गुनाहों का देवता / खंड 1 / पृष्ठ 4 / धर्मवीर भारती

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वह लेटी-लेटी कल रात की बात सोचने लगी। क्लास में क्या मजा आया था कल; गेसू कितनी अच्छी लड़की है! इस वक्त गेसू के यहाँ खाना-पीना हो रहा होगा और फिर सब लोग मिलकर गाएँगे। कौन जाने शायद दोपहर को कव्वाली भी हो। इन लोगों के यहाँ कव्वाली इतनी अच्छी होती है। सुधा सुन नहीं पाएगी और गेसू ने भी कितना बुरा माना होगा। और यह सब चन्दर की वजह से। चन्दर हमेशा उसके आने-जाने, उठने-बैठने में कतर-ब्योंत करता रहता है। एक बार वह अपने मन से लड़कियों के साथ पिकनिक में चली गयी। वहीं चन्दर के बहुत-से दोस्त भी थे। एक दोस्त ने जाकर चन्दर से जाने क्या कह दिया कि चन्दर उस पर बहुत बिगड़ा। और सुधा कितनी रोयी थी उस दिन। यह चन्दर बहुत खराब है। सच पूछो तो अगर कभी-कभी वह सुधा का कहना मान लेता है तो उससे दुगुना सुधा पर रोब जमाता है और सुधा को रुला-रुलाकर मार डालता है। और खुद अपने-आप दुनियाभर में घूमेंगे। अपना काम होगा तो 'चलो सुधा, अभी करो, फौरन।' और सुधा का काम होगा तो-'अरे भाई, क्या करें, भूल गये।' अब आज ही देखो, सुबह आठ बजे आये और अब देखो दो बजे भी जनाब आते हैं या नहीं? और कह गये हैं दो बजे तक के लिए तो दो बजे तक सुधा को चैन नहीं पड़ेगी। न नींद आएगी, न किसी काम में तबीयत लगेगी। लेकिन अब ऐसे काम कैसे चलेगा। इम्तहान को कितने थोड़े दिन रह गये हैं। और सुधा की तबीयत सिवा पोयट्री (कविता) के और कुछ पढऩे में लगती ही नहीं। कब से वह चन्दर से कह रही है थोड़ा-सा इकनामिक्स पढ़ा दो, लेकिन ऐसा स्वार्थी है कि बस चाय पी ली, नानखटाई खा ली, रुला लिया और फिर अपने मस्त साइकिल पर घूम रहे हैं।

यही सब सोचते-सोचते सुधा को नींद आ गयी।

और तीन बजे जब गेसू आयी तो भी सुधा सो रही थी। पलंग के नीचे डी.एम.सी. का गोला खुला हुआ था और तकिये के पास क्रोशिया पड़ी थी। सुधा थी बड़ी प्यारी। बड़ी खूबसूरत। और खासतौर से उसकी पलकें तो अपराजिता के फूलों को मात करती थीं। और थी इतनी गोरी गुदकारी कि कहीं पर दबा दो तो फूल खिल जाए। मूँगिया होंठों पर जाने कैसा अछूता गुलाब मुसकराता था और बाँहें तो जैसे बेले की पाँखुरियों की बनी हों। गेसू आयी। उसके हाथ में मिठाई थी जो उसकी माँ ने सुधा के लिए भेजी थी। वह पल-भर खड़ी रही और फिर उसने मेज पर मिठाई रख दी और क्रोशिया से सुधा की गर्दन गुदगुदाने लगी। सुधा ने करवट बदल ली। गेसू ने नीचे पड़ा हुआ डोरा उठाया और आहिस्ते से उसका चुटीला डोरे के एक छोर से बाँधकर दूसरा छोर मेज के पाये से बाँध दिया। और उसके बाद बोली, “सुधा, सुधा उठो।”

सुधा चौंककर उठ गयी और आँखें मलते-मलते बोली, “अब दो बजे हैं? लाये उन्हें या नहीं?”

“ओहो! उन्हें लाये या नहीं किसे बुलाया था रानी, दो बजे; जरा हमें भी तो मालूम हो?” गेसू ने बाँह में चुटकी काटते हुए पूछा।

“उफ्फोह!” सुधा बाँह झटककर बोली, “मार डाला! बेदर्द कहीं की! ये सब अपने उन्हीं अख्तर मियाँ को दिखाया कर!” और ज्यों ही सुधा ने सिर ढँकने के लिए पल्ला उठाया तो देखा कि चोटी डोर में बँधी हुई है। इसके पहले कि सुधा कुछ कहे, गेसू बोली, “या सनम! जरा पढ़ाई तो देखो, मैंने तो सुना था कि नींद न आये इसलिए लड़के अपनी चोटी खूँटी में बाँध लेते हैं पर यह नहीं मालूम था कि लड़कियाँ भी अब वही करने लगी हैं।”

सुधा ने चोटी से डोर खोलते हुए कहा, “मैं ही सताने को रह गयी हूँ। अख्तर मियाँ की चोटी बाँधकर नचाना उन्हें। अभी से बेताब क्यों हुई जाती है?”

“अरे रानी, उनके चोटी कहाँ? मियाँ हैं मियाँ?”

“चोटी न सही, दाढ़ी सही।”

“दाढ़ी, खुदा खैर करे, मगर वो दाढ़ी रख लें तो मैं उनसे मोहब्बत तोड़ लूँ।”

सुधा हँसने लगी।

“ले, अम्मी ने तेरे लिए मिठाई भेजी है। तू आयी क्यों नहीं?”

“क्या बताऊँ?”

“बताऊँ-वताऊँ कुछ नहीं। अब कब आएगी तू?”

“गेसू, सुनो, इसी मंगल, नहीं-नहीं बृहस्पति को बुआ आ रही हैं। वो चली जाएँगी तब आऊँगी मैं।”

“अच्छा, अब मैं चलूँ। अभी कामिनी और प्रभा के यहाँ मिठाई पहुँचानी है।”

गेसू मुड़ते हुए बोली।

“अरे बैठो भी।” सुधा ने गेसू की ओढऩी पकडक़र उसे खींचकर बिठलाते हुए कहा, “अभी आये हो, बैठे हो, दामन सँभाला है।”

“आहा। अब तो तू भी उर्दू शायरी कहने लगी।” गेसू ने बैठते हुए कहा।

“तेरा ही मर्ज लग गया।” सुधा ने हँसकर कहा।

“देख कहीं और भी मर्ज न लग जाए, वरना फिर तेरे लिए भी इन्तजाम करना होगा!” गेसू ने पलंग पर लेटते हुए कहा।

“अरे ये वो गुड़ नहीं कि चींटे खाएँ।”

“देखूँगी, और देखूँगी क्या, देख रही हूँ। इधर पिछले दो साल से कितनी बदल गयी है तू। पहले कितना हँसती-बोलती थी, कितनी लड़ती-झगड़ती थी और अब कितना हँसने-बोलने पर भी गुमसुम हो गयी है तू। और वैसे हमेशा हँसती रहे चाहे लेकिन जाने किस खयाल में डूबी रहती है हमेशा।” गेसू ने सुधा की ओर देखते हुए कहा।

“धत् पगली कहीं की।” सुधा ने गेसू के एक हल्की-सी चपत मारकर कहा, “यह सब तेरे अपने खयाली-पुलाव हैं। मैं किसी के ध्यान में डूबूँगी, ये हमारे गुरु ने नहीं सिखाया।”

“गुरु तो किसी के नहीं सिखाते सुधा रानी, बिल्कुल सच-सच, क्या कभी तुम्हारे मन में किसी के लिए मोहब्बत नहीं जागी?” गेसू ने बहुत गम्भीरता से पूछा।

“देख गेसू, तुझसे मैंने आज तक तो कभी कुछ नहीं छिपाया, न शायद कभी छिपाऊँगी। अगर कभी कोई बात होती तो तुझसे छिपी न रहती और रहा मुहब्बत का, तो सच पूछ तो मैंने जो कुछ कहानियों में पढ़ा है कि किसी को देखकर मैं रोने लगूँ, गाने लगूँ, पागल हो जाऊँ यह सब कभी मुझे नहीं हुआ। और रहीं कविताएँ तो उनमें की बातें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। कीट्स की कविताएँ पढक़र ऐसा लगा है अक्सर कि मेरी नसों का कतरा-कतरा आँसू बनकर छलकने वाला है। लेकिन वह महज कविता का असर होता है।”

“महज कविता का असर,” गेसू ने पूछा, “कभी किसी खास आदमी के लिए तेरे मन में हँसी या आँसू नहीं उमड़ते! कभी अपने मन को जाँचकर तो देख, कहीं तेरी नाजुक-खयाली के परदे में किसी एक की सूरत तो नहीं छिपी है।”

“नहीं गेसू बानो, नहीं, इसमें मन को जाँचने की क्या बात है। ऐसी बात होती और मन किसी के लिए झुकता तो क्या खुद मुझे नहीं मालूम होता?” सुधा बोली, “लेकिन तुम ऐसा क्यों सोचती हो?”

“बात यह है, सुधी!” गेसू ने सुधा को अपनी गोद में खींचते हुए कहा, “देखो, तुम मुझसे इल्म में ऊँची हो, तुमने अँग्रेजी शायरी छान डाली है लेकिन जिंदगी से जितना मुझे साबिका पड़ चुका है, अभी तुम्हें नहीं पड़ा। अक्सर कब, कहाँ और कैसे मन अपने को हार बैठता है, यह खुद हमें पता नहीं लगता। मालूम तब होता है जब जिसके कदम पर हमने सिर रखा है, वह झटके से अपने कदम घसीट ले। उस वक्त हमारी नींद टूट जाती है और तब हम जाकर देखते हैं कि अरे हमारा सिर तो किसी के कदमों पर रखा हुआ था और उनके सहारे आराम से सोते हुए हम सपना देख रहे थे कि हमारा सिर कहीं झुका ही नहीं। और मुझे जाने तेरी आँखों में इधर क्या दीख रहा है कि मैं बेचैन हो उठी हूँ। तूने कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन मैंने देखा कि नाजुक अशआर तेरे दिल को उस जगह छू लेते हैं जिस जगह उसी को छू सकते हैं जो अपना दिल किसी के कदमों पर चढ़ा चुका हो। और मैं यह नहीं कहती कि तूने मुझसे छिपाया है। कौन जानता है तेरे दिल ने खुद तुझसे यह राज छिपा रखा हो।” और सुधा के गाल थपथपाते हुए गेसू बोली, “लेकिन मेरी एक बात मानेगी तू? तू कभी इस दर्द को मोल न लेना, बहुत तकलीफ होती है।”

सुधा हँसने लगी, “तकलीफ की क्या बात? तू तो है ही। तुझसे पूछ लूँगी उसका इलाज।”

“मुझसे पूछकर क्या कर लेगी-

दर्दे दिल क्या बाँटने की चीज है?

बाँट लें अपने पराये दर्दे दिल?

नहीं, तू बड़ी सुकुवाँर है। तू इन तकलीफों के लिए बनी नहीं मेरी चम्पा!” और गेसू ने उसका सिर अपनी छाती में छिपा लिया।

टन से घड़ी ने साढ़े तीन बजाये।

सुधा ने अपना सिर उठाया और घड़ी की ओर देखकर कहा-

“ओफ्फोह, साढ़े तीन बजे गये और अभी तक गायब!”

“किसके इन्तजार में बेताब है तू?” गेसू ने उठकर पूछा।

“बस दर्दे दिल, मुहब्बत, इन्तजार, बेताबी, तेरे दिमाग में तो यही सब भरा रहता है आज कल, वही तू सबको समझती है। इन्तजार-विन्तजार नहीं, चन्दर अभी मास्टर लेकर आएँगे। अब इम्तहान कितना नजदीक है।”

“हाँ, ये तो सच है और अभी तक मुझसे पूछ, क्या पढ़ाई हुई है। असल बात तो यह है कि कॉलेज में पढ़ाई हो तो घर में पढऩे में मन लगे और राजा कॉलेज में पढ़ाई नहीं होती। इससे अच्छा सीधे यूनिवर्सिटी में बी.ए. करते तो अच्छा था। मेरी तो अम्मी ने कहा कि वहाँ लड़के पढ़ते हैं, वहाँ नहीं भेजूँगी, लेकिन तू क्यों नहीं गयी, सुधा?”

“मुझे भी चन्दर ने मना कर दिया था।” सुधा बोली।

सहसा गेसू ने एक क्षण को सुधा की ओर देखा और कहा, “सुधी, तुझसे एक बात पूछूँ!”

“हाँ!”

“अच्छा जाने दे!”

“पूछो न!”

“नहीं, पूछना क्या, खुद जाहिर है।”

“क्या?”

“कुछ नहीं।”

“पूछो न!”

“अच्छा, फिर कभी पूछ लेंगे! अब देर हो रही है। आधा घंटा हो गया। कोचवान बाहर खड़ा है।”

सुधा गेसू को पहुँचाने बाहर तक आयी।

“कभी हसरत को लेकर आओ।” सुधा बोली।

“अब पहले तुम आओ।” गेसू ने चलते-चलते कहा।

“हाँ, हम तो बिनती को लेकर आएँगे। और हसरत से कह देना तभी उसके लिए तोहफा लाएँगे!”

“अच्छा, सलाम...”

और गेसू की गाड़ी मुश्किल से फाटक के बाहर गयी होगी कि साइकिल पर चन्दर आते हुए दीख पड़ा। सुधा ने बहुत गौर से देखा कि उसके साथ कौन है, मगर वह अकेला था।

सुधा सचमुच झल्ला गयी। आखिर लापरवाही की हद होती है। चन्दर को दुनिया भर के काम याद रहते हैं, एक सुधा से जाने क्या खार खाये बैठा है कि सुधा का काम कभी नहीं करेगा। इस बात पर सुधा कभी-कभी दु:खी हो जाती है और घर में किससे वह कहे काम के लिए। खुद कभी बाजार नहीं जाती। नतीजा यह होता है कि वह छोटी-से-छोटी चीज के लिए मोहताज होकर बैठ जाती है। और काम नौकरों से करवा भी ले, पर अब मास्टर तो नौकर से नहीं ढुँढ़वाया जा सकता? ऊन तो नौकर नहीं पसन्द कर सकता? किताबें तो नौकर नहीं ला सकता? और चन्दर का यह हाल है। इसी बात पर कभी-कभी उसे रुलाई आ जाती है।

चन्दर ने आकर बरामदे में साइकिल रखी और सुधा का चेहरा देखते ही वह समझ गया। “काहे मुँह बना रखा है, पाँच बजे मास्टर साहब आएँगे तुम्हारे। अभी उन्हीं के यहाँ से आ रहे हैं। बिसरिया को जानती हो, वही आएँगे।” और उसके बाद चन्दर सीधा स्टडी-रूम में पहुँच गया। वहाँ जाकर देखा तो आराम-कुर्सी पर बैठे-ही-बैठे डॉ. शुक्ला सो रहे हैं, अत: उसने अपना चार्ट और पेन उठाया और ड्राइंगरूम में आकर चुपचाप काम करने लगा।

बड़ा गम्भीर था वह। जब इंक घोलने के लिए उसने सुधा से पानी नहीं माँगा और खुद गिलास लाकर आँगन में पानी लेने लगा, तब सुधा समझ गयी कि आज दिमाग कुछ बिगड़ा है। वह एकदम तड़प उठी। क्या करे वह! वैसे चाहे वह चन्दर से कितना ही ढीठ क्यों न हो पर चन्दर गुस्सा रहता था तब सुधा की रूह काँप उठती थी। उसकी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह कुछ भी कहे। लेकिन अन्दर-ही-अन्दर वह इतनी परेशान हो उठती थी कि बस।

कई बार वह किसी-न-किसी बहाने से ड्राइंगरूम में आयी, कभी गुलदस्ता बदलने, कभी मेजपोश बदलने, कभी आलमारी में कुछ रखने, कभी आलमारी में से कुछ निकालने, लेकिन चन्दर अपने चार्ट में निगाह गड़ाये रहा। उसने सुधा की ओर देखा तक नहीं। सुधा की आँख में आँसू छलक आये और वह चुपचाप अपने कमरे में चली गयी और लेट गयी। थोड़ी देर वह पड़ी रही, पता नहीं क्यों वह फूट-फूटकर रो पड़ी। खूब रोयी, खूब रोयी और फिर मुँह धोकर आकर पढऩे की कोशिश करने लगी। जब हर अक्षर में उसे चन्दर का उदास चेहरा नजर आने लगा तो उसने किताब बन्द करके रख दी और ड्राइंगरूम में गयी। चन्दर ने चार्ट बनाना भी बन्द कर दिया था और कुरसी पर सिर टेके छत की ओर देखता हुआ जाने क्या सोच रहा था।

वह जाकर सामने बैठ गयी तो चन्दर ने चौंककर सिर उठाया और फिर चार्ट को सामने खिसका लिया। सुधा ने बड़ी हिम्मत करके कहा-

“चन्दर!”

“क्या!” बड़े भर्राये गले से चन्दर बोला।

“इधर देखो!” सुधा ने बहुत दुलार से कहा।

“क्या है!” चन्दर ने उधर देखते हुए कहा, “अरे सुधा! तुम रो क्यों रही हो?”

“हमारी बात पर नाराज हो गये तुम। हम क्या करें, हमारा स्वभाव ही ऐसा हो गया। पता नहीं क्यों तुम पर इतना गुस्सा आ जाता है।” सुधा के गाल पर दो बड़े-बड़े मोती ढलक आये।

“अरे पगली! मालूम होता है तुम्हारा तो दिमाग बहुत जल्दी खराब हो जाएगा, हमने तुमसे कुछ कहा है?”

“कह लेते तो हमें सन्तोष हो जाता। हमने कभी कहा तुमसे कि तुम कहा मत करो। गुस्सा मत हुआ करो। मगर तुम तो फिर गुस्सा मन-ही-मन में छिपाने लगते हो। इसी पर हमें रुलाई आ जाती है।”

“नहीं सुधी, तुम्हारी बात नहीं थी और हम गुस्सा भी नहीं थे। पता नहीं क्यों मन बड़ा भारी-सा था।”

“क्या बात है, अगर बता सको तो बताओ, वरना हम कौन हैं तुमसे पूछने वाले।” सुधा ने बड़़े करुण स्वर में कहा।

“तो तुम्हारा दिमाग खराब हुआ। हमने कभी तुमसे कोई बात छिपायी? जाओ, अच्छी लड़की की तरह मुँह धो आओ।”

सुधा उठी और मुँह धोकर आकर बैठ गयी।

“अब बताओ, क्या बात थी?”

“कोई एक बात हो तो बताएँ। पता नहीं तुम्हारे घर से गये तो एक-न-एक ऐसी बात होती गयी कि मन बड़ा उदास हो गया।”

“आखिर फिर भी कोई बात तो हुई ही होगी!”

“बात यह हुई कि तुम्हारे यहाँ से मैं घर गया खाना खाने। वहाँ देखा चाचाजी आये हुए हैं, उनके साथ एक कोई साहब और हैं। खैर बड़ी खुशी हुई। खाना-वाना खाकर जब बैठे तब मालूम हुआ कि चाचाजी मेरा ब्याह तय करने के लिए आये हैं और साथ वाले साहब मेरे होनेवाले ससुर हैं। जब मैंने इनकार कर दिया तो बहुत बिगडक़र चले गये और बोले हम आज से तुम्हारे लिए मर गये और तुम हमारे लिए मर गये।”

“तुम्हारी माताजी कहाँ हैं?”

“प्रतापगढ़ में, लेकिन वो तो सौतेली हैं और वे तो चाहती ही नहीं कि मैं घर लौटूँ, लेकिन चाचाजी जरूर आज तक मुझसे कुछ मुहब्बत करते थे। आज वह भी नाराज होकर चले गये।”

सुधा कुछ देर तक सोचती रही, फिर बोली, “तो चन्दर, तुम शादी कर क्यों नहीं लेते?”

“नहीं सुधा, शादी नहीं करनी है मुझे। मैंने देखा कि जिसकी शादी हुई, कोई भी सुखी नहीं हुआ। सभी का भविष्य बिगड़ गया। और क्यों एक तवालत पाली जाए? जाने कैसी लड़की हो, क्या हो?”

“तो उसमें क्या? पापा से कहो उस लड़की को जाकर देख लें। हम भी पापा के साथ चले जाएँगे। अच्छी हो तो कर लो न, चन्दर। फिर यहीं रहना। हमें अकेला भी नहीं लगेगा। क्यों?”

“नहीं जी, तुम तो समझती नहीं हो। जिंदगी निभानी है कि कोई गाय-भैंस खरीदना है!” चन्दर ने हँसकर कहा, “आदमी एक-दूसरे को समझे, बूझे, प्यार करे, तब ब्याह के भी कोई माने हैं।”

“तो उसी से कर लो जिससे प्यार करते हो!”

चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया।

“बोलो! चुप क्यों हो गये! अच्छा, तुमने किसी को प्यार किया, चन्दर!”

“क्यों?”

“बताओ न!”

“शायद नहीं!”

“बिल्कुल ठीक, हम भी यही सोच रहे थे अभी।” सुधा बोली।

“क्यों, ये क्यों सोच रही थी?”

“इसलिए कि तुमने किया होता तो तुम हमसे थोड़़े ही छिपाते, हमें जरूर बताते, और नहीं बताया तो हम समझ गये कि अभी तुमने किसी से प्यार नहीं किया।”

“लेकिन तुमने यह पूछा क्यों, सुधा! यह बात तुम्हारे मन में उठी कैसे?”

“कुछ नहीं, अभी गेसू आयी थी। वह बोली-सुधा, तुमने किसी से कभी प्यार किया है, असल में वह अख्तर को प्यार करती है। उससे उसका विवाह होनेवाला है। हाँ, तो उसने पूछा कि तूने किसी से प्यार किया है, हमने कहा, नहीं। बोली, तू अपने से छिपाती है। तो हम मन-ही-मन में सोचते रहे कि तुम आओगे तो तुमसे पूछेंगे कि हमने कभी प्यार तो नहीं किया है। क्योंकि तुम्हीं एक हो जिससे हमारा मन कभी कोई बात नहीं छिपाता, अगर कोई बात छिपाई भी होती हमने, तो तुम्हें जरूर बता देती। फिर हमने सोचा, शायद कभी हमने प्यार किया हो और तुम्हें बताया हो, फिर हम भूल गये हों। अभी उसी दिन देखो, हम पापा की दवाई का नाम भूल गये और तुम्हें याद रहा। शायद हम भूल गये हों और तुम्हें मालूम हो। कभी हमने प्यार तो नहीं किया न?”

“नहीं, हमें तो कभी नहीं बताया।” चन्दर बोला।

“तब तो हमने प्यार-वार नहीं किया। गेसू यूँ ही गप्प उड़ा रही थी।” सुधा ने सन्तोष की साँस लेकर कहा, “लेकिन बस! चाचाजी के नाराज होने पर तुम इतने दु:खी हो गये हो! हो जाने दो नाराज। पापा तो हैं अभी, क्या पापा मुहब्बत नहीं करते तुमसे?”

“सो क्यों नहीं करते, तुमसे ज्यादा मुझसे करते हैं लेकिन उनकी बात से मन तो भारी हो ही गया। उसके बाद गये बिसरिया के यहाँ। बिसरिया ने कुछ बड़ी अच्छी कविताएँ सुनायीं। और भी मन भारी हो गया।” चन्दर ने कहा।

“लो, तब तो चन्दर, तुम प्यार करते होगे! जरूर से?” सुधा ने हाथ पटककर कहा।

“क्यों?”

“गेसू कह रही थी-शायरी पर जो उदास हो जाता है वह जरूर मुहब्बत-वुहब्बत करता है।” सुधा ने कहा, “अरे यह पोर्टिको में कौन है?”

चन्दर ने देखा, “लो बिसरिया आ गया!”

चन्दर उसे बुलाने उठा तो सुधा ने कहा, “अभी बाहर बिठलाना उन्हें, मैं तब तक कमरा ठीक कर लूँ।”

बिसरिया को बाहर बिठाकर चन्दर भीतर आया, अपना चार्ट वगैरह समेटने के लिए, तो सुधा ने कहा, “सुनो!”

चन्दर रुक गया।

सुधा ने पास आकर कहा, “तो अब तो उदास नहीं हो तुम। नहीं चाहते मत करो शादी, इसमें उदास क्या होना। और कविता-वविता पर मुँह बनाकर बैठे तो अच्छी बात नहीं होगी।”

“अच्छा!” चन्दर ने कहा।

“अच्छा-वच्छा नहीं, बताओ, तुम्हें मेरी कसम है, उदास मत हुआ करो फिर हमसे कोई काम नहीं होता।”

“अच्छा, उदास नहीं होंगे, पगली!” चन्दर ने हल्की-सी चपत मारकर कहा और बरबस उसके मुँह से एक ठण्डी साँस निकली। उसने चार्ट उठाकर स्टडी रूम में रखा। देखा डॉक्टर साहब अभी सो ही रहे हैं। सुधा कमरा ठीक कर रही थी। वह आकर बिसरिया के पास बैठ गया।

थोड़ी देर में कमरा ठीक करके सुधा आकर कमरे के दरवाजे पर खड़ी हो गयी। चन्दर ने पूछा-”क्यों, सब ठीक है?”

उसने सिर हिला दिया, कुछ बोली नहीं।

“यही हैं आपकी शिष्या। सुश्री सुधा शुक्ला। इस साल बी.ए. फाइनल का इम्तहान देंगी।”

बिसरिया ने बिना आँखें उठाये ही हाथ जोड़ लिये। सुधा ने हाथ जोड़े फिर बहुत सकुचा-सी गयी। चन्दर उठा और बिसरिया को लाकर उसने अन्दर बिठा दिया। बिसरिया के सामने सुधा और उसकी बगल में चन्दर।

चुप। सभी चुप।

अन्त में चन्दर बोला-”लो, तुम्हारे मास्टर साहब आ गये। अब बताओ न, तुम्हें क्या-क्या पढऩा है?”

सुधा चुप। बिसरिया कभी यह पुस्तक उलटता, कभी वह। थोड़ी देर बाद वह बोला-”आपके क्या विषय हैं?”

“जी!” बड़ी कोशिश से बोलते हुए सुधा ने कहा-”हिन्दी, इकनॉमिक्स और गृह-विज्ञान।” और उसके माथे पर पसीना झलक आया।

“आपको हिन्दी कौन पढ़ाता है?” बिसरिया ने किताब में ही निगाह गड़ाये हुए कहा।

सुधा ने चन्दर की ओर देखा और मुस्कराकर फिर मुँह झुका लिया।

“बोलो न तुम खुद, ये राजा गर्ल्स कॉलेज में हैं। शायद मिस पवार हिन्दी पढ़ाती हैं।” चन्दर ने कहा-”अच्छा, अब आप पढ़ाइए, मैं अपना काम करूँ।” चन्दर उठकर चल दिया। स्टडी रूम में मुश्किल से चन्दर दरवाजे तक पहुँचा होगा कि सुधा ने बिसरिया से कहा-

“जी, मैं पेन ले आऊँ!” और लपकती हुई चन्दर के पास पहुँची।

“ए सुनो, चन्दर!” चन्दर रुक गया और उसका कुरता पकडक़र छोटे बच्चों की तरह मचलते हुए सुधा बोली-”तुम चलकर बैठो तो हम पढ़ेंगे। ऐसे शरम लगती है।”

“जाओ, चलो! हर वक्त वही बचपना!” चन्दर ने डाँटकर कहा-”चलो, पढ़ो सीधे से। इतनी बड़ी हो गयी, अभी तक वही आदतें!”

सुधा चुपचाप मुँह लटकाकर खड़ी हो गयी और फिर धीरे-धीरे पढ़ने लग गयी। चन्दर स्डटी रूम में जाकर चार्ट बनाने लगा। डॉक्टर साहब अभी तक सो रहे थे। एक मक्खी उडक़र उनके गले पर बैठ गयी और उन्होंने बायें हाथ से मक्खी मारते हुए नींद में कहा-”मैं इस मामले में सरकार की नीति का विरोध करता हूँ।”

चन्दर ने चौंककर पीछे देखा। डॉक्टर साहब जग गये थे और जमुहाई ले रहे थे।

“जी, आपने मुझसे कुछ कहा?” चन्दर ने पूछा।

“नहीं, क्या मैंने कुछ कहा था? ओह! मैं सपना देख रहा था कै बज गये?”

“साढ़े पाँच।”

“अरे बिल्कुल शाम हो गयी!” डॉक्टर साहब ने बाहर देखकर कहा-”अब रहने दो कपूर, आज काफी काम किया है तुमने। चाय मँगवाओ। सुधा कहाँ है?”

“पढ़ रही है। आज से उसके मास्टर साहब आने लगे हैं।”

“अच्छा-अच्छा, जाओ उन्हें भी बुला लाओ, और चाय भी मँगवा लो। उसे भी बुला लो-सुधा को।”

चन्दर जब ड्राइंग रूम में पहुँचा तो देखा सुधा किताबें समेट रही है और बिसरिया जा चुका है। उसने सुधा से कहना चाहा लेकिन सुधा का मुँह देखते ही उसने अनुमान किया कि सुधा लड़ने के मूड में है, अत: वह स्वयं ही जाकर महराजिन से कह आया कि तीन प्याला चाय पढ़ने के कमरे में भेज दो। जब वह लौटने लगा तो खुद सुधा ही उसके रास्ते में खड़ी हो गयी और धमकी के स्वर में बोली-”अगर कल से साथ नहीं बैठोगे तुम, तो हम नहीं पढ़ेंगे।”

“हम साथ नहीं बैठ सकते, चाहे तुम पढ़ो या न पढ़ो।” चन्दर ने ठंडे स्वर में कहा और आगे बढ़ा।

“तो फिर हम नहीं पढ़ेंगे।” सुधा ने जोर से कहा।

“क्या बात है? क्यों लड़ रहे हो तुम लोग?” डॉ. शुक्ला अपने कमरे से बोले। चन्दर कमरे में जाकर बोला, “कुछ नहीं, ये कह रही हैं कि...”

“पहले हम कहेंगे,” बात काटकर सुधा बोली-”पापा, हमने इनसे कहा कि तुम पढ़ाते वक्त बैठा करो, हमें बहुत शरम लगती है, ये कहते हैं पढ़ो चाहे न पढ़ो, हम नहीं बैठेंगे।”

“अच्छा-अच्छा, जाओ चाय लाओ।”

जब सुधा चाय लाने गयी तो डॉक्टर साहब बोले-”कोई विश्वासपात्र लड़का है? अपने घर की लड़की समझकर सुधा को सौंपना पढ़ने के लिए। सुधा अब बच्ची नहीं है।”

“हाँ-हाँ, अरे यह भी कोई कहने की बात है!”

“हाँ, वैसे अभी तक सुधा तुम्हारी ही निगहबानी में रही है। तुम खुद ही अपनी जिम्मेवारी समझते हो। लड़का हिन्दी में एम.ए. है?”

“हाँ, एम.ए. कर रहा है।”

“अच्छा है, तब तो बिनती आ रही है, उसे भी पढ़ा देगा।”

सुधा चाय लेकर आ गयी थी।

“पापा, तुम लखनऊ कब जाओगे?”

“शुक्रवार को, क्यों?”

“और ये भी जाएँगे?”

“हाँ।”

“और हम अकेले रहेंगे?”

“क्यों, महराजिन यहीं सोएगी और अगले सोमवार को हम लौट आएँगे।”

डॉ. शुक्ला ने चाय का प्याला मुँह से लगाते हुए कहा।

एक गमकदे की शाम, मन उदास, तबीयत उचटी-सी, सितारों की रोशनी फीकी लग रही थी। मार्च की शुरुआत थी और फिर भी जाने शाम इतनी गरम थी, या सुधा को ही इतनी बेचैनी लग रही थी। पहले वह जाकर सामने के लॉन में बैठी लेकिन सामने के मौलसिरी के पेड़ में छोटी-छोटी गौरैयों ने मिलकर इतनी जोर से चहचहाना शुरू किया कि उसकी तबीयत घबरा उठी। वह इस वक्त एकान्त चाहती थी और सबसे बढ़कर सन्नाटा चाहती थी जहाँ कोई न बोले, कोई बात न करे, सभी खामोशी में डूबे हुए हों।

वह उठकर टहलने लगी और जब लगा कि पैरों में ताकत ही नहीं रही तो फिर लेट गयी, हरी-हरी घास पर। मंगलवार की शाम थी और अभी तक पापा नहीं आये थे। आना तो दूर, पापा या चन्दर के हाथ के एक पुरजे के लिए तरस गयी थी। किसी ने यह भी नहीं लिखा कि वे लोग कहाँ रह गये हैं, या कब तक आएँगे। किसी को भी सुधा का खयाल नहीं। शनिवार या इतवार को तो वह हर रोज खाना खाते वक्त रोयी, चाय पीना तो उसने उसी दिन से छोड़ दिया था और सोमवार को सुबह पापा नहीं आये तो वह इतना फूट-फूटकर रोयी कि महराजिन को सिंकती हुई रोटी छोड़कर चूल्हे की आँच निकालकर सुधा को समझाने आना पड़ा। और सुधा की रुलाई देखकर तो महराजिन के हाथ-पाँव ढीले हो गये थे। उसकी सारी डाँट हवा हो गयी थी और वह सुधा का मुँह-ही-मुँह देखती थी। कल से कॉलेज भी नहीं गयी थी। और दोनों दिन इन्तजार करती रही कि कहीं दोपहर को पापा न आ जाएँ। गेसू से भी दो दिन से मुलाकात नहीं हुई थी।

लेकिन मंगल को दोपहर तक जब कोई खबर न आयी तो उसकी घबराहट बेकाबू हो गयी। इस वक्त उसने बिसरिया से कोई भी बात नहीं की। आधा घंटा पढऩे के बाद उसने कहा कि उसके सिर में दर्द हो रहा है और उसके बाद खूब रोयी, खूब रोयी। उसके बाद उठी, चाय पी, मुँह-हाथ धोया और सामने के लॉन में टहलने लगी। और फिर लेट गयी हरी-हरी घास पर।

बड़ी ही उदास शाम थी। और क्षितिज की लाली के होठ भी स्याह पड़ गये थे। बादल साँस रोके पड़े थे और खामोश सितारे टिमटिमा रहे थे। बगुलों की धुँधली-धुँधली कतारें पर मारती हुई गुजर रही थीं। सुधा ने एक लम्बी साँस लेकर सोचा कि अगर वह चिडिय़ा होती तो एक क्षण में उडक़र जहाँ चाहती वहाँ की खबर ले आती। पापा इस वक्त घूमने गये होंगे। चन्दर अपने दोस्तों की टोली में बैठा रँगरेलियाँ कर रहा होगा। वहाँ भी दोस्त बना ही लिये होंगे उसने। बड़ा बातूनी है चन्दर और बड़ा मीठे स्वभाव का। आज तक किसी से सुधा ने उसकी बुराई नहीं सुनी। सभी उसको प्यार करते थे। यहाँ तक कि महराजिन, जो सुधा को हमेशा डाँटती रहती थी, चन्दर का हमेशा पक्ष लेती थी। और सुधा हरेक से पूछ लेती थी कि चन्दर के बारे में उसकी क्या राय है? लेकिन सब लोग जितनी चन्दर की तारीफ करते वह उतना अच्छा उसे नहीं समझती थी। आदमी की परख तब होती है जब दिन-रात बरते। चन्दर उसका ऊन कभी नहीं लाकर देता था, बादामी रंग का रेशम मँगाओ तो केसरिया रंग का ला देता था। इतने नक्शे बनाता रहता था, और सुधा ने हमेशा उससे कहा कि मेजपोश की कोई डिजाइन बना दो तो उसने कभी नहीं बनायी। एक बार सुधा ने बहुत अच्छी वायल कानपुर से मँगवायी और चन्दर ने कहा, “लाओ, यह बहुत अच्छी है, इस पर हम किनारे की डिजाइन बना देंगे।” और उसके बाद उसने उसमें तमाम पान-जैसा जाने क्या बना दिया और जब सुधा ने पूछा, “यह क्या है?” तो बोला, “लंका का नक्शा है।” जब सुधा बिगड़ी तो बोला, “लड़़कियों के हृदय में रावण से मेघनाद तक करोड़ों राक्षसों का वास होता है, इसलिए उनकी पोशाक में लंका का नक्शा ज्यादा सुशोभित होता है।” मारे गुस्से के सुधा ने वह धोती अपनी मालिन को दे डाली थी। यह सब बातें तो किसी को मालूम नहीं। उनके सामने तो जरा-सा कपूर साहब हँस दिये, चार मजाक की बातें कर दीं, छोटे-मोटे उनके काम कर दिये, मीठी बातें कर लीं और सब समझे कपूर साहब तो बिल्कुल गुलाब के फूल हैं। लेकिन कपूर साहब एक तीखे काँटे हैं जो दिन-रात सुधा के मन में चुभते रहते हैं, यह तो दुनिया को नहीं मालूम। दुनिया क्या जाने कि सुधा कितनी परेशानी रहती है चन्दर की आदतों से! अगर दुनिया को मालूम हो जाए तो कोई चन्दर की जरा भी तारीफ न करे, सब सुधा को ही ज्यादा अच्छा कहें, लेकिन सुधा कभी किसी से कुछ नहीं कहती, मगर आज उसका मन हो रहा था कि किसी से चन्दर की जी भरकर बुराई कर ले तो उसका मन बहुत हल्का हो जाए।