आदि-काल / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'
जैसे राजपूत नरेशों के दरबार में हिन्दी पद्य का आदिम विकास हुआ वैसे ही गद्य का उद्भव भी हुआ। बारहवीं ई. शताब्दी के बहुत पहले ही हिन्दी में पुस्तकों की रचना होने लगी थी। किन्तु ये पुस्तकें पद्य ही में लिखी जाती थीं। हिन्दी बोलचाल की भाषा थी, किन्तु बोलचाल का ऐसे गम्भीर अथवा उपयोगी विषयों से सम्बन्ध नहीं था कि वह लिपिबध्द कर ली जावे। धार्मिक आन्दोलनों का भी सम्बन्ध अधिाकतर जनता से नहीं रहता था। हिन्दू आचार्यों ने भी उस समय इस बात का प्रयत्न नहीं किया कि जन-साधारण के लिए धार्मिक सिध्दांत सुलभ हो जायँ। राजनीतिक हलचल होने पर भी समाचारों के प्रचार का कोई साधान न होने के कारण इस दिशा में भी गद्य की प्रगति असम्भव थी। शासन-पध्दति एकाधिापत्यमूलक होने के कारण जहाँ कहीं हिन्दी-भाषी नरेशों के राज्य थे वहाँ भी अनेक व्यक्तियों अथवा व्यक्ति समूहों के वाद-विवाद का कोई अवसर नहीं था। ऐसी परिस्थिति में हमें हिन्दी गद्य का आदिम स्वरूप यदि उन थोड़े से परवानों के रूप में मिलता है जो हिन्दी नरेशों ने अपने कृपा-पात्राों के लिए जारी किये तो आश्चर्य ही क्या? रावल समरसिंह और महाराज पृथ्वीराज के ऐसे नौ दान-पत्रा अब तक उपलब्धा हो सके हैं। उनमें से दो को मैं नीचे लिखता हूँ। आप उनकी भाषा पर दृष्टिपात करें-
1. “स्वस्ति श्री श्री चीत्राकोट महाराजाधिाराज तपेराज श्री श्री रावल जी श्री समरसी जी बचनातु दा अमा आचारज ठाकर रुसीकेष कस्य थाने दलीसु डायजे लाया अणी राज में ओषद थारी लेवेगा, ओषद ऊपरे माल की थाकी है ओजनाना में थारा बंसरा टाल ओ दुजी जावेगा नहीं और थारी बैठक दली में ही जी प्रमाणे परधान बरोबर कारण देवेगा और थारा वंस क सपूत कपूत वेगा जी ने गाय गोणों अणी राज में खाप्या पाप्या जायेगा और थारा चाकर घोड़ा को नामी कठोर सूं चल जायेगा ओर थूं जमाखातरी रीजो मोई में राज थान बाद जो अणी परवाना री कोई उलंगण करेगा जी ने श्री एक लींग जी की आण है दुवे पंचोली जानकी दास सं. 1139 काती बदी3।”
2. “श्री श्री दलीन महाराजँ धाीराजंनं हिन्दुस्थानं राजंधानं संभरी नरेस पुरबदली तषत श्री श्री माहानं राजंधीराजंनं श्री पृथीराजी सु साथंनं आचारज रुषीकेस धानंत्रिा अप्तन तमने का का जीनं के दुवा की आरामं चओजीन के रीजं में रोकड़ रुपीआ5000” तुमरे आहाती गोड़े का षरचा सीवाअ आवेंगे। खजानं से इनको कोई माफ करेंगे जीन को नेर को के अंधाकारी होंवेंगे सई दूबे हुकुम के हउमंत राअ संमत 1145 वर्षे आसाढ़ सुदी 13।”
इस प्रकार के परवाने हिन्दू राज दरबारों में राज्य की ओर से निकला करते थे। इनकी भाषा तो राजस्थानी है ही, किंतु उसमें एक बात उल्लेखनीय है। उसमें 'लेवेगा', 'जायगा', 'करेगा', 'लाया' आदि खड़ी बोली की क्रियाओं का व्यवहार किया गया है। ये लेख आनंद संवत् के अनुसार क्रमश: सं. 1939 और सं. 1945 में लिखे गये। इनमें 90 जोड़ देने से विक्रमी सं क्रमश:1229 और 1235 हुआ। अतएव स्पष्ट है कि ईस्वी सन् के अनुसार ये बारहवीं शताब्दी में पड़ते हैं। इस समय के पूर्व भारतवर्ष में मुसलमानों और हिन्दुओं का सम्पर्क हो चुका था, विशेषकर मुसलमानों और राजपूतों का सम्बन्ध युध्द के कारण प्राय: होता ही रहता था। खड़ी बोली की जिन क्रियाओं की चर्चा ऊपर की गई है वे इसी सम्पर्क का फल जान पड़ती हैं।
राजस्थानी बोली के इस गद्य को अधिाक विकसित होने का कोई अवसर नहीं मिला। कारण वही क्षेत्रा-विस्तार का अभाव। इस ओर से निराश होकर हिन्दी गद्य को किसी अन्य दिशा में पनपने की प्रतीक्षा करनी पड़ी। चौदहवीं शताब्दी में ऐसा समय भी आ गया, सातवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक बौध्दों के असंयत जीवन के कलुषित आदर्श से हिन्दू समाज म्लान हो रहा था। स्वामी शंकराचार्य ने बौध्दमत के पाँव तो उखाड़ दिये थे, किन्तु उसके मूल सिध्दान्तों, उपदेशों आदि को भूलकर उच्छृंखल जीवन व्यतीत करने वाले सिध्दों तथा अन्य साधाुओं पर से समाज की श्रध्दा का सर्वथा लोप करा देने का अवकाश और अवसर उन्हें प्राप्त नहीं हो सका था। यह काम सन् 1350 ई. के लगभग महात्मा गोरखनाथ ने किया। उन्होंने सदाचार और धार्म के तत्तव की ओर समाज का धयान आकर्षित किया और इसी सूत्रा से हिन्दी के गद्य-साहित्य की सृष्टि कर प्रथम हिन्दी-गद्य-लेखक के रूप में वे कार्य-क्षेत्रा में अवतीर्ण हुए।
गुरु गोरखनाथ की पद्य की भाषा से गद्य की भाषा में कुछ विशेषता है। पद्य की भाषा में उन्होंने अनेक प्रान्तों के शब्दों का प्रयोग किया है। किन्तु गद्य की भाषा में यह बात नहीं है, वह कहीं-कहीं राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा में है। उसमें संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिाक प्रयोग अवश्य मिलता है। यह बात आप नीचे के अवतरण को देखकर सहज में ही समझ सकेंगे-
“सो वह पुरुष संपूर्ण तीर्थ अस्नान करि चुकौ, अरु संपूर्ण पृथ्वी ब्राह्मननि कौ दै चुकौ, अरु सहò जग करि चुकौ, अरु देवता सर्व पूजि चुकौ, अरु पितरनि को संतुष्ट करि चुकौ, स्वर्गलोक प्राप्त करि चुकौ, जा मनुष्य के मन छन मात्रा ब्रह्म के विचार बैठो।”
“श्री गुरु परमानन्द तिनको दण्डवत है। हैं कैसे परमानन्द आनन्द स्वरूप है सरीर जिन्हि कौ। जिन्हीं के नित्य गायै ते सरीर चेतन्नि अरु आनन्दमय होतु है। मैं जु हौं गोरष सो मछन्दरनाथ को दण्डवत करत हौं। हैं कैसे वै मछन्दरनाथ। आत्मा जोति निश्चल है, अन्तहकरन जिन्हकौ अरु मूल द्वार तैं छह चक्र जिन्हिं नीकी तरह जानैं। अरु जुग कालकल्प इनि की रचना तत्तव जिनि गायो। सुगन्धा को समुद्र तिन्हि कौ मेरी दण्डवत। स्वामी तुम्हें सतगुरु अम्है तौ सिष सबदएक पुछिबा दया करि कहिबा मनि न करिबा रोस।”
उक्त अवतरणों में 'सम्पूर्ण', 'प्राप्त', 'मनुष्य', 'कल्प', 'स्वरूप', 'नित्य', 'सन्तुष्ट', 'स्वर्ग', 'ब्रह्म', 'निश्चल', 'समुद्र', 'रचना', 'तत्तव' आदि शब्द संस्कृत के हैं। 'पुछिबा', 'कहिबा', 'अम्है' आदि शब्द राजस्थानी बोली के हैं। अवतरण का शेष भाग प्राय: पूरा का पूरा शुध्द ब्रजभाषा में लिखा गया है।