गंगा मैया-1 / भैरवप्रसाद गुप्त

Gadya Kosh से
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उस दिन सुबह गोपीचन्द की विधवा भाभी घर से लापता हो गयी, तो टोले-मोहल्ले के लोगों ने मिलकर यही तय किया कि यह बात अपनों में ही दबा दी जाए; किसी को कानों-कान ख़बर न हो। उन लोगों ने ऐसा किया भी, लेकिन जाने कैसे क्या हुआ कि गोपीचन्द के दरवाज़े पर हलके का दारोग़ा एक पुलिस और चौकीदार के साथ नथुने फुलाये, आँखों में रोष भरे आ धमका। उस वक़्त उन लोगों की हालत कुछ वैसी ही हो गयी, जैसी एक चोर की सेंध पर ही पकड़े जाने पर होती है।

दारोग़ा ने तीखी दृष्टि से इकट्ठे हुए मोहल्ले के लोगों को देखकर, एक ताव खाकर पैंतरा बदला और पुलिस की ओर इशारा करके गरजकर बोला, ‘‘सबके हाथों में हथकडिय़ाँ कस दो!’’ फिर चौकीदार की ओर मुडक़र कहा, ‘‘तुम जरा मुखिया को तो ख़बर कर दो।’’ कहकर वह आग उगलती आँखों से एक बार लोगों की ओर देखकर चारपाई पर धम्म से बैठ गया। उस वक़्त उसकी डंक-सी मूँछे काँप रही थीं।

लोगों को तो जैसे काठ मार गया हो। सब-के-सब सिर झुकाये हुए काठ के पुतलों की तरह जहाँ-के-तहाँ खड़े रहे। किसी के कण्ठ से बोल न फूटा। फूटता भी कैसे? पुलिस ने बारी-बारी से सबके हाथों में हथकडिय़ाँ कसकर, उन्हें दारोग़ा के सामने लाकर जमीन पर बैठा दिया।

गाँव के लोगों की भीड़ वहाँ जमा हो गयी। गोपीचन्द की बूढ़ी माँ जो अब तक मसलहतन चुप्पी साधे हुए थी, दरवाज़े पर ही बैठकर जोर-जोर से चीख़कर रो पड़ी। पता नहीं कहाँ से उसके दिल में अपनी विधवा बहू के लिए अचानक मोह-माया उमड़ पड़ी। गोपीचन्द का बूढ़ा बाप जो बरसों पहले से लगातार गठिया का रोगी होने के कारण चलने-फिरने से कतई मजबूर होकर ओसारे के एक कोने में पड़ा-पड़ा कराहा करता था, बाहर का हो-हल्ला और औरत की रुलाई सुनकर उठ बैठा और खाँसने-खँखारने लगा कि कोई उस अपाहिज के पास भी आकर बता जाए कि आख़िर बात क्या है!

गोपीचन्द गाँव का एक मातबर किसान था। भगवान् ने उसे शरीर भी खूब दिया था। तीस साल का वह हैकल जवान अपने सामने किसी को कुछ न समझता था। यही वजह थी कि इतना कुछ होने पर भी जमा हुई भीड़ में से कोई उसके ख़िलाफ कुछ कहने की हिम्मत न कर रहा था। उसे हथकड़ी पहने, सिर झुकाये, चुपचाप बैठे देखकर लोगों को आश्चर्य हो रहा था क्यों नहीं वही कुछ बोल रहा है? आख़िर इसमें उसका दोष ही क्या हो सकता है? किसी विधवा के लिए रजपूतों के इस गाँव में यह कोई नयी बात तो है नहीं। कितनी ही विधवाओं के नाम उनके होठों पर हैं, जो या तो पतित होकर मुँह काला कर गयीं, या किसी दिन लापता हो गयीं, या किसी कुएँ-तालाब की भेंट चढ़ गयीं। लेकिन जो भी हो, यह घर की बहू थी, इज्जत थी; इस तरह लापता होकर उसने कुल की मान-मर्यादा पर तो बट्टा लगा ही दिया। शायद इसी लज्जा के दुख के कारण वह इस तरह चुप है। होना भी चाहिए, इज्जतदार आदमी जो ठहरा!

साधारण गरीब आदमियों से उलझना पुलिस वाले नापसन्द करते हैं। बहुत हुआ तो इस तरह की वारदातों पर एकाध थप्पड़ लगा दिया, कुछ डाँट-फटकार दिया या गाली-गुफ्ता की एक बौछार छोड़ दी। वे जानते हैं कि उनसे उलझना अपना वक़्त बरबाद करना है, हाथ तो कुछ लगेगा नहीं। फिर गुनाह बेलज्जत का आजाब सिर पर क्यों लें? जान-बूझकर साधारण-से-साधारण बहाने पर भी उलझना तो उन्हें पैसेवाले इज्जतदारों से पसन्द है। दारोग़ा जी ने गोपीचन्द के इस मामले में जो इतनी फुर्ती, परेशानी और कर्तव्यय-परायणता का परिचय दिया, तो उन्हें किसी कुत्ते ने तो काटा नहीं था।

मुखिया के आते ही दारोग़ा आग के भभूके की तरह फट पड़ा। फिर उसने क्या-क्या कहा, कैसी-कैसी आँखें दिखाईं, क्या-क्या पैंतरे बदले और क्या-कुछ कर डालने की धमकियाँ ही नहीं दीं, बल्कि कर दिखाने के फतवे भी दे डाले, इसका कोई हिसाब नहीं। मुखिया होठों में ही मुस्कुराया, फिर गम्भीर होकर उसने वह सब पूरा कर डाला, जो दारोग़ा ने भूल से अधूरा छोड़ दिया था। फिर गोपीचन्द और उसके मोहल्ले के अपराधी लोगों को कुछ खरी-खोटी सुनाकर आप ही उनका वकील भी बन गया और उनकी ओर से माफी माँगने के साथ-साथ कुछ पान-फूल भेंट करने की बात चलाकर कहा, ‘‘दारोग़ा जी, इस गोपीचन्द न तो एक बार जेल की हवा खाकर भी जैसे कुछ नहीं सीखा! यह फिर जेल जायेगा, दारोग़ा जी, आख़िर हम कब तक इसे बचाये रखेंगे? इसे यह भी मालूम नहीं कि एक बार दाग लग जाने के बाद फिर गवाही-शहादत की भी जरूरत नहीं रह जाती!’’ फिर दूसरे लोगों की ओर हाथ उठाकर कहा, ‘‘और इनको मैं कहता हूँ कि इसके साथ-साथ इन्हें भी बड़े घर की सैर का शौक चर्राया है!’’

इसी बीच दारोग़ा अपना नया दाँव फेंकने के लिए अपनी मुद्रा उसके अनुकूल बनाने में काफी सचेष्ट रहा। मुखिया के चुप होते ही वह बरस पड़ा, ‘‘नहीं, साहब, नहीं! यह ऐसी-वैसी कोई वारदात होती तो कोई बात न थी। मगर यह संगीन मामला है! आख़िर मुझे भी तो किसी के सामने जवाबदेह होना पड़ता है!’’ कहकर वह ऐंठ गया।

मुखिया समझ गया। ‘खग जाने खगही के भाखा!’ हाथ बढ़ाकर उसने दारोग़ा का हाथ पकड़ा और उसे लेकर एक ओर हो गया।

दस मिनट के बाद वे लौटे, तो दारोग़ा ने नोट-बुक और पेंसिल जेब से निकालकर कहा, ‘‘गोपीचन्द, तुम अपना बयान तो दो।’’ फिर भीड़ की ओर देखकर पुलिस की ओर इशारा किया।

भीड़ भगा दी गयी। फिर गोपीचन्द के बयान दिये बिना ही दारोग़ा ने आप ही खानापूरियाँ कर लीं, वारदात में लापता विधवा के एक हाथ में रस्सी और दूसरे हाथ में घड़ा थमाकर उसे कुएँ पर भेज दिया गया और उसका पाँव काई-जमीं कुएँ की जगत पर फिसलाकर, कुएँ में गिराकर, उसे मार डाला गया। इधर गोपीचन्द की थैली का मुँह खुला, उधर कानून का मुँह बन्द हो गया। कहानी ख़त्म हो गयी।

गाँव में तरह-तरह की बातें उठीं। फिर ‘बहुत सी खूबियाँ थीं मरने वाले में’ के अनुसार लोगों ने उसके विषय में कोई चर्चा करके उसकी आत्मा को व्यर्थ कष्ट पहुँचाना अनुचित समझकर, अपने मुँह बन्द कर दिये। बात आयी गयी हो गयी। लेकिन...