल-भर की मेहनत सुफल हो जाती है। काम से ज़रा फुरसत पा उस दिन वह आराम की एक साँस लेता है।’’

‘‘बाबूजी।’’

बाप ने मुडक़र फिर गोपी की ओर देखकर कहा, ‘‘क्या कहता है? कोई बात है?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘तो कहो!’’

‘‘बाबूजी, अब मैं घर बसाऊँगा।’’

‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है, बेटा! हम तो तुम्हारी इसी बात का, जब से तुम आये, इन्तज़ार कर रहे थे। कर ही लो। तय करते कितनी देर लगेगी! कितने आ-आकर चले गये। अरे हाँ, मटरू इधर महीनों से नहीं आया। कह गया था, मैं ही गोपी का ब्याह कराऊँगा। भूल गया होगा। दाने मीसने से आजकल किस किसान को कहाँ किसी बात की फिक्र रह जाती है! खैर, अब सब ठीक हो जाएगा, बेटा! तुझे कोई चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं!’’ फिर अपनी औरत की ओर मुडक़र खुशी से पागल हुए-से बोले, ‘‘खेत का धन कट-कुटकर जब घर आ जाता है तो किसान का ध्यान खेत से हटकर घर में आ जाता है! क्यों, गोपी की माँ?’’

माँ खुशी में फूली हुई अपने आँचल से अपने लाडले के मुँह पर जमी धूल-गर्द को पोंछती हुई बोली, ‘‘सो तो है ही गोपी के बाबूजी! घर भरता है तो पेट भरता है, और जब पेट भरता है तो...’’ और वह जोर से खी-खी कर हँस पड़ी, तो बूढ़े भी हो-हो कर उठे।

‘‘लेकिन बाबूजी...’’ सिर झुकाये, हाँथों को उलझाता गोपी बोला।

‘‘तुम फिक़्र न करो, बेटा! सब ठीक हो जाएगा, बेटा! मेरे कुल से सम्बन्ध करने का लोभ किसमें नहीं? अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। तू लायक बनकर रहेगा, तो सब बिगड़ी बन जाएगी। वही देखने को तो अभी तक मैं जिन्दा हूँ। क्यों, गोपी की माँ?’’

‘‘और नहीं तो क्या? मेरा लाल सलामत रहे, तो फिर घर खमखम भर जाएगा। हे भगवान!’’ और बूढ़ी ने दोनों हाथ माथे से लगा लिये।

‘‘मगर, बाबूजी,’’ सूखते गले के नीचे थूक उतारता गोपी बोला, ‘‘मैं...मैं ...मुझे...मुझे...अपना घर बसाने के लिए किसी दूसरी लडक़ी को नहीं लाना है। मैंने तय किया कि भाभी...’’

‘‘क्या?’’ क्रोध में काँपते पिता ऐसे चीख पड़े कि उनकी आँखें निकल आयीं। माँ जैसे सहसा जमकर पत्थर हो गयी। उसका मुँह और आँखें सीमा से अधिक फैल गयीं। पिता ने गरजकर कहा, ‘‘मेरे जीते-जी अगर तूने यह बात फिर मुँह से निकाली, तो...तो...तू सुन ले, वह मेरे घर की देवी हो सकती है, लेकिन बहू...बहू वह मानिक की ही रहेगी। तूने अगर...ओह, मानिक की माँ?’’ उनका क्रोध में उठा हुआ कमर से ऊपर का शरीर काँपता हुआ कटे हुए पेड़ की तरह धम से गिर पड़ा और वे दोनों ठेहुनों पर हाथ रखते ज़ोर से कराह उठे। माँ जलती हुई आँखों से गोपी की ओर देखती गुस्से से काँपती उनके ठेहुनों को सहलाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी।

बूढ़े की कडक़ सुनकर कई आदमी लपक आये। भाभी दरवाज़े पर आकर होंठ चबाने लगी।

गोपी हाथों से सिर पकड़े वहाँ से हट गया।

दुनिया समझती है कि बेटा और विधवा बहू माँ-बाप की आँखों के तारे हैं। बूढ़ा कैसे दूसरों से कहता है, ‘‘मेरे घर की लक्ष्मी है! बेवा हुई तो क्या, वह मेरी जान के पीछे है! उसकी सेवाओं का बदला क्या इस जीवन में मैं चुका सकता हूँ? पिछले जनम की वह मेरी बेटी है, अगले जनम में मैं उसकी बेटी बनकर उसकी सेवा करूँगा, तभी ऋण से उऋण हो पाऊँगा?’’ और माँ? ‘‘इसे मैं अपनी आँखों की पुतरी की तरह रखूँगी! मेरे लिए तो यह मेरा मानिक ही है? बड़ी बहू एक दिन घर की मालकिन बनेगी! उसे तुलसी की तरह सब अपने सिर पर रखेंगे!’’ लेकिन कोई भोले गोपी से तो पूछे कि वे उसके लिए क्या हैं? ओह, उनकी आँखों की लपटों ने क्यों नहीं उसे वहीं जलाकर भसम कर दिया, क्यों नहीं बढक़र भाभी को जला दिया, क्यों नहीं फैलकर सारे घर को जला दिया? सब झंझट ही साफ हो जाता। फिर बूढ़ा-बूढ़ी बैठकर मसान जगाते!

गोपी का सारा तन-मन फुँक रहा था। उसके जी में आता था कि अभी सबको नोच-नाचकर रख दे और भाभी का हाथ पकडक़र घर से निकल जाए। कई बार चौपाल से घर में जाने को उसके पैर बढ़े और पीछे हटे! कई बार उसने दाँत भींच-भींचकर कुछ सोचा, लेकिन इतनी हिम्मत उसमें कहाँ थी कि माँ-बाप की छ़ाती पर पैर रखकर वह चला जाए। उसने कब सोचा था कि आख़िर उसे ऐसा भी करना पड़ेगा? वह तो सोचता था कि माँ-बाप का अकेला लाडला जैसे ही मुँह खोलेगा...।

वह विवश क्रोध में पागल-सा हो बाहर निकल पड़ा। उसे भय लगा कि सचमुच वह कहीं कुछ कर न बैठे!

उसकी अब तक बँधी आशा टूट गयी थी। इतने दिनों अपने हृदय से लडक़र उसने उससे जो समझौता किया था, वह व्यर्थ सिद्घ हो गया। पिता की एक बात ने ही उसके अब तक के खड़े किये गये महल को ठोकर मारकर गिरा दिया। एक नयी राह पर चलकर अपनी मंजिल के करीब वह पहुँचा ही था कि उसकी टाँगें तोड़ दी गयीं। आज वह जितना दुखी था, उससे कहीं अधिक क्षुब्ध था। अपने माँ-बाप पर। चली आयी खोखली रीति, समाज के एक थोथे रिवाज, सड़ी-गली एक रूढि़, कुल की एक झूठी मर्यादा के दम्भी पुजारी माँ-बाप अपने खूनी जबड़ों में एक फूल-सी सुकुमार, गाय-सी निरीह, रोगी-सी दुर्बल, निहत्थी-सी अपनी रक्षा करने में बेबस, कैदी-सी गुलाम, सुबह के आख़िरी तारे-सी अकेली युवती को दबाकर चबा डालना चाहते हैं। ओह! इन्हीं आँखों से कैसे वह निर्दयता का यह क्रूर दृश्य देखता रहेगा?

वह बौराया-सा कटे हुए खेतों-खलिहानों में परेशान दिमाग और क्षुब्ध हृदय लिये बड़ी रात तक घूमता रहा। उसे इस वक़्त सिर्फ एक मटरू ही ऐसा आदमी दिखाई देता था, जिसकी गोद में सिर डालकर वह जरा शान्ति का अनुभव करता। शायद वही अब कुछ करे। भाभी की ओर से तो उसे तसल्ली मिल ही गयी। उसके जी में आया, अभी दौडक़र मटरू के पास पहुँच जाए, लेकिन घर की सोचकर कि जाने आज भाभी पर क्या बीते, वह वापस लौट पड़ा।

वह खेतों से घर की ओर चला। चारों ओर सन्नाटा छाया था, काली रात ने सब कुछ ढँक लिया था।

चोर की तरह वह घर की दालान से खटोला निकालने को घुसा तो माँ की कडक़ती हुई आवाज़ सुनकर चौखट पर ठिठक गया।

माँ चोट खायी बाघिन की तरह गरज रही थी, ‘‘कलमुँही! तुझे शर्म न आयी देवर पर डोरा डालते। मैं तो समझती थी कि सावित्री-सी सती है बहू। क्या-क्या पाखण्ड रचे थे, पूजा-पाठ, ध्यान भक्ति, सेवा-सुश्रुषा! मुझे क्या मालूम था कि इस पाखण्ड की आड़ में तू मेरी नाक काटने की तैयारी कर रही है! चुड़ैल! तुझे लाज न आयी यह सब पाप करते? यही-सब करना था, तो तू क्यों न निकल गयी किसी पापी के साथ? तू काला मुँह करती, मेरा बेटा तो बच जाता तेरे जाल से! कितने ही आये रिश्ता लेकर और लौट गये। हम कहें क्या बात है कि वह किसी के कान ही नहीं देता। हमें क्या मालूम था कि भीतर-ही-भीतर तू बेशर्मी का नाटक रच रही है। कुशल है कि बूढ़ा अपंग हो गया है, नहीं तो तुझे आज बोटी-बोटी काटकर फेंक देता! तू चखती मज़ा अपनी करनी का! जा कहीं डूबकर कुल-बोरिन! ...’’

गोपी और ज़्यादा न सुन सका। उसका दिमाग फटने लगा। उसे लगा कि अगर वह एक क्षण भी वहाँ खड़ा रह गया, तो कुछ ऐसा भीषण काम कर डालेगा, जिसका फल अत्यन्त ही भयंकर होगा। वह लडख़ड़ाया हुआ-सा भागकर घर के पास कुएँ की जगत पर दोनों हाथ से फटता सिर दबाये पड़ गया। उसके हृदय में हाहाकार मचा था।

भाभी ने आज तक ऐसी बातें न सुनी थीं। आज जीवन के गुज़रे हुए दिन उसकी आँखों के सामने वैसे ही नाच उठे, जैसे किसी मरने वाले के सामने। माँ-बाप, भाई-बहन का लाड़, मानिक का प्यार, सास-ससुर, देवर का स्नेह। उधर, विधवा होने के बाद ज़रूर कुछ चिड़चिड़ी होकर वह सास से उलझी थी। लेकिन इस तरह की बात कोई कहे, इसका मौका उसने किसी को कभी न दिया था। आज भी उसकी कोई गलती न थी। फिर सास जो ऐसी बातें बिना कुछ जाने-बूझे, सोचे-समझे उसे सुनाने लगी, तो उसके मन की क्या हालत हुई, वह सहज ही समझा जा सकता है। उसका घायल हृदय हाहाकार कर उठा। इस अचानक बेकारण हमले से वह ऐसी सुन्न हो गयी कि न कुछ कह सकी, न रो सकी, न एक आह ही भर सकी। दिमाग भन्ना रहा था, चेतना पर असह्य पीड़ा का खामोश नशा-सा छा गया, अंग-अंग जैसे निर्जीव हो रहा था। जहाँ होश और बेहोशी एक-दूसरे से मिलते हैं, ऐसी स्थिति में वह बुत बनी बैठी रह गयी। सास बड़बड़ाती रही। लेकिन अब उसे जैसे कुछ सुनायी न दे रहा था। उसके सुन्न दिल-दिमाग की गहराइयों में सास की वह एक ही बात गूँज रही थी, ‘‘जा कहीं डूब मर, कुलबोरिन! जा...’’

कभी पहले भी मर जाने की बात उसके मन में उठी थी, लेकिन एक आशा, एक सहारे ने उसके हाथ थाम लिये थे। वह आशा असम्भव ही थी तो क्या, फिर भी आशा थी, लेकिन आज? आज वह भी टूट गयी। जिस तारे पर नज़र लगाये वह आज तक जीवित थी, वही टूटकर गिर पड़ा। अब, सिर्फ अन्धकार है, अन्धकार है, निविड़, कठोर, भयंकर!

बड़बड़ाते-ही-बड़बड़ाते सास खाट पर पड़ गयी और बड़बड़ाते-ही-बड़बड़ाते थककर सो गयी। उसे खाने-पीने, बूढ़े की दवा-दारू, बेटे की खोज-ख़बर, यहाँ तक कि घर का बाहरी दरवाजा बन्द करने की भी गुस्से के मारे सुधि न रही।

अँधेरी रात पल-पल गाढ़ी होती गयी। घर का सन्नाटा गहरा होता गया। वातावरण भाँय-भाँय करने लगा। निर्जनता को भी जैसे नींद आ गयी। साँसें भी जैसे थम गयी हों।

अन्धकार पूर्ण अतल में डूबी हुई भाभी की चेतना में एक हरकत हुई। नशे में बुत-सी वह उठ खड़ी हुई। कोई शब्द नहीं, कोई ख़याल नहीं। उसके बेहोश पैर उठे। यह घर के बाहर की सीढ़ी है, जिस पर भाभी ने इस घर में आने के बाद कभी पैर न रखा था। लेकिन आज वह नहीं है। आज एक लाश है, जो बाहर जा रही है। और उसे तो इस क्षण यह भी ज्ञान न था कि वह क्या कर रही है। एक बेहोशी की चेतना है, जो उसे लिये जा रही है।

यह कुएँ की जगत की सीढिय़ा हैं। दो कदम और...और...फिर...

‘‘कौन?’’ फैली आँखों से देखता अभी तक जगा पड़ा गोपी पुकार उठा।

बेहोशी को अचानक होश आ गया। काँपती भाभी कुँए की दाँती की ओर दौड़ी कि गोपी ने उसे पकड़ लिया। ‘‘कौन है? भाभी तुम?’’ भाभी बेहोश हो उसकी बाँहों में आ रही। यही होने वाला था, यही होने वाला था! गोपी की बुज़दिली का नतीता यही होने वाला था! अब? समय नहीं! जल्दी! जल्दी! सोचने का समय कहाँ, मूर्ख!

और गोपी भाभी को अपनी बाँहों में उठाये भाग चला। अन्धकार, कोई रास्ता नहीं। लेकिन गोपी भागा जा रहा है। रास्ता देखने-समझने का यह समय नहीं। इस वक़्त तो भाभी को उन चाण्डालों से कहीं दूर ले जाना है, वह बस यही जानता है, यही!