गोडसे@गांधी.कॉम / सीन 11 / असगर वज़ाहत
(मंच पर अँधेरा है।)
उद् घोषणा : गांधी को जेल जाने की चिंता न थी... इसकी भी परवाह न थी कि 'प्रयोग आश्रम' उजाड़ दिया जाएगा... गांधी ने जीवन में ऐसा बहु कुछ देखा थ और वे इसके आदी थे... लेकिन सुषमा की आँखों में गांधी को जो भाव दिखाई पड़ते थे वे चिंता में डाल रहे थे...
(धीरे-धीरे मंच पर नीले रंग की रोशनी होती है। गांधी विस्तर पर लेटे सो रहे हैं। अचानक कोई बर्तन गिरने की आवाज आती है। गांधी उठ जाते हैं। देखते हैं सामने किसी औरत की छाया खड़ी है।)
गांधी : कौन?
कस्तूरबा : मुझे पहचानते भी नहीं।
गांधी : बा... तुम? इतने दिनों बाद... कैसे?
कस्तूरबा : जो जीवन में नहीं कह सकी... वह कहने आई हूँ।
गांधी : वह क्या है बा?
कस्तूरबा : तुमने मेरे साथ न्याय नहीं किया था।
गांधी : बा, ये तो मैं मानता हूँ... लिख भी चुका हूँ... तुमसे माफी भी माँग चुका हूँ।
कस्तूरबा : अगर मेरी बात छोड़ भी दो तो तुमने हर औरत को दुख दिया है... सताया है, जो तुम्हारे करीब आई है।
गांधी : (डर कर)... ये तुम क्या कह रही हो बा?
कसतूरबा : अपने आदर्शों और प्रयोगों की चक्की में तुमने हर औरत को पीसा है।
गांधी : मैं एक भागीरथी पयास कर रहा हूँ, तुम..
कस्तूरबा : (बात काट कर) ... प्रयोग में अपनी बलि दी जाती है, दूसरों की नहीं... तुमने कहाँ दी है अपनी बलि?
गांधी : तू आज भी उतनी ही जहरीली है जितनी थी।
कसतूरबा : न तुम बदले हो और न मैं बदली हूँ।
गांधी : मैं तुमसे अब भी डरता हूँ बा।
कस्तूरबा : जो तुम्हारे महात्मा होने से नहीं डरता, उससे तुम डरते हो।
गांधी : आज तू फिर काले नाग की तरह फुँफकार रही है... क्या बात है? तू आई क्यों है?
कस्तूरबा : बहुत सीधी बात करने आई हूँ... स्त्रियों को दुख देना बंद कर दो...
गांधी : मैं तुमसे माफी माँगता हूँ बा...
कस्तूरबा : (बात काट कर) ... मुझसे माफी माँग कर क्या होगा? तुम्हें माफी तो जयप्रकाश और प्रभादेवी नारायण से माँगनी चाहिए... कि तुमने उनके वैवाहिक जीवन का सत्यानाश कर दिया था... सुशीला से माफी माँगो... मीरा से माफी माँगो... जो मेरी सौतन बनी रही... हजारों अपमान झेले और पाया क्या? दूर क्यों जाते हो अपने बेटों से माफी गाँगो... देवदास और लक्ष्मी को तुमने कितना रुलाया है... और नाम बताऊँ? आभा और कनु.. मुन्ना लाल और कंचन...
गांधी : बस करो बा... बस... परमात्मा के लिए बंद करो ये सब... मैं अपनी आँखें और कान बंद कर रहा हूँ...
कस्तूरबा : दूसरों की आँखों से भी कभी कुछ देख लिया करो...।
गांधी : ...देखो, मेरे कुछ आदर्श हैं... मेरे सिद्धांत हैं... मेरे विश्वास हैं... मैं किसी को कभी कुछ करने या न करने पर मजबूर नहीं करता...
कस्तूरबा : सुषमा और नवीन के बीच में कौन है?... तुम इसलिए दीवार बने खड़े हो कि सुषमा तुम्हें भगवान मानती है। अपने माननेवालों के प्रति तुम्हारे मन में दया नहीं है।
गांधी : मैं किसी को पकड़ कर आश्रम में नहीं लाता... जो आता है, अपनी इच्छा से आता है... जब आ जाता है तो उसे यहाँ के नियमों का पालन करना पड़ता है... सुषमा चाहे तो... आश्रम छोड़ कर जा सकती है... नवीन से शादी कर सकती है...
कस्तूरबा : तुम जानते हो, सुषमा आश्रम छोड़ कर नहीं जा सकती है... और यही तुम्हारी ताकत है जिसका तुम प्रयोग करते हो... इसे तुम हिंसा नहीं कहोगे? मनोवैज्ञानिक हिंसा कह सकते हो, जिससे तुम दूसरों को मानसिक कष्ट देते हो... और वह भी उनको, जो तुम्हें 'भगवान' समझते हैं..
गांधी : तुम बा नहीं हो।
(मंच पर पूरा प्रकाश आता है। गांधी चारपाई से उठ जाते हैं। इधर-उधर देखते हैं, कोई नहीं है।)
गांधी : वह सब क्या था? बा, मेरी ही प्रतिछाया बन कर आई थी...
(बावनदास अंदर आता है।)
बावनदास : प्रार्थना के लिए तैयारी है...