गंगा मैया-4 / भैरवप्रसाद गुप्त
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चार
बाप अब सचमुच बूढ़े हो गये। दोनों बेटे क्या उनसे बिछड़ गये, उनके दोनों हाथ ही टूट गये! दिल के सारे रस को दर्द की आग ने ज़ला दिया। कोई उत्साह, आशा न रह गयी उनके जीवन में। बहुओं का दर्द देखकर वह आठों पहर कुढ़ते रहते। खाना-पीना, काम-धाम कुछ अच्छा न लगता। बहुओं का बड़ा भाई आकर खेती-गिरस्ती का इन्तजाम कर जाता।
माँ का हाल भी बेहाल था। बैठी-बैठी वह आँसू बहाती रहती या अपने लालों को याद कर-करके बिसूरती रहती। छोटी बहू के दिल में जो एक बार शूल चुभा, तो उसका चैन हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। वह बड़ी ही कोमल और भावुक स्वभाव की थी। दुनिया के दुख और चिन्ता का उसे कोई अनुभव न था। सहसा जो आफत का पहाड़ उसके सिर पर आ गिरा, तो वह उससे दब-दबाकर चूर-चूर होकर रह गयी। उसने चारपाई पकड़ ली। खाना-पीना छोड़ दिया, दिन-दिन सूखने लगी। सास-ससुर अपने दुख का आवेग रोककर उसे समझाते, भाई और दूसरी औरतें उसे अपने को सँभालने को कहते, लेकिन जैसे उनके कानों में किसी की बात ही न पड़ती।
एक दिन बाप कोल्हुआड़े से रात को लौट रहे थे, तो उन्हें जोर की सरदी लग गयी। दूसरे दिन बुखार लेकर पड़ गये। वह ऐसा बुखार था कि हफ्तों पड़े रहे। खाँसी का अलग ज़ोर था। जो दवा-दारू मुमकिन था, किया गया। घर की ऐसी तितर-बितर हालत थी कि उनकी सेवा भलीभाँति न हो सकती थी। छोटी बहू ने तो पहले से ही चारपाई पकड़ ली थी। बड़ी बहू को अपने दुख से ही फुरसत न थी। अकेली दुखियारी बूढ़ी क्या-क्या, कैसे-कैसे करती? फल यह हुआ कि बूढ़े कुछ सँभलें, तो उनके दोनों ठेहुओं को गँठिया ने पकड़ लिया। कुछ दिनों तक तो वह लाठी का सहारा लेकर हिलते-डुलते कुछ-कुछ चल-फिर लेते थे। फिर उससे भी मजबूर हो गये। अब ओसारे के एक कोने में चारपाई पर पड़े-पड़े एडिय़ाँ रगड़ रहे हैं।
लोग उस घर की यह बिगड़ी हालत देखते हैं और आह भर कर कहते हैं, ‘‘ओह, क्या था और क्या हो गया!’’
आख़िर बड़ी बहू को ख़याल आया कि घर की इस दिन-पर-दिन गिरती हालत की रोक-थाम न हुई, तो यह कहीं का नहीं रह जाएगा। उसे अपने लिए अब सोचने ही को क्या रह गया था? उसका जीवन तो नष्ट हो ही गया। उसके साथ ही अगर यह खानदान भी नष्ट हो गया, तो उसके जीवन के इस कठोर श्राप का कितना दर्दनाक परिणाम होगा! नहीं, नहीं, वह घर की बड़ी बहू है, उसे अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए। सब अपने-ही-अपने दुख में कातर होकर पड़े रहेंगे, तो काम कैसे चलेगा? और अब उसके जीवन का उद्देश्य सास, ससुर, देवर और बहन की सेवा के सिवा रह ही क्या गया है? उसके दुर्भाग्य के कारण ही तो इस घर की यह हालत हो गयी है। सास, ससुर, देवर, बहन सब-के-सब उसी के कारण तो इस हालत में पहुँचे हैं। फिर क्या अपने दुख में ही डूबकर उनके तईं जो जिम्मेदारी है, उसे वह भुला देगी? नहीं, अब उसका जीवन उन्हीं के लिए तो है। उनकी सेवा वह दिल पर पत्थर रखकर भी करेगी। दुख की चढ़ी नदी एक-न-एक दिन तो उतरेगी ही!
उस दिन से जैसे वह करुणा की देवी बन गयी और दुखी और जलती हुई आत्माओं पर वह सेवा-सुश्रुषा, स्नेह और भक्ति की शीतल छाया बनकर छा गयी। स्नान करके बहुत सबेरे ही वह पूजा करती। फिर सास, ससुर और बहन की सेवाओं में जुट जाती।
ससुर उसकी सूनी माँग, सूनी कलाई और सफेद वस्त्र में लिपटी हुई उसकी कुम्हलायी देह देखकर मन-ही-मन रो पड़ते। उनसे कुछ कहते न बनता। वह उन्हें सहारा देकर चारपाई से उठाती, उनका हाथ-मुँह धुलाती, सामने बैठ उन्हें भोजन कराती। ससुर काठ के पुतले की तरह सब करते और दिल में बस एक तड़प का तूफान लिये जब तक वह उनके सामने रहती मूक होकर उसके करुण मुखड़े की ओर टुकुर-टुकुर ताका करते।
सास को कुछ सन्तोष हुआ कि चलो, यह अच्छा हुआ था कि बड़ी बहू अपने को यों कामों में बझाये रखने लगी। ऐसा करने से वह दुख को भुलाये रहेगी और उसका मन भी बहला रहेगा।
छोटी बहन की तो वह माँ ही बन गयी। पहले वह उसे बहन की तरह प्यार करती थी, लेकिन अब उसे बहन के प्यार के साथ-साथ माँ के स्नेह, ममता, सेवा और त्याग की भी ज़रूरत थी। बड़ी बहू ने उसे वह सब कुछ देना शुरू कर दिया। वह उसे बच्चों की तरह गोद में बिठाकर दवा पिलाती, खिलाती, उसके कपड़े बदलती, उसके बाल सँवारती, चोटी गूँथती। फिर सिन्दूरदान उसके सामने रखकर कहती, ‘ले, अब माँग तो टीक ले।’
यह सुनकर छोटी बहन की वीरान आँखें अपनी बहन की सूनी माँग की ओर उठ जातीं। उसके कलेजे में एक हूक उठती और डबडबाई आँखें एक ओर फेरकर कहती, ‘‘इसे रख दे, बहन।’’
बड़ी बहन उसे गोद में लेकर, क्रन्दन करते मन को काबू में करके कहती, ‘‘ऐसा न कह, मेरी बहन! मेरी माँग लुट गयी, तो क्या हुआ? तेरी माँग का सिन्दूर भगवान् कायम रक्खें! उसे ही देख-देखकर मैं यह दुख का जीवन काट लूँगी! ले, भर तो ले माँग।’’
छोटी बहन बड़ी बहन की गोद में मुँह डालकर फूट-फूटकर रो पड़ती। बड़ी बहन की आँखों से भी टप-टप आँसू की बूँदें चू पड़तीं। लेकिन अगले क्षण ही वह अपने को सँभालकर कहती, ‘‘ऐसा नहीं करते, मेरी लाडली!’’ कहकर वह उसकी आँखों को अपने आँचल से पोंछ देती। फिर कहती, ‘‘ले अब सिन्दूर लगा ले, मेरी अच्छी बहन!’’
छोटी बहन आँखों में उमड़ते हुए आँसुओं का तूफान लिये काँपती उँगलियों से सलाका उठाकर सिन्दूर की डिबिया से सिन्दूर उठाती। बड़ी बहन उस वक़्त न जाने कैसा ऐंठता दर्द दिल में लिये अपनी भरी आँखें दूसरी ओर फेर लेती।
गोपी की भाभी को अपने पति की याद बहुत सताती। हर घड़ी उसकी भरी-भरी आँखों के सामने पति की तरह-तरह की तस्वीरें झलमलाया करतीं। पूजा करने बैठती, तो हमेशा यही विनती करती—‘‘हे भगवान्, मुझे भी उनके चरणों में पहुँचा दो!’’
कभी-कभी उसे अपने देवर की और अपनी हँसी, दिल्लगी और खुशी के ठहाकों की भी याद आती। उस समय उसे लगता कि वह-सब एक सपना था। आह, यह कौन जानता था कि वह हँसी-खुशी की बातें एक दिन इस तरह हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएँगी और उनकी गूँज आत्मा के कण-कण में एक दर्द बनकर रह जाएगी? फिर उसे ख़याल आता कि किस तरह देवर ने भाई की हत्या के कारण शोक से पागल होकर अपने सुख की बलि चढ़ा दी। उस क्षण बरबस ही उसकी आँखें छोटी बहन की ओर उठ जातीं, जिसके दामन से देवर के जीवन का सुख-दुख बँधा हुआ था। वह देख रही थी कि उसकी हर तरह की सेवा-सुश्रुषा के बावजूद दिन-दिन वह फूल की तरह मुरझायी चली जा रही है। वह उसे हर तरह समझाने-बुझाने की कोशिश करती है, लेकिन जैसे वह कुछ समझती ही नहीं। देवर जब लौट के आएगा और उसे इस हालत में देखेगा, तो उसकी क्या दशा होगी?
धीरे-धीरे दुख झेलते-झेलते वह सख्त-जान बन गयी। बहन की सेवा वह और भी जी-जान से करने लगी। उसे लगता कि वह सिर्फ उसकी बहन ही नहीं है, बल्कि उसके प्यारे देवर की अमूल्य अमानत भी है। उस अमानत की रक्षा करना उसका सबसे बढक़र कर्तव्यस है।
लेकिन उसकी इतनी सेवाओं का भी कोई असर उसकी बहन पर पड़ता दिखाई न देता। उसका हृदय कभी-कभी एक भयावनी आशंका से काँप उठता। वह ठाकुर की मूरत के सामने गिड़गिड़ाकर बिनती करती, ‘‘हे भगवान्! अब तो दया कर तू इस अभागे घर पर! और अगर तुझे इतने पर भी सन्तोष नहीं है, तो मुझ अभागिन को ही उठा ले और अपने कोप को शान्त कर ले!’’
लेकिन भगवान् ने तो जैसे अपनी कृपा-दृष्टि उस खानदान से फेर ली थी। छोटी बहन की हालत न सुधरनी थी, न सुधरी। आख़िर उसकी हालत जब दिन-दिन बिगड़ती ही गयी, तो उसका भाई एक दिन उसे अपने घर लिवा ले गया। ख़याल था कि शायद हवा बदलने से, वहाँ माँ-भाभी और अपनी सखी सहेलियों के बीच रहकर मन आन होने से और तबीयत बहलने से वह स्वस्थ हो जाए। वह तो अपनी बड़ी बहन को भी कुछ दिनों के लिए लिवा ले जाना चाहता था, लेकिन इस घर का उसके बिना कैसे काम चलेगा, यही सोचकर उसे न लिवा जा सका। पालकी पर चढऩे के पहले छोटी बहू खूब बिलखकर रोयी और सास और बहन से ऐसे लिपटकर मिली, जैसे उनसे आख़िरी विदाई ले रही हो। ससुर के पैरों को उसने आँसुओं से धो दिया। बूढ़े ससुर हाथों से आँखें ढँककर एक बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़े।
कौन जानता था कि सचमुच वह उसकी आख़िरी विदाई थी? माँ, बाप, भाई, भौजाई ने कुछ भी उठा न रखा। रुपये-पैसे पानी की तरह बहा दिये। लेकिन हुआ वही जो होना था। वह शूल जो एक दिन उस कोमल प्राण में चुभा था, उसने प्राण लेकर ही दम लिया।
यह ख़बर जब सास-ससुर और बहन को मिली, तो उनकी क्या हालत हुई, उसका वर्णन नहीं हो सकता। यह तो कुछ वही हुआ जैसे उनके दिल के नासूर में एक तीर और आ चुभा।
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