गद्य कोश पहेली 25 अक्तूबर 2013
............. मैं यह तय नहीं कर पा रही हूँ कि ऐसा क्या था इसमें जिसने मुझे छू लिया हो या मुझसे कुछ मेरी ही भूली कहानी कह दी हो. हाँ! इसे पढ़ते समय कुछ ऐसा लगा - जब स्वयं का ही जीवन एक प्रेत कि गुफा जैसा हो, मन ने कभी देवता कि प्रतिमा खंडित कर मंदिर को अपवित्र कर दिया हो,और देवता जब खुद में कहीं ही बसा हो तो उसे अक्षरों में पढने कि क्या जरुरत. खैर! उपन्यास पड़ने का बाद अब मुझे लेश मात्र भी आश्चर्य नहीं कि क्यूँ यह इतना प्रसिद्द है. ये आज फिजा खामोश है क्यूँ, हर ज़र्र को आखिर होश है क्यूँ? या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई तुम्हारा हो न सका. ये कोई और समय होता तो मन कहता - यही तुम्हारा भी रास्ता है. तुम्हे भी खुद को मिटा देना है. जो रौशनी तुम्हे मिली है उसे लुटा देना है. पर कोई रौशनी मिली ही कहाँ है? और मन पहले ही संभल भी गया है, अब वह कहता है कि वो लेखक का सच है या किरदारों का पर तुम्हारा नहीं. तुम्हे अपना सच स्वयं ढूँढना है. अभी कुछ ही समय में तुम्हे भी घर से विदा लेनी है. अपनी आँखे वक़्त पर खोल लो कहीं ऐसा न हो कोई सपना धीरे धीरे टूट रहा हो और तुम उसके बिखरने से पहले अपना होश भी न संभाल पाओ. मुझे गेसू कि याद हमेशा आती रहेगी. उपन्यास में मेरा सबसे प्रिय प्रसंग शायद वह है जब बर्टी अपने तोते को मार देता है. तीन गोलियां चलती हैं और तीसरी गोली से आखिर तोता मर ही जाता है. दरअसल यह सांकेतिक प्रसंग है. तीन गोलियां , सुधा, बिनती और प्रमीला है, और तोता चंदर. बर्टी इसके बाद दर्शन कि गूढ़ बातें करने लगता है पर वह जो उदाहरण देता है उससे इस संकेत का प्रमाण मिल जाता है - " हर एक कि ज़िन्दगी का एक लक्ष्य होता है. और वह लक्ष्य होता है सत्य को , चरम सत्य को जान लेना. वह सत्य जान लेने के बाद आदमी अगर जिंदा रहता है तो उसकी यह असीम बेहयाई है. ... मसलन तुम अगर किसी औरत के पास जा रहे हो या किसी औरत कि पास से आ रहे हो और संभव है उसने तुम्हारी आत्मा कि हत्या कर डाली हो..." ... आत्मा कि हत्या... इससे सुधा का एक और उदबोधन याद आता है , " चंदर, मैं तुम्हारी आत्मा थी. तुम मेरे शरीर थे. पता नहीं हम लोग कैसे अलग हो गए. तुम्हारे बिना मैं सूक्ष्म आत्मा रह गयी. शरीर कि प्यास, रंगीनियाँ मेरे लिए अपरिचित हो गयी...और मेरे बिना तुम केवल शरीर रह गए. शरीर में डूब गए... पाप का जितना हिस्सा तुम्हारा उतना ही मेरा है.. पाप कि वैतरणी के इस किनारे जब तक तुम तडपुंगी,तभी तक मैं भी तडपुंगी ..." देवता तो तुम रहे पर कुछ गुनाह तुमसे हो गए. पर भक्त को देवता का हर गुनाह क्षम्य होता है. वरना कौन राम को पूजता और कौन कृष्ण को. आज मुझे जाने क्यूँ वेन गोघ भी याद आ रहे हैं. अंतर्द्वंद्व भले ही जीवन में कितने भी हो और भिन्न हों सभी कि राहें अंत में एक सत्य के प्रकाश स्तम्भ तक जाती हैं. पता नहीं क्यूँ, उपन्यास खत्म होने पर भी इसके अधूरे होने का आभास सा लग रहा है , लग रहा है जैसे एक कहानी कहीं कोई अभी भी अधूरी है. ........ |
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- ........यह कथा आख्यान आर्यों के प्रसिद्ध प्राचीन दंतकथाओं में से एक है .
- यह उदात्त और अमर प्रेम की आदि कथा है .
- यह कथा महाभारत में भी (महाभारत, वनपर्व , अध्याय 53 से 78 तक) वर्णित है .
- यह इतनी सुन्दर,सरस और मनोहर है कि कई विद्वान् इसे महर्षि वेद व्यास रचित मानते हैं .
- इस कथा पर राजा रवि वर्मा के साथ ही अनेक चित्रकारों ने अपने चित्र/तैलचित्र बनाये हैं .
- यह अमर कथा अपनी नाट्य प्रस्तुतियों से कितनी बार ही मंचों को सुशोभित कर गयी है .
- 1945 में इस कथा पर फिल्म बनी थी ....
- मुज़फ्फर अली ने इस कथा पर टीवी सीरिअल भी निर्देशित किया था ........