गुड़िया भीतर गुड़िया / मैत्रेयी पुष्पा / समीक्षा
समीक्षा:मनोज कुमार
पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ >> |
मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा के दूसरे खंड “गुड़िया भीतर गुड़िया” में लेखिका पुरुष वर्चस्व, पुरुष के स्त्री विरोधी विचार, घर परिवार और दाम्पत्य के अन्यायों को न सिर्फ़ दर्ज करती नज़र आती हैं बल्कि अपने तरीक़े से किए मुख़ालफ़त का वर्णन किया है। विवाहित लेखिका कहती हैं कि उन्होंने विवाह इसलिए किया कि एक पुरुष साथी मिलने से उन्हें सुरक्षा का वातावरण मिलेगा, “विवाह स्त्री की युवा उम्र को सुरक्षा देता है”। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें विवाह-संस्था से विरक्ति होने लगती है। उन्होंने क़लम थाम ली। लिखकर उन्होंने पाया कि वे तथाकथित सामाजिक व्यवस्था से ख़ुद को मुक्त कर रही हैं।
इस पुस्तक में मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी किशोरावस्था, वैवाहिक जीवन और लेखक बनने की कथा लिखी है। बचपन में ही प्रेम किया। प्रेम से उल्लासित हुईं। प्रेम का दुख भी झेला और बेवफाई का दर्द सहा। जब पढ़ने के लिए गुरुकुल गईं, तो वहां उन्होंने देखा कि पढ़नेवाले लड़कों से कई-कई गुना खतरनाक शिक्षक और प्रिंसिपल थे। वे पीएचडी करना चाहती थीं, पर कर न पाईं। हर नाजायज तरीके से इसे रोक दिया गया।
पति के मित्र डॉ. सिद्धार्थ से उनका खुल कर मिलना पति डॉ. शर्मा को सहन नहीं होता और वह कहता है,
“तुम्हारी अदा पर लोग मरने लगे हैं।” या फिर “तुम इतनी भोली नहीं जितना मैं समझता था।”
इसी प्रसंग पर जब बात आगे बढ़ती है तो पति के रूखेपन की वजह भी सामने आती है,
“तुमने छोड़ा है मुझे कहीं जाने लायक़? लोग कह रहे हैं मिसेज शर्मा को डॉ. शर्मा नहीं भा रहे। … मिसेज शर्मा को डॉ. सिद्धार्थ डुगडुगी की तरह नचा रहा है।”
इस शक का मूल यह है कि एक पार्टी में पुष्पा डॉ. सिद्धार्थ के साथ नाचती हैं। पति को यह गंवारा नहीं। अपनी स्थिति का खुलासा करते हुए लेखिका बताती हैं ..
“डॉ. सिद्धार्थ मेरे प्रेमी नहीं, पति के दोस्त रहे हैं। शादी के बाद मुझे मेरे हिसाब से कारावास मिला है, जिसके लौह कपाट मैं तभी से तोड़ने में लगी हूं और देखना चाहती हूं कि इस दुनिया के अलावा भी कोई दुनिया है? पति के अलावा कितने लोग बाहर हैं? … सिद्धार्थ ने मेरे भावत्मक खालीपन में प्रवेश किया। लोग मानें उसे लम्पट, समझते रहें आशिक़। मुझे हीन भावनाओं के गर्त से बाहर खींचने वाला चरित्रहीन कैसे हुआ? … मैं नाच के लिए नहीं उठी थी, अपने हक़ों के लिए खड़ी हुई थी जिनसे मेरी ज़िन्दगी के सम्मान का वस्ता था।”
आत्मकथा में मैत्रेयी नयी परम्पराओं की मांग भी करती है। वह स्त्री की स्वाधीनताओं की रक्षा की बात उठाती है। भाग्य के सहारे सबकुछ छोड़ देने को वह उचित नहीं मानतीं। कहती हैं,
“जो लोग भाग्य को ही जीवन के लिए निर्णायक मान लेते हैं, उन्नति-प्रगति के रास्ते बनाएं या नहीं बनाएं, शांति की खोज कर लेते हैं। मेरे जीवन में सब कुछ उजाड़ तो नहीं हो गया। कुछ इसी तरह मैंने अपने मन पर नियन्त्रण के यकीन की कमज़ोर होती बुनियाद को फिर से भरकर मज़बूत किया।”
इस आत्मकथा के माध्यम से मैत्रेयी ने विवाह संस्था के औचित्य और सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किए हैं। स्त्री जीवन में शादी एक महत्वपूर्ण परिवर्तन लेकर आती है। शादी के बाद औरतें भूल जाती हैं अपना नाम, कुल, गोत्र और जाति। लेखिका अपनी बेटी से कहती हैं
“मैं मिसेज शर्मा के सिवा क्या हूं? तेरे पिता की पत्नी...न औरत हूं न मनुष्य, केवल पत्नी, इसी रूप में तेरे पिता के परिवार में शामिल हूं। इस तरह धीरे धीरे उनके वजूद पर डॉ. शर्मा की पत्नी हावी होती गयी और वह कमजोर हो गयीं।
लेखिका का कहना है औरतें केवल शरीर रूप में होती हैं, पुरुषों की सेवा सुविधा के लिए श्रम करती हैं और उनसे अपेक्षा की जाती है कि पुत्रवती होकर वंशबेल बढ़ायें...। एक के बाद एक तीन लड़कियों को जन्म दिया, तो उनकी वही गति हुई जो आम तौर पर ऐसी स्त्रियों की होती है।
“जब मैंने लगातार दो पुत्रियों को जन्म दिया तो घर के भीतर बाहर सब जगह से इतना दबाव मुझे मिला इतनी मानसिक पीड़ा मिलने लगी कि मैं उससे बचने के लिए व्रत और पूजा पाठ करने लगी। ये एक औरत पर पड़ने वाली सामाजिक दबाव का ही नतीजा था।” घर में वंश चलाने के लिए बेटा जो चाहिए।
लेखिका ने इस पुस्तक के माध्यम से यह बताने की चेष्टा की है कि स्त्री को घर भी चाहिए और परिवार भी। कहती हैं,
“हमारी जिन्दगी की बागडोर तो उस घर की चौखट से बंधी है, जिसमें हम स्त्री की तरह पनाह पाये हुए हैं।”
वे घर-परिवार का विरोध नहीं करतीं। उनका स्त्रीवाद घर-परिवार संरचनाओं का विरोधी नहीं है। वे तो बस परिवर्तन चाहती हैं। वे पुरुष सत्तात्मक समाज में जो स्त्रियों की दयनीय स्थिति है उस को नकारती हैं। पर वे किसी भरोसेमंद जीवन साथी के रूप में पति को पाना भी चाहती हैं। अपने पति से लाख असहमति रहते हुए भी उसे अपने दुश्मन के रूप में चित्रित नहीं करतीं। लिखती हैं,
“मैं अपने पति के अलावा किसी से नहीं डरती।” समाज के स्त्री विरोधी रवैये पर सवाल उठाती हैं, “महीने, साल और ऋतुएं बदलते हैं, रिवाजें नहीं बदलतीं”। वे परिवार तो चाहती हैं किन्तु एक ऐसा परिवार जहां सब बराबर हों, जिसमें स्त्री एक गुलाम और दासी न मानी जाय, उसका स्वतंत्र वुजूद हो।
उनकी बेटियों, नम्रता और मोहिता, ने लिखने की प्रेरणा दी। लेकिन लेखन के क्षेत्र में भी उनके अनुभव कोई सुखद न रहे। संपादकों की यौन तृष्णाओं का नंगापन देख कर उन्हें वितृष्णा होने लगी। हर किसी को उनमें दिलचस्पी अधिक थी उनकी कहानियों में कम। पत्र-पत्रिकाओं या अखबारों के दफ्तरों में उनको जिन स्थितियों से गुज़रना पड़ा उनके मन में वितृष्णा के भाव पैदा कर गए।
“टेबुल के उस तरफ बैठा आदमी एक सधे हुए शिकारी की तरह शुरू हो जाता है। कविता कहानी से कहीं अधिक वह लिखने वालियों को तौलता और नापता है।”
जब लेखिका पति डॉ. शर्मा के बहाने पुरुष मानस और सत्ता की उन मिथ्या प्रतिष्ठाओं से हमारा सामना कराती है तो यह पुस्तक हमारे मानस को झकझोरती है। आत्मकथा में लेखिका ने बेबाक वर्णनों से प्रमाणित किया है कि वे साहसी और बेखौफ हैं, उनमें सच कहने की हिम्मत है। तभी तो डा. सिद्धार्थ और राजेन्द्र यादव के साथ अपने सम्बन्धों को बेबाकी के साथ स्वीकार किया है। अपने पति के उन मानसिक हालातों का भी स्पष्टता से चित्रण किया है जो अपनी पत्नी की सफलताओं पर गर्व और यश को लेकर उल्लसित तो हैं मगर उसके सम्पर्कों को लेकर हमेशा सशंकित रहता है।
राजेंद्र यादव जो 'हंस' के संपादक थे, ने शुरू-शुरू में तो उनकी उपेक्षा की। बाद में उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा के लेखन को विकसित करने में काफ़ी सहयोग दिया। घर में आना-जाना बढ़ा तो पति डॉक्टर साहब इस व्यक्ति की पत्नी मैत्रेयी के साथ बढ़ती हुए नज़दीकियों पर ताने कसते रहे। कुछ आलोचकों ने कहा कि इस पुस्तक में लेखिका ने राजेंद्र यादव प्रसंग में जितना बताया है, उससे अधिक छिपाया है। खैर जो भी हो तनाव पति-पत्नी में था।
डॉक्टर साहब पूछते हैं -- 'कसम खाती हो, उनसे तुम्हारा यही रिश्ता है?'
मैत्रेयी का जवाब है -- 'गंगाजली उठाऊं और कोई विश्वास भी करे, ऐसी मुझे दरकार नहीं।'
राजेंद्र यादव ने मैत्रेयी से अपने संबंध को सखा-सखी भाव की संज्ञा दी है जैसे कृष्ण और द्रौपदी!
जब यह पुस्तक बाज़ार में आई थी, तो इसे तरह-तरह के विशेषण और संज्ञायों से नवाजा गया था – जैसे अंतरंग प्रसंगों की भरमार, बेबाक लेखन शैली की मिसाल, विवाहिता होते हुए तनी डोरी पर चलने का काम, मैत्रेयी का एक और धमाका, लक्षमण रेखा को लांघने का खतरा, आदि-आदि।
एक प्रसंग से साथ आज के पुस्तक परिचय को विराम देना चाहूंगा। राजेन्द्र यादव बीमार हुए। डॉक्टर साहब उन्हें एम्स लेकर दौड़ रहे हैं। एक फोन कॉल आता है।
“डॉक्टरनी!”
“हां!”
ऑपरेशन होने जा रहा है।”
“आप घबरा रहे हैं!”
“नहीं! लेकिन यहां ऑपरेशन के लिए अपनी कंसेंट देने वाला कोई नहीं।”
“कोई नहीं? क्यों? मन्नू दी या रचना या दिनेश या कोई और रिश्तेदार?”
“नहीं, कोई नहीं। इसलिए अब यह काम तुमको ही करना होगा।”
“मैं ... मुझे?”
डॉक्टर साहब चौकन्ने हुए। “किस का फोन था?”
मैं चुप!
“क्या बुड्ढा अस्पताल में भी तुम्हें बुला रहा है?”
“मुझे नहीं, तुम्हें बुला रहे हैं राजेन्द्र यादव!”
जो भी हुआ, यही मेरी ज़िन्दगी का रूप है।
इस पुस्तक में मैत्रेयी पुष्पा स्त्री विमर्श को एक नई दिशा देती नज़र आती हैं। उन्होंने जैसा कि आमतौर पर होता है पुरुषों के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने का काम नहीं किया है बल्कि वे यह स्थापित करने का प्रयास करती हैं कि उसे बराबर की हिस्सेदारी मिले, आज़ादी मिले। तभी तो वे कहती हैं, “त्रिया चरित्र कहो तो कह सकते हो। इस पौराणिक शब्द को मैंने गाली नहीं माना, इसे मैं सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट मानती हूं। जिन्दगी को बचा कर रखने का तरीका।” यह एक लोकतांत्रिक मांग है जिसमें स्त्री को सहनागरिक का दर्जा मिल सके।
उपन्यास उद्धरण
हमारा समाज स्त्री को हमेशा से ही सजी संवरी गुड़िया मानता आया है। लेकिन उसके भीतर जो एक और गुड़िया का अस्तित्व होता है, ये आत्मकथा “गुड़िया भीतर गुड़िया” उसी की अभिव्यक्ति है। .. और इसमें लेखिका ने जो ईमानदार आत्म-स्वीकृतियाँ की हैं उनके कारण यह पुस्तक पठनीय है। वैसी ही एक गुड़िया मैत्रेयी पुष्पा के भीतर भी है. वे किसी कार्यक्रम में आमंत्रित की गईं और गेस्ट हाउस में ठहराई गईं . लॉबी में उनके पीछे चल रहे राजेंद्र यादव कहीं ‘बुखार का ताप देखने के लिये उनकी कलाई न पकड़ लें’ इस डर से वे उनसे अधिक बात न बढ़ाकर जल्दी से अपने कमरे में चली गईं. मगर आधी रात को प्यास लगने पर रूमसर्विस से पानी न मंगा कर वे राजेंद्र यादव के कमरे का दरवाजा खटखटाती हैं और दरवाजा छूते समय उन्हें लगता है कि उन्होंने
‘राजेंद्र यादव को छू लिया’. (गुड़िया भीतर गुड़िया, पृ. 315-316 ) उपन्यास पढें >>