गीली मिठास / भाग 2 / श्याम बिहारी श्यामल

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बाहर आये तो मन आहत और भयभीत था. उन्हें लग गया था कि यह आदमी तो सचमुच हर मामले में टांग फंसाने वाला है और खतरनाक भी. आकर अपनी सीट पर बैठे और सामने एक फाइल खोल कर रख ली. हॉल में एकदम वैसा ही सन्नाटा. पीछे मुड़कर देखा तो भ्रमर चौधरी को देख दंग रह गये. वह पैंट-शर्ट में आया था. जबसे वह चाईबासा से तबादला होकर यहां आया है, आज तक कभी पैंट-शर्ट में नहीं देखा गया था.

पिछली कतार में विभाग के दोनों चैंपियन भाषणबाज हरिहर शर्मा और राजेंद्र आसपास कुर्सियों में धंसे फाइलों से जूझ रहे थे. दोनों रोज आते-जाते दो-तीन बार बड़े टेबुल पर उठंघते हुए धीरे-धीरे चढ़ बैठते और कम से कम एक-एक घंटा बकबक करते रह जाते थे. हरिहर शर्मा यूनियन में थे और वाम विचारधारा की पैरवी करते जबकि राजेंद्र का पॉलिटिकल स्टैण्ड बहते पानी की तरह था. राजेंद्र कभी भाजपा की पूरजोर खबर लेने लगते तो कभी उसके बगैर उन्हें देश का भविष्य अंधकारमय लगने लगता. कभी समाजवादियों की जरुरत महसूस करते तो कभी कांग्रेस पर ही भरोसा जमाने लगते. विचार तो उनके बेशक बदलते ही रहते थे किंतु अंदाज हमेशा एक जैसा आक्रामक. खम ठोंककर बोलते और विरोध करने वाले से भिड़ने को हमेशा जैसे कमर कसे रहते. हरिहर का दृष्टिकोण तो तय और साफ था किंतु अंदाज उनका भी झगड़ने वाला ही होता. बात-बात में वर्ग-दृष्टि समझाने लगते. यह संभवतः पहला मौका था, जब हमेशा बजते रहने वाले ऐसे मृदंग-पुरुष उधर कुर्सियों में गड़े हुए थे.

लाल बाबू को लगा कि इस मामले में तो यह बदलाव अच्छा ही है कि ऐसे मनबढ़ुओं पर लगाम लगना सम्भव हुआ! आखिर दफ्तर तो दफ्तर है. इसका न्यूनतम अनुशासन तो हर हाल में जिंदा बचा ही रहना चाहिए. यह क्या कि एक-दो लोगों की बकबकाहट की बीमारी के कारण काम करना चाह रहे दूसरे लोग सांसत में आ जायें और ऐसा ही लगातार महसूस करते रह जायें! ...

तभी सामने साहब की पोर्टिको की ओर ध्यान गया. साहब की गाड़ी स्टार्ट हो गयी थी. फाइल को सामने कर उन्होंने वहीं से नजरें तिरछी कर ली. ध्यान पूरी तरह गाड़ी पर केंद्रित. साहब तेज गति से निकले और गाड़ी का गेट खींचकर चढ़ गये. पीछे-पीछे आये क्राइम रीडर साहब नीचे से साहब के करीब खिसक कर खड़े हो गये. साहब कुछ बोल रहे थे. क्राइम रीडर के हाथ में कागज-कलम थी, जिसका वे बीच-बीच में इस्तेमाल करते चल रहे थे. कुछ ही क्षणों बाद साहब की गाड़ी ने यू टर्न लेकर पीछे का रुख किया और बाहर निकल गयी. लाल बाबू ने पीछे मुड़कर भ्रमर को आवाज लगायी,”क्या हाल है, दादा! आज आपको इस पोशाक में देखकर चुप नहीं रहा जा रहा है. आइये करीब आइये. जरा आपको पास से देखूं.”

वे वहीं से चुप-चुप देखते रहे तो लाल बाबू ने कहा,”साहब जा चुके हैं. गाड़ी बाहर निकल गयी...”

एक साथ कई सहकर्मियों ने पूछा,”निकल गये साहब? सचमुच?”

“हां, भई! मेरी सीट का यही तो कमाल है कि यहां से सीधे साहब की खबर ली जा सकती है.”लाल बाबू आम तौर पर ऐसा मजाक नहीं करते लेकिन आज शायद दिल को लगी जोरदार ठोकर से बोल में ही व्यंग्य का सोता फूट पड़ा था! सबने ठहाका लगाया. इससे काफी देर से जमा सन्नाटा धान की भूसी की तरह उड़ने लगा.

सबसे पीछे होने के बावजूद हरिहर शर्मा व राजेंद्र दरवाजे तक सबसे पहले आ गये. राजेंद्र ने पूछा,”यात्रा तो ठीक-ठाक रही न? यहां हमीं लोगों का जात्रा खराब चल रहा है!”लाल बाबू ने हां-हूं कर बात संक्षेप में समेट दी. वे दोनों बाहर निकल गये.

भ्रमर पास आया. लाल बाबू ने पूछा,”क्या बात है दादा! यह क्या. कहां गयीं आपकी डिजायनर कलरफुल लांग कमीज और अलीगढ़ी पायजामे वाली पाशाकें?”

“अरे दादा! क्या बोलेगा! अब वह सब बांधकर बक्सा में रखवा दिया है भविष्य में कभी काम आयेंगे. नौकरी बच जाये तो ऐसी कलरफुल डिजायनर पोशाकें पहनने का जमाना फिर कभी लौटेगा. मुझे तो नये साहब ने पहले ही दिन बुलाया और कपड़ा देख कर ही उखड़ गये. बोले-‘ ड्यूटी करने आये हो या नौटंकी करने ? मुगले आजम का नाटक पेश करोगे क्या? शहजादा सलीम बने हो ?’ मैं कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा तो आगे पूछा-”संगीतबाजी वगैरह करते हो क्या? कुछ ठोंक-पीट करते हो? तबला या ढोलक जैसा कुछ? ’ मैंने जब बताया कि मैं तबला आर्टिस्ट हूं तो बिगड़कर बोले- ‘ घर में तबला ठोंको या ढोलक पीटो, इससे हमें मतलब नहीं. दफ्तर आओ तो आदमी की तरह! बहरुपिया बनकर यहां आने की जरुरत नहीं. ढंग का कपड़ा तो शरीर पर होना ही चाहिए न! यह नहीं कि रास्ते में कोई देखे तो पूरे डिपार्टमेंट का मजाक बनाये कि यह देखो पुलिस विभाग का नमूना जा रहा है! ’ इसके बाद साहब ने अपनी गाड़ी से उसी समय मुझे घर भेजा. खोजवाकर पैंट-शर्ट निकलवायी. पोशाक बदलकर ही आफिस लौटा. चार-पांच साल से कोई शर्ट-पैंट नहीं बनवायी थी. यह देखिये न कितना टाइट है! क्या करें, कपड़ा उधार लेकर पैंट-शर्ट सिलने को दे दिया है!” उसका अंदाज मजाकिया लेकिन आवाज में कसक थी.

लाल बाबू बोले,”मैं तो हफ्ते भर बाद आया हूं. नये साहब बहुत अलग ढंग के लग रहे हैं.”

“बहुत मस्त आदमी हैं. जहां भी कुछ गड़बड़ समझ रहे हैं वहां तुरंत ऑपरेशन जमा दे रहे हैं. आपको शायद नहीं पता कि उन्होंने तमाम लाइलाज समझे जाने वाले बिगड़ैल दारोगाओं को नाकोदम कर रखा है. कल ही क्राइम मीटिंग है. देखियेगा, कल क्या-क्या होता है! लेकिन दुःख की एक ही बात है कि संगीत से बहुत चिढ़े हुए हैं. इसी का मुझे बहुत तकलीफ है.”भ्रमर के स्वर में उमंगभरी थाप नहीं, ढरकता हुआ सुर था. पराजित और तरल.

उसी समय बड़ा बाबू आ गये. लाल बाबू ने मुस्कुराकर स्वागत-भाव प्रदर्शित किया. वह बोले,”आप से डिस्कसन अधूरा ही रह गया. फुर्सत हो तो आ जाइये, कुछ देर के लिए.”

लाल बाबू उठकर साथ ही चल दिये. अपने कक्ष में घुसते ही बड़ा बाबू ने पीछे मुड़कर आंखें फैला दी,”हां, मैं आपको एक जरूरी बात बताना भूल गया. अब दोपहर में चाय-नाश्ता के लिए उधर बिहारी की दुकान में जाना भी बंद हो गया है. साहब को संदेह है कि यह सामूहिक नाश्ता अभियान रोज किसी न किसी को मुड़कर चलाया जा रहा था. जिस दिन उन्होंने चार्ज लिया, उसके दूसरे ही दिन लंच के समय इधर आकर कमरों में झांकने लगे. भई, यह तो वर्षों-वर्षों से चली आ रही परिपाटी है कि दोपहर में साहब के जाने के बाद आधा घंटा के लिए उठकर हमलोग टहलते हुए दस कदम चलकर बिहारी के यहां चले जाते रहे हैं. इससे दिमागी थकान भी उतरती है और कुछ चाय-पान भी हो जाता है. उस दिन साहब इधर सारे कमरे में झांक आये ...सिवाय डीएसपी साहब के इधर पूरे सेक्शन में कोई नहीं था. हमलोग चाय पीकर लौटे तो डीएसपी साहब धीरे-धीरे बोलते हुए पूरी बात बताने लगे. उन्होंने बताया कि साहब ने उनके कक्ष में आकर खड़े-खड़े ही उन्हें खूब डांटा और कहा- ‘ आप यहां मूर्ति की तरह बैठे मत रहिये! अनुशासन और कार्य संस्कृति को बनाये रखने के लिए पहल भी करते रहिए! यह क्या कि सभी स्टाफ उठकर इस तरह गोल बांधे ऑफिस छोड़कर चल देते हैं! जिसे दोपहर में कुछ खाना-पीना हो वह घर से टिफिन लेकर आये. मुझे पता चला है कि इस तरह रोज सभी उधर कहीं दूर जाकर होटलबाजी करते हैं. बहुत भारी वेतन मिलने लगा है क्या! कहां से रोज होटलबाजी कर रहे हैं ये लोग! देखिये, कल से इस तरह एक साथ सभी उठकर तफरी पर न निकला करें! कल से ऐसा नहीं होना चाहिए.’ डीएसपी साहब ने ही कहा कि अब एकदम बाहर निकलना बंद हो जाना चाहिए. जिसे चाय-वाय पीना हो वह मौका देखकर बीच में उठकर अकेले चला जाये और जल्दी आ जाये!”

लाल बाबू ने दुखड़ा रोया,”बताइये साहब! हमलोग का चाय- नाश्ता भी रोक दिया इसने! गजब पगलेटे लग रहा है!” उन्होंने सिर खुजलाते हुए आगे कहा,”हमलोगों के पास कोई पब्लिक डिलिंग तो है नहीं कि फाइलों पर पैसा बरसता हो. ले-देकर पुलिस विभाग के ही लोगों का वेतन और भत्तों का काम है. इसमें भी चूंकि दारोगा-इंस्पेक्टर फील्ड में छूटकर कमाते हैं, इसलिए यहां आने पर कभी सौ-पचास थमा देते हैं. यह कौन बहुत बड़ी घूसखोरी हो गयी! ढेर कड़े हैं तो जरा मनबढ़ु दरोगाओं को छूकर तो देख लें! एक-एक दरोगा एक-एक महीना में लाख-डेढ़ लाख तक बटोर लेता है! इनमें कोई रोज सीधे सीएम से बतियाता है तो कोई किसी अन्य पावरफुल नेता-मंत्री से!”

बड़ा बाबू बोले,”अरे, ई सब को डिस्टर्ब कर देगा! कल ही तो है क्राइम मीटिंग भी. देखिये, क्या-क्या गुल खिलता है! ज्यादा देर हो गयी. अब अपनी सीट पर आप चलिये!”


दूसरे दिन माहौल काफी गरम था. क्राइम मीटिंग शुरू होने के कुछ ही देर बाद बड़ा बाबू हॉल में आये. मुआयना करने वाले अंदाज में घूमने लगे. सहयोगियों के पास रुकते, फिर आगे बढ़ जाते. कोई सिर उठाकर भी नहीं देख रहा था. वह राजेंद्र के पास जाकर रुक गये,”अरे, एकदम ऐसा भी नहीं. आपस में जरूरी बातचीत संक्षेप में जारी रखिये भाई! नहीं तो ऐसा न हो जाये कि कुछ दिन बाद हमलोग मुंह खोलना और बोलना ही भूल जायें. हमेशा के लिए गूंगा हो जाना है क्या...”

राजेंद्र ने सिर उठाया. मुस्कुराकर ही देखा, लेकिन कातरता छिपी न रह सकी. दोनों हाथ उठाकर नचाते हुए लाचारगी व इस हालात पर चिंता व्यक्त की. दूसरे ही पल खुद ही फाइल में गुम! बड़ा बाबू मुड़े और वापस लौटने लगे. बाहर निकलने से पहले लाल बाबू के पास रुके,”अरे लाल बाबू , टीए बिल वाले मामले में क्या हुआ?”

लाल बाबू ने सिर झुकाये-झुकाये लिखते हुए अचकचाकर पूछा,”किस टीए बिल के मामले में?”

बड़ा बाबू ने उनके टेबुल पर हाथ से धीरे-धीरे थपकी दी. लाल बाबू ने सिर उठाकर देखा. उन्होंने आंख दबाकर उधर चलने का इशारा कर दिया. वे बात को समझ गये. उठते हुए बोले,”हां, हां! उस मामले में आप से मुझे कुछ पूछना था...”

बड़ा बाबू ने अपने कक्ष में घुसते ही कलेजा ठंडा कर देने वाले अंदाज में खुशखबरी दी,”क्राइम मीटिंग में हो गया है बवाल! यादव दरोगा को शहर से हटाकर मनातू कर दिये हैं साहब. यादव चुपचाप उठा और बाहर आ गया. उसने तत्काल मोबाइल पर सीएम से बात कर ली. सीएम ने तुरंत साहब को फोन किया व यह तबादला रोकने को कह दिया. इसके बाद का डेवलपमेंट नहीं मिला है. मीटिंग जारी है. कोई निकले तो आगे की बात मालूम चले!”

लाल बाबू ने सच्चे हृदय से कामना प्रकट की,”वाह भई वाह! ऐसे ही दरोगा उनको नकेल पहनायें. पहनायेंगे भी! तभी तो बात बनेगी! हमलोगों को तो यह कस्साई एकदम खस्सी-बकरी ही समझ रहा है! अच्छा, तो अब मैं चलता हूं.”

कुछ ही देर में तमाम थाना प्रभारी और अन्य अफसर भरभराकर बाहर निकलने लगे. सभी इधर-उधर जाने लगे. यह क्राइम मीटिंग खत्म हो जाने का संकेत था! बाद में पता चला कि साहब ने क्राइम मीटिंग के दौरान ही फोन पर सीएम को बहुत कड़ा जवाब दे दिया और यहां तक कह डाला-“आप चाहें तो मेरा ही तबादला कर दें. मैं इसे रुकवाने के लिए नहीं कहूंगा! आप भी मेरे किसी मातहत का तबादला रोकने या इसमें रद्दोबदल करने के लिए प्लीज मत कहें! मैं आपकी बात नहीं रख सकूंगा.”

इसके बाद उन्होंने फोन रख दिया था और यादव को खड़ाकर सबके सामने काफी डांटा-”तुमको अब मैं जल्दी ही खाली कर दूंगा. तुम पुलिस डिपार्टमेंट के तो कम, राजनीति डिपार्टमेंट के ज्यादा करीब लग रहे हो. मीटिंग से निकलकर फोन पर बतिया आये. वेरी फास्ट! गुड! भई, मान गये तुम्हें! तुम तो सचमुच नेता-मंत्रियों के बहुत करीबी हो! चलो, वर्दी उतर जायेगी तो आराम से खादी पहन लेना और राजधानी में जाकर उन्हीं लोगों के करीब बैठकर झूम-झूमकर झाल बजाना. फिलहाल तो मैं तुम्हें लाइन हाजिर करता हूं! नो तबादला! जाओ बाहर जाकर मोबाइल पर अभी बता दो.” इसके अलावा उन्होंने सदर विधायक के सगे रिश्तेदार दारोगा राजू शर्मा को भी लाइन हाजिर किया था. साथ ही साथ आधा दर्जन ऐसे अन्य अफसरों को भी इधर से उधर करके फेंक-पटक दिया था, जो किसी न किसी पैरवी-प्रभाव से एक ही स्थान पर एकाध दशक से जमे हुए थे.

लाल बाबू ने किसी से कुछ कहा नहीं किंतु दिमाग में यह बात जरूर आयी कि यह तो बहुत साहसिक और प्रशंसनीय कदम उठाये गये हैं. पुलिस में नौकरी और नेताओं की भक्ति. ऐसे-ऐसे जुगाड़ से पैसा बनाने वालों को तो सबक सिखाया ही जाना चाहिए. अभी तक तो जितने भी एसपी आये, सब के सब कैरियरिस्ट निकले. सीएम का फोन आ जाना तो बहुत बड़ी बात, केवल हनक-भनक पर ही नेताओं के करीबियों को लाभ देने को बेचैन हो उठते थे. यह अपनी आंखों का देखा सच है कि इसी यादव दारोगा को उल्टे पिछला एसपी ही खुश करने का अवसर खोजता रहता था. केवल इसलिए कि यह सीएम के पास भूलकर भी कभी कोई गलत छवि न पेश कर दे. अब अगर उसी यादव दारोगा को हिलाया जा रहा है तो यह तो बहुत अच्छी बात है. दारोगा को तो अपनी हद में ही रहना चाहिए! सीएम का रिश्तेदार होने का मतलब खुद सीएम होना तो कदापि नहीं! ... इसका मतलब कि व्यवहार में यह साहब कुछ खब्त भले लग रहा हो लेकिन है ईमानदार. आखिर दफ्तर की वैसी बातें जिन्हें लेकर वे वर्षों से भीतर ही भीतर कुढ़ते रहे, उन पर भी अंकुश इसी ने लगाया. रही बात महीने भर में बिल वगैरह के एवज में हजार-डेढ़ हजार की ऊपरी कमाई खत्म होने की तो इससे कुछ आर्थिक सांसत तो बढ़ेगी लेकिन आत्मा का बोझ बेशक कितना कम हो जायेगा!

लाल बाबू ने हमेशा महसूस किया है कि ऊपर की कमाई भीतर से खंधारती चली जाती है... लगातार कमजोर और अपनी ही नजर में चोर बनाती हुई. किसी भी चीज को गलत जानते-मानते हुए भी ढोना मामूली यातना नहीं है. कम से कम उनके जैसे व्यक्ति के लिए, जो कलम से इन चीजों का विरोध करता चलता है. उन्हें याद है, शुरू में जब वे नौकरी में अभी आये ही थे यह सब देख मुखर होकर विरोध करते थे. वे न गलत एक पैसा छूते थे न किसी को ऐसा करने देना चाहते थे. बाद में उन्हें साथियों ने यह डर दिखाकर धीरे-धीरे अपने रंग में रंग लिया कि ऐसा नहीं करेंगे तो नौकरी भी हाथ से जा सकती है. उस समय लोगों ने यही तर्क दिया था कि ऐसी कमाई करने वालों की पूरी श्रृंखला बनी हुई है. इसमें नीचे से लेकर सबसे ऊपर तक के अधिकारी शामिल हैं. उनकी कड़ी यदि आपके चलते टूटने लगेगी तो वे कभी सलामत नहीं छोड़ेगे.

उन्होंने महसूस किया कि यदि व्यक्गित रूप से कुछ क्षति भी हो रही हो तब भी भ्रष्ट तत्वों के विरोध में उठे ऐसे कदमों को नैतिक समर्थन जरूर मिलना चाहिए! दूसरे ही पल यह भी खयाल आया कि यहां किसी से ऐसा कुछ जाहिर करना ठीक नहीं होगा. खुद बड़ा बाबू भी जले-भुने बैठे हैं, ऐसा सुनेंगे तो मुझी पर विश्वास करना छोड़ देंगे! वे फाइल पर आंखें टिकाये बैठे ही बैठे बहुत दूर तक दौड़ लगा रहे थे. इसी दौरान पोर्टिको में गाड़ी स्टार्ट हुई और साहब निकल गये.


साहब के बंगले का चपरासी राजन आकर सामने खड़ा हो गया. लाल बाबू उसे लेकर आफिस के पीछे नयी गुमटी की ओर बढ़ गये. उन्होंने पूछा,”साहब लंच में गये और तुम बंगला छोड़कर इधर? साहब अकेले ही हैं न अभी?”

“अरे बाबू! यह साहब अलग ढंग के हैं! एक बार नहाने-धोने के बाद नौ बजे चार रोटी और रात में फिर वही नौ बजे चार रोटी. दोपहर में कुछ नहीं खाते. हां, लाल चाय खूब पीते हैं लेकिन ज्यादातर खुद ही बनाकर. एकदम दो मिनट में एक कप चाय उतार लेते हैं! अभी गये हैं तो वहां खुद चाय बनाकर पियेंगे.”

“लाल चाय! तुम होश में तो हो न ?”

“अरे बाबू!यह एकदम अलग दिमाग के हैं! गजब! हमींलोगों जैसे साधारण रहते-खाते हैं.”

“अच्छा! ऐसा! परिवार वगैरह कहीं होगा न? लायेंगे कि नहीं?”

“अब उनसे परिवार के बारे में कौन पूछे! वैसे तो अभी एकदम अकेले ही आये हैं. साथ में एक-एक रेडीमेड बेड, प्लास्टिक की बाल्टी, मग और तीन कार्टूनों में भरकर किताबें लाये हैं, बस! कोई तामझाम नहीं. साहेब वाला तो रोब-रुतबा ही नहीं. आये तो तीन दिन तक बाहर से ही रोटियां मंगाते रहे. बीस रुपये देते और कहते कि मेरा नाम बताये बिना सड़क किनारे के किसी भी होटल से ताजा बनी चार रोटियां ले लेना और कोई भी जेनरल सब्जी हाफ प्लेट! बाकी पैसे में तुम कुछ खा लेना! बोलते हैं तो लगता है कि घर का कोई बाप-भाई बोल रहा है! ...सड़क छाप होटलों से खाना लाने में बहुत डर लग रहा था. दिक्कत थी कि किसी को बताना भी नहीं था कि यह खाना एसपी साहब के लिए जा रहा है और लाना भी ऐसे ही होटल से था. आप तो जानते हैं होटल तो होटल ही है. चाहे छोटा हो या बड़ा. कब बासी-तिरासी को गरमकर थमा दे, कौन जानता है! गड़बड़ खाने से कहीं तबीयत ही कभी खराब हो जाये! इसलिए मैंने दो दिनों पहले हाथ जोड़कर साहेब से कहा कि होटल वाले खाने में कभी कोई गड़बड़ी हो सकती है. इससे सेहत भी खराब होगी. खाना मैं बंगला पर ही बना लूंगा. इस पर वे तुरंत बोले कि ऐसे ही तो वे वर्षों से मंगाकर खा रहे हैं, अभी तक तो कोई गड़बड़ी नहीं हुई! मेरे बहुत कहने पर वे राजी हुए तो खाना अब बंगले पर ही बन रहा है. उन्हें चावल पसंद नहीं लेकिन मुझे कह दिये हैं कि मैं जब चाहूं अपने लिए पका लूं! कल रात में तो मेरे हिस्से के चावल से दो चमच मांगकर उन्होंने लिया भी था. हां, बंगले पर सिपाही दारोगाओं को नहीं चढ़ने देते. हद से हद बंगले वाले आफिस तक वे लोग आ सकते हैं, बस!”उसने सावधानी से दायें-बायें देखा फिर मुंह करीब लाकर धीरे से कहा,”जानते हैं कि नहीं! एक और खास बात है...”

“क्या” लाल बाबू ने लम्बी सांस ली.

“साहब आफिस के लिए निकलने से पहले रोज अपना बेड, किताबों की कार्टूनें और बाल्टी-मग सब एकदम पैक कर देते हैं. कहते हैं कि तबादला कभी भी हो सकता है, इसलिए तैयारी ऐसी हो कि एक मिनट में उठूं और अगले पड़ाव के लिए कूच कर लूं. उसी तरह शाम में जब लौटते हैं तो हंसकर रोज यही डायलोग बोलते हैं- चलो, आज की नौकरी तो यहां हो गयी पूरी और अब यह रात यहीं बीतेगी...! अब कल का कल देखेंगे!”