गोडसे@गांधी.कॉम / सीन 16 / असगर वज़ाहत

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(मंच पर अँधेरा।)

उद् घोषणा : (गायन)

कागा सब तन खाइयो, चुन चुन खाइयो मास

दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस


इक्‍कीस साल की हँसती-बोलती सुषमा की आँखो के नीचे काले धब्‍बे पड़ गए, उसका चमकता हुआ रोशन चेहरा एक अजीब सी आग में झुलस गया, उसकी रंगत फीकी पड़ गई। उसके माथे पर लकीरों ने अपना घर बना लिया। वह सूख कर काँटा हो गई। उसका खाना-पीना, सोना-जागना भारी पड़ने लगा। आँखों में तैरता पानी पूरी कहानी सुनाने के लिए काफी था।

(मंच पर केवल सुषमा बैठी है उस पर प्रकाश प्रड़ता है। कई तरह के इफैक्‍ट अपना प्रभाव छोड़ते हैं।) ... अपनी बेटी की यह हालत निर्मला देवी से देखी न गई। जबकि वह गांधी के पास रोज दो गिलास दूध लेकर जाती थी और गांधी उसे देखते थे लेकिन देखे को भी अनदेखा कर देते थे। एक दिन निर्मला देवी का गुस्‍सा गांधी के हठ से टकरा ही गया।

(धीरे-धीरे प्रकाश आता है। गांधी प्रार्थना सभा में बैठे हैं। भजन गाया जा रहा है। प्‍यारेलाल, बावनदास और सुषमा के अलावा एक-दो दूसरे कैदी भी बैठे भजन गा रहे हैं। निर्मला देवी गुस्‍से में खड़ी है। न वह भजन गा रही है और न मंडली में बैठी है। भजन खत्‍म होता है।)

निर्मला देवी : महात्मा, आज मुझे तुमसे एक बात करना है... चाहे तो सबके सामने

करूँ... चाहे तो अकेले में करूँ।

गांधी : मैं किसी बात को निजी नहीं मानता... मेरा पूरा जीवन खुली किताब है जिसमें शूल भी है और फूल भी है... पर तू आज जो कहना चाहती है उसे साझा नहीं करना चाहता... (सब लोग मंच से चले जाते हैं।)... ताकि मेरे मन की बात सीधे मन तक पहुँचे।

निर्मला : देख महात्मा, मैं पढ़ी तो नहीं हँ... तू तो सात समंदर का पढ़ा कहा जावे हैं।

गांधी : तू अपनी बात कह।

निर्मला : वई तो है... मुझे तेरी तरह कहना ना आवे है... पर सुन, मेरी लौंडिया को कुछ हो गया ना तो मैं तुझे ना छोडूँगी...

गांधी : ये तू क्‍या कह रही है...

निर्मला : अब मेरी बात ना समझा तो किसकी समझेगा?

गांधी : तू चाहती क्‍या है?

निर्मला : देख मेरी बेटी को कुछ हो गया ना तो मैं तुझे ना छोडूँगी...

गांधी : अरे तो बात क्‍या है?

निर्मला : तू सब जाने है... अपना समझ ले... अब मैं जाती हूँ।

(निर्मला चली जाती है। गांधी सोच में डूब जाते हैं। प्‍यारेलाल आते हैं।)

गांधी : प्‍यारेलाल, नवीन को बुला लो।

प्‍यारेलाल : क्‍या बापू? नवीन को...

गांधी : हाँ... नवीन को...

प्‍यारेलाल : पर क्‍यों बापू?

गांधी : तुम... सुषमा की हालत देख रहे हो...

प्‍यारेलाल : लेकिन आपके सिद्धांत...

गांधी : प्‍यारेलाल... सिद्धांत जीवन को सुंदर बनाने के लिए होते हैं... कुरूप बनाने के लिए नहीं होते।

प्‍यारेलाल : ठीक है, तो उसे तार देता हूँ।

(प्‍यारेलाल उठ कर जाते हैं। गांधी टहलने लगते हैं। उनके चेहरे पर बेचैनी है। गोडसे अंदर आता है।)

गांधी : एक बात पूछूँ गोडसे...

गोडसे : हाँ... पूछो।

गांधी : प्रार्थना सभा में तुम क्‍यों नहीं बैठते?

गोडसे : सीधी-सी बात है... तुम्‍हारी प्रार्थना पर मेरी कोई आस्‍था नहीं है।

गांधी : श्रद्धा भी नहीं है?

गोडसे : नहीं... मैं हिंदू हूँ... और हिंदू धर्म के प्रति आस्‍था है।

गांधी : तुम मुझे हिंदू मानते हो?

गोडसे : (असहज हो कर)... हाँ मानता हूँ।

गांधी : प्‍यारेलाल को हिंदू मानते हो?

गोडसे : हाँ, मानता हूँ।

गांधी : बावनदास को हिंदू मानते हो?

गोडसे : हाँ... हाँ... क्‍यों?

गांधी : वार्ड के जमादार नत्‍थू को हिंदू मानते हो?

गोडसे : ये सब क्‍यों पूछ रहे हो?

गांधी : इसलिए कि अगर तुम इन सबको बराबर का हिंदू नहीं मानते तो तुम हिंदू नहीं हो... पहले तो तुमने देश को छोटा किया नाथूराम... अब हिंदुत्व को छोटा मत करो... हिंदू धर्म बहुत बड़ा, बहुत उदार और महान धर्म है गोडसे... उसे छोटा मत करो... दूसरे को उदार बनाने के लिए पहले खुद उदार बनना पड़ता है।

(बावनदास पीठ पर बड़ा-सा थैला लादे आता है। जिसमें गांधी की डाक है।)

बावनदास : चार ठो... बोरा और है... महात्‍मा जी और लेकर आता हूँ....

गांधी : बैठ जाओ बावनदास... बाकी चिट्ठि‍याँ कल ले आना... पाँच मन चिट्ठि‍याँ तो मैं एक दिन में पढ़ भी नही सकता...