गोडसे@गांधी.कॉम / सीन 10 / असगर वज़ाहत

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(मंच पर अँधेरा है।)

उद्घोषणा : 'प्रयोग आश्रम में सुलगाई गई चिंगारी ने आसपास के 25 गाँवों को अपनी आग में समेट लिया। पहली बार लोगों ने अपने को पहचाना... पहली बार अपनी ताकत पर विश्‍वास किया... पहली बार अपने लिए लक्ष्य बनाए और उन्‍हें पूरा किया... पहली बार किसी दूसरी व्‍यवस्‍था से सुरक्षा, न्‍याय और सहायता की माँग नहीं की... ये कोई छोटी बात नहीं थी... गाँवों के पटवारियों, चौकीदारों से होती-हवाती यह बात जिले और कमिश्‍नरी और राज्‍य सरकार से होती सीधे दिल्‍ली पहुँची और स्‍वतंत्र भारत की राजधानी में इस पर विचार हुआ कि देश में एक ऐसा हिस्‍सा है जो सरकार से कुछ नहीं माँगता। और यह बहुत ही खतरनाक माना गया। संविधान का हवाला देते हुए दिल्‍ली से जो चिट्ठि‍याँ गांधी के पास पहुँची उसके जवाब में गांधी ने लिखा कि यहाँ स्‍वराज है... जो यहाँ के लोगों ने खुद बनाया है।'

(उद्घोषणा समाप्‍त होती है। मंच पर रोशनी आती है। गांधी चरखा कात रहे हैं। उनकी प्रेस कान्‍फ्रेंस हो रही है।)

रिपोर्टर-1 : महात्‍मा क्‍या आप नहीं मानते कि जो आप कर रहे हैं, वो देशद्रोह है? गांधी : लोग कभी अपने देश में विद्रोह नहीं करते।

रिपोर्टर-2 : आप देश के कानून को क्‍यों नहीं मान रहे हैं?

गांधी : कानून लोगों के लिए होता है, लोग कानून के लिए नहीं होते।

रिपोर्टर-3 : क्‍या आपका ये कहना हे कि कानून जनहित में नहीं है?

गांधी : जनता अपना हित अच्‍छी तरह समझती है। कानून अपना हित अच्‍छी तरह समझता है।

रिपोर्टर-4 : राजधानी में यह अफवाह है कि शायद, आपको गिरफ्तार कर लिया जाएगा... आपका क्‍या सोचना है?

गांधी : मैंने इस पर कभी न‍हीं सोचा... क्‍योंकि कभी किसी को गिरफ्तार किया ही नहीं जा सकता।

रिपोर्टर-1 : आपने कहा कि जल, जंगल, जमीन पर जनता का उतना ही अधिकार है, जितना अपनी जीभ पर है, इसका क्‍या मतलब है?

गांधी : हाँ... जैसे जीभ सबकी अपनी होती है... उस पर और किसी का अधिकार नहीं होता... वैसे ही जल, जंगल, जमीन पर भी लोगों का अधिकार है। इतना ही... सोचने की बात है ज्यादा-कम नहीं।

रिपोर्टर-1 : महात्मा जी कुल मिला कर आप कहना क्‍या चाहते हैं?

गांधी : मेरे कहने का निचोड़ यह है कि मनुष्‍य-जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीजें हैं, उस पर निजी काबू रहना ही चाहिए... अगर न रहे तो आदमी बच ही नहीं सकता... आखि‍र तो संसार आदमियों से ही बना है... बूँद न रहेगी तो समुद्र भी न रहेगा... धन्‍यवाद... आप लोग जा सकते हैं।

(रिपोर्टर चले जाते हैं।)

गांधी : प्‍यारेलाल, क्‍या तुमने इन सबको बताया है कि हालात कुछ कठिन हो गए हैं?

प्‍यारेलाल : नहीं... मैंने नहीं बताया... जब आप ही सबसे मिलना चाहते थे तो...

(मंच पर निर्मला, सुषमा और बावनदास आ जाते हैं।)

गांधी : (बात काट कर) ठीक है... देखो मुझे किसी भी वक्त गिरफ्तार किया जा सकता है।

निर्मला देवी : ऐं, क्‍या कह रहे हो बाबा, काहे को तुम्‍हें गिरफ्तार किया जाएगा... क्‍या तूने डाका मारा है या चोरी की है...

सुषमा : माँ तुम चुप रहो...

निर्मला देवी : लो, चुप क्‍यों रहूँ... इसे (गांधी को) गिरफ्तार करके कोई क्‍या पावेगा...

बावनदास : ये राजनीति है निर्मला जी... आप कुछ मत बोलो...

निर्मला देवी : तू जाने क्‍या कहता रहता है... तेरी बात तो मेरी समझ में आती न...

बावनदास : फिर आप हमें तू-तू कह कर बुलाते हो... हम कितनी बार कहा कि यह 'हिंसा' है?

निर्मला देवी : अरे चल हट, काहे की हिंसा है?

गांधी : (हाथ उठा कर चुप कराते हैं) ... मैं गिरफ्तार कर लिया जाऊँगा... तुम लोग आश्रम से चले जाना... मैं नहीं चाहता मेरे साथ तुम लोग भी जेल आओ।

सुषमा : ये कैसे हो सकता है बापू... आप जेल जाएँगे तो मैं भी जेल जाऊँगी...

निर्मला देवी : ले, तो मैं क्‍या करूँगी... मैं आज तक कभी जेल तो ना गई हूँ... पर जब बाबा जाएगा और तू जाएगी तो मैं भी जेल जाऊंगी।

बावनदास : हम तो कसम लिया है... सत-अहिंसा करेगा... बाबा के साथ रहेगा... हमको आपके साथ रहना है।

गांधी : ये तुमलोगों की मर्जी... जाओ...

(सब जाने लगते हैं। गांधी सुषमा को इशारे से रुकने के लिए कहते हैं। गांधी के पास अकेली सुषमा रह जाती है।)

गांधी : सुषमा... तू मुझसे नाराज तो नहीं है?

(सुषमा फूट-फूट कर रोने लगती है।)