गंगा मैया-3 / भैरवप्रसाद गुप्त
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तीन
धीरे-धीरे वे बातें पुरानी पड़ गयीं। बाप को अब अपने बेटों की शादी की फिक्र हुई। इसके पहले भी कई जगहों से रिश्ते आये थे, लेकिन उन्होंने ‘‘अभी क्या जल्दी है?’’ कहकर टाल दिया था। अबकी संयोग से एक ऐसा रिश्ता आ गया कि उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। सीता और उर्मिला की तरह दो प्रेममयी, सगी, प्रतिष्ठित कुल की सुशील बहनों की एक ही साथ दोनों भाइयों से सम्बन्ध की बात चली। जैसे बेटे थे, वैसे ही बहुएँ मिलने जा रही थीं। माँ तो वर्षों से बहुओं का मुँह देखने को तड़प रही थी। इस रिश्ते की चर्चा जिसने भी सुनी, उसी ने बाप को राय दी कि, ‘‘बस, अब कुछ सोचने-समझने की बात नहीं है। यह भगवान् की किरिपा है कि ऐसी बहुएँ मिल रही हैं। एक ही साथ जैसे दोनों बेटों के सभी संस्कार हुए, वैसे ही एक ही साथ ब्याह भी जितनी जल्दी हो जाए, अच्छा है।’’
खूब धूम-धाम से ब्याह हो गया। दो-दो सुशील सुन्दर बहुएँ घर में एक साथ क्या उतरीं, घर खमखम भर गया। माँ-बाप की खुशी का ठिकाना न रहा। जब उन्होंने देखा कि सचमुच बहुएँ उससे कहीं बढ़-बढक़र हैं जैसा कि उन्होंने सुना था, तो उनके सन्तोष-सुख के क्या कहने!
गोपी प्यारी पत्नी के साथ ही प्यारी भाभी पाकर निहाल हो गया। उसके लिए घर का संसार इतना मोहक, इतना सुखकर हो उठा कि वह बस घर में ही रमकर रह गया। बाहरी संसार से उसने एक तरह से नाता ही तोड़ लिया। वह एक धुन का आदमी था। पहले सांसारिक बातों, से अपना शरीर बनाने और कसरत की धुन में, कोई दिलचस्पी ही न थी। अब एक छूटा, तो दूसरे से वह इस तरह चिपक गया कि लोग देखते तो ताज्जुब करते। लोकाचार के बन्धनों के कारण उसे अपनी बीवी से मिलने-जुलने की उतनी आजादी न थी, जितनी भाभी से। भाभी से वह खुलकर मिलता और हँसी-मजाक के ठहाकों से घर को गुँजा देता। माँ-बाप का दिल घर के इस सदा हँसते वातावरण को देखकर खुशी से झूम उठता। मानिक को इन बातों में खुलकर हिस्सा लेने की आजादी न थी, फिर भी वह गोपी और भाभी का स्नेहमय व्यवहार देखकर मन-ही-मन हर्ष-विभोर हो उठता। भाई-भाई का प्रेम, बहन-बहन का प्रेम, देवर-भाभी का प्रेम, पुत्र माता-पिता, वधुओं का प्रेम, ऐसा लगता था जैसे चौबीसों घण्टे उस घर में अमृत की वर्षा होती हो-छक-छककर, नहा-नहाकर घर का प्रत्येक प्राणी आनन्द-विभोर है; कोई दुख नहीं, कोई अभाव नहीं, कोई चिन्ता नहीं, कोई शंका नहीं।
क्या अच्छा होता अगर वह फुलवारी हमेशा ऐसी ही गुलजार बनी रहती, इसके पौधे और फूल हमेशा इसी तरह खुशी से झूमते रहते! लेकिन दुनिया की वह कौन गुलजार फुलवारी है, जिसके पौधे और फूलों की खुशी को पतझड़ अपने मनहूस कदमों से नहीं रौंद देता?
मुश्किल से इस खुशी के अभी छ: महीने भी न गुजरे होंगे कि एक काली रात को खुशी की इस दुनिया के एक कोने में आग लग गयी। मानिक सत्यनारायणजी की कथा के लिए कुछ जरूरी सामान लेने कस्बे गया था। लौटने लगा तो काफी रात हो गयी थी। कस्बे से उसके गाँव का रास्ता जोखू के गाँव के सीवाने से होकर था। सामान की गठरी काँधें पर लटकाये वह तेजी से कदम बढ़ाये चला आ रहा था। उस गाँव के सीवाने के एक बाग में वह पहुँचा तो सहसा उसे लगा कि उसके पीछे कुछ लोग आ रहे हैं। मुडक़र उसने देखना चाहा कि तड़ाक से एक भरपूर लाठी उसके सिर पर बज उठी। फिर कई लाठियाँ साथ-साथ उसके ऊपर चारों ओर से बिजली की तेजी से चोट करने लगीं। उसका होश गायब हो गया। वह ज्यादा देर तक अपने को सँभाल न पाकर गिर पड़ा। सिर फट गया था। खून के धार बह रहे थे। इतने में उसे लगा कि किसी ने उसकी गर्दन पर लाठी पट करके रखी है, फिर उसे जोर से दबाया गया है। उसकी साँसें घुटती गयीं; आँखें बाहर निकल आयीं।
हत्यारे लाश को ठिकाने लगाने की बात अभी सोच ही रहे थे कि कुछ लोगों के आने की आहट पाकर भाग चले। वे लोग भी कस्बे से ही आ रहे थे। बाग में ऐन राह पर खून और लाश देखकर वे आशंका से ठिठक गये। गाँव के लोग ऐसी वारदातों में शहरियों की तरह भय खाकर भाग नहीं खड़े होते। ऐसे वक्तों पर भी अपना कर्तव्यं निभाना खूब जानते हैं। उन्होंने झुककर देखा और मानिक को पहचाना, तो उनके दुख की हद न रही। जवार का कोई ऐसा आदमी न था, जो उन दो भाइयों को और उनकी ताकत और बहादुरी को न जानता हो। क्षण-भर में उन्हें जोखू के साथ गोपी की कुश्ती की बातें याद हो आयीं। फिर सब-कुछ उनकी समझ में आप ही आ गया। जोखू के गाँववालों के इस बुजदिलाना व्यवहार से वे क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने एक आदमी को गोपी को ख़बर करने को भेजा। साथ ही उससे यह भी कहने को कहा कि पूरे दल-बल के साथ उसके गाँव वाले अभी आ जाएँ, ताकि इन बुजदिलों से मानिक की हत्या का बदला टटके ही ले लिया जाए।
‘‘बेचारा मानिक! उसकी जवान बहू की जिन्दगी हमेशा के लिए दुखी हो गयी! इन कायरों को इनका जघन्य पाप निगल जाएगा। बदला ही लेना था, तो मर्दों की तरह मैदान में लेते!’’ मानिक की लाश को घेरे हुए विषाद और क्रोध में बड़बड़ाते वे लोग वहीं बैठ गये।
गोपी के घर ख़बर पहुँची। माँ-बहुएँ छाती पीट-पीटकर, पछाड़ें खा-खाकर, चीख-चीखकर रो पड़ीं। गोपी को जैसे साँप सूँघ गया। वह सिर पकडक़र जहाँ का तहाँ बैठ गया। बाप दिल पर जैसे घूँसा खाकर पत्थर के बुत बन गये। इस आकस्मिक वज्रपात से उनका मस्तिष्क ही शून्य हो गया था।
सारे गाँव में इस हादसे की ख़बर बिजली की तरह फैल गयी। चारों ओर एक कुहराम-सा मच गया। सारा-का-सारा गाँव लाठी सँभाले हुए गोपी के दरवाज़े पर दुख और क्षोभ से पागल होकर इकट्ठा हो गया। औरतें उनकी माँ और बहुओं को सँभालने लगीं। बड़े-बूढ़े पिता को समझाने-बुझाने लगे। लेकिन जवानों को कहाँ चैन था? चारों ओर गोपी को घेरकर उसे भाई की हत्या का बदला लेने को ललकारने लगे।
थोड़ी देर तक तो गोपी सुध-बुध खोये उनकी बात सुनता रहा। फिर जैसे उसकी आँखों में लुत्तियाँ छिटकने लगीं। वह तड़पकर उठा और कोने में खड़ी गोजी उठाकर घायल शेर की तरह दौड़ पड़ा। उसके पीछे-पीछे गाँव के लट्ठबाज नौजवान आँखों में बदले की आग लिये बढ़ चले। उधर ख़बर पाकर चौकीदार थाने की ओर दौड़ा।
जोखू के गाँव वालों को इस वारदात की कोई ख़बर न थी। उसके चन्द शागिर्दों का ही यह षड्यन्त्र था। उन्होंने अपना काम किया और चम्पत हो गये। गाँववालों ने जब गाँव की ओर बढ़ता शोर सुना, तो सोचा कि शायद यह कोई डाकुओं का गिरोह गाँव को लूटने आ रहा है। पूरे गाँव में तहलका मच गया। नौजवानों ने लाठी सँभालकर मुकाबिले का निश्चय किया और जिधर से वह शोर बढ़ता आ रहा था, उधर गाँव के बाहर ही वे भिड़ पडऩे को दौड़ पड़े। औरतों और बूढ़ों का कलेजा धक-धककर रहा था। बच्चे बिलबिला उठे थे।
गोपी का दल पास पहुँचा, तो सामने लाठियाँ उठी देखकर उन्होंने समझ लिया कि खुली फौजदारी की तैयारी इन्होंने पहले ही से कर रखी है। समझने-बूझने की स्थिति में कोई दल न था। एक-दूसरे पर वे भूखे शेरों की तरह झपट पड़े। लाठियाँ पटापट बजने लगीं। अँधेरे में सैकड़ों बिजलियाँ कौंधने लगीं। अँधेरे में अन्धों की तरह बस अन्धाधुन्ध लाठियाँ चल रही थीं। किसके दल का कौन घायल होकर गिरता है, किसकी लाठी किस पर और कहाँ गिरती है, यह जानने की सुध-बुध किसी को न थी। एक ओर मानिक की हत्या के बदले की लपटें जल रही थीं, तो दूसरी ओर अपनी जान-माल की रक्षा का सवाल था। कोई दल अपनी हार कैसे मान लेता? देखते-देखते कई लोथें जमीन पर तपडऩे लगीं। खून की बौछारों से जगह-जगह फिसलन हो गयी। लेकिन इसकी ओर ध्यान देने का अवकाश किसे था? वहाँ तो जान देने और लेने की बाजी लगी थी।
मानिक की लाश थाने पर ले जाने का हुक्म देकर दारोग़ा और नायब दस हथियारबन्द कांसटेबलों के साथ चौकीदार को आगे करके घटनास्थल की ओर लपके। लाठियों की पटापट सुनकर उन्होंने टार्च जलाकर सामने का विकट दृश्य देखा, तो रिवाल्वर निकाल लिया और कांसटेबलों को हवाई फायर करने का हुक्म दिया।
फायरों की आवाज़ सुनकर दोनों दलवालों ने समझ लिया कि पुलिस की दौड़ आ गयी। वे अपनी लाठियाँ रोक भी न पाये थे कि पुलिस दनदनाती पहुँच गयी। लोक भागने को ही थे कि चारों ओर से पुलिस की संगीनों से घिर गये। टार्चों की रोशनी से उनकी आँखें चौंधिया रही थीं। देखते-देखते ही उनके हाथों में हथकडिय़ाँ पड़ गयीं।
गोपी के बायें हाथ की तीन उँगलियाँ पिस गयी थीं और गले के पास की दाहिनी पसली में गहरी चोट आयी थी। लेकिन विषाद और क्रोध के झोंके में वह इस तरह ग़ाफिल था कि दूसरे दिन सुबह उसकी आँखें परगने के अस्पताल में खुलीं, तो उसे इसका ज्ञान न था कि वह कहाँ है, उसके हाथ, गले और छाती में पट्टियाँ क्यों बँधी हैं, उसका शरीर क्यों चूर-चूर हो गया है, उसका माथा क्यों जोर-जोर से झनझना रहा है? उसके अगल-बगल और भी उसके गाँव और जोखू के गाँव के जवान उसी की हालत में पड़े हुए थे। सब एक-दूसरे को टक-टक, फटी आँखों से ताक रहे थे। लेकिन जैसे किसी में भी कुछ कहने-सुनने की ताकत ही न थी, जैसे वे सब अपने लिए और एक-दूसरे के लिए समस्या बने हुए हों।
मानिक रहा नहीं, घायल गोपी कानून की गिरफ्त में पड़ा हुआ फैसले का इन्तज़ार कर रहा है। माँ-बाप और बहुओं के सिर पर एक साथ ही जैसे पहाड़ गिर पड़ा। इसके नीचे वे दबे हुए छटपटा रहे हैं, कराह रहे हैं, तड़प रहे हैं।
गाँव में कई घरों में मातम छाया है, कई घरों में दुख की घटा घिरी है। लेकिन गोपी के घर का विषाद जैसे फैलकर पूरे गाँव पर छा गया है। लोग उसके घर भीड़ लगाये रहते हैं। कभी माँ-बाप को समझाते हैं, कभी सान्त्वना देते हैं और कभी अपने को भी सँभालने में असमर्थ होकर उन्हीं के साथ-साथ खुद भी रो पड़ते हैं।
मुकद्दमे की पैरवी का इन्तजाम हो रहा है। सब-के-सब अपनी गाढ़ी कमाई बहा देने को तैयार हैं। गाँवदारी का मामला है; गाँव के नौजवानों की ज़िन्दगी का वास्ता है, और सबसे बढक़र गाँव की आँखों के तारे, माँ-बाप के अकेले सहारे, तड़पती और दुर्भाग्य की मारी बेवा भाभी की ज़िन्दगी की अकेली आशा, गोपी को बचा लेने का सवाल है। बहुओं के बाप और बड़े भाई भी इस विपत्ति की ख़बर पाकर आ गये हैं। उनके भी दुख का ठिकाना नहीं है। वे भी गोपी को बचा लेने के लिए सब-कुछ न्योछावर करने पर तुले हैं।
कोई भी रकम कानून का मुँह बन्द करने में असमर्थ है। पाँच आदमियों का कतल हुआ है, एकाध की बात होती,तो दारोग़ा पचा-खपा देता। वह मजबूर है। हाँ, जिले के बड़े अफसर कुछ जरूर कर सकते हैं, लेकिन उनके यहाँ इन देहातियों की पहुँच नहीं।
घायल अच्छे हो-होकर हवालात में पड़े हैं। मुकद्दमा सेशन सुपुर्द है। फौजदारी के सबसे बड़े वकील को किया गया है। उसकी बहुत कोशिशों पर भी किसी की ज़मानत मंजूर नहीं हुई।
पिता एक बार गोपी से मिल आये हैं। मिलते वक़्त दोनों ने अपने दिल-दिमाग पर पूरा-पूरा काबू रखने की कोशिश की थी। किसी प्रकार की दुर्बलता या तड़पन दिखाकर वह एक-दूसरे का दुख बढ़ाना न चाहते थे। बाप ने बेटे को ढाढस बँधाया। बेटे ने बाप को कोई चिन्ता न करने को कहा। और कोई विशेष बात नहीं हुई। बिछड़ते समय, पता नहीं, दिल के किस दर्द में जोफ में गोपी ने कहा, ‘‘भौजी का ख़याल रखियो!’’
उस एक बात में कितना दर्द, कितनी कलक, कितनी तड़पन थी, बाप ने उसका अनुमान करके ही ऐंठता दिल लिये मुँह फेर लिया था। उधर गोपी ने आँसू पोंछ लिये, इधर जेल के फाटक पर बाप ने अपनी आँखों के आँसुओं को पलकों में ही सँभाल लिया।
आख़िर मुकद्दमे का फैसला हुआ। सज़ा सबको हुई। किसी को बीस साल, तो किसी को चार और किसी को पाँच साल के लिए जेल भेज दिया गया। गोपी को पाँच साल की सजा मिली। उसके घर में धीमा हुआ मातम फिर एक बार जोर पकड़ गया। माँ-बाप के दुख का क्या कहना! बड़ी बहू की हालत तो अबतर थी ही। छोटी बहू के दिल में भी एक शूल चुभ गया।
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