गीली मिठास / भाग 3 / श्याम बिहारी श्यामल

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लाल बाबू का मुंह खुला का खुला रह गया! मन ही मन सोचा- यह आदमी नौकरी कर रहा है या जंग लड़ रहा है! सोचते हुए बोले,”लेकिन आफिस में तो बहुत हड़का रहे हैं हमलोगों को! यहां बहुत कड़ा बोलते हैं, यार!”

गुमटी के पास पहुंचते ही उन्होंने दुकानदार से कहा,”दो चाय तुरंत दे दीजिये! लौटना है जल्दी!”

उसने कांच के छोटे गिलासों में दो चाय पकड़ा दी. पहली चुस्की लेकर उन्होंने उससे कहा,”क्या यार! तुमने तो इस बार हद कर दी! दशहरे में नहीं आये! देखो, तुम भले छोटी नौकरी कर रहे हो लेकिन पढ़े-लिखे युवक हो. तुम्हें रिश्तों का मर्म हमेशा याद रखना चाहिए. बच्चे तुम्हें बहुत बेसब्री से याद करते रहे.”

राजन ने तुरंत कहा,”ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं आपके घर न पहुंचूं? एक आप ही तो हैं जो इस गरीब और अनाथ आदमी को अपने सगे भाई की तरह अपनाये हुए हैं. ... दशहरे के दिन भी आपके घर से बैरंग लौटा हूं और दीवाली के दिन भी. कहीं बाहर गये थे क्या आपलोग?”

“हां , यार! काशी-हरिद्वार चला गया था.”लाल बाबू बताने लगे,”...इस बार बहुत सालों के बाद यह एक ऐसा मौका आया, जब दोनों ही पर्वों के दिन तुम साथ नहीं थे. दशहरे के दिन तो बच्चे तुम्हें दिन भर खोजते रहे! दशहरे के दिन तुम कब आये थे? दीवाली में तो हमलोग थे ही नहीं.”

“असल में उस दिन मैं दिन भर छुट्टी नहीं पा सका. आप तो पिछले साहब को जानते हैं, उस दिन भी उनके ढेर सारे सम्बन्धी आ गये थे. तब भी रात में आठ बजे वहां से निकला. आपके यहां ही चला आ रहा था कि नवकेतन सिनेमा हॉल के पास एक दारोगा जी मिल गये. वे साथ लेकर हॉल में जा बैठे. फिल्म धार्मिक थी. मन ऐसा लगा कि बीच में उठने की इच्छा ही नहीं हुई. शो टूटा तो दौड़कर आपके यहां पहुंचा लेकिन आपलोग सो चुके थे. दो-तीन बार हांक भी लगायी, फिर लौट गया... उसी तरह दिवाली के दिन भी शाम में गया था. घर में ताला बंद मिला. चलिये, अब छठ में ही मैं दोनों मौके की कमी पूरी करूंगा. सुबह से ही आकर सब काम सम्भाल लूंगा!”


उस दिन लाल बाबू सवा दस बजे ही आफिस पहुंच गये थे. हॉल में आधे लोग कुर्सी-टेबुल सम्भाले मिले. लाल बाबू अभी बैठ ही रहे थे कि बड़ा बाबू बाहर साहब के चेम्बर की ओर तेज कदमों से बढ़ते दिख गये. चलने के अंदाज से ही लग गया कि कोई मामला फंसा है.

उन्होंने फाइल खोलकर सामने रख तो ली, किंतु मन वहीं टंगा रहा. कहीं ऐसा तो नहीं कि बड़ा बाबू की सुबह-सुबह ही क्लास लग रही हो! मन में तत्काल यह बात भी आयी कि साथ में काम करने के कारण भले कुछ कहते नहीं बने किंतु यह बड़ा बाबू भी मामूली पाजी नहीं हैं. तमाम दरोगाओं की दलाली करते हैं. आधा से ज्यादा माल खुद गड़प कर कर जाते हैं, अफसर से भी अधिक. किस दिन यह आदमी दो-चार केस नहीं डिल करता... जिस तरह डालटनगंज में उन्होंने बडा-सा मकान, दो-दो बसें, कार और दोनों बेटों का लाखों का बिजनेस खड़ा करा दिया, ऐसे तो बड़े-बड़े अफसर भी नहीं कर पाते.

सहयोगियों को भी चटनी चटाकर मुंह बंद किये रहता है! कोई जरा-सा जबान खोले तो उसकी कैसी दुर्गति करा देते हैं, इसका नमूना तो अभी पिछले ही माह सुधीर केरकट्टा के मामले में देखा गया. उसने सही तो किया था उनका विरोध लेकिन कैसे उसे सिंहभूम फेंकवा दिया. बेचारा आदिवासी लड़का खेल समझ नहीं सका, एक ही चाल में हवा हो गया. इसलिए अगर इस नये साहब ने यहां कदम रखते ही इन्हें पहचान लिया तो मानना पडे़गा कि इसकी आंखें कमाल की हैं. सटीक आदमी को खोज ले रही हैं. एकदम एक्स रे करती हुई, पूरी आंत खंगाल ले रही हैं. कुछ ही देर बाद बड़ा बाबू उधर से इधर आते दिखे. लाल बाबू ने फाइल समेटकर रख दी. बाहर आ गये.

अपने कक्ष में बड़ा बाबू घुसकर बैठ ही रहे थे कि पीछे से वे भी हाजिर. बैठकर मन ही मन कुछ पल इंतजार किया कि शायद वे ताजा कुछ बताना चाहें. जब बड़ा बाबू नहीं खुले तो उन्होंने बात शुरू की,”बड़ा बाबू! आप तो जानते ही हैं मैं खुद भी छठ व्रत करता हूं. इस साल अकेले ही करना है क्योंकि मिसेज स्वस्थ नहीं हैं. वैसे छठ तो एतवार को पड़ रहा है और पारन के दिन मैं अब तक ड्यूटी पर आ ही जाता रहा हूं लेकिन उस दिन काम करने के लायक शारीरिक स्थिति रहती नहीं. यह साहब जैसा है, आप समझ ही रहे हैं! कहीं थका-मांदा देखकर कुछ उल्टा-सीधा न बोल दे! इसलिए सोचता हूं मैं सोमवार को छुट्टी ही ले लूं.”

बड़ा बाबू ने बात गौर से सुनी. होंठ बिचकाकर असहाय भाव से बोले,”यही तो बात हो रही थी! साहब ने अभी बुलाया था. कहने लगे कि संडे को भी सभी स्टाफ को बुला लीजिये! असल में सोमवार को डीजीपी आ रहे हैं न! साहब का कहना है कि सारे कागजात कम्पलीट होने चाहिए. मैंने उन्हें बताया कि उस दिन छठ है, बहुत सारे लोगों के यहां यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है. संडे होने के चलते सरकारी छुट्टी मारी गयी नहीं तो झारखंड-बिहार का पूरा सरकारी महकमा उस दिन बंद रहता है. यह बहुत बड़ा पर्व है, ऐन उसी दिन सहयोगियों को बुला लेना ठीक रहेगा नहीं! इस पर हमीं पर बिगड़ गये और बोले- यह सब मैं कुछ नहीं जानता! जो जरूरी है वह हर हाल में होगा.”

लाल बाबू सिर खुजलाने लगे,”सर, मेरे लिये तो आना एकदम मुश्किल होगा, मैं तो अखण्ड उपवास में रहूंगा न. और, दूसरे दिन छुट्टी ले लेना ही चाहता हूं.”

बड़ा बाबू ने सुझाव दिया,”आप अप्लीकेसनवा लेकर खुद साहब के पास चले जाइये न! अच्छा रहेगा. बता दीजियेगा कि आप खुद उपवास पर रहेंगे. आपको तो छुट्टी वे दे ही देंगे.”

लाल बाबू ने एक कागज मांगा. जल्दी-जल्दी दरख्वास्त लिखने लगे. बड़ा बाबू ने तुरंत जाकर दे देने का संकेत दिया. वह दरख्वाहस्ती पकड़े-पकड़े उठकर बाहर निकल गये. साहब के कक्ष की ओर लपके. घुसते ही हाथ जोड़कर प्रणाम कहा. साहब ने पहले उन्हें, फिर हाथ के कागज को देखा. हल्की-सी मुस्कान के साथ बोले,”आओ जी! क्या हाल है तुम्हारा?”

पहले तो लाल बाबू को साहब का यह नया अंदाज ही अविश्वसनीय लगा. उन्होंने बहुत सतर्कता से देखते हुए यह विश्वास पक्का किया कि सचमुच वे मुस्कुरा रहे हैं और बाजाप्ता उन्हीं को देखकर. इस पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि साहब या तो अभी अच्छे मूड में हैं या उनके बारे में कोई पाजिटिव राय बना चुके हैं. उन्होंने मुदित भाव से उनके पास जाकर दरख्वास्त आगे बढ़ायी,”सर, संडे को छठ है और मैं खुद यह व्रत करता हूं!”साहब ने कागज पर से उठाकर नजर उनके चेहरे पर रखी और बहुत गौर से ताकने लगे. लाल बाबू ने बात आगे बढ़ायी,”चूंकि उपवास सोमवार को टूटेगा और उस दिन कमजोरी काफी रहती है इसलिए मुझे मंडे को एक दिन की छुट्टी...”

उनका वाक्य पूरा होने के पहले ही अचानक साहब ने दरख्वास्त लेकर हवा में उछाल दिया. जोर से चीख उठे,”यह क्या है. तुमको पता नहीं है कि डीजीपी की विजिट है! मंडे तो मंडे यहां संडे को भी आना है! जाकर बड़ा बाबू से मिलो. मैं दूसरी कोई बात नहीं सुनूंगा.”

लाल बाबू को जैसे सांप सूंघ गया हो. एक कदम पीछे खिसक गये. मुंह बाये ताकते रहे. आगबूबला साहब आंधी में मचलते पेड़ की तरह दिख रहे थे. आंखें भट्ठी की तरह धधकती हुई. आवाज हथौड़े जैसी,”तुम मर्द होकर यह औरतों वाला व्रत करते हो तो हम क्या करें. खैर अपने घर में जो करना हो करो मुझे उससे मतलब नहीं. संडे को सबको आफिस आना है तो तुमको भी आना होगा. अब जाओ! मुझे काम करने दो!”तुरंत उन्होंने सामने टेबुल पर रखे एक पन्ने पर नजर टिका दी. संभवतः किसी फरियादी की दरख्वास्त थी, वह इसे बहुत गंभीरता से पढ़ने लगे.

लाल बाबू के दिमाग में जैसे ज्वालामुखी फट रहे हों! एक के बाद एक. पूरा शरीर सुन्न. रोम-रोम से जैसे लपटें निकल रही हों. वे बाहर की ओर निकलने लगे तो लगा कि पांव अस्तित्व में हैं ही नहीं. वे हवा में टंगे हैं अलगनी के कपड़े की तरह, या उधिया रहे हैं चिरकुट जैसे. किसी तरह दरवाजे से निकले. चौखट पर खड़े होकर पीछे देखा. पर्दा हिल रहा था. अचानक जैसे धैर्य की बुनियाद भी हिलने लगी! वे फट पड़े. उनकी आवाज फूटी तो एकदम गैस कटर की फ्लेम जैसी,”साले पर्दे में बैठ गये हैं तो लगता है कि बुद्धि पर भी पर्दा पड़ गया है! कुर्सी के जोम में अन्धरा गये हैं, आदमी को आदमी नहीं समझ रहे! जाओ, मैंने भी अब तय कर लिया, मुझे नहीं करनी है यह नौकरी! इसके बाद तुम मेरा क्या कर लोगे! लेकिन अब सुनो, तुम्हारे जैसे किसी सनकी के दबाव में मेरा छठ व्रत थोड़े ही विफल होगा. दस साल से करते आ रहे हैं और इस साल भी करेंगे. पता नहीं कहां से आ गया है यह बुद्धु. उल्लू का पट्ठा कहीं का... जरा भी न बोलने की तमीज, न कोई मामूली जानकारी. छठ पर्व को केवल महिलाओं का व्रत बता रहा है. गधा कहीं का... अगर यह सचमुच महिलाओं का व्रत हो तब तो तुमको तो जरूर करना चाहिए. ‘क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा’ का इसका यह अंदाज भी तो औरताना ही है. कब किस बात पर मुस्कुराने लगे और कब अचानक झगड़ने पर उतारु हो जाये, यह समझना ही मुश्किल है. यही तो है औरताना स्वभाव... जाओ आज से इस डिपार्टमेंट को हमेशा के लिए सलाम...”

वे आगे बढ़े तो पीछे से किसी के दौड़कर आने की धमक मिली. मुड़कर देखा. सशस्त्र गार्ड था! कहीं खिसका होगा, दौड़ता हुआ आकर अपनी जगह संभाल रहा था. खड़ा होकर अब वह मामला समझने का प्रयास कर रहा था. लाल बाबू ने उसकी ओर नजर उठायी तो उसने नमस्कार कर धीरे से पूछा,”कौन है बड़ा बाबू? किसने आपको नाराज कर दिया?”

लाल बाबू मुड़कर आगे बढ़ गये. कुछ कदमों के बाद रुककर फिर पीछे मुड़े. आवाज तेज, ताप प्रखर,”...यही एक आये हैं न बड़का भारी सत्य हरिश्चंद्र जी महाराज! जब मुंह खोलते हैं, चिनगारिये फेंकते है. ढेर ईमानदार के नाती हैं, इसीलिए न पुलिस विभाग में आये हैं... हमेशा आगे बरसाते चल रहे हैं. कब किस कमजोर कर्मचारी की इज्जत उतार देंगे, कोई नहीं जानता. यही एक ईमानदार हैं परफेक्ट हैं, बाकी पूरी दुनिया भष्ट... यही अकेले गांधीजी के अवतार हैं और मार्क्स-लेनिन के नये संस्करण, बाकी हम सारे लोग चोर हैं, बेईमान हैं, बेवकूफ हैं, कीड़े-मकोड़े हैं... हम केवल पांव के नीचे रौंदे जाने के लायक हैं. यही एक सच्चा आदमी हैं. ....”

सामने ऑफिस के बरामदे पर निकलकर कुछ सहकर्मी इधर ही ताक रहे थे. लाल बाबू ने एसपी के चेम्बर की ओर हाथ उठाकर आगे कहा,”...स्साले तोताराम की औलाद! रट्टा मार-मार कर आईएएस-आईपीएस तो बन जाते हैं लेकिन जीवन भर जीवन का यह प्राथमिक पाठ भी नहीं सीख पाते कि आदमी की भावनाएं रौंदने वाले से बड़ा विलेन कोई दूसरा नहीं होता! कोई बड़े से बड़ा डाकू या क्रिमिनल भी नहीं.”उनकी आवाज से जैसे पूरा परिसर झुलस रहा था.


छठ का दिन. शाम. घाट के लिए निकलने का समय हो गया लेकिन राजन का अब तक कहीं अता-पता नहीं! सुबह से बच्चे बरामदे में जाते और कुछ देर तक इंतजार करने के बाद लौट आते. लाल बाबू ने कह रखा था कि वह जरूर आयेगा. पत्नी ने आकर बताया,”घाट जाने का समय हो गया है. लोग निकलने लगे हैं. सामने वाले लोग दउरा लेकर निकल गये, अब तक घाट पहुंच गये होंगे. राजन अगर नहीं आ सके तो कोई दूसरा इंतजाम तो रखना होगा न!”

लाल बाबू ने मुस्कुराकर कहा,”अरे, राजन ने तो कहा था कि छठ के दिन सुबह ही आ जायेगा लेकिन वह बेचारा भी तो उसी कंस के पंजे में फंसा है! कहीं अगर समझ गया होगा कि यह छठ पूजा में जाने वाला है तो किसी काम में उलझा दिया होगा. खैर अब दूसरा उपाय करना ही होगा. आप बाहर जाकर किसी से पूछिये कोई अगर दउरा लेकर चलने को तैयार हो तो ठीक, नहीं तो कुछ हल्का कर लेंगे और हमीं उठा लेंगे. छठी माई की कृपा से घाट तक ले ही जायेंगे. वैसे कई साल से वही लगातार दउरा उठाकर आगे-आगे चलता रहा है इसलिए उसकी कमी महसूस हो रही है. खैर तो आप बाहर जाकर अब किसी को देखिये...”

“अरे, यह सौभाग्य तो किस्मत वाले को ही मिलता है! कौन नहीं तैयार होगा! दउरा भारी है, आप उपवास किये हैं इसलिए खुद नहीं ...” पत्नी कहती हुई बाहर चली गयीं. लाल बाबू ने घड़ी देखी, पूरे पांच बज रहे थे. तभी वह उल्टे पांव पीछे लौट आयीं,”ऐ जी! लगता है कोई बड़का साहेब-सुबा आया है! लालबत्ती वाली गाड़ी आ कर दरवाजे पर रुकी और आपका नाम लेकर कोई कुछ बोला तो मैं भागकर यहां आ...”

राजन की आवाज करीब आती सुनाई पड़ी,”कहां हैं सर! अभी निकले नहीं न हैं घाट के लिए?”

लाल बाबू ने दरवाजे की ओर नजर उठायी. वह बोलता हुआ भीतर आता दिखा,”साहब भी आये हैं!”

लाल बाबू अचकचा गये हैं. दिमाग जैसे चकरा गया हो! कुछ समझ पायें, इससे पहले सामने से एसपी भी आते दिख गये. झुककर छोटे दरवाजे से निकल आंगन में निकलते हुए. परिचित-से चेहरे पर सर्वथा अपरिचित मुस्कान. अब वे सामने आंगन में खड़े हैं. सिर झुकाये, दोनों हाथ आगे बांधे. चेहरे पर सपाट शांति! लाल बाबू को कुछ भी समझ में ही नहीं आ रहा, क्या करें, क्या कहें! हक्का-बक्का ताकते रहे. एसपी ने मुंह खोला,”देखिये भाई, मैं अभी तो यहां हाजिर हुआ ही हूं, सुबह प्रसादी लेने घाट पर भी पहुंचूंगा!”

लाल बाबू की सांसें तेज हो गयी हैं. सामने रखे छठ के दउरे पर रखी सुपलियों से उठती अगरबत्ती की सुगंधित लकीर कुछ कोमल आकार गढ़ रही है. उन्हें लगा कि हल्के झोंके भी गजब असरदार हैं, उनके स्पर्श से ही लोहा पिघलकर प्रवाहित हो रहा है ...लाल-लाल सान्द्र लौह-जल!

एसपी और करीब आकर खड़े हो गये हैं. उनकी आवाज एकदम तरल, लाल-लाल और सान्द्र,”...मैंने सिद्धांतों के घने बियाबान जंगल देखे थे, आपने आंखों में उंगली डालकर भावनाओं की हरी-भरी क्यारियां दिखा दीं! ...”कुछ क्षणों के मुखर मौन के बाद उन्होंने आगे कहा,”...आप कल मंडे को आराम कर सकते हैं डीजीपी साहब का कार्यक्रम टल गया है!”आवाज में गीली मिठास है! लग रहा है, यह आंखों से निकल-फैल रही है.

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श्याम बिहारी श्यामल द्वारा लिखित कहानी "गीली मिठास" समाप्त