विकास-काल / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'
गोरखनाथ के बाद लगभग दो शताब्दियाँ गद्य-रूपी नवजात पौधो के लिए मरुभूमि सी सिध्द होकर बीत गयीं। सोलहवीं शताब्दी में महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य ने राधा-कृष्ण विषयक भक्ति का एक प्रबल òोत उत्तारी भारत में प्रवाहित किया। इस अपूर्व प्रवाह ने हिन्दू-समाज के हृदय को इतना अधिाक आकर्षित किया कि थोड़े ही काल में कृष्णावत सम्प्रदाय की विशाल मण्डली उत्तारीय भारत में अतुल प्रभाव विस्तार करती जनसमुदाय को दृष्टिगत र्हुई। उसी समय महाप्रभु के पुत्र गोस्वामी बिट्ठलनाथ ने'राधाकृष्ण विहार' नाम की एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक की भाषा ब्रजभाषा है, किंतु कहीं-कहीं उसमें अन्य प्रान्तीय शब्दों का भी समावेश कर लिया गया है। निम्नलिखित अवतरण देखिए-
“जम के सिषर पर शब्दायमान करत है, विविधा वायु बहत है, हे निसर्ग स्नेहार्द्र सषी कूं संबोधान प्रिया जू नेत्रा कमल कूं कछुक मुद्रित दृष्टि होय कै बारंबार कछु सखी कहत भई यह मेरो मन सहचरी एक क्षण ठाकुर को त्यजत भई।” इस छोटे से अवतरण में 'शब्दायमान', 'त्रिाविधा', 'निसर्ग', 'स्नेहार्द्र', 'नेत्रा', 'मुद्रित', 'दृष्टि', 'क्षण' आदि संस्कृत शब्दों का प्रयोग स्वतंत्राता के साथ किया गया है। श्रीमद्भागवत का प्रचार और राधा-कृष्ण्ा-लीला का साहित्य क्षेत्रा में विषय के रूप में प्रवेश करना ही इस संस्कृत-शब्दावली की लोकप्रियता तथा उसके फलस्वरूप हिंदी गद्य में उसके स्थान पाने का कारण जान पड़ता है। प्रान्तीय भाषाओं के प्रभाव भी उक्त अवतरण में दिखायी पड़ते हैं। 'पै' के स्थान में 'पर' और 'को', 'कौ', अथवा 'कौ' के स्थान पर 'कू'का प्रयोग ऐसे ही प्रभावों का परिणाम है। गोस्वामी विट्ठलनाथ के पुत्र गोस्वामी गोकुलनाथ ने भी 252 एवं 84 वैष्णवों की वार्ता नामक दो ग्रन्थ बनाये जिनमें उन्होंने बहुत मधाुर भाषा में उक्त वैष्णवों के सम्बन्ध में कुछ ज्ञातव्य बातें लिखीं। गोस्वामीजी की भाषा के दो नमूने दिये जाते हैं-
1. “ऐसो पद श्री आचार्य जी महाप्रभून के आगे सूरदास जी ने गायौ से सुनि के श्री आचार्य जी महाप्रभून ने कह्यौ जो सूर ह्नै के ऐसो घिघियात काहै को है कछू भगवल्लीला वर्णन करि। तब सूरदास ने कह्यौ जो महाराज हौं तो समझत नाहीं। तब श्री आचार्यजी महाप्रभून ने कह्यो जो जा स्नान करि आउ हम तोकों समझावेंगे तब सूरदास जी स्नान करि आये तब श्री महाप्रभूजी ने प्रथम सूरदास जी को नाम सुनायौ पाछें समर्पण करवायौ और फिर दशम स्कंधा की अनुक्रमणिका कही सो ताते सब दोष दूर भये। ताते सूरदासजी कौ नवधा भक्ति सिध्द भई। तब सूरदास जी ने भगवल्लीला वर्णन करी।”
2. “सो श्री नन्दग्राम में रहतो हतो। सो खंडन ब्राह्मण शास्त्रा पठयो हतो। सो जितने पृथ्वी पर मत हैं सबको खण्डनकरतो ऐसो वाको नेम हतो। याही ते सब लोगन वाको नाम खंडन पारयो हतो। सो एक दिन श्री महाप्रभू जी के सेवक वैष्णवन की मण्डली में आयो। सो खंडन करन लाग्यो। वैष्णवन ने कही जो तेरो शास्त्राार्थ करने होवै तो पंडितन के पास जा हमारी मण्डली में तेरे आयबे को काम नाहीं। इहाँ खंडन मण्डन नहीं है।”
3. “नन्ददास जी तुलसीदास के छोटे भाई हते। सो बिनकूं नाच तमासा देखबे को तथा गान सुनबे को शोक बहुत हतो।”
गोस्वामी गोकुलनाथ की भाषा में प+ारसी के शब्द भी आये हैं-यह बात ऊपर दिये गये तृतीय अवतरण के 'तमासा' और'शोक' आदि शब्दों को देखने से प्रमाणित होती है। उसमें गोस्वामी विट्ठलनाथ की अपेक्षा अधिाक विशुध्द ब्रजभाषा लिखने का प्रयत्न भी किया गया है। यह बात गोस्वामी विट्ठलनाथ जी और गोकुलनाथ जी के कुछ क्रियापदों की तुलना करने से स्पष्ट हो जायगी। जहाँ गोस्वामी विट्ठलनाथ ने 'त्यजत भई' और 'कहत भई' आदि लिखा है वहाँ गोकुलनाथ ने 'लगनो', धातु के भूतकाल के रूप में 'लगत भई' न लिखकर 'लाग्यौ' ही लिखा है। फिर भी दोनों में एक समानता अवश्य है और वह है खड़ी बोली के शब्दों की ओर कम या अधिाक मात्रा में प्रवृत्तिा। उनकी नीचे की पंक्तियों के क्रियापदों को भी देखिए। चिद्दित शब्द स्पष्ट रूप से खड़ी बोली के हैं।
“सो एक दिन नन्ददास जी के मन में ऐसी आई। जो जैसे तुलसी दास जी ने रामायण भाषा करी है। सो हमहूँ श्री मदभागवत भाषा करें। ये बात ब्राह्मण लोगन ने सुनी तब सब ब्राह्मण मिलकें श्री गुसाईंजी के पास गये। सों ब्राह्मणों ने बिनती करी। जो श्री मदभागवत भाषा होयगी तो हमारी आजीविका जाती रहेगीA
गोस्वामी गोकुलनाथ ने भी 'जितने', 'होवे', 'नहीं' आदि शब्दों का समावेश करके उनके प्रति अपनी अनुकूलता प्रकट की है।
खड़ी बोली की ओर इस प्रवृत्तिा के बढ़ने के कारण थे। मुसलमान शासकों ने हिन्दू जनता के भावों से परिचय प्राप्त करने के लिए न केवल हिन्दी बोलने की ओर धयान दिया था बल्कि उसमें रचनाएँ करना भी प्रारम्भ किया था। उन्हें किसी विशेष प्रान्तीय भाषा से द्वेष न था न असाधारण अनुराग किन्तु सबसे पहले उनका सम्पर्क ऐसे प्रान्तों से हुआ जिनमें खड़ी बोली का विशेष प्रचार था। इसमें सन्देह नहीं कि अमीर खुसरो ने खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों में कविता की, किन्तु ब्रजभाषा के काव्य-विषयक संस्कार के कारण ही कभी-कभी वे उसकी ओर झुक जाते थे। जहाँ कहीं पहेलियों, मुकरियों आदि पर उनकी लेखनी चली है वहाँ खड़ी बोली का अधिाक मात्रा में शुध्द और सरस रूप ही दीख पड़ता है। मुसलमानों की खड़ी बोली के प्रति इस अनुकूल प्रवृत्तिा ने हिन्दी भाषी प्रान्तों की जनता में इस बोली के अनेक शब्दों को क्रमश: लोकप्रिय बना दिया, और जनता में आदृत होकर धीरे-धीरे कथावाचकों, महात्माओं और अन्त में लेखकों की रचनाओं में भी वे शब्द पहुँचे। नीचे सन् 1572 के लगभग 'चन्द छन्द बरनन की महिमा' नामक पुस्तक लिखने वाले गंगाभाट की भाषा के दो नमूने देखिए। उनमें आपको गोकुलनाथ जी की भाषा की अपेक्षा अधिाक खड़ी बोली के शब्दों का व्यवहार मिलेगा-
1. “तब दामोदर दास हरसानी ने बिनती कीनी जो महाराज आप याकों अंगीकार कब करोगे तब श्री आचार्य जी महाप्रभून ने दामोदरदास सों कह्यो जो यासों अब वैष्णव को अपराधा पड़ैगो तौ हम याकों लक्ष जन्म पाछें अंगीकार करेंगे।”
2. सिध्दि श्री 108 श्री श्री पातसाहि जी श्री दलपति जी अकबर साह जी आम खास में तषत ऊपर विराजमान हो रहे और आम खास भरने लगा है जिसमें तमाम उमराव आय आय कुर्निश बजाय जुहार कर के अपनी अपनी बैठक पर बैठ जाया करे अपनी-अपनी मिसिल से।”
उक्त अवतरणों में 'करोगे', 'कहैंगे', 'ऊपर' हो रहे, 'भरने लगा है', 'जिसमें, जुहार करके','अपनी' आदि शब्दों पर धयान देने से यह बात स्पष्ट हो जायगी। 'आम' 'खास', 'तमाम', 'उमराव', 'कुर्निश', 'मिसिल' आदि शब्दों के समावेश से हिन्दी लेखन-शैली पर राजदरबार के प+ारसी भाषा विषयक प्रभाव की सूचना मिलती है।
सत्राहवीं शताब्दी के आरम्भ में भक्तवर नाभादास ने गोस्वामी बिट्ठल नाथ की भाषा से मिलती जुलती भाषा लिखी। उनकी निम्नलिखित पंक्तियों के रेखांकित शब्दों की ओर आप धयान दें।
तब श्री महाराज कुमार प्रथम वशिष्ट महाराज के चरन छुई प्रणाम कर भये। फिर अपर वृध्द समाज तिनको प्रनाम करत भये। फिर श्री राजाधिाराज जू को जोहार करि कै श्री महेन्द्र नाथ दशरथ जू के निकट बैठत भयेA
इसी शताब्दी के प्रथम चरण में महात्मा तुलसीदास द्वारा लिखित एक पंचनामा मिलता है जिसमें उन्होंने यत्रा-तत्रा फारसी भाषा के शब्दों का भी व्यवहार किया है। उसकी कतिपय पंक्तियों को देखिए-
सं. 1669 समये कुआर सुदी तेरसी बार शुभ दिने लिखीत पत्रा अनन्दराम तथा कन्हई के अंश विभाग पूर्व मु आगे जे आग्य दुनहु जने माँगा जे आग्य भै शे प्रमान माना दुनहु जने विदित तप+सील अंश टोडरमलु के माह जे विभाग पदु होत रा।...मौजे भदेनीमह अंश पाँच तेहिमँह अंशदुइ आनन्दराम तथा लहरतारा सगरेउ तथा छितुपुरा अंश टोडरमलुक तथा तमपुरा अंश टोडरमल की हील हुज्जती नाश्ती।
'तप+सीलु', 'हुज्जती', आदि शब्द प+ारसी के हैं और तुलसीदास जी द्वारा उनका ग्रहण उनकी उस प्रवृत्तिा का सूचक है जिसका अनुसरण उन्होंने यत्रा-तत्रा अपनी पद्यात्मक रचनाओं में भी किया है।
महाकवि देव का काव्य-रचना काल सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों तक रहा है। इन्होंने गद्य में भी कुछ लिखा है। इनकी गद्य की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता दर्शनीय है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखिए-
“महाराज राजाधिाराज ब्रजजन समाज विराजमान चतुर्दश भुवन विराज वेदविधिा विद्या सामग्री सम्राज श्री कृष्णदेव देवाधिा देव देवकी नंदन जदुदेव यशोदानन्द हृदयानंद कंसादि निकंदन वंसावतंस अंसावतार सिरोमणि विष्ठपत्राय निविष्ट गरिष्ट पद त्रिाविक्रमण जगत्कारण भ्रम निवारण मायामय विभ्रमण सुररिषिसंगमन राधिाका रमण सेवक वरदायक गोपी गोप कुल सुखदायक गोपाल बाल मंडली-नायक अघघायक गोवर्धान धारण महेन्द्र मोहापहरण दीन जन सज्जन सरण ब्रह्मविस्मय विस्तरण परब्रह्म जगज्जन्म मरण दु:ष संहरण अधामोध्दरण विश्वभरण बिमल जस: कलिमल बिनासन गरुड़ासन कमल नयन चरण कमल जल त्रिालोकी पावन श्री वृन्दाबन विहरण जय जय।
देव महाकवि थे और साधारण सी बात को भी अत्यन्त अलंकृत शैली में लिखने की उनकी प्रवृत्तिा सर्वथा स्वाभाविक थी।
सत्राहवीं शताब्दी के अन्य लेखक, जिनके गद्य का कुछ परिचय हमें मिलता है, बनारसीदास और जटमल हैं। बनारसीदास की भाषा में तो खड़ी बोली की कुछ क्रियाओं का असंदिग्धा प्रयोग भी मिलता है। वे लिखते हैं-
“सम्यग् दृष्टि कहा का सुनो। संशय, विमोह, विभ्रम तीन भाव जामैं नाहीं सो सम्यग् दृष्टी। संशय, विमोह, विभ्रम कहा ताको स्वरूप दृष्टान्त करि दिखाइयतु है सो सुनो।”
इस वाक्य के भीतर 'सम्यग्', 'दृष्टि', 'संशय', 'विमोह', 'विभ्रम', 'स्वरूप', 'दृष्टान्त' आदि संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग के साथ-साथ 'कहा', 'सुनो' आदि क्रियाओं का प्रयोग धयान देने योग्य है। गोरा बादल की कथा लिखने वाले जटमल की रचना में भी यही बात पाई जाती है। उनकी भाषा के दो नमूने देखिए-
1. “हे बात की चीतौडगड़ को गोरा बादल हुआ है, जिनकी वार्ता की किताब हिंदवी में बनाकर तय्यार करी हैं गोरे का भव रत आवे का बचन सुनकर आपने पाबन्द की पगड़ी हाथ में लेकर बाहा सती हुई सो सिवपुर में जाके बाहा दोनों मेले हुबे।”
“उस जग आलीषान बाबा राज करता है। मसीह का लड़का है सो सब पठानों में सरदार है, जयसे तारों में चन्द्रमा सरदार है ओयसा वो है।”
2. “ये कथा सोल: सै असी के साल में फागुन सुदी पूनम के रोज बनाई। ये कथा में दो रस हैं-वीर रस व सिंगार रस है,सो कथा मोरछड़ो नाँव गाँव का रहने वाला कवेसर। उस गाँव के लोग भोहोत सुखी हैं। घर घर में आनन्द होता है कोई घर में प+कीर दीखता नहीं।”
उक्त अवतरण में 'हुआ है', 'सुनकर', 'लेकर', 'हुई', 'जाके', 'हुवे', 'करता है', 'बनाई', 'रहने वाला', 'होता है', 'दीखता नहीं'आदि खड़ी बोली के क्रिया पदों और संज्ञा-शब्दों का व्यवहार हुआ है। साथ ही 'किताब', 'षाबन्द', 'सरदार' आदि प+ारसी शब्दों का समावेश इसमें भी किया गया है। 'जयसा' और 'ओयसा' 'जैसा' और 'वैसा' के बहुत निकट है, यह स्पष्ट है। यदि थोड़े से राजस्थानी प्रयोगों की ओर धयान न दिया जाय तो यह अवतरण खड़ी बोली का गद्य कहा जा सकता है।
सोलहवीं शताब्दी में धार्मिक आन्दोलनों के कारण जनता और महात्माओं का जो सम्पर्क बढ़ा था, वह सत्राहवीं शताब्दी में आकर शिथिल पड़ गया। इस शिथिलता के कारण तथा अन्य किसी विचार-प्रवाह के अभाव में गद्य के सामने फिर एक रुकावट खड़ी हो गई। किन्तु वह ठहर न सकी, कारण यह हुआ कि हिन्दी के कुछ महाकवियों की रचनाओं का बहुत प्रचार हो जाने के कारण जनता की उनके प्रति कुछ जिज्ञासा बढ़ी, कुछ इस कारण से कुछ धार्मिक संस्कारों से प्रेरित होकर कुछ काव्य-कौशल के सम्बन्ध में अधिाक परिचय प्राप्त करने की इच्छा से 'रामचरित-मानस', 'कवि-प्रिया' आदि माननीय ग्रंथों पर टीेकाओं की माँग हुई। इन टीकाओं के रचयिताओं ने यद्यपि गद्य की भाषा का परिष्कार करने में कोई सफलता लाभ नहीं की,तथापि अन्धाकारमयी रात्रिा में नक्षत्राों की भाँति उजाला फैलाने का उद्योग जारी रखा।
सत्राहवीं शताब्दी में केशवदास कृत कवि-प्रिया की टीका सुरतिमिश्र ने सन् 1710 के लगभग लिखी। उनकी भाषा के नमूने देखिए-
1. “सीसफूल सुहाग अरु बेंदा भाग ये दोऊ आये पाँवड़े सोहे साने के कुसुम तिन पर पैर धारि आये हैं।”
2. “कमल नयन कमल से हैं नयन जिनके कमलद वरन कमलद कहिये मेघ को वरण है स्याम स्वरूप है कमल नाभि श्रीकृष्ण को नाम ही है कमल जिनकी नाभि ते उपज्यो है कमलाप कमला लक्ष्मी ताके पति हैं तिनके चरण कमल समेतु गुन को जाप क्यों मेरे मन में रहो।”
अठारहवीं शताब्दी में भिखारीदास ने काव्य-रचना के अतिरिक्त जो थोड़ा-बहुत गद्य लिखा उसका नमूना नीचे दिया जाता है-
“धान पाये ते मूर्ख हूँ बुध्दिवन्त ह्नै जातु है और युवावस्था पायेते नारी चतुर ह्नै जाति है यह व्यंग्य है। उपदेश शब्द लक्षण सो मालूम होता है और वाच्य हूँ मैं प्रगट है।”
इसी शताब्दी में किशोरदास ने 'शृंगार-शतक' की टीका लिखी। इनका कुछ विशेष परिचय नहीं प्राप्त है। इन्हें कुछ लोग सत्राहवीं शताब्दी में उत्पन्न बतलाते हैं। इनकी भाषा का नमूना देखिए-
“तब इतने बीच कस्यप की स्त्री दिति कस्यप के आगे ठाढ़ी भई ठाढ़े ह्नै करि कहनि लगी कि अहो प्राणेश्वर कस्यप देषतु अदितिहिं आदि दै जितीक मेरी सब सपत्नी हैं सु तिन सपत्नीन के पुत्रन कौ मुषु देषतु मेरे परमु संताप होतु है तब यह सुनि कस्यप यह विचारी कि स्त्री की संगति अर्थु, धर्म, काम मोछ होतु है। अरु स्त्री की संगति ग्रहस्थु और तिनिहुँ आश्रमनि की पालना करतु है। अरु अपुन संसार समुद्र के पार होतु है।”