गुड़िया भीतर गुड़िया / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 1
काहे री नलिनी तू कुम्हलानी
‘‘ ‘मिसेज शर्मा’ एक छलाँग में मॉडर्न बन गई।’’ मार्च, सन् 1972 का वह वाक्य मेरे उस रजिस्टर में दर्ज रहा, जिसमें मैं जब न तब कविता के नाम पर तुकबन्दियाँ कर लेती थी। यह भी तभी नोट किया-पुरुषस्य भाग्यं, त्रियाचरित्रं .....किमऽपि न जानाति....अर्थात पुरुष के भाग्य और स्त्री के चरित्र को कोई नहीं जान सकता।
‘‘तुम अब मॉडर्न से ज्यादा मॉडर्न।’’ डॉ. साहब कह रहे थे।
मैं देख रही थी कि वे ऐसे मिजाज में घर लौटे हैं, जैसे किसी जुए में बुरी तरह हारे हो। यों तो मुझे उनके डिपार्टमेंट से लौटते हुए घर में आने पर गम्भीरतम चेहरे का सामना करने की आदत है। मैं ही क्या, घर में उनके पिता, बड़े भाई, छोटे भाई तक उनके शान्त मिजाज से आक्रान्त रहते हैं। मैं अक्सर एकान्त और मधुर क्षणों की खोज में रहती हूँ ताकि अपनी बात प्यार से कह सकूँ- ऐसी विकट मुद्रा स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं तुम खूब जानते हो। मैं तो तुम्हारा बन्द-बन्द व्यक्तित्व इसलिए झेलती रहती हूं क्योंकि तुम्हारी पत्नी हूं। कहते हैं कि पत्नी से बड़ा ‘शॉक एब्ज़ॉर्बर’ कोई नहीं होता। नौकर भी नहीं, नौकर छोड़कर भाग सकता है। भाई और पिता...मुझे अजीब लगता है।
‘‘ ए ..... क्या हो गया ऐसा कि मैं मॉडर्न मान ली गई ? मेरे ख्याल में आज तुम्हारे लिए बड़ी खुशी का दिन है। तुम भी यही चाहते थे।’’ ‘‘मुझे सीख दे रहे हो !’’ वे मुस्कराहट कटखनी-सी। और छोटी-छोटी आँखों में उग आए बड़े-बड़े नुकीले नेजे।
मैं घबरा गई कुछ गलत कह दिया मैंने ? बकबक भी ज्यादा करती हूँ। क्या जरूरत थी कि कह डाला-जो खुलकर हँसता है, उसे खुदा की जरूरत नहीं। वह अपना मजहब जानता है। किताब में लिखे की यादें मेरा नाश करती हैं। पति क्या गलत करते हैं, मामा भी तो इसी मनोदशा में घर आते थे। नानी, मौसी और मामी भय के मारे सावधान की मुद्रा में खड़ी हो जातीं। कोशिश किसी काम में लग जातीं। फसल उगाकर खिलाने वाले मामा पर आश्रित लोग,....उनके ताबेदार ऐसी और इस तरह वफादारी न निभाएँ तो क्या करें ? मामा फिर दो चार फटकार किसी-किसी को लगा ही देते और सनसनाते चेहरे से दरोदीवार को देखते। तब नानी पास आने का खतरा उठातीं, क्योंकि माँ पर हाथ उठाना मुश्किल था। माँ चिरौरी करे, पत्नी थाली परोसकर लाए, बहन पानी का लोटा भरे खडी़ हो जाए, तब मामा सामने आएँ। रोटी-सब्जी, दही-आचार में मीनमेख निकालते हुए भोजन करें।
मैं जानती हूं, परिवारों में पुरुषों का यह रवैया सामान्य है। यदि खाने में नमक-मिर्च की कमी दिखे या ज्यादा लगे तो थाली उठाकर मोरी की ओर फेंकी जा सकती है। घर की स्त्रियां इस बात को अपने सामान्य डर के रूप में लेंती, क्योकि लगभग घर-घर मे ऐसे डर बनाएँ रहने का चलन है। मगर स्त्रियों की छाती में थालियाँ झनझनाती हैं।
अब तक मैं भी इसी सामान्य व्यवहार रूपी डर से जुड़ी रही हूँ। इस दौरान न मेरी सद्भावना में कमी आ, न समर्पण में। हां, मेरा मन विचलित हो जाता था। मैं अपनी बच्चियों में रमने की कोशिश करती थी। इसके शिवा और क्या करूँ ? जिन्दगी के लिए मैं जिस उल्लास को जरूरी मानती रही हूँ और जिन्हें मुझे बचाकर रखना था, उनके लिए मैं पति का मुँह देखती थी।
माताजी अजीब-सी निगाहों से मुझे देखा करतीं। एकाध बार इशारे से कहा भी मैंने कब सोचा था तू ऐसी लियाकत वाली हो जाएगी ? मोठ (झासी) में तो तूने मुझे और गौर को डरा ही दिया था, प्रिंसीपल से भिड़ गई। गौरा ने कहा था- ठीक सोचती हो तुम, तुम्हारी बेटी ब्याह नहीं निभा पाएगी। पर लाली, तूने गौरा की बात झूठी कर दी।
अब डाक्टर साहब कुर्ता-पायजामा (सिने स्टार राजेश खन्ना स्टाइल) पहन चुके थे और मैं टेबिल पर खाना लगा चुकी।
‘‘आ जाओं ।’’
‘‘.... ...’’
‘‘अरे !’’ कहकर मैं कमरे में आ गई। देखा पतिदेव बच्ची के बराबर में पलंग पर लेटे हैं। आँखों पर उल्टी हथेली धरे हुए। सिर्फ नाक दिख रही है।
‘‘खाना नहीं खाना ?’’
‘‘सिर में दर्द है।’’
‘‘तो गोली खा लो। पानी लाती हूँ। क्या पता दर्द भूख के मारे ही हो रहा हो। तुम नाश्ता भी तो भागते-भागते ही करते हो। तुम्हारी भी क्या गलती, सबेरे से डॉ. सिद्धार्थ जो आकर सुर पर सवार हो जाते हैं। बस यहीं खुल जाता है तुम्हारा डिमार्टमेंट। वहाँ सारी पॉलिटिक्स। ऊपर से यह कि अपने हिस्से का उन्हीं को खिला देते हो। तुम्हारी यही आदत नहीं जाती। अलीगढ़ में डॉ. ग़ानिम और डॉ. वाय.शर्मा चले आते थे। उनकी खातिरदारी करते हुए कभी सोचा कि बीबी पर कितनी मेहनत कस दी ? मेरा खयाल तो न सही, अपना ख्याल तो करे आदमी।...
‘‘अब चुप भी रहोगी कि बकवास ?’’ आवाज के वेग मे धक्का-सा आया। मैंने यकायक पलट कर देखा जैसे सोते से जागी हूँ। वे मुझे घूरकर देख रहे थे। नजरें बेरहमी से मेरे वजूद को कोंचती हुई और धरा के धैर्य सी सर्द स्त्री। दर्द और आसमान से कांपने लगी धीरे –धीरे।
खड़ी रही कि अड़ी रही आमने-सामने मगर....
आगे बढ़ी, अपनी सामर्थ्य बढ़ाई ..... उनके सिर पर हाथ रख दिया। हाथ भी कांपने लगा। लटपटाती जुबान से पूछा, ‘‘दर्द-वर्द है या कोई शिकायत ? नाराजगी ? मूड खराब किसने किया ?’’ मैंने अपने होठ झुका दिये उनके बालों पर।
मेरी ओर सिर उठाकर गौर से देखने लगे, जैसे पहचान रहे हों।
‘‘मुश्किल है मेरी, बड़ी मुश्किल। सारे दिन तुम्हारी खुशी के बारे में सोचूँ। स्वाद के लिए खाना बनाओ। सेहत का ख्याल रखो। पर्सनैलिटी सजे कपड़ो सजाओं। यह सब कुछ आसान है लेकिन लटकाकर आओ तो खुश कैसे करूँ आलीजाह को ?’’
वे देखते रहे मैं भीतर ही भीतर डरती रही, जितना बता रही हूँ क्या उतना करती हूँ ?
मैं मुस्करा पड़ी। वे कुछ नरम हुए।
‘‘मेरी जान, इसी अदा पर शायद मरने लगे हैं लोग ।’’
‘‘लोग !’’
‘‘कौन लोग ?’’
‘‘रहने दो। क्या करोगी पूछकर ? वैसे तुम इतनी भोली नहीं, जितना मैं समझता था। जानती हो कुछ-कुछ। बहुत कुछ। सब कुछ।
‘‘जानती होती तो पूछती ? और भोला कौन होता है, सिवा बच्चे के ?’’ ‘‘चलो न सही मालूम। तुम्हारे पांव तो खुल गये दिल्ली आकर। यह फायदा क्या कम है ?’’ उन्होंने कराहते से स्वर में कहा और नजरें फेर लीं।
‘‘फायदा है तो घर को कोपभवन क्यों बना रहे हो ?’’ कहती हुई मैं उनकी बाँहें झटके से छोड़ती हुई झटके से बाहर निकल गई। रसोई में दाल-सब्जी धीमी गैस पर गर्म हो रही थी, मैंने बन्द कर दी। कौन खाएगा अब खाना। इन्हें गेरू घोलने (कलह खींचने) की बुरी आदत है।
दूसरे कमरे में जा लेटी। मगर लगे कि यहाँ से वहाँ तक तवान का सूत्र ऐसे तना है, जैसे बिजली का नंगा तार हो। छूते ही झटका लगेगा। पर छूना ही किसलिए ? झटका खाना हमारी ड्यूटी में शामिल हो तो भी हम नहीं छूएंगे। आदमी हैं हम, पशु तो नहीं।
वे तैयार होकर इसी कमरे में आ गए। मेरे नजदीक।
‘‘किवाड़ें बन्द कर लेना मैं जा रहा हूँ।’’
‘‘जाओं।’’
वे निकल गए। मैं दस मिनट बाद उठी और द्वार बन्द करने पहुँची। देखकर चौंक गई, वे बाहर वाले बरामदे में खडे़ थे।
‘‘अरे गए नहीं ?’’
‘‘किस मुँह से जाऊँ ? तुमने छोड़ा है जाने लायक ?’’
‘‘बात क्या है ?’’ मैंने गम्भीर होकर पूछा, रिरियाकर नहीं।
‘‘क्यों मेरे मुँह से कहलवा रही हो ?’’
‘‘अरे यह भी कोई बात हुई ? मैं अन्तर्यामी हूँ क्या ?’’
तो चलों सुन लो।’’ वे सख्ती से मेरी बाँह पकड़कर भीतर आ गए।
सुनो कि लोग कह रहे हैं, मिसेज शर्मा को डॉ. शर्मा नहीं भा रहे। लोग कह रहे हैं, मिसेज शर्मा को डॉ. सिद्धार्थ डुगडुगी की तरह नचा .....’’
‘‘डुगडुगी ?’’
‘‘हाँ, डुगडुगी। वह तुम्हारी कमर में हाथ डालकर मनमाने तौर से नचा नहीं रहा था ?’’