गंगा मैया-2 / भैरवप्रसाद गुप्त
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दो
गोपीचन्द दो भाई थे। बड़े भाई मानिकचन्द और उसकी उम्र में मुश्किल से दो साल का फर्क था। पिता दो बैलों की खेती कराते थे। घर की भैंस थी। मानिकचन्द और गोपीचन्द भैंस का दूध पीते और घण्टों अखाड़े में जमे रहते। पिता ने उन्हें साँड़ों की तरह आजाद और बेफिक्र छोड़ दिया था। खेलने-खाने के यही तो दिन हैं; फिर जिन्दगी का जुआ कन्धे पर पडऩे के बाद किसे फुरसत मिलती है शरीर बनाने की? इसी वक़्त की बनी देह तो जिन्दगी-भर काम आएगी।
उगते हुए जवानों को आजादी, बेफिक्री, दूध और अखाड़े की कसरत जो मिली तो उनकी देह साँचें में ढलने लगी। उनकी जोड़ी जब अखाड़े में छूटती तो लोग तमाशा देखते और बड़ाई करते न थकते। जब अखाड़े से अपने सुडौल, खूबसूरत शरीर में धूल रमाये वे शेरों की तरह मस्त चाल से झूमते हुए घर लौटते, तो अपने राम-लक्ष्मण की जोड़ी देखकर माँ-बाप की छाती फूल उठती, चेहरा खुशी के मारे दमक उठता और उनकी आँखों से जैसे गर्व के दो दीप जल उठते। माँ उनकी बलैया लेती; बाप मन-ही-मन उनके लिए जाने कितनी शुभकामनाएँ करते!
बड़ाई जितनी मधुर है, उसका चस्का लग जाना उतना ही बुरा है। वह आदमी को अन्धा बना देती है! दोनों भाइयों के गढ़े-बने शरीर और उनके बल की बड़ाई गाँव में और आस-पास जो शुरू हुई, तो उन पर जैसे एक नशा-सा छा गया। खेल-खेल में जो कसरत उन्होंने शुरू की थी, वह धीरे-धीरे शौक बन गयी। फिर तो जैसे शरीर बनाने और बल बढ़ाने की जबर्दस्त धुन उनके सिर पर चढ़ गयी। माँ-बाप और गाँव के लोगों का बढ़ावा मिला। मानिक और गोपी की जोड़ी गाँव का नाम जवार में उजागर करेगी! और सचमुच मानिक और गोपी गाँव की शोहरत में चार चाँद लगाने को जी-जान से कटिबद्ध हो गये। बादाम घोटे जाने लगे, बकरे कटने लगे, घी में तर हलुए की सुगन्ध मोहल्ले में सुबह-शाम छायी रहने लगी। पिता अपनी गाढ़ी कमाई उन पर न्योछावर करने लगे। एक और दुधारू भैंस खूँटे पर आ बँधी।
नतीजा यह हुआ कि उम्र से दुगुना और तिगुना उनका शरीर और बल बढऩे लगा और पच्चीस का माथा छूते-छूते तो उनका शरीर और बल खासा हाथी की तरह हो गया। अब जो वे अखाड़े में छूटते, तो उनकी साँसों की फुँफकार की आवाज बीघों तक सुनायी पड़ती, जैसे दो साँड़ हुँकड़ रहे हों। जहाँ उनका पैर पड़ जाता, अखाड़े की जमीन बित्ता-बित्ता-भर धँस जाती और जो कोई अपनी जाँघ या बाजू पर ताल ठोंकता, तो मालूम होता, जैसे कोई बादल का टुकड़ा दूसरे बादल के टुकड़े से टकराकर गरज उठा हो। घण्टों वे दो पहाड़ों की तरह एक-दूसरे से टक्कर लेते और अखाड़े में जमे रहते। अखाड़े की मिट्टी खुद जाती, पसीने के धार बहने लगते, तब कहीं वे बाहर निकलने का नाम लेते। बाहर आकर वे हाथियों की तरह पसर जाते और उनके दो-दो, तीन-तीन शागिर्द हाथों में मिट्टी ले-लेकर उनके शरीर से बहते पसीनों की धारों को मल-मलकर घण्टों में सुखा पाते।
अब हाल यह था कि शरीर बेकाबू हुआ जा रहा था, अपार शक्ति की किरणें उनके रोम-रोम में फूट रही थीं, मोटी रगें सीमा तक स्वस्थ रक्त से फूल-फूलकर अब फटी-अब फटी-सी हो रही थीं और सुर्ख चेहरे से जैसे खून टपका पड़ रहा हो। ऊँचा माथा, रोबीली, खून उगलती-सी आँख, बाँकी मूँछें, सुडौल गरदन, उन्नत, चौड़ी-चकली, मैदान की तरह छाती, मांसल भुजाएँ, पुष्ट रानें, गठीली पिण्डलियाँ लिये, जोम से जरा शरीर को भाँजते, शक्ति और गर्व के नशे में मस्त हाथी की तरह झूमते जब वे चलते, तो लगता, जैसे उनके हर कदम के साथ जलजला चला आ रहा है, उनकी हर जुम्बिश पर दिशाएँ झुकी जा रही हैं, उनकी हर चितवन में ताकत की बिजलियाँ कौंध उठती हैं। माँ-बाप ने जब उन्हें ऐसी उन्नत अवस्था में देखा, तो गर्व और खुशी से फूले न समाये। गाँववालों ने देखा, तो आँखों में खुशी की चमक और होंठों पर सफलता की मुस्कुराहट लाकर कहा, ‘‘हाँ, अब वह वक़्त आ गया, जिसका इन्तजार हमें बरसों से था। अब देखें, कौन माई का लाल हमारे गाँव के इन शेरों के जोड़े के सामने से सिर उठाकर चला जाता है।’’
बाप से राय ली गयी, तो उन्होंने लापरवाही से कहा, ‘‘अरे, अभी तो ये बच्चे हैं!’’
लोगों ने समझाया, ‘‘तुम बाप हो। बाप के लिए तो बेटा बूढ़ा भी हो जाये, तब भी बच्चा ही रहता है। मगर सच तो यह है कि चढ़ती जवानी की उम्र ही कुछ कर गुजरने की होती है। अब वक़्त आ गया है कि इनके बल, जोर और कुश्ती का डंका गाँव की हद में ही बँधा न रहकर पूरे जवार, तहसील और जिले में ही न बजे, बल्कि पूरे सूबे और देश में भी इनका नाम चमक उठे। तुम अगर इस समय किसी तरह की कमजोरी दिखाओगे, तो इनके हौसले पस्त हो जाएँगे। तुम इन्हें खुशी से आज्ञा दो कि ये अपने नाम और कुल के मान पर चार चाँद लगाने के साथ ही गाँव का नाम भी उजागर करें!’’
बाप को अपने बेटों की ताकत का अन्दाजा न हो, ऐसी बात न थी। लेकिन उनके पितृ-हृदय में जहाँ बेटों को यशस्वी देखने की प्रबल कामना और उमंग थी, वहीं ममता और स्नेह की विपुलता के कारण जरा शंका और भय भी था कि कहीं...लोगों की बात सुनकर उनके होठों पर एक विराग की-सी मुस्कराहट फैल गयी, जैसे उन्हें अपने नाम और मान की कतई फिक्र न हो। नाम, मान, यश, वैभव की लालसा किसे नहीं होती! लेकिन यह लालसा दूसरों पर प्रकट कर इन दुर्लभ प्राप्तियों की महानता को कम करके कोई बुद्धिमान अपने को लोभी घोषित करके हास्यास्पद नहीं बनना चाहता। बाप अनुभवी आदमी थे। उन्होंने दिल की उठती उमंगों को दबाकर एक विरक्त की तरह कहा, ‘‘अगर तुम लोग ऐसा ही समझते हो, तो मैं इसमें किसी तरह की बाधा डालना नहीं चाहता। आख़िर उन पर गाँव का भी तो वही अधिकार है, जो मेरा है। गाँव की ही मिट्टी-पानी-हवा से तो उनकी देह बनी है। तुम लोग उन्हीं से कहो। अब तक वे हर तरह से आजाद रहें। आज भी वे जैसा चाहें, करने को आजाद हैं।’’
लोग खुश-खुश दोनों भाइयों के पास पहुँचे और उनके बाप की अनुमति की बात कहकर उन्होंने कहा, ‘‘अब तुम लोग बताओ, तुममें से कौन पहले कुश्ती में उतरना चाहता है?’’
वे दोनों अखाड़े में एक-दूसरे के दुश्मन बनकर उतरते थे, लेकिन अखाड़े के बाहर उनका आपसी व्यवहार इतना प्रेम-भरा था कि बस राम-लक्ष्मण का ही दृष्टान्त दिया जा सकता था। गोपी ने कहा, ‘‘मेरे रहते भैया को कुश्ती में नहीं उतरना पड़ेगा। बाबूजी और भैया की शुभ कामना और आशीर्वाद का बल पाने का हक मुझे ही तो भगवान् की ओर से मिला है!’’
मानिक गोपी से उम्र में बीस था, लेकिन शरीर और ताकत में गोपी मानिक से कहीं बीस था, यह खुद मानिक भी जानता था और गाँव के लोग भी। एक तरह से गोपी के पहले उतरने की बात से लोगों को भी खुशी ही हुई।
अच्छी सायत देखकर ब्राह्मण और नाई के साथ ललकार का पान जवार के नामी-गरामी पहलवानों के पास भेज दिया गया। इधर गोपी की तैयारी और जोर पकड़ गयी।
मानिक और गोपी के बारे में जवार के पहलवान बहुत-कुछ सुन ही न चुके थे, बल्कि उन्हें अपनी आँखों से देख भी चुके थे। उनमें से किसी को भी उनसे भिडऩे की हिम्मत न रह गयी थी। ब्राह्मण और नाई एक-एक कर सभी पहलवानों के यहाँ पहुँचे। लेकिन सब कोई-न-कोई बहाना करके टाल गये। आख़िर वे जवार के सबसे नामी बूढ़े जोखू पहलवान के अखाड़े में पहुँचे। जोखू को जब उनसे मालूम हुआ कि जवार का कोई भी पहलवान पान को हाथ लगाने की हिम्मत न कर सका, तो उसके अचरज का ठिकाना न रहा। ज्यादातर नामी पहलवान जोखू का लोहा मानने वाले या उसके शागिर्द थे। अपनी जवानी के दिनों में उसने एक बार जो अपना सिक्का जमा लिया था, वह आज के दिन तक वैसा ही जमा रहा था। किसी ने उससे भिडऩे की हिम्मत न की थी। उसी की तूती जवार में आज तक बोलती रही। आज अब वे जवानी के दिन न रहे। जोखू बूढ़ा हो चुका था। वह जानता था कि गोपी के मुकाबिले में उठकर वह अपनी उम्र-भर की सारी कमाई कीर्ति हमेशा के लिए खो देगा। लेकिन अब चारा ही क्या था? ब्राह्मण और नाई सब नामी-गरामी पहलवानों के यहाँ से, श्यामकर्ण घोड़े की तरह, गोपी की कीर्ति का फरहरा फहराते हुए चले आये थे। जोखू के यहाँ से भी अगर उसी तरह चले जाएँगे, तो लोग क्या समझेंगे? बूढ़ा शेर इस बेइज्जती की बात सोचकर तमतमा उठा! उसकी मर्दानगी को यह कैसे गवारा होता कि कोई ललकार कर उसके सामने से निकल जाए? जोखू बूढ़ा हो गया है। अब वह शरीर और बल नहीं रह गया। फिर भी पुराने खून का वह मर्द है, सच्चा मर्द! यों ललकार को स्वीकार किये बिना ही कायरों की तरह पहले ही वह कैसे सिर झुका देता? उसने पान उठा लिया और गरजकर, बजरंग बली की जय बोलकर उसे मुँह में डाल लिया।
लोगों ने जब यह सुना, तो अचरज करने के साथ ही वे बूढ़े जोखू की मर्दानगी और हिम्मत की दाद दिये बिना नहीं रह सके। उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा कि जवार के जवान पहलवानों को चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए! गोपी ने जब यह सुना, तो जैसे छोटा हो गया। अपने बाप की उम्र के पहलवान से लडऩा उसे कुछ जँचा नहीं। वह तो अपनी उम्र और जोड़ के किसी प_ से भिडऩा चाहता था। लेकिन अब हो ही क्या सकता था? एक बार बदकर कुछ और किया ही कैसे जा सकता था।
नियत तिथि पर गाँव का अखाड़ा बन्दनवार, अशोक के पत्तों के फाटकों और रंग-बिरंगी कागज की झण्डियों से खूब सजाया गया। वक़्त के बहुत पहले ही से जवार और दूर-दूर के गाँवों के लोगों की भीड़ जमने लगी।
माँ-बाप के आशीर्वाद लेकर फूलों के हारों से लदे हुए दोनों भाई बाजे-गाजे के साथ अपने गाँव के लोगों की भीड़ के आगे-आगे अखाड़े की ओर चल पड़े। भीड़ उमंग में बावली होकर बजरंग बली की जयजयकार से आसमान को गुँजा रही थी। लेकिन गोपी के दिल में वह खुशी, उत्साह और उमंग न थी, जिसकी उसने कभी ऐसा मौका आने पर कल्पना की थी। फिर भी मन की बात दबाकर वह ऊपरी जोश से भीड़ की खुशी में हिस्सा ले रहा था।
अखाड़े पर दो ओर से एक ही वक़्त गोपी और जोखू के दल पहुँचे। दोनों दलों ने जयजयकार की। मारू बाजे जोर-जोर से बजने लगे। वातावरण के कण-कण में वीर रस का संचार हो रहा था। भीड़ की आँखों में खुशी और उत्सुकता चमक रही थी। सब-के-सब अखाड़े के पास ही पिले पड़ रहे थे। गोपी और जोखू के अभिभावक उन्हें चारों ओर से घेरे शाबाशी के साथ ही तरह-तरह के गुर की बातों का जिक्र कर रहे थे। कोई बुज़ुर्ग पीठ ठोंककर उत्साह बढ़ा रहा था, तो कोई हम-उम्र हाथ मिलाकर विजय की कामना कर रहा था और सब छोटे शागिर्द पाँव छूकर सफलता के लिए भगवान् से प्रार्थना कर रहे थे।
गोपी अखाड़े में कूदे, इसके पहले ही मानिक ने उसके कान के पास मुँह ले जाकर चुपके-चुपके कहा, ‘‘बूढ़ा पुराना खुर्राट उस्ताद है। ज्यादा मौका न देना। हाथ मिलाते ही, पलक मारते ही...समझे? वरना कहीं गुँथ गया, तो फिर घण्टों की छुट्टी हो जाएगी! फिर हार भी खाएगा, तो कहने को रह जाएगा कि एक तो बूढ़े से लडऩा ही गोपी-जैसे जवान की ज्यादती थी, दूसरे लड़ा भी तो कहीं घण्टों में रीं-रीं कर...सो, यह कहने का मौका किसी को न मिले। बस, चटपट...’’
दो ओर से कूदकर वे अखाड़े में उतरे। दोनों ओर से जोर-जोर की जयकार हुई। मारू बाजे और जोर से बज उठे। भीड़ की आँखों की उत्सुकता की चमक में पुतलियों की थर्राहट बढ़ गयी।
दोनों ने झुककर अखाड़े की मिट्टी चुटकी से उठाकर माथे में लगाकर अपने गुरु का स्मरण किया। फिर हाथ मिलाने को एक-दूसरे की आँखों से आँखें मिलाये आगे बढ़े। हाथ बढ़े, अँगुलियाँ छुईं कि सहसा जैसे बिजली-सी कौंध गयी। गोपी ने जाने कैसे दाहिना पैर जोखू की कोख में मारा कि बूढ़ा एक चीख के साथ हवा में उछला, हवा ही से जैसे एक आह की आवाज आयी और दूसरे ही क्षण अखाड़े की मेंड़ पर पहाड़ के एक टुकड़े की तरह वह भहराकर गिर पड़ा। भीड़ में सन्नाटा छा गया। मारू बाजा थम गया। उसके दल के लोग आशंका से काँपते हुए उसकी ओर बढ़े। झुककर देखा तो वह ठण्डा पड़ चुका था। अब क्या था, उनकी आँखों में क्रोध के शोले भडक़ उठे। ‘‘यह अन्याय है, यह धोखा है, हाथ मिलाने के पहले ही गोपी ने जोखू उस्ताद को मार डाला। कुश्ती के कायदे को इस कायर ने तोड़ा है...हम इसे जीता न छोड़ेंगे।’’ इत्यादि क्रोध और क्षोभ में चीखती आवाजें भीड़ से उठ पडीं। गोपी ठक खड़ा था। उसकी समझ में खुद न आ रहा था कि अचानक यह क्या हो गया। लेकिन अब समझने-बूझने का मौका ही कहाँ था? जब जोखू के दल ने लाठियाँ उठा लीं तो दूसरा दल चुप कैसे रहता? लाठियाँ पट-पट बजने लगीं। तमाशबीनों में भगदड़ मच गयी। कइयों के सिर से खून की धारें बह चलीं, कई हाथ-पैर में चोट खाकर गिरकर तड़पने लगे। आख़िर जब जोखू के दलवालों ने देखा कि उनका पल्ला कमजोर पड़ रहा है, तो उनमें से कइयों ने खुद बीच-बचाव का शोर उठाया और अपने लोगों को ही रोकने लगे। गोपी के अपने गाँव का मामला था। जोखू के दल वाले पराये गाँव के थे। अगर रोक-थाम की उन्हें न सूझती तो एक आदमी भी बचकर न जा पाता। लाठियाँ धीरे-धीरे थम गयीं। फिर कचहरी में समझ लेने की धमकी देकर वे चले गये।
ऐसी वारदात को लेकर कचहरी दौडऩा स्वयं उनके लिए कोई प्रतिष्ठा की बात न हीं थी। इससे इज्जत घटती ही, बढ़ती नहीं। जोखू पहलवान की इस तरह जो मौत हो गयी थी, इससे जवार में क्या उनकी कम किरकिरी हुई थी, जो वे भरी कचहरी में इस बदनामी का ढोल पीटते। हलके के दारोग़ा ने पहले जरूर इस्तगासा दाखिल करने पर जोर दिया, लेकिन गोपी के दल ने जैसे ही उसकी जेब गरम कर दी, वह भी चुप्पी साध गया।
जो भी हो, इस वारदात का इतना नतीजा जरूर हुआ कि जोखू के गाँव वाले हमेशा के लिए गोपी और उनके खानदान के प्राणलेवा शत्रु बन गये। उनके दिलों में एक घाव बन गया। गोपी के दिल पर जोखू की इस तरह हुई मौत का इतना असर पड़ा कि उसने हमेशा के लिए लँगोट उतार फेंका। मानिक और गाँव के लोगों ने उसे बहुत समझाया, लेकिन वह टस-से-मस न हुआ। वह अब हर तरह से घर-गिरस्ती के कामों में बाप की मदद करने लगा।
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