गद्य-मीमांसा / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'
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संस्कृत का एक वाक्य है-'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति'। इसका अर्थ यह है कि गद्य ही, विद्वानों की सम्मति में, कवियों की कसौटी है। प्रकट रूप में यह वाक्य कुछ विचित्र जान पड़ता है। परन्तु वास्तव में उसके भीतर एक गहरा मर्म है। साधारणतया अपने भावों और विचारों को कवि पद्य-बध्द भाषा में व्यक्त करता है, पद्य में उसकी निरंकुशता के लिए यथेष्ट अवकाश है, तुक, छन्द आदि बंधानों में बँधो हुए होने के कारण उसे अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है और विचारों तथा भावों की अभिव्यक्ति में उसकी कठिनाइयों पर दृष्टिपात करके पाठक उसकी अनेक त्रुटीयों को क्षमा कर सकता है। परन्तु गद्य में अपनी योग्यता और प्रतिभा प्रदर्शित करने के लिए लेखक को इतना चौड़ा मैदान मिलता है कि उसको कोई अवसर अपनी असमर्थता के निराकरण का नहीं रह जाता। न यहाँ छंद की व्यवस्था उसकी वाक्यावली के पाँवों को जकड़ती है न तुक का बखेड़ा उसकी प्रगति में बाधा डालता है। जी चाहे बड़े वाक्य लिखिये, जी चाहे छोटे, न कल्पना की उड़ान में आपको कोई रुकावट रहेगी और न अलंकारों की संयोजना में किसी प्रकार की बाधा। अतएव यह स्पष्ट है कि संस्कृत का उक्त कथन सत्यता मूलक है।
मनुष्य उस आनंद को प्राय: छन्द, लय, संगीत, आदि से अलंकृत वाक्यावली ही में व्यक्त करता है जो संसार में चारों ओर दिखायी पड़ने वाले सौन्दर्य के कारण उसके हृदय में उत्पन्न होता रहता है। दैनिक जीवन में आठों पहर प्रत्येक विचार को पद्य-बध्द भाषा में व्यक्त करना उसके लिए संभव नहीं। साधारण बातचीत के लिए समाज में कामकाज के लिए पद्य का उपयोग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक जाति के जीवन के प्रारंभिक-काल में, निस्संदेह पद्य की ही ओर विशेष प्रवृत्तिा देखी जाती है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उस समय गद्य का व्यवहार ही नहीं होता था। वास्तव में अपने शैशव-काल में प्रत्येक जाति उन साधानों और सुविधाओं से रहित होती है जो एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ मिलन अधिाक मात्रा में संभव बना सकती है, और न समाज में दैनिक जीवन की कार्यावली ही में इतनी जटिलता का समावेश हुआ रहता है कि अपनी सिध्दि के लिए वह अधिाक-संख्यक मनुष्यों के सहयोग की अपेक्षा करे। ऐसी अवस्था में न तो एक मनुष्य के विचारों का दूसरे मनुष्य के विचारों के साथ संघर्ष होता है और न वह आघात प्रतिघात होता है जो सामूहिक जीवन के अन्योन्याश्रित होने का एक स्वाभाविक परिणाम है। इसी कारण्ा प्रत्येक जाति के साहित्य में सबसे पहले पद्य का और बाद को क्रमश: गद्य का विकास हुआ है।
मनुष्य को अन्य पशुओं की भाँति, सबसे पहले अपने लिए आवश्यक भोजन की चिन्ता करनी पड़ती है। किन्तु उसकी इस चिन्ता में एक विशेषता है। एक असाधारण बुध्दि उसे अन्य पशुओं से पृथक् करती है। इसी बुध्दि के परिणामस्वरूप वह वर्तमान ही की चिन्ता से मुक्त होकर संतुष्ट नहीं हो सकता, भविष्य के लिए भी प्रयत्न करता रहता है। उसके स्वभाव की यह विशेषता उसे चिरकाल तक अव्यवस्थित जीवन नहीं व्यतीत करने देती। क्रमश: स्त्री-पुत्र आदि से संयुक्त होकर एक समुचित स्थान में गृहस्थ जीवन व्यतीत करने में वह अपने जीवन की सफलता का अनुभव करता है। उसी के ऐसे अनेक परिवारों के एकत्रा हो जाने से अथवा एक ही परिवार के कालान्तर में विकसित हो जाने से एक ग्राम उत्पन्न हो जाता है। शत्रु से अपनी रक्षा करने के लिए इस प्रकार के समस्त ग्राम अपना संगठन व्यक्तियों और परिवारों के पारस्परिक सहयोग पर अवलम्बित रखते हैं। इस सहयोग का क्षेत्रा जितना ही व्यापक होता जाता है, मानव-प्रकृति की विभिन्नताओं के कारण पारस्परिक सामंजस्य के मार्ग में उतनी ही पेचीदगी बढ़ती जाती है। फलत: इस सामंजस्य की सिध्दि के लिए मानव मस्तिष्क तरह-तरह के व्याख्यानों में प्रवृत्ता होता है। ये व्याख्यान जीवन के व्यावसायिक अंग से इतना अधिाक सम्पर्क रखते हैं कि वे काव्य के विषय हो ही नहीं सकते। वे सफलतापूर्वक जब चलेंगे तब उसी ढंग से जिस ढंग से वे बातचीत में व्यक्त होते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि बातचीत में वे गद्य रूप ही में प्रकट होते हैं और इस कारण गद्य ही में उनकी अभिव्यक्ति का एक विशेष संस्कार हो जाता है, जिससे पाठक को अपने विचार हृदयंगम कराने में लेखक को सुविधा होती है। उक्त व्याख्यान, राजनीति शास्त्रा, अर्थशास्त्रा, समाजशास्त्रा आदि विषयों से सम्बन्ध रखते हैं। काल पाकर व्यक्तियों, परिवारों, जातियों का इतिहास लिखा जाता है, जिसमें उन बातों की चर्चा की जाती है जो याद रहकर भविष्य में आने वाली पीढ़ियों को किसी भ्रम, प्रमाद आदि से बचा सकती है। क्रमश: इतिहास, भूगोल, ज्योतिष, गणित, यात्रा आदि विषयों की ओर भी धयान जाता है और गद्य ही में इनके लिखे जाने की विशेष उपयुक्तता होने के कारण क्रमश: गद्य का विकास हो जाता है।
मानव समाज के विकास की प्रारम्भिक अवस्था में कहानियाँ पद्य ही में लिखी जाती हैं। ये कहानियाँ प्राय: वही होती हैं,जो बच्चों की कल्पना पर प्रभाव डालती हैं। किंतु ज्यों-ज्यों समाज विकसित होता है त्यों-त्यों बच्चों की भी प्रवृत्तिा सरल बोलचाल की भाषा में कहानी सुनने और पढ़ने की हो जाती है। विकसित समाज में व्यक्तियों को अधिाकार और कत्ताव्य का,दैनिक जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं के क्षेत्रा में सामंजस्य करने की इतनी प्रबल आवश्यकता खड़ी हो जाती है कि कहानी का सहारा लिये बिना काम चलना कठिन हो जाता है। यह कहानी भी पद्य में किसी भाँति लिखी ही नहीं जा सकती, उसका रूप और प्रकार ही कुछ ऐसा विभिन्न होता है कि पद्य के ढाँचे को वह स्वीकार ही नहीं कर सकती।
समाज का एवं व्यक्ति का जीवन किस आदर्श के साँचें में ढाला जाय-इस प्रश्न की आकर्षकता भी कभी घट नहीं सकती। मृत्यु क्या है! मनुष्य उससे क्यों डरता है? उसका इस भय से किस प्रकार छुटकारा हो सकता है? किस प्रकार का जीवन स्वीकार करने से मनुष्य को अधिाक से अधिाक आनन्द मिल सकता है-इन समस्याओं की व्याख्या जितनी उत्तामता से गद्य में हो सकती है उतनी पद्य में नहीं। आयुर्वेद, विज्ञान, व्याकरण आदि विषयों के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकतीहै।
हिन्दी-साहित्य में गद्य का विकास बहुत विलम्ब से हुआ। इसका प्रधान कारण यह है कि शासकों की ओर से हिन्दी गद्य के विकसित होने के लिए सुविधाएँ नहीं प्रस्तुत की गईं। हिन्दू राजाओं ने अपने दरबार में हिन्दी कवियों को तो आश्रय दिया, किन्तु कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे हिन्दी गद्य को उभरने का अवसर मिलता। इसका एक कारण यह हो सकता है कि हिन्दू समाज का जीवन इतनी संकुचित परिधिा के भीतर व्यतीत हो रहा था कि अधिाकांश में उसका धयान ही उन दिशाओं में आकर्षित नहीं हो सकता था जिनमें गद्य की प्रगति होती है। हिन्दी गद्य का विकास, संभव है, मुगल राजत्वकाल में कुछ अग्रसर होता, किन्तु टोडरमल ने अदालतों से हिन्दी का बहिष्कार करके उसे जनता की दृष्टि में प्राय: सर्वथा अनुपयोगी सिध्द कर दिया। ऐसे समाज में जिसमें संस्कृत की तुलना में हिन्दी यों ही निरादृत थी, जिसमें केशव, तुलसी आदि समर्थ कवियों ने भी विद्वानों के विरोधा की अवहेलना सकुचाते हुए ही किया और जिसमें अब तक अधिाकांश में उतना ही गद्य साहित्य प्रस्तुत हो सका था जितना भक्तों और धार्मिक नेताओं ने अपने श्रध्दालु, किन्तु साधारण विद्या-बुध्दि के श्रोताओं और पाठकों के लिए टीका-टिप्पणी अथवा कथा वार्ता के रूप में प्रस्तुत किया, कचहरियों से हिन्दी का बहिष्कार बहुत ही हानिकारक मनोवृत्तिा को उत्पन्न करने वाला सिध्द हुआ। यदि हिन्दी को राजाश्रय प्राप्त रहता तो सम्भवत: हिन्दू-समाज में हिन्दी का सम्मान थोड़ा-बहुत बढ़ता और उससे संस्कृत के धाुरंधार विद्वानों को भी हिन्दी में शास्त्रीय विवेचना आदि में प्रवृत्ता होने का प्रलोभन प्राप्त होता। प्रतिभाशाली हिन्दू लेखकों ने जिस प्रकार उर्दू के विकास में सहायता पहुँचाई, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज में हिन्दी की तिरस्कृत अवस्था भी हिन्दी-गद्य की प्रगति में अत्यन्त बाधक सिध्द हुई।
प्रस्तुत साहित्य के पठन-पाठन एवं आलोचना-प्रत्यालोचना से भी गद्य-साहित्य का निर्माण होता है। हिन्दी भाषाभाषी प्रदेश के शासकों ने अपनी प्रजा के कल्याणार्थ हिन्दी के विद्यालय स्थापित करने की ओर भी कभी धयान नहीं दिया। सभी साहित्यों में कहानी और उपन्यास सहज ही बहुत अधिाक लोकप्रियता प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु जब तक इनके प्रचार के साधान उपलब्धा न हों तब तक इनका पूरा प्रभाव पड़ना कठिन हो जाता है। प्रचार की कठिनाइयों के कारण यह स्पष्ट था कि कहानियों और उपन्यासों के लेखकों को जनता से कोई सहायता नहीं मिल सकती थी। रहे राजे-महाराजे और कोई-कोई हिन्दी कवियों के संरक्षक मुसलमान राजकुमार और नवाबगण सो उन्हें शृंगारिक अथवा अन्य कविताओं से ही इतना अवकाश नहीं था कि वे कहानी और उपन्यास-रचना को प्रोत्साहन देकर उसकी ओर समाज की रुचि को बढ़ाते। कहानी और उपन्यास का विकास न होने का एक अन्य कारण भी है और वह यह कि ऍंगरेजी साहित्य के साथ सम्पर्क होने के पहले हिन्दी लेखकों के सम्मुख कहानी और उपन्यास-रचना का वह आदर्श उपस्थित नहीं था जो समाज की दैनिक समस्याओं को हल करने की ओर विशेष धयान देता है, जो कुप्रथाओं पर प्रहार करके नवीन संस्थाओं और नवीन विचार-शैलियों को रचनात्मक दिशा में अग्रसर करता है। संस्कृत के 'कादम्बरी' और 'दशकुमार चरित्र' नामक उपन्यासों से यथेष्ट उपयोगी आधार नहीं मिल सकता था और न'हितोपदेश' और 'पंचतंत्र' की कहानियाँ विशेष रूप से मार्ग-प्रदर्शक हो सकती थीं। ऐसी अवस्था में हिन्दी गद्य के विकास में विलम्ब होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं।
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