गंगा मैया-17 / भैरवप्रसाद गुप्त

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सत्रह

दूसरे दिन झटपट एक-एक करके सब झोंपडिय़ाँ उठाकर झाऊँ के जंगल में खड़ी कर दी गयीं। तीरों पर जवानों का पहरा बैठा दिया गया। ख़बर मिलती रही कि पुलिस वाले रोज गाँवों का एक चक्कर लगाया करते हैं, लेकिन दीयर के किसानों को यह मालूम था कि जब तक हम यहाँ हैं, कोई हमारा बाल बाँका नहीं कर सकता। इस किले में आकर कोई दुश्मन अपनी जान बचाकर नहीं जा सकता। सब चौकन्ने हो गये थे। कोई अपने तिरवाही के गाँव में नहीं जाता। ज़रूरत की चीजें इधर से पारकर बिहार के कस्बे से लायी जाती हैं। एक ओर से जीवन की डोर कटकर दूसरी ओर जा जुड़ी है। सब ठीक चल रहा है। कोई गम नहीं। धारायें वैसे ही बह रही हैं। धान वैसे ही लहलहा रहे हैं। हवा वैसे ही चल रही है।

लेकिन इधर मटरू कुछ परेशान-सा है। ज़िन्दगी में कभी भी परेशान न होनेवाला मटरू आज परेशान है। बहन की शादी है। कहीं ऐन मौके पर विघ्न न पड़ जाए। फिर कौन-सा मुँह वह दिखाएगा अपनी हीरामन को! आजकल गंगा मैया की टेर उसकी बहुत बढ़ गयी है। उठते-बैठते, सोते-जागते बराबर, उसके मुँह से यही निकलता रहता है, ‘‘मेरी मैया! यह नाव पार लगा दे। मेरी मैया...’’

बहन-बेटी का भार क्या होता है, आज उसे मालूम हो रहा है। न खाना अच्छा लग रहा है, न पीना। औरत और भाभी पूछती हैं, तो रुआँसा होकर कहता है, ‘‘जी नहीं होता। सोचता हूँ मेरी बहन चली जाएगी, तो मेरी यह झोंपड़ी कितनी उदास हो जाएगी!’’

‘‘तो जाने क्यों देते हो? रोक लो!’’ औरत परिहास करती।

‘‘क्या बताऊँ? ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई’...और गुनगुनाता हुआ वह वहाँ से हट जाता है। बाहर निकलकर वही टेर लगाने लगता है, ‘‘मेरी मैया! यह नाव पार लगा दे! मेरी मैया...’’

मैया ने बेटे की पुकार सुन ली थी। सकुशल वह दिन आ पहुँचा। शाम के धुँधलके झुकते ही सिसवन घाट पर बारात उतरी। नाऊ, पण्डित, वर और पाँच बराती। न बाजा, न गाजा। जैसे पार उतरनेवाले राही हों।

फिर भी, उस दिन रात-भर झाऊँ के जंगलों में हवा शहनाई बजाती रही। गंगा मैया की लहरें किसानिनों के गले से गला मिलाकर मंगल के गीत रात-भर गाती रहीं। किसानों की टिमकी बजी। बिरहों की बहारें लहरायीं। रात-भर मधु की ओस टपकती रही, टप, टप!

जंगल की नन्हीं-नन्हीं चिडिय़ों और नदी के बड़े-बड़े पंछियों ने एक साथ मिलकर जब प्रभाती शुरू की, तो विदाई की तैयारियाँ होने लगीं।

दुलहन लखना की माँ से लिपटकर वैसे ही रोयी, जैसे एक दिन वह अपनी माँ से लिपटकर रोयी थी। लखना और नन्हों को वैसा ही चूमा-चाटा, जैसे एक दिन अपने भतीजों को चूमा-चाटा था। फिर पूजन की भेंट ली। मटरू इन्तजाम में भागा-भागा फिर रहा था। न जाने क्यों उसे बड़ी घबराहट-सी हो रही थी। बहन उसके पाँव पकडक़र रोएगी, तो वह क्या करेगा, उसकी समझ में न आ रहा था।

आख़िर सवारी दरवाजे पर आ लगी, विदा की घड़ी आन पहुँची। बहन भेंट करने के लिए भैया का इन्तज़ार कर रही है। अब भागकर कहाँ जा सकता है?

दिल कड़ा करके वह खड़ा हो गया। दुलहन पाँव पकडक़र रोने लगी। लखना की माँ ने उसे उठाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह पाँव छोडऩे ही पर न आती। मटरू बुत बना खड़ा था। रुदन की किन मंज़िलों से चुप-चुप वह गुजर रहा था, यह कौन बताए?

आख़िर जब वह उसे उठाने के लिए झुका, तो दो पत्थर के आँसू टपक पड़े। उसकी बाँहों में खड़ी, उसके कन्धे पर सिर डालकर दुलहन ने कहा, ‘‘तुम साथ चलोगे न?’’

‘‘यह क्या कहती है, बहन!’’ लखना की माँ ने चिन्तित होकर कहा, ‘‘इस पर वारण्ट है न!’’

मटरू ने उसका मुँह हाथ से बन्द करना चाहा, लेकिन वह कह ही गयी।

दुलहन ने सिर उठाकर जाने किस व्याकुलता पर काबू पाकर कहा, ‘‘नहीं, भैया, तुम्हारे जाने की ज़रूरत नहीं, लेकिन बहन को भूल न जाना! माँ-बाप, भाई-बहन सबको खोकर तुम्हें पाया है, तुम भी भुला दोगे, तो मैं कैसे जीऊँगी?’’

‘‘नहीं-नहीं, मेरी हीरामन! तुझे भुलाकर मैं कैसे रह सकूँगा? तू हिम्मत से काम लेना। मैं...’’ और ज्य़ादा कुछ कह सकने में असमर्थ हो हट गया।

तीर तक उदास मटरू गोपी को समझाता रहा। गोपी ने उसे आश्वासन दिया कि चिन्ता की कोई बात नहीं, वह हर हद तक तैयार है। लेकिन मटरू को सन्तोष कहाँ? उसके कानों में तो वही बात गूँज रही थी, ‘‘तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं।’’

नाव चली जा रही है, बाल-बच्चों, किसान-किसानिनों के साथ खड़ा मटरू ताक रहा है, उसकी उदास आँखे जैसे उस पार, दूर एक तूफ़ान को आते देख रही हैं, जो उसकी बहन का स्वागत करने वाला है। ओह, वह साथ क्यों न गया?

घर आकर उदास मटरू चटाई पर पड़ रहा। उदास धूप फैल गयी है। दूध के मटके एक ओर पड़े हैं। उन पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। थकी गृहिणी को जैसे कोई होश ही नहीं। सचमुच घर कितना उदास हो गया है। मटरू का दिल भरा-सा है। खूब रोने को जी चाहता है। एक ही कलक मन को मथ रही है, वह बहन के साथ क्यों न गया?

काफी देर के बाद गृहिणी उठी। इस तरह बैठे रहने से काम कैसे चलेगा? सारा काम-धाम पड़ा है। मर्द के पास आकर बोली, ‘‘जाओ, नहा-धो आओ। इस तरह कब तक पड़े रहोगे?’’

‘‘नहा-धो लूँगा,’’ मटरू ने अनमने ढंग से कहा, ‘‘मुझे उसके साथ जाना चाहिए था। जाने बेचारी पर क्या पड़े?’’

‘‘गोपी क्या मर्द नहीं है?’’ तुनककर औरत बोली, ‘‘तुम तो नाहक सोच फिकिर कर रहे हो! उठो!’’ कहकर उसकी देह पर की चादर खींचने लगी।

‘‘मर्द है तो क्या हुआ? आखिर माँ-बाप का लेहाज तो आदमी को करना ही पड़ता है। मुझे डर लगता है, कहीं उसने कमज़ोरी दिखाई तो मेरी हीरामन का क्या होगा? मुझे जाना चाहिए था, लख़ना की माँ!’’

‘‘कुछ होगा तो ख़बर मिलेगी न! इस वक़्त तो तुम उठो। देखो, कितनी बेर हुई। घर का सारा काम अभी उसी तरह पड़ा है!’’ कहकर अन्दर से धोती-दातून ला उसके हाथों में थमाती बोली, ‘‘जाओ, जल्दी नहा-धो आओ! मन हल्का हो जाएगा।’’

किसी तरह कसमसाकर मटरू उठा और तीर की ओर चल पड़ा।

आज गंगा-स्नान में वह आनन्द न आया। ज़िन्दगी में इस तरह का यह पहला अनुभव था। उसे लग रहा था कि आज गंगा मैया भी उदास है। उसकी धारा में वह जोर नहीं, उसकी लहरों में वह थिरकन नहीं, उसमें तैरती मछलियों में वह चपलता नहीं। कहीं कोई तार ढीला हो गया है। साज बेसाज़ हो गया।

‘तुम्हारे पास रहकर यहाँ कोई डर भय नहीं लगता...जब सोचती हूँ कि वहाँ फिर जाने पर कैसी आफत और विकट दशा में पड़ूँगी, तो मन कितना बेकल हो जाता है...तुम भी मेरे साथ वहाँ कुछ दिनों के लिए चलोगे न? ...तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं...’ मटरू के मन में ये बातें गूँज-गूँज जाती हैं और उसे लगता है कि उसने जान-बूझकर ही अपनी हीरामन को उस विकट परिस्थितियों में अकेली झोंक दिया है। और वह मन-ही-मन तड़प उठता है। क्यों, क्यों वह नहीं साथ गया? क्यों उसे अकेली छोड़ दिया? क्यों उसके साथ विश्वासघात किया?

वारण्ट! यहाँ का उसका कर्तव्यर! कहीं उसे कुछ हो गया होता, तो यहाँ उसके साथियों की क्या हालत होती? ...साथी उसके अब पहले की तरह बेवकूफ नहीं हैं। उन्हें अपने पाँवों पर खड़ा होना सीखना चाहिए। मटरू आखिर हमेशा उनके साथ कैसे बना रहेगा? मटरू के जीवन में पहले एक ही कर्तव्यर था, लेकिन अब तो दो हो गये हैं। उसे अपने दोनों कर्तव्योंा को निभाना है। दोनों मोर्चों पर बराबर के दुश्मन हैं। एक के ज़ालिम पन्जों में पडक़र कितने ही किसान तड़प रहे हैं और दूसरे के खूनी जबड़े में एक बहन कराह रही है। एक नहीं अनेक! उनके लिए भी रास्ता निकालना है।

घाट पर बैठा, खोया-खोया मटरू जाने ऐसी ही क्या-क्या ऊल-जलूल बातें सोचे जा रहा था कि पूजन ने आकर कहा, ‘‘बहना तुम्हें बुला रही है। चलो, जल्दी करो। कब के यहाँ यों बैठे हो?’’ कहकर मटरू के सामने पड़ी भीगी धोती उसने उठा ली।

चलते-चलते मटरू ने कहा, ‘‘पूजन, एक बात पूछूँ?’’

‘‘कहो?’’

‘‘अगर मैं न रहा, पूजन तो तुम लोग सब सँभाल लोगे न?’’

‘‘लेकिन तुम रहोगे कैसे नहीं? गंगा मैया तुमसे छोड़ी जा सकती हैं?’’

‘‘नहीं, छोड़ी कैसे जा सकती हैं? लेकिन मान लो मैं न रहूँ?’’

‘‘वाह! यह कैसे मान लें?’’

‘‘अरे, उस दफे नहीं हुआ था। मैं क्या गंगा मैया को छोड़ सकता था? लेकिन संयोग कि पुलिसवालों की पकड़ में आ गया। उसी तरह ़़ ़ ़

‘‘अब यह कैसे हो सकता है, पाहुन? तब तुम अकेले थे। अब सैकड़ों जवान तुम पर जान देने को तैयार हैं। भले ही हमारी जान चली जाए, लेकिन तुम्हारा बाल बाँका न होने देंगे! पाहुन, तुम धरती की जान हो!’’

‘‘सो तो है लेकिन संयोग...’’

‘‘नहीं-नहीं, पाहुन, ऐसा संयोग आ ही नहीं सकता...’’

‘‘ओफ, तुमसे तो बात करना ही मुश्किल है, पूजन! अच्छा मान ले, मैं मर ही गया।’’

‘‘पाहुन!’’ पूजन चीख पड़ा, ‘‘ऐसी बात मुँह से क्यों निकालते हो?’’

‘‘पूजन!’’ गम्भीर, विह्वलता के स्वर में मटरू बोला, ‘‘गंगा मैया का उनकी धरती का, इन खेतों का, इस हवा और पानी का, इस जंगल और इन किसानों का और अपने साथियों का मोह मुझे अपने बाल-बच्चों की तरह, बल्कि उनसे भी कहीं ज्य़ादा है। आज ख़याल आ गया कि कहीं मैं न रहा, तो अन्यायी ज़मींदारों के पाँव इस धरती पर फिर तो नहीं जम जाएँगे?’’

‘‘नहीं पाहुन, नहीं! अगर यही बात है, तो सुन लो कि तुम्हारे साथी अपने खून की आख़िरी बूँद तक से इसकी रक्षा करेंगे! जिस तरह गुज़रा ज़माना फिर वापस नहीं आता, उसी तरह ज़मींदारों के उखड़े पैर यहाँ फिर नहीं जम पाएँगे! हमारा ज़ोर दिन-दिन बढ़ता जा रहा है। हमारे साथी बढ़ते जा रहे है। ज़माना आगे बढ़ रहा है! नहीं, पाहुन, वैसा कभी न होगा! यहाँ का हर किसान आज मटरू बनने की तमन्ना रखता है! तुम इसकी चिन्ता न करो, पाहुन!’’

‘‘शाबाश!’’ मटरू ने पीठ ठोंककर कहा, ‘‘आज मैं खुश हूँ, बहुत खुश, पूजन! ऐसा ही होना चाहिए, ऐसा ही!’’

और सचमुच उदासी छँट गयी। चेहरा पहले ही की तरह दमक उठा। आँखें चमक उठीं।

लेकिन जैसे ही झोंपड़ी में घुसा, वह पहले की ही तरह फिर उदास हो गया।

औरत ने चौके में पीढ़ी डाली। लोटा भरकर पानी रखा। फिर बोली, ‘‘आओ, रोटी खा लो।’’

बैठकर मटरू ने पहला कौर तोड़ते हुए कहा, ‘‘जी नहीं कर रहा।’’

‘‘जी कैसे करे? तेरी हीरामन तो चली गयी!’’

‘‘ऊँहूँ, उसके जाने की चिन्ता नहीं।’’

‘‘फिर?’’

‘‘जाने उस पर क्या बीते? अब तो पहुँच गयी होगी।’’

‘‘बीतेगी क्या? ‘हम-तुम राजी तो क्या करेगा काजी?’ गोपी तैयार है, तो उसका कौन क्या बिगाड़ लेगा?’’

‘‘सो तो है रे, लेकिन यह हत्यारा समाज बड़ा ज़ालिम है। कितने ही गोपियों को इसने ज़िन्दा चबा डाला है। और गोपी कुछ कमज़ोर है भी। वैसा न होता, यह कहानी इतनी लम्बी क्यों होती? वह तो संयोग कहो, कि गोपी कुँए पर जगा पड़ा था, नहीं तो कहानी खत्म होने में देर ही क्या थी? सोचता हूँ कि जिस वक़्त गोपी की माँ उसकी भाभी को जली-कटी सुना रही थी, अगर उसी वक़्त हिम्मत करके, आगे बढक़र गोपी अपनी भाभी का हाथ थाम लेता, तो कौन उसका क्या कर लेता? लेकिन वह वैसा न कर सका। औरत का मर्द पर से एक बार विश्वास हट जाता है, तो फिर मुश्किल से जमता है। कहती थी न वह, ‘‘तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं।’’

‘‘तो तुम्हारे ही विश्वास पर उसकी ज़िन्दगी पार लगेगी? आख़िर...।’’

‘‘अरे, सो तो है री, कौन किसकी ज़िन्दगी पार लगा देता है? वक़्त की बात होती है। उसे इस वक़्त मेरे सहारे की ज़रूरत थी। दो-चार दिन में आँधी गुजर जाती, तो सब आप ही ठीक हो जाता...’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा। रोटी खाओ!’’ छिपली में गरम दूध डालती हुई औरत ने बात ख़त्म कर दी, ‘‘जो हुआ हमसे, किया न? कौन इतना गैर के लिए करता है?’’

‘‘तू औरत है न, लखना की माँ,’’ दर्द-भरे स्वर में मटरू बोला, ‘‘मेरे और मेरे बच्चों के सिवा तेरा कोई अपना नहीं, मैं किसी को अपना बना लूँ तो ऊपर से तू भी उसे अपना कह देगी। मेरी मंशा ही तो तेरी मंशा है। तेरा दिल इतना बड़ा, इतना आज़ाद कहाँ कि मेरी मंशा के ख़िलाफ भी तू अपनी मंशा से किसी गैर को अपना बना ले। गोपी की भाभी जब तक यहाँ रही, तू उसे अपनाये रही, क्योंकि यही मेरी इच्छा थी। लेकिन मन तेरा अन्दर से उसे अपना न बना सका। लखना की माँ, मान ले कि कहीं तू आफत में फँस जाए और तेरी मदद को मैं न जाऊँ तो?’’

‘‘चुप भी रहो! खा लो, फिर फेटना न बैठकर!’’

जी न होते भी मटरू ने भर पेट खाया। औरत का इसमें कोई दोष नहीं। वह जानता है, जैसी वह बनी है, वैसा ही व्यवहार तो करेगी। न खाकर उसका मन मैला क्यों करे?

चटाई बाहर धूप में बिछाकर, हुक्का ताजा कर औरत ने रख दिया। मटरू गुडग़ुड़ाता रहा और सोचता रहा। सोचते-सोचते ऊँघनेलगा। रात-भर का ज़ागा था। हुक्का एक ओर टिकाकर फैल गया और थोड़ी देर में ही नींद में डूब गया। औरत ने चादर लाकर ओढ़ा दी।

शाम ढल गयी।

कहीं कोई आफत का मारा अकेला तोता बड़े दर्दनाक स्वर में टें-टें चीखता हुआ मटरू के सिर पर से उड़ा, तो मटरू की नींद खुल गयी। जाने किस सपने में चौंककर वह पुकार उठा, ‘‘पूजन! पूजन!’’

दौड़ते हुए आकर पूजन ने कहा, ‘‘तूफान आ रहा है, पाहुन। उत्तर का आसमान काला हो गया!’’

तोते की टें-टें आवाज़ अब भी आसमान में गूँज रही थी। मटरू चादर फेंककर खड़ा हो गया। फिर इधर-उधर आँखें फैलाकर देखता बोला, ‘‘पूजन, मेरी हीरामन तूफान में फँस गयी है, सुन रहा है न उसका चीत्कार!’’ और सिसवन घाट की ओर पैर बढ़ा दिये।

दरवाज़े पर खड़ी औरत चिल्लायी, ‘‘कहाँ जा रहे हो?’’

पूजन बोला, ‘‘इस तूफान में कहाँ जा रहे हो?’’

मुडक़र मटरू ने कहा, ‘‘अभी लौट आऊँगा।’’

तूफान आ गया, गंगा मैया की लहरें, चीख़ उठीं; हवा सूँ-सूँ कर उठी। जंगल सिर धुनने लगा। धरती हिलने लगी। झोंपडिय़ाँ अब गिरीं, अब गिरीं।

घाट पर नाववाले से मटरू ने कहा, ‘‘खोलो, जल्दी करो!’’

‘‘इस तूफान में, पहलवान भैया? यह क्या कह रहे हो?’’ नाववाला आँख-मुँह फाडक़र बोला।

‘‘कोई हर्ज नहीं! अपनी मैया की ही तो लहरें हैं! उठाओ लग्गी! मुझे जल्दी है! लाओ, मुझे दो! तुम चुपचाप बैठे रहो!’’ और मटरू ने नाव खोल दी। देखते-देखते चिंग्घाड़ती लहरों में नाव अदृश्य हो गयी।

गोपी के दरवाज़े पर मटरू की गोजी धम से जब बोली, तूफान गुजर चुका था। बाद का सन्नाटा घर पर छाया था। हमेशा की तरह बूढ़े ने आवाज न दी। मटरू खुद ही आगे बढक़र बोला, ‘‘पाँय लागों, बाबूजी!’’

बाबूजी चुप!

‘‘नाराज़ हो क्या, बाबूजी? नयी बहू पसन्द नहीं आयी क्या? वह क्या बिल्कुल तुम्हारी बड़ी बहू की तरह नहीं है? मैंने कहा था न...’’

‘‘हट जाव मेरे सामने से!’’ बूढ़ी हड्डी चटख उठी।

‘‘हट कैसे जाएँ? रिश्तेदारी की है कोई दिल्लगी है?’’

‘‘मेरी नाम-हँसाई करके जले पर नमक छिडक़ने आया है? ढोल तो पिट गया गाँव-भर में! क्या बाकी रह गया? मुझे पहले ही क्यों न मार डाला, चाण्डालों!’’

‘‘ऐसा क्यों कहते हो, बाबूजी! तुम मेरी उमर भी लेकर जीओ! उस दिन तुम्हीं ने तो कहा था, ‘‘उसकी याद आती है तो कलेजा फटने लगता है। माँ-बाप के लिए क्या बेटे से बढक़र बिरादरी है! बिरादरीवाले क्या हमें खाना देंगे...लेकिन हमें क्या मालूम था...’’ अब तो हो गया मालूम! अब तो कलेजा नहीं फटना चाहिए। लेकिन यहाँ तो...’’

‘‘चुप रह! मैं क्या समझता था, कि तुम-सब ऐसे पागल...’’

मटरू हँसा। बोला, ‘‘पागल तुम और तुम्हारा समाज है, बाबूजी! लेकिन जो उनका अन्धेरखाता और पागलपन ख़त्म करके एक गऊ की जान बचाने के लिए आगे बढ़ता है, उसे ही वे पागल कहते हैं।’’

‘‘यह-सब जा-कर तू उसी से कह! मेरे सामने से हट जा।’’

‘‘कहाँ है वह!’’

‘‘चौपाल में।’’

‘‘चौपाल में? घर में नहीं?’’

‘‘मेरे जीते-जी वह घर में पाँव नहीं रख सकता!’’

‘‘तो उनका एक घर और भी है। चौपाल में क्यों रहेंगे? मैं अभी...’’

‘‘बाप-बेटे के झगड़े में तू क्यों पड़ा है? तू जाता क्यों नहीं?’’

‘‘यह बाप-बेटे का झगड़ा नहीं है। यह पूरे समाज और उसकी लाखों विधवाओं का झगड़ा है। इसके साथ मेरी बहन की ज़िन्दगी का वास्ता है।’’

‘‘वह मेरा बेटा है...’’

‘‘नहीं, जिस बेटे को तुमने घर से निकाल दिया...’’

‘‘अरे, यह क्या शोर मचा रखा है?’’ बूढ़ी चीखती हुई आ गयी।

‘‘छाती पर मूँग दलने मटरू आया है!’’ बूढ़े ने करवट लेकर कहा।

‘‘गाँव-घर में तो थू-थू करा दिया! अब क्या बाकी है?’’ बूढ़ी ने हाथ चमकाकर कहा।

‘‘उन्हें लिवाने आया हूँ!’’ मटरू ने कहा।

‘‘तू कौन होता है उन्हें लिवा जाने वाला? उसके माँ-बाप क्या मर गये हैं?’’ बूढ़ी ने उसके मुँह पर थप्पड़ उलाते हुए कहा।

‘‘आज मालूम हुआ कि मर गये! नहीं तो वे घर से निकालकर चौपाल में नहीं डाले जाते।’’

‘‘यह तुझसे किसने कहा?’’ बूढ़ी ने शान्त होकर कहा।

‘‘बाबूजी...’’

‘‘इनकी मति को तुम क्या लिये फिरते हो? इधर आओ।’’ कहकर बूढ़ी उसका हाथ पकडक़र घर के अन्दर ले जाकर फुसफुसाकर बोली, ‘‘देखकर मक्खी नहीं निगली जाती! क्या करते, टोले मुहल्लेवाले, गाँव-गोंयड़े के सब-के-सब कीचड़ उछालने लगे, तो बुढ़ऊ ने उन्हें चौपाल में कर दिया। मैंने बहुत सहा। जब सहा न गया, तो मैं भी उघटा-पुरान लेकर बैठ गयी। इसी गाँव में मेरे बाल सफेद हुए हैं। किसी का कु छ छिपा नहीं है मुझसे। जब झाडऩे लगी, तो सब दुम-दबाकर भाग गये। तुम्हीं कहो, किसी चमार-डोमिन से मेरी बहू ही ख़राब है? डंके की चोट पर उससे ब्याह किया है! शोहदों-घठियों की तरह चोरी-लुक्के तो अपना मुँह काला नहीं किया? माना कि उसने बुरा किया, लेकिन पागल बनकर कर ही डाला, तो क्या उसका सिर उतार लिया जाए? बेटा ही तो है। लाख बुरा उसका माफ किया, तो एक और सही। अपने सड़े हाथ कोई काटकर तो नहीं फेंक देता। भगवान् ने जो माला गले में डाल दी, उसे उतारकर कैसे फेंक दूँ? मैं उन्हें खुद घर में ले आयी हूँ। उनका घर है। कौन उन्हें निकाल सकता है? हम बूढ़ों का क्या ठिकाना? आज हैं, कल नहीं। उन्हें तो भोगने को सारी ज़िन्दगी पड़ी है। जैसे चाहे रहें! ...तू खाएगा न? रसियाव-पूरी बनायी है रे!’’

मटरू ने झुककर बूढ़ी के पैर छू लिये और गद्गद होकर कहा, ‘‘माई तू कितनी अच्छी है! यह बाबूजी तो...’’

‘‘ताजा गुस्सा है! सब ठीक हो जाएगा। बाप बेटे पर कब तक नाराज़ रह सकता है? खाएगा? हाथ-पैर धो न!’’

‘‘वे कहाँ हैं? मटरू ने बूढ़ी के कान में कहा।

बूढ़ी ने मुस्कुराते हुए उसके कान में कुछ कहा। मटरू भी मुस्करा पड़ा।

‘‘चल चौके में’’ आगे बढ़ती हुई बोली, ‘‘खा ले।’’

‘‘अब कैसे खाऊँ? वह मेरी छोटी बहन है न। उसका धन...मैं अब चलूँगा गंगा मैया पुकार रही हैं। सब परेशान होंगे।’’

तभी बगल की कोठरी का दरवाज़ा खुला और खुशी की दो मूरतों ने निकलकर मटरू के दोनों पैर पकड़ लिये।

गद्गद होकर मटरू ने कहा, ‘‘गंगा मैया तेरा सुहाग अमर रखें, मेरी हीरामन!’’

खड़ी होकर, घूँघट में सिर झुकाये हीरामन बोली, ‘‘जैसे होंठों से लाज टपके, गंगा मैया को मैंने चुनरी भाखी थी, भैया। भाभी से कह देना, चढ़ा देगी।’’

                                         समाप्त

1952