गंगा मैया-15 / भैरवप्रसाद गुप्त

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पन्द्रह

मुँह-अँधेरे ही बिलरा सानी-पानी करके आया तो, बूढ़े ने उसे बुलाकर कहा, ‘‘दौड़ा जाकर पुरोहितजी को बुला ला। कहना, साथ ही चलें, देर न करें।’’

‘‘क्यों मालिक, कोई मेहमान आये हैं का? छोटे मालिक का बियाह...’’

‘‘हाँ, हाँ रे, सब ठीक हो गया तू जल्दी बुला तो ला!’’

बिलरा चला, तो उसके पाँवों में वह फुरती न थी, जो ऐसी खुशी के मौके पर हुआ करती है। छोटी मालकिन जिस दिन लापता हुई थीं, उसे बहुत दुख हुआ था। गोपी के आ जाने के बाद उसे छोटी मालकिन को देखने का मौका न मिला था। गोपी ही भूसा वगैरा निकालता था। उसके जी में कितनी बार आया था कि छोटे मालिक से वह अपने मन की बात कहे। कई बार अकेले में बात उसके मुँह में भी आयी थी, और गोपी ने उसकी कुछ कहने की मंशा समझकर पूछा भी था। लेकिन वह टाल गया था, उसे हिम्मत न पड़ी थी। छोटी मालकिन औरत थी, उससे कह देना आसान था। लेकिन यह बात गोपी के साथ न थी। कहीं गुस्सा होकर एकाध थप्पड़ जमा दिया तो? क्षत्री का गुस्सा क्या होता है, इससे उसका कितनी ही बार पाला पड़ा था। आख़िर जब छोटी मालिकिन के भाग जाने की बात उसे मालूम हुई थी, तो उसके मुँह से यही निकला था, ‘‘च...च् कैसे ज़ालिम हैं ये लोग! आख़िर बेचारी को भगाकर ही दम लिया!’’

उसे उस मासूम छोटी मालिकिन की याद बहुत आती थी। बेचारी जाने कहाँ, कैसे होगी। कौन जाने, कहीं इनार-पोखर ही पकड़ लिया हो। उसकी यह सम्वेदना एक भोले-भाले दिलवाले की थी। आख़िर छोटी मालिकिन से उसका नाता ही क्या था? फिर भी उसके लिए जितना सच्चा दुख उसे हुआ था, शायद ही किसी को हुआ हो।

फिर कितनी जल्दी ये लोग उसे भूल गये! जैसे कोई बात न हुई हो। कितने दिन हुए अभी उसे गये? और यहाँ दन से ब्याह ठन गया! खुशियाँ मनायी जाएँगी। बाजे बजेंगे— कितनी स्वार्थी है यह दुनिया! अपने सुख के आगे दूसरे के दुख की यहाँ किसे परवाह है?

बिलरा जब पुरोहित को साथ लिये लौटा तो दरवाज़े पर हंगामा मचा था। बुलावे पर बिरादरी के लोग इकट्ठे तो हुए थे, लेकिन बिना सब कुछ जाने-समझे वे शामिल होने से नकर रहे थे। कहाँ की लडक़ी है, उसके माँ-बाप का खून कैसा है, हड्डी कैसी है? वह रात को बरैछे का सामान देकर क्यों चला गया? क्यों नहीं रूका? इस तरह कहीं किसी का तिलक चढ़ता है?

गोपी एक ओर चुप खड़ा था। बूढ़े ही दीवार के सहारे बैठे उनसे बातें कर रहे थे। पण्डित जी को उन्होंने देखा, तो बुलाकर पास पड़ी चारपाई पर बैठाकर उन्हीं से कहा, ‘‘पण्डितजी, क्या मैं अन्धा हूँ? अपने खून-खानदान की फिक्र मुझे नहीं है? आज ये मुझे याद दिलाने आये हैं। मौके की बात है। मटरू सिंह न रुक सका। लडक़ी उसकी साली है। कई बार कह चुका, समझा चुका, मिन्नत कर चुका, लेकिन इन लोगों की ऐंठ ही नहीं जाती। अपाहिज होकर पड़ा हूँ, तो ये रोब जमाना चाहते हैं। आज ये भूल गये हम कौन हैं?’’

‘‘बिरादरी के मामलों में सब बराबर हैं! आँख से देखकर तो मक्खी नहीं निगली जाएगी! पण्डितजी, आप ही कहिए, शादी है कि कोई ठट्ठा?’’ एक बोला।

पण्डितजी जानते थे कि किधर का पक्ष लेना इस अवसर पर लाभदायक है। उन्होंने खाँसकर, गम्भीर होकर कहा, ‘‘आपका कहा ठीक है। लेकिन भाई, हर मौके के चलाव का विधान भी भगवान् ने बनाया है। आप लोग तो जानते हैं कि मौके पर अगर वर बीमार पड़ जाय, बारात के साथ न जा सके, तो लोटे के साथ भी लडक़ी का विवाह सम्पन्न करा दिया जाता है। मौके का चलाव तो निकालना ही पड़ता है। किसी कारण मटरू सिंह न रुक सके, तो क्या इसीलिए यह मौका निकल जाने दिया जाएगा? नहीं, ऐसी बात तो रीति के विरुद्घ होगी। मेरी राय तो यही है। पंचों की अब जो मर्जी हो।’’

बिरादरी वालों में कानाफूसी शुरू हुई। एक बूढ़ा बोला, ‘‘पण्डितजी आपने कही जो मौके की बात, वह ठीक है। लेकिन यह मौका तो कुछ वैसा नहीं। यह टाला जा सकता है। लगन तो कहीं फागुन में ही पड़ेगा। चार-पाँच महीने अभी हैं।’’

‘‘कैसे टाला जा सकता है? यह धोती, मिठाई रुपया क्या लौटा दूँ।’’ बूढ़े गरम हो उठे।

‘‘कई बार ऐसा भी हुआ है।’’ एक दूसरा बोल पड़ा।

‘‘और मैंने उसे जो जबान दी है?’’ बूढ़े चमक उठे।

‘‘ऐसी कोई हरिश्चन्द्र की ज़बान नहीं है!’’ एक तीसरे ने ताना दिया।

बूढ़े के लिए अब सहना मुश्किल हो गया। वे काँप उठे और गरजकर बोले, ‘‘यह बात किसने मुँह से निकाली है। ज़रा फिर से तो कहे! असली राजपूत बाप का बेटा हुआ, तो उसकी ज़बान न खींच लूँ, तो कहना? अबे गोपिया! तू खड़ा-खड़ा मेरा अपमान देख रहा? ज़रा बता तो उसे कि तेरे बाप को झूठा कहने का नतीजा क्या होता है!’’

बिरादरी में एक क्षण सन्नाटा छा गया। फिर एक कोलाहल-सा मच गया। ‘‘यह जबान खींचने वाले कौन होते हैं? पद आने पर बात कही ही जाएगी। यह सारी बिरादरी का अपमान है! उठो! उठो! ...चलो! कोई गाली सुनने यहाँ नहीं आया। टाट पर बैठने वाला हर आदमी बराबर होता है...इनकी क्या मजाल है? उठो! चलो!’’...

पण्डितजी ‘‘हाँ-हाँ’’ करते ही रह गये। लेकिन धोती झाड़-झाडक़र, सब-के-सब उठकर बौखलाये हुए, आँखें दिखाते वहाँ से चले ही गये। अब तक भरी-भरी, दरवाज़े पर खड़ी बूढ़ी को भी जैसे अब गुबार निकालने का मौका मिल गया। हाथ चमका-चमकाकर वह बोली, ‘‘जाओ-जाओ! तुम्हारे बिना हमारे बेटा की शादी नहीं रुक जाएगी! पण्डितजी, पूजा की तैयारी कीजिए। इनके आँखें दिखाने से क्या होता है? होगा कोई घूरा-कतवार इनकी परवाह करने वाला! यह मानिक के बाप का घराना है; जो अकेले ही हमेशा सौ पर भारी रहा है! क्या समझ रखा है इन्होंने?’’

‘‘सच कहती हो, जजमानिन, यह तो सरासर इनका अन्याय है। पुरोहित की बात भी इन्होंने न मानी। इससे आपका क्या बिगड़ जाएगा? कुछ खर्च ही बच जाएगा। जिसका कोई नहीं, उसका भगवान् है, किसी के बिना कहीं किसी का काम अटका है!’’ कहकर पण्डितजी ने तैयारी शुरू कर दी।

इस तमाशे से सबसे ज्य़ादा खुशी बिलरा को हुई। इन्हीं कम्बख्त बिरादरी वालों के डर से तो छोटी मालिकिन की वह हालत हुई। इस बिरादरी का डर न होता, तो जितनी बेवाओं की ज़िन्दगी तबाह हुई, सब बच जातीं और ठिकाना पा जातीं! यह खुशी बिल्कुल एक प्रतिद्वन्द्वी की जीत की थी। उसे ऐसा लगा कि यह उसी की जीत हुई!

पण्डितजी को खिला-पिलाकर, विदाकर गोपी पीली धोती पहने हुए चौपाल में बैठा सोच रहा था कि चलो, यह भी अच्छा ही हुआ। बिल्ली के भाग से छींका ही टूट गया। रास्ते का एक बड़ा पहाड़ा आप ही हट गया...।

तभी बिलरा आकर उसके सामने बैठ गया।

गोपी ने उसकी ओर देखकर कहा, ‘‘बहुत खुश हो? क्या बात है?’’

‘‘मालिक, तुम्हारी बिरादरी वालों को भागते देखकर आज मुझे बहुत खुशी हुई!’’ हाथों को मलते हुए बिलरा बोला।

‘‘इसमें खुशी की क्या बात है!’’ गोपी यों ही बोला।

‘‘वाह मालिक! इसमें कोई खुशी की बात ही नहीं है? इन्हीं के डर से तो छोटी मालिकिन निकल गयीं। इनका डर न होता, तो काहे को वह घर छोड़तीं?’’ उदास होकर बिलरा बोला।

‘‘हाँ, यह तू ठीक ही कहता है।’’ कुछ खोया-सा गोपी बोला।

‘‘तुम्हें भी बिरादरीवालों का डर था मालिक?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘लेकिन आज तो उनसे तुमने अपना सब नाता तोड़ लिया। पहले ही ऐसा कर लेते, मालिक, तो छोटी मालिकिन को घर क्यों छोडऩा पड़ता? पहले ऐसा क्यों न किया, मालिक?’’ भरे गले से बिलरा बड़े ही दर्दनाक स्वर में बोला।

गोपी उसके इस सवाल से घबरा गया। उसे क्या मालूम था कि यह नीच, गँवार भी ऐसी समझ की बात कर सकता है! वह बिल्कुल अचकचाया-सा उसका मुँह देखने लगा।

बिलरा ही बोला, ‘‘जाने कहाँ किस हालत में होंगी। उनका बड़ा मोह लगता है, मालिक! ऐसी बाछी की तरह वह थीं कि क्या बताऊँ! उनकी याद आती है, तो आँखों से लोर टपकने लगता है!’’ और वह रो पड़ा।

गद्गद होकर गोपी बोला, ‘‘भगवान् तेरे-जैसा दिल सबको दे, तेरे जैसा मोह सबको दे! तू दुख न कर, भगवान् सब अच्छा ही करते हैं। तू चुप रह।’’

‘‘मालिक।’’ सिसकता हुआ बिलरा बोला, ‘‘जब छोटी मालिकिन को देखता था, मन में उठता था कि तुम्हारे साथ उनकी कैसी अच्छी जोड़ी होती! मालिक, बिरादरीवालों का डर न होता, तो तुम उनके साथ ब्याह कर लेते न?’’

गोपी का दिल हिल गया। वह विह्वल-सा होकर, बिलरा का हाथ पकडक़र उसकी आँखें पोंछते हुए बोला, ‘‘तू बड़ा अच्छा आदमी है, बिलरा! जा, सुबह से तू घर नहीं गया। तेरी औरत खोज रही होगी। माई से खयका माँग ले।’’