गांव इज्ज़त और शहर मज़दूरी / इस्फ़ाक

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[[इस्फ़ाक, उम्र 20 साल। इस्फ़ाक, अप्रैल 2016 से अंकुर के मोहल्ला मीडिया से जुड़े हैं और दक्षिणपुरी में ही रहते हैं।]]

इस्फ़ाक उर्फ विक्की से मुलाक़ात अक्सर लेबर चौक पर ही होती है, चाहे सर्दी हो या गर्मी की धूप या फिर बरसात। इस्फ़ाक पेशे से पेंटर हैं, रंग-पुताई का काम करते हैं। लेकिन यह काम उन्हें बिल्कुल ही पसंद नहीं है। फिलहाल, इस काम के साथ-साथ कॉलेज की उनकी पढ़ाई भी जारी है। दिन के समय यहाँ मज़दूर बनकर काम करते हैं और रात को किराए के कमरे में पढ़ाई।

वे बताते हैं कि सन 2012 में पहली दफ़ा उनका दिल्ली शहर आना हुआ था। तब उनकी उम्र तकरीबन उन्नीस साल की रही होगी। अभी वे तेईस साल के हैं। इनके अब्बू सऊदी अरब में डॉक्टरी का काम करते थे। लेकिन बड़े भाई के अचानक इंतकाल की वजह से अब्बू को टेंशन ने घेर लिया। वे अक्सर बीमार रहने लगे। उनसे अब काम नहीं होता था। इसीलिए, सऊदी से वापस लौट आए। उनकी आंखे भी बीमारी के चलते बेहद कमजोर हो गई थी, कभी-कभी तो सामने वाले को उसकी आवाज़ से ही पहचान पाते हैं। यह सब इस्फाक जी की आंखो के ठीक सामने ही हो रहा था। “मैं करता भी तो क्या करता, बस उनका इलाज चलता रहता और हम देखते रहते। उस दौरान तो मैं बिजनौर में ही पढ़ रहा था। फिर भी कुछ ज़्यादा बुरा नहीं था, कम से कम परिवार के सभी लोग साथ थे। लेकिन बहन की शादी करने के बाद घर में अचानक तंगी आ गई। अब्बू के रुतबे को सोचकर सारा जमा पैसा शादी में लगा दिया। शानो-शौकत से बहन को रुखसत किया। इसके बाद हमारे पास कुछ नहीं बचा था। कहने को एक घर और बाप-दादाओं की ज़मीन ही बची थी।”

अब्बू की डॉक्टरी छूटने की वजह से सारी ज़िम्मेदारी इस्फ़ाक समेत भाइयों पर आ गई। अब्बू-अम्मी के अलावा घर में तीन भाई और चार बहने हैं। गुज़ारा कैसे चलता। तब जाकर घर छोड़ दिल्ली आने का फैसला किया। काम तो वहाँ भी था लेकिन अब्बू जैसा काम करते थे उस हिसाब से कोई काम नहीं मिल पा रहा था। ऐसा-वैसा काम वहाँ करते तो लोग क्या कहते। यहीं सोचकर इस्फाक दिल्ली आए थे कि यहाँ तो कुछ भी कर सकते हैं, यहाँ कौन जानता है।

इस्फाक ने पुताई का काम भी यहीं पहली बार किया। अब्बू के समय में किसी ने भी उनसे कोई काम कभी करवाया नहीं। यहाँ ठेकेदारी में अक्सर काम मिल ही जाता है, लेकिन लेबर चौक पर लोग इसलिए आते हैं कि खुद का काम मिल जाये बेहतर। दो पैसा ज़्यादा भी कमा लेंगे और ठेकेदार से कोई चिक-चिक भी नहीं। ठेकेदारी में दिहाड़ी भी कम मिलती है। अपने काम में बंदा किसी के अंदर में नहीं रहता। अपने हिसाब से खुल कर काम कर लेता है। ज़्यादा काम भी कर लिया तो न कोई थकान न ही कोई गम।

हाल में ही अभी उनके अब्बू का भी इंतकाल हुआ है, जिससे घर की हालत और भी ठीक नहीं है। छोटे भाई-बहन अभी भी पढ़ रहे हैं। तीन बहनों की अब्बू के रहते ही शादी हो गई। बड़ा भाई मेरी ही तरह बाहर रहकर काम करता है, मेहनत मज़दूरी करता है। मेरी ही तरह अक्सर घर का चक्कर लगा आता है।

जब शहरों में काम नहीं मिला तो गांव में खेती कर लेते हैं। खेती के अलावा गाँव में कोई और काम नहीं करते। खाली खेती से गुज़ारा नहीं है और अब्बू के रुतबे की वजह से वहाँ कोई और काम नहीं कर पाते हैं। यहाँ तो एक अंजान आदमी की तरह कमा रहे हैं। दोनों भाइयों के कमाने से खर्चे तो पूरे हो जाते है, बाकी खेती से भी सहारा है। अनाज वगैरह बाहर से खरीदना नहीं पड़ता। बस कुछ जोड़-बटौर नहीं पाते। गाँव ज़्यादा दूर नहीं है इसलिए आते-जाते रहते हैं। एक दिन ठहर कर फसलों पर नज़र डाल कर अगले ही दिन वापस आ जाते हैं। बाकी खेत की देख-भाल हो ही जाती है। जो उनके ट्यूबवेल से अपने खेतों में पानी डालते हैं, वही उनके खेतों में भी पानी रोज़ाना छोड़ देते हैं।

पेंट करते समय काफी परेशानियाँ होती हैं, सांस की बीमारी बनने का खतरा रहता है। फिर भी काम तो करना ही होता है। अपने बचाव के लिए मुंह पर कपड़ा बांध लेते हैं। लेकिन मुसीबत तो तब ज़्यादा आती है जब काम के दौरान या आगे-पीछे कोई हादसा या दुर्घटना हो जाये। अगर काम पर ही कुछ हो जाता है तो मालिक या ठेकेदार एक बार इलाज करवा देता है, पर बाद में खुद ही संभालना पड़ता है। इस बीच काम भी नहीं कर पाते।

सुनने में भी आया है कि कुछ इक्कीस हज़ार करोड़ रुपए मोदी जी ने गरीबों के खातो में डाले हैं, अब पता नहीं यह सच है या नहीं। इस्फ़ाक एक किराये के कमरे में कुछ लोगों के साथ रहते हैं। हर किसी के हिस्से में किराये के करीब पाँच सौ रुपए आते हैं, फिलहाल वह भी नहीं दे पा रहे हैं। हर आदमी इस महंगाई में दो पैसा बचाना चाहता है। काम ना भी मिले तो हमें इतनी टेंशन नहीं जितनी औरों को होती होगी। हमारी तो गाँव में खेती-बाड़ी है जो सहारा लगा ही देती है। खा-पीकर अपने काम से सात हज़ार रुपए बचाकर हर महीने घर भेज ही देते हैं पर कभी-कभार बच भी नहीं पाता।

उनके छोटे भाई-बहनों को खुले में रहने की आदत है, इन बंद कोठरियों में नहीं। वे सोचते हैं कि अगर पढ़ाई पूरी हो जाये तो कहीं कम्प्युटर लाईन में ही नौकरी की तलाश शुरू की जाय। उनके पास कोई ऐसा भी नहीं है जो उन्हें सलाह मशवरा दे।