गीली मिठास / श्याम बिहारी श्यामल

Gadya Kosh से
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लाल बाबू केवल पांच मिनट लेट थे किंतु दफ्तर में घुसे तो सारे सहकर्मी काम में लगे हुए मिले. सामने फाइलें खुली हुईं और उनमें डूबे लोग. सबके मुंह पर ताले, मुद्रा स्थिर. किसी ने उनके आने की आहट पर सिर उठाकर भी नहीं देखा. उन्हें बहुत धक्का लगा! यह क्या! यहां तो कोई हाड़-मांस का पुतला लग ही नहीं रहा, जैसे सभी माटी की मूरतें हों! यह बात तो समझ में आ ही रही थी कि यह नये साहब का असर है लेकिन एकबारगी ऐसा भी क्या कि दफ्तर में कर्फ्यू लग जाये!

कल शहर में घुसते ही बस स्टैण्ड पर शिवशंकर बाबू ने रिक्शा रोककर करारा मजाक किया था,”बहुत कड़ा एसपी आया है. ज्यादा भ्रमण-पर्यटन मत कीजिये नहीं तो सीधे फाइनल तीर्थ यात्रा करा देगा!”

सुबह खटाल पर नजारत के बड़ा बाबू मिले. कहने लगे,”आपका नया साहब तो बहुत टेढ़ा आ गया है.”

अभी कचहरी परिसर में घुसते ही पत्रकार गोकुल बसंत ने रोककर दस मिनट तक चर्चा की थी,”बहुत ईमानदार और योग्य एसपी मिला है इस बार पलामू को!”

इन तमाम बातों से उन्हें कुल मिलाकर यही लगा था कि दफ्तर का माहौल कुछ चेंज मिल सकता है, किंतु एकबारगी ऐसा भी नहीं लगा था कि सारे सहयोगी इस कदर रातों-रात कर्मठ हो गये होंगे. यह शांति अप्रत्याशित लगी. अवांछित भी. संजीदगी अपरिचित, पूरा माहौल दमघोंटू.

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि कोई साथी लम्बी छुट्टी से लौटा हो और उसकी ओर कोई नजर तक उठाकर न देखे. ऐसे मौके पर तो सभी उठकर पास आ जाते थे. खूब धमाल मचता. चाय-वाय होती तभी काम शुरू होता. आज यह इसलिए भी अखरा कि वे करीब दो साल बाद हफ्ते भर की लम्बी छुट्टी पर गये थे.

उन्होंने खांसते हुए बगल वाले अखिलेश सिन्हा का ध्यान खींचना चाहा. एक बार का खांसना बेकार गया. दुबारा खंखरे. इस बार उसने बगैर सिर उठाये कहा,”लाल बाबू, तुरंत काम शुरू कर दीजिये. साहब कभी भी विजिट मारने आ सकते हैं. वे रोज इधर एक बार आ ही जा रहे हैं.”

सिन्हा की बात से मन में दहशत हुई. तुरंत झोले को मोड़कर टेबुल के कोने पर रखते हुए सोचा, इसे तुरंत नीचे कहीं छिपा देना होगा! कुर्सी पर बैठे. मन उड़ा हुआ था. एक पल को लगा, जैसे स्कूली दिन लौट आये हों. बात-बात में छड़ी बरसाने वाले अम्बिका गुरुजी की कक्षा! ओह, गजब हो रहा है! दफ्तर का माहौल भला ऐसा होना चाहिए! उन्होंने सबसे पहले झोले को टेबुल के नीचे ड्रावर में डाला. ऊपर वाली फांक में. टेबुल पर ही कुछ नयी फाइलें आकर रखी थीं. जल्दी से एक को खोला और सामने फैला लिया. चश्मा लगाया और कलम हाथ में पकड़े काम करते दिखने लगे. सिर झुका हुआ किंतु चश्मे के ऊपर और भौंहों के बीच से निकलकर नजर सामने सीधे साहब के पोर्टिको की ओर.

एकांउट के चपरासी ने आकर ध्यान तोड़ा,”आपको बड़ा बाबू याद कर रहे हैं!”

फाइल पटक दी और उठ गये. लपककर बाहर निकले.

बड़ा बाबू ने दरवाजे में घुसते देखा तो संयमपूर्वक मुस्कुराये,”आइये! आइये! कैसा रही आपकी काशी-हरिद्वार की यात्रा?”

“काशी-हरिद्वार की तो ठीक-ठाक रही बड़ा बाबू, लेकिन यह मैं क्या देख रहा हूं! आफिस में लग रहा है जैसे श्मशान उतर आया हो. सभी मूरत हो गये हैं! कोई किसी की ओर ताक भी नहीं रहा है! हर टेबुल पर खुली-खुली फाइलें दिख रही हैं और उसमें डूब-उतरा रहे साथी!”

“इसीलिए तो अभी बुलाया है. आपको यही बताना है कि यह साहब बहुत उल्टी खोपड़ी का आ गया है. उसके दिमाग में घुसा हुआ है कि हमलोग बहुत भ्रष्ट और नाकारा हैं. पहले ही दिन बोल चुका है कि जिले की क्राइम वगैरह से तो वह बाद में निपटेगा, पहले अपना विभाग दुरुस्त करेगा. फरमान यह भी जारी कर चुका है कि साढ़े दस बजे से ड्यूटी शुरू होती है तो इसका सीधा मतलब यही कि साढ़े दस बजे से काम शुरू हो जाना चाहिए. इसके लिए कितने बजे दफ्तर में घुसना है, यह तय कर लीजिये. हमींलोग तो सबसे ज्यादा असहाय हैं न! खुद तय किया गया कि दस से सवा दस बजे तक सभी लोग दफ्तर में घुस जायें. वह तो नौ-साढ़े नौ बजे से ही आकर कुर्सी पकड़ लेता है. दो-तीन दिन तो ऐसा ही चला कि वह घड़ी देखकर एकदम सटीक साढ़े दस बजे आकर यहां साक्षात खड़ा हो जाये. पहले दिन केवल मैं ही साढ़े दस बजे यहां पहुंचा था. वह कुछ खास नहीं बोला लेकिन यह जरूर कह गया कि सिस्टम को एक-दो दिन में ठीक कर लीजिये नहीं तो मैं कड़ा कदम उठा लूंगा. देश में बहुत बेरोजगारी है, लापरवाह और बेईमान लोग चलें जायें तो कुछ नये लोगों को मौका मिल सकेगा.”

“अरे वाह! यह भी कोई बात हुई भला! साढ़े दस बजे तो दफ्तर में घुसने का समय है न. इससे पहले क्यों आयेगा कोई.”

“लाल बाबू! यह समय रेर करने का नहीं है. जैसे भी हो अपनी नौकरी को बचाने का प्रयास करना है, बस! आपको मैं क्या बताऊं! मेरी नौकरी का यह पैंतीसवां साल है, मेरे साथ पहले ही दिन इस आदमी ने जैसा व्यवहार किया ऐसा कभी किसी अफसर ने किसी सहयोगी के साथ नहीं किया होगा.”बड़ा बाबू की आंखों में आंसू आ गये थे.

“क्या बड़ा बाबू?”लाल बाबू सन्न थे. आवाज में भय के कण.

“चार्ज हो जाने के बाद पहला बुलावा मेरा ही आया. गया. चेम्बर में घुसते ही मैंने हंसते हुए हाथ जोड़कर नमस्कार किया और बधाई दी तो वह आगबबूला! चिल्लाने लगा. बोला- ‘आप मेरे कोई दोस्त-मित्र हैं क्या! इस तरह क्यों बधाई बरसाने आ गये! मैं यह सब हरकत पसंद नहीं करता! इससे मैं आपको बहुत काबिल नहीं मान लूंगा. मुझे आपसे बधाई और धन्यवाद वगैरह नहीं, सिर्फ और सिर्फ काम चाहिए! कायदे से काम करिये. आज से कोई भी गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए!’

मैंने ठिसियाकर बैठते हुए फिर हाथ जोड़ा तो फिर बिगड़ गया- ‘उठिये, यहां बैठने के लिए आपको किसने कह दिया! यह आपके बैठने की नहीं बल्कि पब्लिक की जगह है! जो संक्षेप कह रहा हूं इसे विस्तार में समझ लीजिये!’ मैं हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ... उसने उंगली दिखाकर पूछा- ‘यह आप माथे पर त्रिपुंड क्यों लगाये हुए हैं? बहुत पापाचार करते हैं क्या? इतनी पूजा तो किसी कर्मठ व्यक्ति को न करने की फुर्सत होती है न जरुरत! ’ मैं तो सन्न रह गया. कभी सोचा भी नहीं था कि कोई मुझे इस तरह बोल देगा! वह आगे बोले जा रहा था- ‘ प्रेम और पूजा-पाठ तो नितांत व्यक्तिगत और एकांत की क्रिया है. प्रेम क्या चौराहे पर किया जा सकता है. साधना तो जंगल-पहाड़ों की वीरानी और गुफा-कंदराओं के गहन अंधेरे में ही होती भी रही है. चकाचौंध और प्रदर्शन भाव से सर्वथा मुक्त! और, ऐसा त्रिपुंड या तो यजमानों को आस्था में अंधा बनाने के लिए पूजा-पाठी पंडित लगाते हैं या समाज की आंख में धूल झोंकने के लिए पापी! आप यहां नौकरी करने आये हैं या पूजा-पाठ करने-कराने? जिस दिन आपका मन ऐसा धार्मिक होने लगे, उस दिन सीएल ले लिया करिये! यह सब नाटक-नौटंकी यहां नहीं चलेगी. इस तरह दफ्तर आने की जरुरत नहीं. जाइये! ’ मैं तो जैसे बेजान हो चुका था. उसके चेम्बर से निकलकर यहां आते हुए लगा कि मैं एक फुटबॉल हूं और जोरदार शॉट खाकर हवा में उधिया रहा हूं! आकर यहां अपनी इस चेयर पर धब्ब से गिरा. देर तक माथा चाक की तरह घूमता रहा. लग रहा था जैसे किसी ने भरी सभा में थप्पड़ मारा हो.”

“अरे बाप रे बाप! तब तो यह आदमी एकदम खब्तुलहवास है! आपने धार्मिक भावना और आस्था पर चोट करने की इस हरकत का विरोध नहीं किया? यह तो बहुत गलत बात है.”

“अरे कुछ मत कहिये! मैं तो ...”

बड़ा बाबू सामने आते साहब के चपरासी को देख चुप हो गये. पास आते ही वह लाल बाबू से मुखातिब हो गया,”साहब आपको काफी देर से खोज रहे हैं! मैं दो बार आपकी सीट से लौट चुका हूं. पहले तो बताया कि लाल बाबू आ गये हैं लेकिन बाथरूम गये हैं. दूसरी बार आप नहीं मिले तो मेरे लौटते ही कुछ बताने से पहले साहब ने ही कहा कि देखो कहीं किसी के कमरे में बैठा गप्प तो नहीं लड़ा रहा! चलिये, चलिये! तुरंत चलिये!”वह अपनापन दिखाते हुए अपनी विवशता का भी अहसास करा रहा था.

हड़बड़ाकर खड़े हो गये लाल बाबू. बड़ा बाबू ने चपरासी को सुनाकर कहा,”आप साहब से मिलकर आइये तो फिर आगे डिस्कसन करूंगा! तो सारा काम ऐसे ही बहुत मुस्तैदी और समय से पूरा करना है....”

लाल बाबू ने बड़ा बाबू का संकेत समझते हुए भी खुद को बहुत घने तनाव में उलझते पाया. अपना ही सीना जैसे सीधे कान के पास चला आया हो, जोर-जोर धड़कता हुआ. धमनियों में रक्त की बेचैन दौड़ जैसे साफ-साफ सुनाई पड़ने लगी हो! वे तेज कदमों से लपके. चपरासी पीछे-पीछे. साहब के चेम्बर में घुसने से पहले कलेजा एक बार धक्क करके रह गया. घुसते ही उन्होंने सामान्य रूप से नमस्ते की. कुछ करीब जाकर खड़े हो गये.

साहब ने पूछा,”तुम्हीं सत्य प्रकाश लाल हो न!”

“जी सर!”

“तुम घर से ऐसे ही चल देते हो ? घर में बाथरूम वगैरह नहीं बनवाया है क्या! यहां आते-आते शुरू हो जाते हो?”आवाज में सख्ती थी.

“साहब, मैं बाथरूम में नहीं बड़ा बाबू के कक्ष में था. उन्होंने बुलवाया था...”

“बड़ा बाबू ने आते ही तुमको बुलवा लिया! क्यों?”

“काम समझाने के लिए!”

“तो तुमको अभी भी समझाया जाता है तब काम समझते हो?”

“नहीं, साहब! मैं छुट्टी पर गया था न!” “हां, हां! तभी तो मैं अब तक तुम्हें देख नहीं सका था. बैठ जाओ.”

लाल बाबू बैठने लगे तो यह समझ में नहीं आ रहा था कि यहां जब बड़ा बाबू को बैठे से उठा दिया गया है तो फिर उन्हें भला क्यों बिठाया जा रहा है! एसपी ने आगे पूछा,”सुना है तुम पत्र-पत्रिकाओं में कुछ लिखते रहते हो...”

“थोड़ा-बहुत!”लाल बाबू चकराये, यह सब इसे किसने बता दिया! पता नहीं इसे किस रूप में ग्रहण करे! एक बार पुलिस के बारे में लिखे एक व्यंग्य पर उस समय का एसपी काफी कड़वा अनुभव दे चुका है, जिसके बाद वे अपनी ओर से कभी नहीं चाहते कि उनकी इन गतिविधियों की जानकारी अफसरों को मिले.

“क्या लिखते हो?”

“कहानी और व्यंग्य!”

“यानी रूलाने और हंसाने वाली चीजें!”

“जी, हां! बीस साल से लिख-छप रहा हूं लेकिन कोई किताब अभी नहीं छप सकी है!”उन्हें लगा कि तारीफ मिलने वाली है इसलिए प्रसन्न भाव से बोले.

“क्या वाहियात काम है! तुम तो खुद पुलिस विभाग में हो. जानते ही होगे कि रूलाने के लिए बाकायदा आंसू गैस उपलब्ध है जबकि हंसने-हंसाने के लिए भी लाफिंग गैस मिल जाती है. ऐसे में इसी काम के लिए कागज काला करने की क्या जरुरत! यह कभी मत भूलो कि कागज बहुत कीमती चीज है. अपने बिक्री मूल्य से तो हजारों-लाखों गुणा ज्यादा. सोचो, धरती का हरा-भरा सुहाग नोंचकर बनाया जाता है कागज! इसके एक-एक सफे का आक्सीजन की तरह इस्तेमाल होना चाहिए! ...और तुमलोग हो कि हंसाने और रूलाने के लिए कागज बर्बाद करने में जुटे हो!”

लगा जैसे किसी ने जोरदार चांटा रसीद कर दिया हो. गाल पर चोट भी महसूस हुई. लाल बाबू ने खुजलाने के बहाने गाल को सहलाना शुरू किया. वह आगे बोले जा रहा था,”ऐसे बेकार लेखन से क्या होगा! यों भी दुनिया की ज्यादातर बेस्ट सेलर किताबें वैचारिक हैं या रिसर्च की हद तक जाकर मिहनत से लिखे गये उपन्यास. सटायर जैसी नॉनसीरियस चीजें तो कत्तई नहीं!”

लाल बाबू को लग गया था कि यह आदमी बहुत टेढ़ा है लगातार खरी-खोटी ही सुनायेगा. ऐसे अवसरों पर उन्हें अपनी एक जबरदस्त कमजोरी का पूरा अहसास था. लेखकीय मामलों में किसी अलेखक की प्रतिकूल टिप्पणियां वे देर तक बर्दाश्त नहीं कर पाते और स्वयं पर से नियंत्रण खो देते हैं. ऐसे में कब मुंह से धाराप्रवाह गालियां फूट पड़ेंगी, वे नही जानते. यहां अगर ऐसी कोई भूल हो गयी तो सीधे नौकरी से ही हाथ धोना पड़ जायेगा. तब, घर कैसे चलेगा! बच्चे क्या खायेंगे? यह बात ध्यान में आते ही वे उठने लगे. इसे देख एसपी आगे बोले,”बैठो! मैं तुम से यों ही बात कर रहा हूं...”

यह भी लगा कि यह जल्दी पिण्ड छोड़ने वाला नहीं! एक संदेह यह भी हुआ कि कहीं यह स्वयं कवि टाइप का जीव तो नहीं. गोल-गोल बतियाता हुआ अचानक कहीं कुछ सुनाने न लग जाये! उन्हें शुरू से कविता के नाम से ही चक्कर आने लगता है और माथा बथने लगता है. उसकी बात जारी थी,”विचारशून्य अनर्गल लेखन से तो अच्छा है कि एक-दो अनाथ गरीब बच्चों को साथ रख लो और उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाने में योगदान करो. साहित्य की कीमती दुनिया में दो-चार फालतू किताबें बढ़ाने-लादने से कई गुणा ज्यादा बड़ा होगा यह योगदान! एक बात बताओ...”

लाल बाबू का दिमाग जैसे लाल मिर्चे के स्पर्श से भकभकाने लगा हो. भीतर-भीतर गुस्सा ट्यूब में हवा की तरह सांय-सांय भर रहा था. उन्होंने सप्रयास खुद को सामान्य बनाये रखते हुए पूछा,”क्या सर!”

“तुम आफिस में काम ठीक से करते हो या यहां भी यही सब करने-धरने में समय बर्बाद करते हो?”

एकदम जैसे किसी ने जले पर नमक रख दिया हो. एक तो यह व्यक्ति पूरे लेखन-कर्म को ही नकार रहा है दूसरे अब यह संदेह भी कि मैं यही सब तो नहीं करता रह जाता हूं. बहुत बुरा लगा. कुछ पल मुंह ताकते रहे फिर खुद को सहज करते हुए बोले”आप मेरी वर्किंग के बारे में मेरे इंचार्ज से रिपोर्ट ले लीजिये सर! मैं बहुत निष्ठा के साथ काम करता हूं.”अब और सहना मुश्किल हो रहा था. उठ खड़े हुए लाल बाबू. हाथ जोड़कर आगे बोले,”सर, मैं कोई बहुत बड़ा लेखक तो हूं नहीं! वैसे भी मेरे पास समय कहां बचता है. मुझे चलने दीजिये.”

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