गंगा मैया-16 / भैरवप्रसाद गुप्त
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सोलह
पड़ताल क्या होनी थी, जो होती। कितनी ही धाँधलियों की तरह यह भी किसानों को डराने-धमकाने की एक ज़मींदाराना और अफसरी चाल ही थी। और फिर गंगा मैया की माया कि इस साल पानी हटा, तो दो धारे बन गये, एक इधर और एक उधर और बीच में धरती निकल आयी, दो घाटियों के बीच में पहाड़ी की तरह। यह साल गहरे संघर्ष का था, मटरू जानता था। उसने इसकी पूरी तैयारी भी की थी। अब जो नदी की दो धाराएँ देखीं, तो उसे लगा कि गंगा मैया ने उसके दोनों ओर अपनी विशाल बाँहें फैलाकर उसे अपनी ऐसी रक्षा के घेरे में ले लिया है, कि दुश्मन लाख सिर मारकर भी उसका बाल बाँका नहीं कर सकते।
रेत पर पहले मटरू की झोंपड़ी खड़ी हुई, और देखते-ही-देखते पिछले साल की तरह पचासों झोंपडिय़ाँ जगमगा उठीं।
ज़मींदारों ने सोचा था कि इस साल कोई किसान वहाँ न जाएगा, लेकिन जब यह ख़बर उनके कानों में पहुँची, तो वे खलबला उठे। थाने, तहसील, जिले की दौड़-धूप शुरू हो गयी। इतने दिन चुप रहकर उन्होंने देख लिया था कि ऐसा चलने से वे पुराने दिन नहीं आने के। अब तो कुछ-न-कुछ करना ही पड़ेगा, वरना हमेशा के लिए दीयर हाथ से निकल जाएगा। यही आख़िरी बाजी है, हारे तो हार और जीते तो जीत। जान लगाकर, इस बार इधर या उधर कर लेना चाहिए।
मिट्टी तो चिकनी है, लेकिन धरती अभी बहुत गीली है। कहीं-कहीं तो अभी तक दलदल ही पड़ा है। सूखने में बड़ी देर लगेगी। दोनों ओर बराबर ज़ोर की धाराएँ हैं। न भी सूखे। बावग का वक़्त निकला जा रहा है। देर से भी बावग के लायक धरती होगी, इसकी उम्मीद न थी। मटरू चिन्ता में पड़ा था। सब किसान चिन्ता में पड़े थे कि क्या किया जाए, कहीं यह साल खाली न चला जाए।
पूजन की पहुँच धरती के बारे में मटरू से कहीं गहरी थी। यों ही देखने के लिए उसने किनारे के पास एक छोटा-सा गढ़ा घेरकर थोड़ा धान का बीया डाल दिया था। पाँच-छ: दिन के बाद वहाँ हरियाली नजर आयी, तो उसने मटरू से कहा, ‘‘पाहुन, धान बोया जाए, तो कैसा?’’
मटरू ने हँसकर कहा, ‘‘अबे, क्या धान आजकल बोया जाता है।’’
पूजन ने अपने प्रयोग की बात कह के कहा, ‘‘सुना है बंगाल, मद्रास में धान की कई-कई फ़सलें होती हैं। अबकी हमारी धरती भी धान लायक ही मालूम पड़ती है। पानी की कोई कमी नहीं है। नमी महीनों बनी रहेगी। मैं तो कहूँ, पाहुन, बोया जाए। ठाले बैठे रहने से कुछ भी करना बेहतर है। नहीं कुछ हुआ, तो बीया जाएगा और कहीं हो गया तो एक नई बात मालूम हो जाएगी।’’
मटरू उसी क्षण उठ खड़ा हुआ और पूजन के साथ जाकर गढ़े में उगा धान देखा, उसकी आँखें झपक गयीं। कहा, ‘‘सच रे, तेरी बात तो ठीक मालूम होती है।’’
और किसानों से फिर चट राय-बात हुई। पूजन की बात मान ली गयी। बोने की तैयारियाँ शुरू हो गयीं।
गोपी से आने के लिए मटरू कह आया था, लेकिन तब से वह एक बार भी न आया। नाववालों से बराबर सर-समाचार ले-दे जाता है, लेकिन आता नहीं। फागुन सुदी नवमी को लगन है। बारात में दस-पाँच मेहमानों के सिवा कोई न होगा। बिरादरी ने खान-पान बन्द कर दिया है। किसी बात की चिन्ता नहीं।
एक दिन भाभी ने मटरू से कहा, ‘‘भैया, तुमने उससे आने को कहा था न?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘लेकिन वह तो नहीं आया। तुमसे झूठ तो नहीं कहा था?’’
‘‘झूठ क्यों कहता, री? लेकिन वह आये भी कैसे?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘शादी के पहले कोई दूल्हा ससुराल आता है क्या?’’ कहकर मटरू मुस्कुराया॥
‘‘दुत! जाओ भैया, तुम तो दिल्लगी करते हो और यहाँ मन में रात-दिन एक धुकधुकी लगी रहती है...’’
‘‘कि कैसा होगा दूल्हा? भैंसे की तरह काला कि चाँद की तरह गोरा?’’
‘‘हाँ! पहली बार देखना है न?’’
‘‘तो?’’
‘‘जाने क्या-क्या अभी देखना है भाग में! तुम लोगों का यह सब तमाशा जाने क्यों अच्छा नहीं लगता...’’
‘‘तो यहाँ दरवाज़े पर गंगा मैया हैं। कुएँ में डूब मरी होती तो नरक में पड़ती। यहाँ तो गंगा मैया की गोद में समा जाओगी, तो सीधे बैकुण्ठ में पहुँच जाओगी!’’ कहकर मटरू हँसा।
‘‘तुम लोग मुझे ऐसा करने भी तो दो! तुम्हें क्या मालूम कि जब सोचती हूँ कि वहाँ फिर जाने पर कैसी विकट दशा में पड़ूँगी, तो मन कितना बेकल हो जाता है। इससे तो मर जाना कहीं आसान है।’’
‘‘हूँ! तो फिर वही बात? तेरे इस भैया के रहते भी तेरी चिन्ता नहीं जाती? अरे पगली, अब घर बसाने की सोच, एक नई ज़िन्दगी शुरू करने की सोच। जब दो-दो तुम पर जान न्यौछावर करने को तैयार हैं, तो किसकी हिम्मत है, जो तुझे कुछ भी कह सके? तुझे भी ज़रा हिम्मत से काम लेना चाहिए। बिना हिम्मत के इन रीति-रिवाजों को कैसे तोड़ा जा सकता है?’’
‘‘अजब बन्धन से तुम लोगों ने मुझे बाँध दिया!’’
‘‘हाँ, बन्धन का मोह नहीं होता, तो आदमी काहे को जीता? बचपन में एक कहानी सुनी थी हीरामन सुग्गे की। मेरे-जैसा ही एक देव था। उसका मन हीरामन सुग्गे में बस गया था। जब हीरामन मरा, तो वह देव भी मर गया। उसी तरह लगता है कि जिस दिन तू मरेगी, उसी दिन मैं भी मर जाऊँगा।’’
‘‘भैया!’’ भाभी चीख पड़ी, ‘‘ऐसी बात फिर मुँह पर न लाना!’’
‘‘तो तू भी फिर वैसी बात मुँह पर न लाना समझी?’’ कहते-कहते मटरू की आँखें भर आयीं—‘‘ज़िन्दगी जीने के लिए है, परिस्थितियों से लड़ कर जीने का ही नाम ज़िन्दगी है। मन छोटा करके इस दुनिया में नहीं जिया जा सकता!’’
‘‘मैं भी मर्द होती...’’
‘‘नहीं, औरत होकर भी कर, तब तो तारीफ का ढिंढोरा पीटकर मैं लोगों से कह सकूँगा कि एक बहन है मेरी, जो हिम्मत में मर्दों’’ के भी कान काटती है!’’
‘‘तुम्हारे पास रहकर यहाँ कोई डर-भय नहीं लगता।’’
‘‘गंगा मैया की छाया में आकर सब डर भाग जाता है। यहाँ की मिट्टी और हवा ही कुछ ऐसी है। लखना की माँ भी पहले बहुत डरती थी, लेकिन जब से यहाँ रहने-सहने लगी, सब डर-भय छूमन्तर हो गया। अब देखती हो न कैसे रहती है!’’
‘‘हाँ, तुम भी मेरे साथ वहाँ कुछ दिनों के लिए चलोगे न?’’
‘‘क्यों, गोपिया पर भरोसा नहीं क्या?’’
‘‘है, लेकिन उतना नहीं। तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं।’’
‘‘अरे लखना की माँ!’’ मटरू ने पुकारकर कहा, ‘‘सुनती है, यह क्या कहती है! यह तो तेरी सौत बन गयी मालूम होती है!’’
लखना की माँ एक ओर बैठी दही मथकर लोनी निकाल रही थी। हँसकर वहीं से बोली ‘‘ऐसी सौत मिले, तो गले की माला बनाकर पहनूँ। बहन, ले, यह मट्ठा तो दे भाई को, कहीं बिना पिये ही न निकल जाए। आजकल इसे किसी बात की सुध थोड़ी ही रहती है।’’
भाभी के हाथ से मट्ठे का लोटा ले, गट-गट पीकर मटरू बोला, ‘‘अच्छा अब चलूँ, थोड़ी बहुत तैयारी तो करनी ही पड़ेगी। बीस-पच्चीस ही दिन तो रह गये लगन के। पूजन को शहर भेजना है आज।’’ और वह ‘‘ए गंगा मैया तोहके चुनरी चढ़इबो...’’ गुनगुनाता हुआ बाहर निकल गया।
गंगा मैया का आँचल धानी रंग में रँगकर लहरा उठा था। देखकर किसानों की छाती फूल उठती। इतना ज़बरदस्त धान आया था कि टाँगे से कटे। रब्बी न बोने का अफसोस जाता रहा। उससे कहीं ज्य़ादा धान की पैदावार होगी। गंगा मैया की लीला अपरम्पार है। उसके आँचल में क्या-क्या भरा पड़ा है, इसका अन्दाज कौन लगा सकता है? जो जितनी सेवा इस धरती की करे, गंगा मैया उसे उतना ही दे! मेहनत कभी अकारथ हुई है?
पूजन ने शहर से आकर अपनी गठरी बहन के सामने रख दी। वह चौके में बैठी मटरू को खयका खिला रही थी। भाभी एक ओर बैठी सूप में गेहूँ फटक रही थी।
मटरू ने कौर निगलकर औरत से कहा, ‘‘खोलकर देख तो, क्या-क्या है?’’ फिर भाभी की ओर मुँह फेरकर बोला, ‘‘अरी, तू भी आ! नहीं तो तेरी भाभी अकेले ही सब हथिया लेगी!’’
भाभी आकर खड़ी हो गयी, तो लखना की माँ ने गठरी खोली। चाँदी के नये-नये गहनों की चमक से आँखें जगमगा उठीं। लखना की माँ का चेहरा खुशी से उद्दीप्त हो उठा। वह एक-एक को उठा-उठाकर देखने लगी। मन की उमंग दबाती हुई भाभी भी झुक गयी।
कड़ा, गोड़हरा, हँसली, बाजूबन्द, हलका...हर-एक का एक-एक जोड़ा। लखना की माँ ने पूछा, ‘‘ये जोड़े क्यों मँगाये? इतने...’’
‘‘क्यों?’’ बीच में ही मटरू बोल पड़ा, ‘‘हमारे घर दो पहननेवालियाँ हैं न?’’
‘‘भैया!’’ भाभी चीख-सी पड़ी, ‘‘मेरे लिए तुमने काहे को मँगाये?’’
‘‘क्यों, भाई के घर से नंगी ही ससुराल जाएगी क्या? कोई देखेगा, तो क्या कहेगा? पगली, यह तू क्यों नहीं समझती कि मेरे कोई लडक़ी नहीं है, और अब’’ कनखी से अपनी औरत की ओर देखकर बोला, ‘‘होने की कोई उम्मीद भी नहीं। तुझसे ही बेटी की साध भी पूरी करनी है! इसने न जाने कितनी बार गहने के लिए कहा था। आज तेरे ही भाग्य से इसके लिए भी आ गये। पसन्द है न?’’
तभी बाहर से एक किसान ने आकर कहा, ‘‘पहलवान भैया, फूलचन गिरफ्तार हो गया। बाहर ख़बर देने एक आदमी आया है। कहता है...’’
खयका अधखाया ही छोडक़र मटरू उठकर बाहर लपका। बाहर बहुत-से किसान जमा थे। सबके चेहरे पर परेशानियाँ थीं। पूछने पर ख़बर लानेवाले ने कहा, ‘‘फूलचन के बाप ने नाव पर ख़बर भेजी है कि फूलचन आज दोपहर को गाँव में आने पर गिरफ्तार हो गया। अपनी बीमार माँ को देखने वह आज सुबह ही घर गया था। दोपहर को दस पुलिसवाले आकर उसे गिरफ्तार कर ले गये। वे औरों को भी खोज रहे थे। कहते थे, सौ आदमियों पर वारण्ट है दीयर के मामले में। ज़मींदारों ने फौजदारी चलायी है।’’
सुनकर सब सन्नाटे में आ गये। ज़मींदार कुछ करने वाले हैं, यह सबको मालूम था, लेकिन अचानक इस तरह वारण्ट कट जाएगा, यह कौन समझता था। सोचकर मटरू ने कहा, ‘‘सब नावें इस पार मँगा लो। उधर के तीर पर एक भी नाव न रहे और इधर उस पार जाने वाली नावों को भी तैयार रखो। सबसे कह दो, कोई गाँव में न जाए। सब लाठियाँ तैयार रखो। सबसे कह दो होशियार रहें। एक नाव सिसवन घाट के सामने उधर से ख़बर लाने के लिए भेज दो। हाँ, फूलचन के बाल-बच्चे कहाँ हैं?
‘‘यहीं अपनी झोंपड़ी में हैं। सब रो रहे हैं।’’ एक ने बताया।
‘‘चलो, उन्हें सँभालो’’, आगे बढ़ता हुआ मटरू बोला, ‘‘सिसवन घाट कौन जा रहा है? कोई होशियार आदमी जाए। गाँवों में अपने आदमियों को भी तैयार रहने की ताकीद करनी होगी। ये ज़मींदार अब खून-ख़राबी पर उतर आये हैं।’’
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